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Channel: अंतरिक्ष –विज्ञान विश्व
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शनि के शाही वलय

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सभी गैस महाकाय ग्रहों के अपने वलय है लेकिन शनि के वलयों सबसे हटकर है, वे सबसे स्पष्ट, चमकदार, जटिल और शानदार वलय है। ये वलय इतने शाही और शानदार है किं शनि को सौर मंडल का आभूषण धारी ग्रह माना जाता है। खोज 1610 : गैलीलिओ गैलीली ने सर्वप्रथम शनि के वलयों को अपने…

KIC 8462852 : एलीयन सभ्यता ? एक बार फ़िर से चर्चा मे

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हमारे ब्रह्मांड मे ढेर सारी अबूझ पहेलीयाँ है, लेकिन पिछले कुछ समय से विश्व के खगोलशास्त्री एक अजीब सी उलझन में फंसे हुए हैं। इसकी वजह है एक अनोखा तारा। यह तारा काफी रहस्यमय है। इससे जुड़ी बातें इसे किसी भी अन्य ज्ञात तारे से अलग बनाती हैं। यह तारा 2015 के अंतिम महिनो मे…

एलियन या प्राकृतिक : अंतरिक्ष मे पायी गई विचित्र ध्वनियाँ और संकेत

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अंतरिक्ष मे एक खौफ़नाक सन्नाटा छाया रहता है क्योंकि ध्वनि अंतरिक्ष मे यात्रा नही कर पाती है लेकिन अंतरिक्ष शांत नही है। लगभग सभी अंतरिक्ष के पिंड ऐसे रेडीयो संकेतो का उत्सर्जन करते है जिन्हे मानव के कान सुन नही पाते है जिन्हे विशेष उपकरणो से ग्रहण किया जाता है। रेडीयो संकेतो की खोज के…

मानवता का दूत : 20 अरब किलोमीटर दूर जा चुका वायेजर क्या है?

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खोज करना मानव की फ़ितरत है। इसके लिए वो किसी भी हद तक जाने को तैयार होता है। तभी तो, मानव उस चीज़ को खोजने में जुटा हुआ है, जिसकी कोई हद नहीं। जिसका कोई ओर-छोर नहीं। पर, वो आख़िर क्या है जिसका कोई ओर-छोर नहीं और हम जिसकी खोज में जुटे हुए हैं। वो…

इनसाईट खगोल फोटोग्राफ़र पुरस्कार -2016(Insight Astronomy Photographer of the Year 2016)

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पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान पैदा हुए ‘बेली बीड’ प्रभाव की यह तस्वीर ली है, चीनी फ़ोटोग्राफ़र यु जन ने. उन्हें इस तस्वीर के लिए ‘सूर्य कैटेगरी’ के साथ ही पूरी प्रतियोगिता का पहला पुरस्कार मिला है.

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इस तस्वीर के बारे में डेमियन पिच का कहना है कि इस साल मार्च में वो शनि को निकलते हुए देखने के लिए सबसे सटीक जगह पर थे. इसमें शनि के अलग अलग रंगों को देखा जा सकता है.

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जॉर्डी डेल्पिक्स बॉरेल की इस तस्वीर में चंद्रमा की सतह को विस्तार से दिखाया है. उन्हें मून सेक्शन के लिए पहला पुरस्कार मिला. प्रतियोगिता के एक जज डॉक्टर कुकुला के मुताबिक यह तकनीकी तौर पर बेहतरीन तस्वीर है. यह चंद्रमा के उस भाग को दिखाता है, जो करोड़ों साल तक लगी चोटों का परिणाम है

2040

स्टीव ब्राउन ने हमारे आसमान में मौजूद सबसे बड़े तारे को कैमरे के लेंस की मदद से अलग अलग रंगों में बांटकर दिखाया है. इस तारे को डॉग स्टार भी कहते हैं.

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15 साल के ब्रेंडन डिवाइन को चांद की इस अनोखी तस्वीर के लिए युवा फ़ोटोग्राफर का इनाम मिला. उन्होंने चांद की 60 अलग अलग तस्वीरों को मिलाकर एक तस्वीर विकसित है. जजों का कहना था कि ब्रेंडन ने चांद को बिल्कुल नए रूप में पेश किया है.

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वहीं चंद्रमा की तस्वीर के लिए दूसरा पुरस्कार कैथरीन यंग को मिला है. उन्होंने चांद निकलने के दौरान यह तस्वीर ली है, जिसमें चांद धरती के वायुमंडल को चीरकर अपना केवल लाल रंग दिखा पा रहा है.

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गेराल्ड रेमान पुच्छल तारे की यह तस्वीर एक घंटे 20 मिनट तक इंतज़ार करने के बाद ले पाए थे.

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ऑरोरा(ध्रुविय ज्योति) कैटेगरी में दूसरा पुरस्कार कॉल्बिन स्वेन्सन को मिला है.

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जजों को आकाशगंगा की यह तस्वीर बेहद पसंद आई. इस तस्वीर को लेने वाले निकोलस ऑउटर्स ने बताया कि पीछे सारे तारों को दिखाते हुए, इस तस्वीर को खि़ंचना काफ़ी मुश्किल काम था.

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पॉवेल पेक को तारों की इस तस्वीर के लिए दूसरा पुरस्कार मिला है. उन्होंने यह तस्वीर चेक गणराज्य के सुमावा नेशनल पार्क में ली है.

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ऑरोरा कैटेगरी में जियॉर्जी को पहला पुरस्कार मिला है. यह तस्वीर उन्होंने नॉर्वे में एक पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान ली थी.

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विंग का हो का चित्र शहर की रोशनी, इसमे तारों के पथ को हांग कांग शहर की गगन चुंबी इमारतो के पीछे देख सकते है।

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मिको सिवोला ने फ़िनलैंड के आसमान की इन शांत तरंगों को अपने कैमरे में क़ैद किया है.

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सूर्य कैटेगरी का दूसरा विजेता इस तस्वीर को घोषित किया गया. ग्रहण के दौरान ही सूरज की यह तस्वीर ली है कैटलिन बेल्डिया ने और इसे तैयार किया है एल्सन वाँग ने.

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डैनी काश्येते तो अपनी इस तस्वीर में इंसान को चांद तक ले गए हैं.

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एंसली बेनट की इस तस्वीर में चंद्रमा, शुक्र, ब़हस्पति और मंगल सभी एक साथ दिख रहे हैं.

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इग्नैशियो डियाज़ बोबिलो ने पांच घंटे के एक्सपोज़र के बाद, टेलिस्कोप के सहारे यह तस्वीर ली है. एक हाई रिज़ॉल्युशन इमेज पाने के लिए उन्होंने कई तस्वीरों को एक साथ जोड़ा. उनके सॉफ्टवेयर ने इसमें क़रीब सवा लाख तारों की गिनती की.


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सौर मंडल के बाहर की सैर

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न्यु हारिजोंस(New Horizones) अंतरिक्षयान के प्लूटो अभियान की सफलता के साथ ही मानव ने सौर मंडल के मुख्य पिंडो की प्राथमिक यात्रा पूरी कर ली है। अब ब्रेकथ्रु स्टारशाट(Breakthrough Starshot) अभियान तथा एचबार टेक्नालाजीस(Hbar Technologies) जैसी कंपनीयों के द्वारा सौर मंडल के बाहर जाने वाले अंतरिक्षयानो के निर्माण का प्रारंभ हो गया है। ये यान स्वचालित, संवेदको से लैस होंगे और तारों के मध्य की दूरी मे एक पुल का कार्य करने मे सक्षम होंगे। अब समय है कि देखा जाये कि सौर मंडल के बाहर क्या है और सौर मंडल के बाहर पहले शोध अंतरिक्ष यान को भेजा जाये।

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प्रस्तावित अंतरिक्ष यान

ब्रेकथ्रु स्टारशाट(Breakthrough Starshot)

  • संभावित विकास और निर्माण काल – 20-30 वर्ष
  • अधिकतम संभावित गति – 0.2c (21.6 करोड किमी/घंटा)

एंटीमैटर शोधयान(Antimatter Probe)

  • संभावित विकास और निर्माण काल – 10-20 वर्ष
  • अधिकतम संभावित गति – 0.4c (43.2 करोड किमी/घंटा)

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बाह्य ऊर्ट बादल

बर्फ़ीले पिंडो और धूमकेतुओं का एक गोलाकार बादल जो सौर मंडल की बाह्य सीमा पर हर दिशा मे है।

यात्रा समय

  • प्रकाश पाल(Light Sail) 1.6 वर्ष
  • एंटी मैटर 9.2 माह

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प्राक्सीमा सेंटारी

सूर्य का निकटस्थ तारा तथा ग्रहो युक्त तीन तारो की प्रणाली।

यात्रा समय

  • प्रकाश पाल(Light Sail) 20.9 वर्ष
  • एंटी मैटर 10.5 वर्ष

अभियान लक्ष्य

  • प्राक्सीमा बी पर जीवन या जीवन के संकेतो की खोज
  • प्राक्सीमा के तीव्र एक्सरे ज्वालाओं(X ray flare) का अध्ययन

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अल्फा सेंटारी बी

अल्फा सेंटारी तारा प्रणाली का द्वितिय तथा छोटा तारा

यात्रा समय

  • प्रकाश पाल(Light Sail) 21.7 वर्ष
  • एंटी मैटर 10.8 वर्ष

अभियान लक्ष्य

  • अल्फा सेंटारी बी के निकटस्थ ग्रह के पास से गुजरना
  • जीवन के संकेतो का अध्ययन

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लुहमन 16(Luman 16)

L7 तथा T10 भूरे वामन तारों(Brown Dwarfs) का युग्म जिनके मध्य 3AU की दूरी है और एक दूसरे की परिक्रमा काल 25 वर्ष है।

यात्रा समय

  • प्रकाश पाल(Light Sail) 32 वर्ष
  • एंटी मैटर 16.2 वर्ष

अभियान लक्ष्य

 

  • सौर मंडल के निकटस्थ भूरे वामन(Brown Dwarf) का अध्ययन और उसके संभावित ग्रहो की खोज
  • लुहमन 16a पर उष्ण बादल, सिलिकेट चट्टान तथा पिघले लोहे की वर्षा का अध्ययन

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WISE 0855-0714

संभावित आवारा ग्रह(Rogue Planet) जिसका द्रव्यमान 3-10 बृहस्पति द्रव्यमान के तुल्य है।

यात्रा समय

  • प्रकाश पाल(Light Sail) 36 वर्ष
  • एंटी मैटर 18 वर्ष

अभियान लक्ष्य

  • यह तय करना कि WISE0855 किसी समय किसी सौर मंडल का भाग था और उससे छिटका हुआ ग्रह है।
  • इस पिंड के बर्फ़िले बादलो का अध्ययन तथा इस पर संभावित कार्बन रसायन तथा जैविक गतिविधियों के संकेतो का अध्ययन

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लुब्धक ब(Sirius B)

लुब्धक या व्याघ्र या सिरिअस तारा ज्ञात श्वेत वामन तारो मे सबसे अधिक द्रव्यमान का तारा है। यह सूर्य के सबसे निकट किसी सुपरनोवा का अवशेष है।

यात्रा समय

  • प्रकाश पाल(Light Sail) 43 वर्ष
  • एंटी मैटर 21 वर्ष

अभियान लक्ष्य

  • श्वेत वामन(White Dwarf) तारों की प्रकृति और गुणधर्मो का अध्ययन
  • सिरियस बी तारे के द्वारा Degenerate गैस के गुणधर्मो का अध्ययन

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एप्सिलान एरिडानी(Epsilon Eridani)

सूर्य के निकटस्थ निर्माणाधिन सौर मंडल, इसमे ग्रहों का निर्माण जारी है। इसमे भी आंतरिक क्षुद्रग्रह पट्टा है तथा बाह्य धुमकेतु क्षेत्र है। इसमे कई संभावित ग्रह/निर्माणाधीन ग्रह है।

यात्रा समय

  • प्रकाश पाल(Light Sail) 52 वर्ष
  • एंटी मैटर 26 वर्ष

अभियान लक्ष्य

  • एप्सिलान एरिडानी के अध्ययन से हमारे सौर मंडल के निर्माण प्रक्रिया को समझना
  • एप्सिलान एरिडानी बी ग्रह तथा अन्य संभावित निर्माणाधीन ग्रहो के चित्र को पृथ्वी पर भेजना

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टाउ सेटी(Tau Ceti)

सूर्य के निकटस्थ G श्रेणी का तारा जिसमे 5 ग्रहों की उपस्थिति के संकेत है, जिनका द्रव्यमान पृथ्वी के दोगुणे से छह गुणे तक है। इसमे मलबे की एक तश्तरी भी है जिसकी मात्रा सौर मंडल मे शेष मलबे से दस गुणा है।

यात्रा समय

  • प्रकाश पाल(Light Sail) 59 वर्ष
  • एंटी मैटर 29 वर्ष

अभियान लक्ष्य

  • टाउ सेटी ई का अध्ययन जोकि सबसे निकटस्थ जीवन की संभावना वाला ग्रह है।
  • जीवन के संकेतो की खोज

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कैप्टेयन का तारा(Kapteyn’s Star)

एक अत्याधिक प्राचीन न्यूनतम धातु मात्रा वाला वामन (Dwarf) जोकि 11 अरब वर्ष पुराना है। एक समय शायद यह महाकाय तारा समूह ओमेगा सेंटारी का भाग रहा होगा, जिसे मंदाकिनी आकाशगंगा द्वारा निगली गई आकाशगंगा का केंद्रिय भाग(Galactic Core) माना जाता है। इस तरह से यह सूर्य के सबसे निकट वाला किसी अन्य आकाशगंगा का तारा है।

यात्रा समय

  • प्रकाश पाल(Light Sail) 64 वर्ष
  • एंटी मैटर 32 वर्ष

अभियान लक्ष्य

  • कैप्टेयन के दो प्राचीन महाकाय पृथ्वी आकार के ग्रहों का अध्ययन
  • किसी लुप्त जीवन के संकेतो जैसे जीवाश्म (fossils) की खोज

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Wolf 1061

सूर्य के निकटस्थ बहु ग्रहीय प्रणाली मे से एक। इसके पास तीन ग्रह है जिनका द्रव्यमान पृथ्वी से 1.3 गुणा से 5 गुणा तक है।

यात्रा समय

  • प्रकाश पाल(Light Sail) 68.6 वर्ष
  • एंटी मैटर 34 वर्ष

अभियान लक्ष्य

  • Wolf 1061c महाकाय पृथ्वी आकार ग्रह का अध्ययन जोकि जीवन की संभावना वाले क्षेत्र (Habitable Zone)मे है।
  • लाल वामन तारे(Red Dwarf) का ग्रह के वातावरण तथा ग्रहीय विकास पर प्रभाव का अध्ययन

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वान मैनेन का तारा(Van Maanen’s Star)

सूर्य के सबसे समीप का एकाकी श्वेत वामन(White Dwarf) तारा

यात्रा समय

  • प्रकाश पाल(Light Sail) 69 वर्ष
  • एंटी मैटर 35 वर्ष

अभियान लक्ष्य

  • सूर्य के भविष्य के रूप मे अध्ययन
  • इस तारे के पास पायी गयी मलबे की तश्तरी(Debri Disc) का अध्ययन जोकि सौर मंडल के भविष्य के जैसे हो सकती है।

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डेल्टा पेवोनिस(Delta Pavonis)

6.5 से 7 अरब वर्ष प्राचीन तारा जोकि लाल दानव(Red giant) अवस्था प्राप्त होने की लंबी प्रक्रिया के आरंभिक चरण मे है। सूर्य इस अवस्था को दो अरब वर्ष बाद प्राप्त करेगा।

यात्रा समय

  • प्रकाश पाल(Light Sail) 99 वर्ष
  • एंटी मैटर 49 वर्ष

अभियान लक्ष्य

  • संभावित ग्रहों की खोज
  • इस तारे के अध्ययन से पृथ्वी के भविष्य का पूर्वानुमान। डेल्टा पावोनिस के बढ़ते तापमान से संभावित ग्रहों के वातावरण पर प्रभाव का अध्ययन

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फ़ामलहाट(Fomalhaut)

केवल 40 करोड़ वर्ष आयु का नवजात तारा। इसके पास ग्रहो का निर्माण करती तश्तरी(Disc) है और इसके पास कम से कम एक महाकाय ग्रह है।

यात्रा समय

  • प्रकाश पाल(Light Sail) 124 वर्ष
  • एंटी मैटर 62 वर्ष

अभियान लक्ष्य

  • फ़ामलहाट बी ग्रह के गुणो का अध्ययन
  • किसी विशाल नील तारे के पास ग्रह निर्माण प्रक्रिया का अध्ययन

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आर्कटुरस(Arcturus)

यह तारा 7 अरब वर्ष प्राचीन है और वर्तमान मे यह सूर्य की भविष्य मे होने वाली लाल दानव(red giant) अवस्था के जैसा है।

यात्रा समय

  • प्रकाश पाल(Light Sail) 179 वर्ष
  • एंटी मैटर 90 वर्ष

अभियान लक्ष्य

  • इस तारे के समीप से अध्ययन के द्वारा सूर्य के भविष्य को समझना
  • जीवन की संभावना के संकेतो का अध्ययन, यदि जीवन है तो उसका तारे की लाल दानव अवस्था की स्थिति मे जीवित रहने की क्षमता का अध्ययन

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ट्रैप्पिस्ट-1(TRAPPIST -1)

अत्यंत शीतल वामन तारा(ultra cool dwarf) जोकि बृहस्पति के आकार का है। इसके पृथ्वी के आकार के तीन ग्रह है जिन पर जीवन की संभावना है।

यात्रा समय

  • प्रकाश पाल(Light Sail) 196 वर्ष
  • एंटी मैटर 98 वर्ष

अभियान लक्ष्य

  • TRAPPIST -1b तथा TRAPPIST -1c के वातावरण का अध्ययन तथा जीवन के संकेतो की खोज
  • TRAPPIST -1 के ग्रहों पर मानव कालोनी बनाने की संभावना का अध्ययन

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कोपरनिकस प्रणाली(55 Cancri)

सर्वप्रथम ज्ञात ग्रहो वाली प्रणाली। कोपरनिकस प्रणाली मे एक सूर्य से कम तापमान वाला पीला प्राचीन तारा तथा पांच ग्रह है।

यात्रा समय

  • प्रकाश पाल(Light Sail) 198 वर्ष
  • एंटी मैटर 99 वर्ष

अभियान लक्ष्य

  • जेन्सन (55 Cnc e) ग्रह का अध्ययन जोकि कार्बन से बना हुआ है, इसे हीरा ग्रह भी कहते है क्योंकि यह एक ग्रह के आकार का हीरा है।
  • हैरीओट(55 Cnc f) ग्रह और उसके चंद्रमा पर जल के बादल तथा जीवन के संकेतो की खोज

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स्रोत

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पोस्टर

whole


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सौरबाह्य(EXOPLANET) ग्रहों की खोज का विज्ञान

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अगस्त 2016 तक 3000 से अधिक सौरबाह्य ग्रह खोजे जा चुकें है। इनमे से लगभग 100 ग्रहों को 2004 पश्चात चीली स्थित ला सिल्ला वेधशाला(La Silla) के हाई एक्युरेशी रेडियल वेलोसिटी प्लेनेट सर्चर(High Accuracy Radial Velocity Planet Searcher- HARPS) के द्वारा खोजा गया है। 2009 के पश्चात एक हजार से अधिक ग्रहों को नासा की केप्लर अंतरिक्ष वेधशाला के द्वारा खोजा गया है। इस लेख मे हम कई प्रकाश वर्ष दूर स्थित इन सौरबाह्य ग्रहों को खोजने मे आने वाली चुनौतियों तथा उन्हे खोजने की विभिन्न तकनीकीयों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।exoplanet01

सौरबाह्य(Exoplanet) क्या होते है?

सौरबाह्य ग्रह सूर्य के अतिरिक्त किसी अन्य तारे की परिक्रमा करने वाले ग्रह को कहा जाता है। इन खोजे गये सौरबाह्य ग्रहों मे सबसे छोटा ग्रह हमारे चंद्रमा से दुगुना द्रव्यमान वाला है जबकि सबसे विशाल बृहस्पति से 29 गुण द्रव्यमान वाला है।

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इनका वर्गीकरण कैसे होता है ?

सौरबाह्य ग्रहों को उनके द्रव्यमान के अनुसार वर्गिकृत किया जाता है। इनके छ: मुख्य वर्ग है :

लघु पृथ्वी(Sub Earth), पृथ्वी सदृश(Earth Like) , महा-पृथ्वी(Super Earth)
नेपच्युन सदृश(Neptune Like), बृहस्पति सदृश(Jupiter Like), महा-बृहस्पति(Super Jupiter)

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पृथ्वी सदृश कितने सौरबाह्य ग्रह है?

यदि एक तारे के पास एक ग्रह का औसत मानकर चले तथा कुछ तारों के पास एकाधिक ग्रह माने तब सूर्य के जैसे हर पांच तारों मे एक के पास पृथ्वी सदृश ग्रह है। मंदाकिनी आकाशगंगा मे 200 अरब तारे है, जिससे संभावना है कि हमारी ही आकाशगंगा मे लगभग 11 अरब पृथ्वी सदृश ग्रह होंगे।

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अब तक कितने सौर बाह्य ग्रह खोजे जा चुके है ?

  • 3,275 ग्रहों की पुष्टि
  • 2,416 ग्रहों के अपुष्ट प्रमाण

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इतने कम ग्रह क्यों खोजे गयें है?

सर्वप्रथम सौर बाह्य ग्रह की खोज अत्याधिक कठीन है। इस खोज मे तीन प्रमुख चुनौतियाँ है :

  1. ये ग्रह अपने मातृ तारे की प्रखर दीप्ति मे खो जाते है।
  2. इन ग्रहों का अपना प्रकाश नही होता है जिससे वे अपने मातृ तारे से लाखो गुणा धुंधले होते है।
  3. ये अत्याधिक दूरी पर स्थित है। इनमे से सबसे निकट का खोजा गया ग्रह प्रोक्सीमा बी भी हमसे 4.3 प्रकाश वर्ष की दूरी पर है। अन्य सभी इससे अधिक दूरी पर स्थित है।

दूसरे इन सौर बाह्य ग्रहों की खोज की तकनीक हाल-फ़िलहाल मे ही विकसीत की गई है। उन्नत निरीक्षण तकनीक तथा उन्नत उपकरण जैसे HARP तथा केप्लर वेधशाला के द्वारा इन ग्रहों की खोज तथा पुष्टि का इतिहास केवल 10-12 वर्ष पुराना है।

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सर्वप्रथम खोजा गया सौर बाह्य ग्रह कौनसा था?

सर्वप्रथम सौर बाह्य ग्रह 1988 कनाडा के खगोल वैज्ञानिकों ब्रुस कैम्पबेल(Bruce Campbell), जी ए एच वाकर (G. A. H. Walker)तथा स्टीफन यंग(Stephan Yang) मे गामा सेफई(Gamma Cephei) की परिक्रमा करता ग्रह खोजा था। ये वैज्ञानिक विक्टोरीया विश्वविद्यालय तथा कोंलंबिया विश्वविद्यालय से संबधित थे। लेकिन इस ग्रह की पुष्टि 2003 मे ही हो पायी थी।

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सौर बाह्य ग्रहों की खोज कैसे होती है ?

सौर बाह्य ग्रहों की खोज की दो विधियाँ है, प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष। किसी सौरबाह्य ग्रह की खोज की प्रत्यक्ष विधी मे उस ग्रह का सीधे सीधे चित्र लिया जाता है, इसके द्वारा अत्याधिक द्रव्यमान वाले ग्रह तथा अपने मातृ तारे से अधिक दूरी वाले ग्रहों की खोज हो पाती है। सामान्यत: ये ग्रह गैस महाकाय ग्रह होते है जोकि अत्याधिक उष्ण और तीव्र अवरक्त विकिरण का उत्सर्जन करते है, इस विकिरण को विशेष रूप से बनाये गये सीधे चित्र लेनेवाले उपकरणो द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है। लेकिन अब तक खोजे गये ग्रहों मे से अधिकांश को अप्रत्यक्ष विधि से खोजा गया है।

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ये अप्रत्यक्ष विधियाँ कौनसी है ?

कोणिय गति(Radial Velocity)

इस विधि मे अत्याधिक संवेदनशील स्पेक्ट्रोग्राफ का प्रयोग होता है जो कि तारे के प्रकाश वर्णक्रम(Spectrum)मे इस तारे की परिक्रमा करते छोटे ग्रह के गुरुत्वाकर्षण से उत्पन्न विचलन को पकड़ लेता है। यदि यह तारा निरीक्षक की ओर गति कर रहा है तो वर्णक्रम नीले रंग की ओर विस्थापित होगा, यदि निरीक्षक से दूर जा रहा है तो वर्णक्रम लाल रंग की ओर विस्थापित होगा। खगोल वैज्ञानिक इस तारे के वर्णक्रम मे एक निश्चित अवधि मे होने वाले लाल, नीले और वापस वास्तविक वर्णक्रम को पाने का प्रयास करते है। यदि किसी तारे के वर्णक्रम इस तरह का सावधिक विचलन (लाल, नीले , मूल वर्णक्रम) पाया जाता है तो यह उस तारे की परिक्रमा करते किसी अन्य पिंड की उपस्थिति का संकेत होता है। यदि इस विचलन की मात्रा अधिक ना हो तो वह पिंड कोई ग्रह ही हो सकता है।

गुण

सौरबाह्य ग्रह की खोज मे सर्वाधिक प्रयोग की जाने वाली विधि। पृथ्वी से 100 प्रकाशवर्ष की दूरी तक के तारों के ग्रहों की खोज मे सहायक

कठीनाईयाँ

ग्रह के द्रव्यमान की गणना सटिक रूप से नही की जा सकती है; खोजा गया पिंड ग्रह ना होकर कम द्रव्यमान वाला तारा भी हो सकता है।

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संक्रमण विधि(Transit Photometry)

जब कोई अपने मातृ तारे के सामने से गुजरता है तो वह अपने मातृ तारे के प्रकाश को किंचित रूप से मंद करता है। तारे तथा पृथ्वी के मध्य से ग्रह के गुजरने को संक्रमण(Transit) कहा जाता है। तारे के प्रकाश मे यदि एक नियत अंतराल पर कमी आती है तो यह किसी ग्रह के द्वारा नियत अंतराल पर तारे के सामने से गुजरने का संकेत होता है। प्रकाश मे आने वाली कमी की मात्रा से ग्रह के आकार का भी पता लगाया जा सकता है, एक छोटा ग्रह तारे के प्रकाश मे किसी बड़े ग्रह की तुलना मे अपेक्षाकृत रूप से कम मंदी लाता है।

गुण

किसी सौर बाह्य ग्रह की खोज की सबसे संवेदनशील विधि; विशेषत: केप्लर अंतरिक्ष वेधशाला जैसे उपकरणो के लिये यह सर्वोत्त्म विधि है। इस वेधशाला ने अबतक इस विधि से हजारो सौर बाह्य ग्रह खोजे है। इस विधि के द्वारा सौर बाह्य ग्रह के वातावरण मे विभिन्न गैसो की उपस्थिति और मात्रा को भी ज्ञात किया जा सकता है। सैकड़ो प्रकाशवर्ष की दूरी पर तारों के ग्रहों की खोज के लिये बेहतरीन विधि।

कठिनाईयाँ

इस विधि से ग्रह की खोज मे निरीक्षण काल मे संक्रमण होना चाहिये। दो संक्रमणो के मध्य अंतराल उस ग्रह के अपनी कक्षा मे परिक्रमा काल के अनुसार महिनो से लेकर वर्षो तक हो सकता है तथा संक्रमण कुछ घंटो से लेकर कुछ दिनो तक का हो सकता है। इस विधि मे खगोल वैज्ञानिको को एक नही, एकाधिक संक्रमण का एक नियमित अंतराल मे निरीक्षण करना होता है।

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गुरुत्विय माइक्रोलेंसींग(Gravitational Microlensing)

गुरुत्विय माइक्रोलेंसींग किसी तारे के प्रकाश द्वारा किसी अन्य तारे के अत्याधिक समीप से गुजरने से उत्पन्न खगोलिय प्रभाव है। इस प्रभाव मे मध्य का तारा अपने गुरुत्वाकर्षण द्वारा किसी लेंस के जैसे अपने पीछे के तारे के प्रकाश को आवर्धित करता है जिससे उसका प्रकाश किसी दीप्तिवान तश्तरी के जैसे दिखाई देता है। यह एक सामान्य माइक्रोलेंसीग प्रभाव है जो मध्य के लेंस तारे के समीप परिक्रमा करते किसी ग्रह के कारण प्रभावित होता है क्योंकि उस ग्रह का गुरुत्वाकर्षण भी इस प्रकाश को परिवर्तित कर देता है। पृथ्वी पर से निरिक्षण करते समय किसी ग्रह द्वारा उत्पन्न यह प्रभाव तत्कालिक रूप से प्रकाश मे बढोत्तरी के रूप मे दिखाई देता है, यह बढोत्तरी कुछ घंटो से लेकर कुछ दिनो तक हो सकती है। सामान्य माइक्रोलेंसींग प्रभाव और ग्रह की उपस्थिति द्वारा प्रभावित माइक्रोलेंसीग हुये प्रकाश मे बढोत्तरी की तुलना कर किसी ग्रह की उपस्थिति का पता लगाया जाता है।

गुण

इस विधि मे अत्याधिक चकित करने वाली दूरी पर भी ग्रह खोजे का सकते है। जनवरी 2006 मे हमारी आकाशगंगा के केंद्र के समीप 22,000 प्रकाशवर्ष की दूरी पर इस विधि से एक ग्रह खोजा गया था। इस विधि से ग्रह का द्रव्यमान तथा परिक्रमा काल भी ज्ञात किया जा सकता है। एक साथ हजारो ग्रहों को लक्ष्य कर, उस क्षेत्र मे एक भी माइक्रोलेंसीग घटना होने पर उसे देखा जा सकता है और ग्रह को खोजा जा सकता है।

कठिनाई

कठिन तथा अनुमान लगाना मुश्किल। इस विधि से निरीक्षित ग्रह को इस विधि से दोबारा जांचना लगभग असंभव क्योंकि किसी तारे का पृथ्वी की सीध मे किसी अन्य तारे के सामने से गुजरना एक दूर्लभ और आकस्मिक घटना होती है, जिसका दोहराव लगभग असंभव होता है। 2006 मे खोजा गया ग्रह इस विधि से खोजा गया केवल तीसरा ग्रह है।

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आस्ट्रोमेटरी(Astrometry)

इस विधि मे किसी तारे की आकाश मे स्थिति को अत्याधिक सटिक रूप से मापा जाता है। खगोलवैज्ञानिक तारे की स्थिति मे लघु लेकिन नियमित डगमगाहट को मापते है। यदि उन्हे एक नियमित अंतराल मे डगमगाहट मिलती है तो यह किसी परिक्रमा करते ग्रह की उपस्थिति के सशक्त संकेत होते है।

गुण

सबसे संवेदनशील तथा सबसे पुरानी विधियों मे से एक। इस विधि मे सौर बाह्य ग्रह , उसके तारे तथा पृथ्वी एक रेखा मे रहने की आवश्यकता नही होती है जिससे इस विधि को अधिक संख्या मे तारो पर प्रयोग किया जा सकता है। इस विधि से ग्रह के द्रव्यमान की सटिक गणना की जा सकती है।

कठिनाई

इस विधि के प्रयोग के लिये अत्याधिक सटिक मापन की आवश्यकता होती है जो विशाल तथा अत्याधुनिक दूरबीनो से ही किया जा सकता है। इस विधि का प्रयोग पिछले 50 वर्षो से किया जा रहा है लेकिन इस विधि से पहली सफ़लता 2009 मे ही मिल पायी थी।

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कक्षीय दीप्ति(Orbital Brightness)

किसी तारे के प्रकाश की पृथ्वी तक पहंचने वाली मात्रा मे किसी ग्रह की परिक्रमा के फलस्वरूप कमी की बजाय बढोत्तरी हो सकती है। यह स्थिति ग्रह के अपने मातृ तारे के अत्याधिक निकट से परिक्रमा करने के कारण तारे के प्रकाश द्वारा ग्रह को गर्म करने से उत्पन्न उष्मीय विकिरण से आ सकती है। इस विकिरण को तारे के विकिरण से अलग करके देखा नही जा सकता लेकिन दूरबीने तारे के प्रकाश मे एक नियमित अंतराल मे प्रकाश मे बढोत्तरी के निरीक्षण से किसी ग्रह की उपस्थिति की खोज कर सकती है।

गुण

संक्रमण विधि के जैसे ही किसी तारे के निकट परिक्रमा कर रहे विशाल ग्रह की खोज के लिये उपयोगी लेकिन इस विधि मे तारा, ग्रह और पृथ्वी के एक रेखा मे होने की आवश्यकता नही है।

कठीनाई

इस विधि से बहुत कम ग्रह खोजे गये है।

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पोस्टर

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भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO)

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indian_space_research_organisation_logo-svgभारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) भारत का राष्ट्रीय अंतरिक्ष संस्थान है जिसका मुख्यालय कर्नाटक प्रान्त की राजधानी बेंगालुरू में है। संस्थान में लगभग सत्रह हजार कर्मचारी एवं वैज्ञानिक कार्यरत हैं। संस्थान का मुख्य कार्य भारत के लिये अंतरिक्ष संबधी तकनीक उपलब्ध करवाना है। अन्तरिक्ष कार्यक्रम के मुख्य उद्देश्यों मेंउपग्रहों, प्रमोचक यानों, परिज्ञापी राकेटों और भू-प्रणालियों का विकास शामिल है।

इसरो के वर्तमान निदेशक ए एस किरण कुमार हैं।

आज भारत न सिर्फ अपने अंतरिक्ष संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम है बल्कि दुनिया के बहुत से देशों को अपनी अंतरिक्ष क्षमता से व्यापारिक और अन्य स्तरों पर सहयोग कर रहा है। इसरो वर्तमान में ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पी.एस.एल.वी.) एवं भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान (जी.एस.एल.वी.) की सहायता से क्रमश: कृत्रिम एवं भू-स्थायी कृत्रिम उपग्रह प्रक्षेपित करता है।

इसरो को शांति, निरस्त्रीकरण और विकास के लिए साल 2014 के इंदिरा गांधी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

मंगलयान के सफल प्रक्षेपण के लगभग एक वर्ष बाद इसने 29 सितंबर 2015 को एस्ट्रोसैट के रूप में भारत की पहली अंतरिक्ष वेधशाला स्थापित किया। जून 2016 तक इसरो लगभग 20 अलग-अलग देशों के 57 उपग्रहों को लॉन्च कर चुका है, और इसके द्वारा उसने अब तक 10 करोड़ अमेरिकी डॉलर कमाए हैं।

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान का इतिहास

भारत का अंतरिक्षीय अनुभव बहुत पुराना है, जब रॉकेट को आतिशबाजी के रूप में पहली बार प्रयोग में लाया गया, जो की पडौसी देश चीन का तकनीकी आविष्कार था और तब दोनों देशों में रेशम मार्ग से विचारों एवं वस्तुओं का आदान प्रदान हुआ करता था। जब टीपू सुल्तान द्वारा मैसूर युद्ध में अंग्रेजों को खधेडने में रॉकेट के प्रयोग को देखकर विलियम कंग्रीव प्रभावित हुआ, तो उसने 1805 में कंग्रीव रॉकेट का आविष्कार किया, जो की आज के आधुनिक तोपखानों की देन माना जाता है। 1947 में अंग्रेजों की बेडियों से मुक्त होने के बाद, भारतीय वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ भारत की रॉकेट तकनीक के सुरक्षा क्षेत्र में उपयोग, एवं अनुसंधान एवं विकास की संभाव्यता की वजह से विख्यात हुए। भारत जनसांख्यिकीय दृष्टि से विशाल होने की वजह से, दूरसंचार के क्षेत्र में कृत्रिम उपग्रहों की प्रार्थमिक संभाव्यता को देखते हुए, भारत में अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की स्थापना की गई।

1960-1970

sarabhai, विक्रम साराभाई

विक्रम साराभाई

भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम डॉ विक्रम साराभाई की संकल्पना है, जिन्हें भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम का जनक कहा गया है। वे वैज्ञानिक कल्पना एवं राष्ट्र-नायक के रूप में जाने गए। 1957 में स्पूतनिक के प्रक्षेपण के बाद, उन्होंने कृत्रिम उपग्रहों की उपयोगिता को भांपा
। भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू, जिन्होंने भारत के भविष्य में वैज्ञानिक विकास को अहम् भाग माना, 1962 में अंतरिक्ष अनुसंधान को परमाणु ऊर्जा विभाग की देखरेख में रखा। परमाणु उर्जा विभाग के निदेशक होमी भाभा, जो कि भारतीय परमाणु कार्यक्रम के जनक माने जाते हैं,1962 में अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए भारतीय राष्ट्रीय समिति (इनकोस्पार) का गठन किया, जिसमें डॉ॰ साराभाई को सभापति के रूप में नियुक्त किया

जापान और यूरोप को छोड़कर, हर मुख्य अंतरिक्ष कार्यक्रम कि तरह, भारत ने अपने विदित सैनिक प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम को सक्षम कराने में लगाने के बजाय, कृत्रिम उपग्रहों को प्रक्षेपण में समर्थ बनाने के उद्धेश्य हेतु किया। 1962 में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की स्थापना के साथ ही, इसने अनुसंधित रॉकेट का प्रक्षेपण शुरू कर दिया, जिसमें भूमध्य रेखा की समीपता वरदान साबित हुई। ये सभी नव-स्थापित थुंबा भू-मध्यीय रॉकेट अनुसंधान केन्द्र से प्रक्षेपित किए गए, जो कि दक्षिण केरल में तिरुवंतपुरम के समीप स्थित है। शुरुआत में, अमेरिका एवं फ्रांस के अनुसंधित रॉकेट क्रमश: नाइक अपाचे एवं केंटोर की तरह, उपरी दबाव का अध्ययन करने के लिए प्रक्षेपित किए गए, जब तक कि प्रशांत महासागर में पोत-आधारित अनुसंधित रॉकेट से अध्ययन शुरू न हुआ। ये इंग्लैंड और रूस की तर्ज पर बनाये गये। फिर भी पहले दिन से ही, अंतरिक्ष कार्यक्रम की विकासशील देशी तकनीक की उच्च महत्वाकांक्षा थी और इसके चलते भारत ने ठोस इंधन का प्रयोग करके अपने अनुसंधित रॉकेट का निर्माण शुरू कर दिया, जिसे रोहिणी की संज्ञा दी गई।

भारत अंतरिक्ष कार्यक्रम ने देशी तकनीक की आवश्यकता, एवं कच्चे माल एवं तकनीक आपूर्ति में भावी अस्थिरता की संभावना को भांपते हुए, प्रत्येक माल आपूर्ति मार्ग, प्रक्रिया एवं तकनीक को अपने अधिकार में लाने का प्रयत्न किया। जैसे जैसे भारतीय रोहिणी कार्यक्रम ने और अधिक संकुल एवं वृहताकार रोकेट का प्रक्षेपण जारी रखा, अंतरिक्ष कार्यक्रम बढ़ता चला गया और इसे परमाणु उर्जा विभाग से विभाजित कर, अपना अलग ही सरकारी विभाग दे दिया गया। परमाणु उर्जा विभाग के अंतर्गत इन्कोस्पार कार्यक्रम से 1969 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन का गठन किया गया, जो कि प्रारम्भ में अंतरिक्ष मिशन के अंतर्गत कार्यरत था और परिणामस्वरूप जून, 1972 में, अंतरिक्ष विभाग की स्थापना की गई।

कल : साइकल पर राकेट लेजाते इसरो के वैज्ञानिक, बैलगाड़ी पर एप्पल उपग्रह ढोते इसरो के वैज्ञानिक आज : इसरो का राकेट लेजाने वाला वाहन PSLV के साथ

कल : साइकल पर राकेट लेजाते इसरो के वैज्ञानिक, बैलगाड़ी पर एप्पल उपग्रह ढोते इसरो के वैज्ञानिक
आज : इसरो का राकेट लेजाने वाला वाहन PSLV के साथ

1970-1980

भारत के वाहक-राकेट : बायें से दायें - एसएलवी, एएसएलवी, पीएसएलवी, जीएसएलवी, जीएसएलवी मार्क III

भारत के वाहक-राकेट : बायें से दायें – एसएलवी, एएसएलवी, पीएसएलवी, जीएसएलवी, जीएसएलवी मार्क III

1960 के दशक में डॉ॰ साराभाई ने टेलीविजन के सीधे प्रसारण के जैसे बहुल अनुप्रयोगों के लिए प्रयोग में लाये जाने वाले कृत्रिम उपग्रहों की सम्भव्यता के सन्दर्भ में
नासा के साथ प्रारंभिक अध्ययन में हिस्सा लिया और अध्ययन से यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि, प्रसारण के लिए यही सबसे सस्ता और सरल साधन है। शुरुआत से ही, उपग्रहों को भारत में लाने के फायदों को ध्यान में रखकर, साराभाई और इसरो ने मिलकर एक स्वतंत्र प्रक्षेपण वाहन का निर्माण किया, जो कि कृत्रिम उपग्रहों को कक्ष में स्थापित करने, एवं भविष्य में वृहत प्रक्षेपण वाहनों में निर्माण के लिए आवश्यक अभ्यास उपलब्ध कराने में सक्षम था। रोहिणी श्रेणी के साथ ठोस मोटर बनाने में भारत की क्षमता को परखते हुए, अन्य देशो ने भी समांतर कार्यक्रमों के लिए ठोस रॉकेट का उपयोग बेहतर समझा और इसरो ने

कृत्रिम उपग्रह प्रक्षेपण वाहन (एस.एल.वी.) की आधारभूत संरचना एवं तकनीक का निर्माण प्रारम्भ कर दिया। अमेरिका के स्काउट रॉकेट से प्रभावित होकर, वाहन को चतुर्स्तरीय ठोस वाहन का रूप दिया गया।

इस दौरान, भारत ने भविष्य में संचार की आवश्यकता एवं दूरसंचार का पूर्वानुमान लगते हुए, उपग्रह के लिए तकनीक का विकास प्रारम्भ कर दिया। भारत की अंतरिक्ष में प्रथम यात्रा 1975 में रूस के सहयोग से इसके कृत्रिम उपग्रह आर्यभट्ट के प्रक्षेपण से शुरू हुयी। 1979 तक, नव-स्थापित द्वितीय प्रक्षेपण स्थल सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से एस.एल.वी. प्रक्षेपण के लिए तैयार हो चुका था। द्वितीय स्तरीय असफलता की वजह से इसका 1979 में प्रथम प्रक्षेपण सफल नहीं हो पाया था। 1980 तक इस समस्या का निवारण कर लिया गया। भारत का देश में प्रथम निर्मित कृत्रिम उपग्रह रोहिणी-प्रथम प्रक्षेपित किया गया।

अमरीकी प्रतिबंध

सोवियत संघ के साथ भारत के बूस्टर तकनीक के क्षेत्र में सहयोग का अमरीका द्वारा परमाणु अप्रसार नीति की आड़ में काफी प्रतिरोध किया गया। 1992 में भारतीय संस्था इसरो और सोवियत संस्था ग्लावकास्मोस पर प्रतिबंध की धमकी दी गयी। इन धमकियों की वजह से सोवियत संघ ने इस सहयोग से अपना हाथ पीछे खींच लिया

सोवियत संघ क्रायोजेनिक  द्रव राकेट इंजन तो भारत को देने के लिये तैयार था लेकिन इसके निर्माण से जुड़ी तकनीक देने को तैयार नही हुआ जो भारत सोवियत संघ से खरीदना चाहता था। इस असहयोग का परिणाम यह हुआ कि भारत अमरीकी प्रतिबंधों का सामना करते हुये भी सोवियत संघ से बेहतर स्वदेशी तकनीक दो सालो के अथक शोध के बाद विकसित कर ली। 5 जनवरी 2014 को, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन का सफल परीक्षण भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान की डी5 उड़ान में किया।

प्रमुख अभियान

चंद्रयान

चन्द्रयान भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के एक अभियान व यान का नाम है। चंद्रयान चंद्रमा की तरफ कूच करने वाला भारत का पहला अंतरिक्ष यान है। इस अभियान के अन्तर्गत एक मानवरहित यान को 22 अक्टूबर, 2008 को चन्द्रमा पर भेजा गया और यह 30 अगस्त, 2009 तक सक्रिय रहा। यह यान पोलर सेटलाईट लांच वेहिकल (पी एस एल वी) के एक परिवर्तित संस्करण वाले राकेट की सहायता से सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से प्रक्षेपित किया गया। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र ‘इसरो’ के चार चरणों वाले 316 टन वजनी और 44.4 मीटर लंबा अंतरिक्ष यान चंद्रयान प्रथम के साथ ही 11 और उपकरण एपीएसएलवी-सी11 से प्रक्षेपित किए गए जिनमें से पाँच भारत के हैं और छह अमरीका और यूरोपीय देशों के। इसे चन्द्रमा तक पहुँचने में 5 दिन लगें पर चन्द्रमा की कक्षा में स्थापित करने में 15 दिनों का समय लगा।

चंद्रयान का उद्देश्य चंद्रमा की सतह के विस्तृत नक्शे और पानी के अंश और हीलियम की तलाश करना था। चंद्रयान-प्रथम ने चंद्रमा से 100 किमी ऊपर 525 किग्रा का एक उपग्रह ध्रुवीय कक्षा में स्थापित किया। यह उपग्रह अपने रिमोट सेंसिंग (दूर संवेदी) उपकरणों के जरिये चंद्रमा की ऊपरी सतह के चित्र भेजे।

भारतीय अंतरिक्षयान प्रक्षेपण के अनुक्रम में यह २७वाँ उपक्रम है। इसका कार्यकाल लगभग 2 साल का होना था, मगर नियंत्रण कक्ष से संपर्क टूटने के कारण इसे उससे पहले बंद कर दिया गया। चन्द्रयान के साथ भारत चाँद को यान भेजने वाला छठा देश बन गया था। इस उपक्रम से चन्द्रमा और मंगल ग्रह पर मानव-सहित विमान भेजने के लिये रास्ता खुला।

मंगलयान

इसके साथ ही भारत भी अब उन देशों में शामिल हो गया है जिन्होंने मंगल पर अपने यान भेजे हैं। वैसे अब तक मंगल को जानने के लिये शुरू किये गये दो तिहाई अभियान असफल भी रहे हैं परन्तु 24 सितंबर 2014 को मंगल पर पहुँचने के साथ ही भारत विश्व में अपने प्रथम प्रयास में ही सफल होने वाला पहला देश तथा सोवियत रूस, नासा और यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के बाद दुनिया का चौथा देश बन गया है। इसके अतिरिक्त ये मंगल पर भेजा गया सबसे सस्ता मिशन भी है । भारत एशिया का भी ऐसा करने वाला प्रथम पहला देश बन गया। क्योंकि इससे पहले चीन और जापान अपने मंगल अभियान में असफल रहे थे।

वस्तुतः यह एक प्रौद्योगिकी प्रदर्शन परियोजना है जिसका लक्ष्य अन्तरग्रहीय अन्तरिक्ष मिशनों के लिये आवश्यक डिजाइन, नियोजन, प्रबन्धन तथा क्रियान्वयन का विकास करना है। ऑर्बिटर अपने पांच उपकरणों के साथ मंगल की परिक्रमा करता रहेगा तथा वैज्ञानिक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए आंकड़े व तस्वीरें पृथ्वी पर भेजेगा। अंतरिक्ष यान पर वर्तमान में इसरो टेलीमेट्री, ट्रैकिंग और कमांड नेटवर्क (इस्ट्रैक),बंगलौर के अंतरिक्षयान नियंत्रण केंद्र से भारतीय डीप स्पेस नेटवर्क एंटीना की सहायता से नजर रखी जा रही है

प्रतिष्ठित ‘टाइम’ पत्रिका ने मंगलयान को 2014 के सर्वश्रेष्ठ आविष्कारों में शामिल किया।

स्क्रेमजेट

परंपरागत रॉकेट इंजन जहां ईंधन और ऑक्सिडाइजर दोनों लेकर जाते हैं, वहीं स्‍क्रेमजेट इंजन ‘एयर ब्रीदिंग प्रोपल्‍सन सिस्‍टम’ के चलते सुपरसोनिक स्‍पीड के दौरान वातावरण में मौजूद ऑक्‍सीजन को खींच लेता है। इसके चलते यह ऑक्‍सीजन ईंधन को जलाने के लिए ऑक्‍सीडाइजर का काम करेगा। इसरो के वैज्ञानिकों ने बताया था कि स्‍क्रेमजेट इंजन को 55 सैकंड के लिए टेस्‍ट किया जाएगा। पहला हिस्‍सा अलग होकर बंगाल की खाड़ी में गिरने के बाद भी रॉकेट ऊपर जाता रहेगा। दूसरी स्‍टेज में रॉकेट जब ध्‍वनि की रफ्तार से छह गुनी गति से जाएगा तो स्‍क्रेमजेट इंजन 20 किमी की ऊंचाई पर शुरू हो जाएगा। इसके बाद पांच सैकंड तक ईंधन जलेगा। फिर रॉकेट 40-70 किमी ऊपर जाने के बाद समुद्र में गिर जाएगा।

स्‍क्रेमजेट इंजन के चलते यान का वजन भी लगभग आधा हो जाएगा। हाइपरसोनिक गति से जाने वाले राकेट के लिए यह इंजन उपयुक्‍त है। रविवार के टेस्‍ट के बाद इस इंजन को फुल स्‍केल आरएलवी में इस्‍तेमाल किया जाएगा। जापान, चीन, रूस और यूरोपीय संघ सुपरसोनिक कॉमबस्‍टर तकनीक के टेस्टिंग चरण में हैं। वहीं नासा ने 2004 में स्‍क्रेमजेट इंजन का प्रदर्शन किया था। इसरो ने भी साल 2006 में स्‍क्रेमजेट का ग्राउंड टेस्‍ट किया था।

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्‍थान(इसरो) ने अगस्त 2016 मे स्‍क्रेमजेट इंजन का टेस्‍ट किया। आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अनुसंधान केंद्र से सुबह छह बजे तीन टन वजन के RH-560 सुपरसोनिक कम्‍बशन रैमजेट ने उड़ान भरी। इसमें लगाया गया इंजन एडवांस्‍ड टेक्‍नोलॉजी से लैस है और इसकी मदद से भारत सैटेलाइट प्रक्षेपण के खर्च में कमी कर पाएगा। इसरो के वैज्ञानिकों ने बताया कि यह इंजन रियूजेबल लॉन्‍च व्‍हीकल को हायरपासोनिक स्‍पीड पर उपयोग करने में मदद देगा। टेस्‍ट के दौरान स्‍क्रेमजेट इंजन को 1970 में तैयार किए गए RH-560 साउंड रॉकेट में लगाया गया। इसे 20 किलोमीटर ऊपर ले जाया गया और वहां पर पांच सैकंड तक ईंधन को जलने दिया गया। बाद में यह रॉकेट बंगाल की खाड़ी में गिर गया।

पुन: प्रयोज्य प्रक्षेपण यान (RLV)

RLVपुन: प्रयोज्य प्रक्षेपण यान-प्रौद्योगिकी प्रदर्शन कार्यक्रम, रीयूज़ेबल लांच व्हीकल टेक्नोलॉजी डेमोंसट्रेटर प्रोग्राम, या RLV-TD, भारत का प्रौद्योगिकी प्रदर्शन मिशन है जो टू स्टेज टू ऑर्बिट (TSTO) को समझने व पुन: प्रयोज्य प्रक्षेपण वाहन की दिशा में पहले कदम के रूप में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा नियोजित प्रौद्योगिकी प्रदर्शन (टेक्नोलॉजी डीमॉन्सट्रेशन) की एक श्रृंखला है।

इस प्रयोजन के लिए, एक पंख युक्त पुन: प्रयोज्य प्रक्षेपण यान प्रौद्योगिकी प्रदर्शक (RLV-TD) बनाया गया। RLV-TD संचालित क्रूज उड़ान, हाइपरसॉनिक उड़ान, और स्वायत्त (ऑटोनॉमस) लैंडिंग, वायु श्वसन प्रणोदन (एयर ब्रीदिंग प्रपलशन) जैसे विभिन्न प्रौद्योगिकियों का मूल्यांकन करने के रूप में कार्य करेगा । इन प्रौद्योगिकियों के प्रयोग से लांच लागत में काफी कमी आएगी।

वर्तमान में ऐसे स्पेस शटल बनाने वाले देशों में सिर्फ़ अमेरिका, रूस, फ्रांस और जापान हैं। चीन ने इस प्रकार का कोई प्रयास नहीं किया है

प्रमुख राकेट

पी एस एल वी

ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान या पी.एस.एल.वी भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन द्वारा संचालित एक उपभोजित प्रक्षेपण प्रणाली है। भारत ने इसे अपने सुदूर संवेदी उपग्रह को सूर्य समकालिक कक्षा में प्रक्षेपित करने के लिये विकसित किया है। पीएसएलवी के विकास से पूर्व यह सुविधा केवल रूस के पास थी। पीएसएलवी छोटे आकार के उपग्रहों को भू-स्थिर कक्षा में भी भेजने में सक्षम है। अब तक पीएसएलवी की सहायता से 70 अन्तरिक्षयान (30 भारतीय + 40 अन्तरराष्ट्रीय) विभिन्न कक्षाओं में प्रक्षेपित किये जा चुके हैं। इससे इस की विश्वसनीयता एवं विविध कार्य करने की क्षमता सिद्ध हो चुकी है।

22 जून, 2016 में इस यान ने अपनी क्षमता की चरम सीमा को छुआ जब पीएसएलवी सी-34 के माध्यम से रिकॉर्ड २० उपग्रह एक साथ छोड़े गए। इससे पहले 28 अप्रैल 2008 को इसरो ने एक साथ 10 उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजकर एक ही बार में सबसे ज़्यादा उपग्रह अंतरिक्ष में भेजने का विश्वरिकॉर्ड बनाया था।

जी एस एल वी

भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान (अंग्रेज़ी:जियोस्टेशनरी सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल, लघु: जी.एस.एल.वी) अंतरिक्ष में उपग्रह के प्रक्षेपण में सहायक यान है। ये यान उपग्रह को पृथ्वी की भूस्थिर कक्षा में स्थापित करने में मदद करता है। जीएसएलवी ऐसा बहुचरण रॉकेट होता है जो दो टन से अधिक भार के उपग्रह को पृथ्वी से 36000 कि॰मी॰ की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है जो विषुवत वृत्त या भूमध्य रेखा की सीध में होता है। ये रॉकेट अपना कार्य तीन चरण में पूरा करते हैं। इनके तीसरे यानी अंतिम चरण में सबसे अधिक बल की आवश्यकता होती है। रॉकेट की यह आवश्यकता केवल क्रायोजेनिक इंजन ही पूरा कर सकते हैं। इसलिए बिना क्रायोजेनिक इंजन के जीएसएलवी रॉकेट का निर्माण मुश्किल होता है। अधिकतर काम के उपग्रह दो टन से अधिक के ही होते हैं। इसलिए विश्व भर में छोड़े जाने वाले 50 प्रतिशत उपग्रह इसी वर्ग में आते हैं। जीएसएलवी रॉकेट इस भार वर्ग के दो तीन उपग्रहों को एक साथ अंतरिक्ष में ले जाकर निश्चित कि॰मी॰ की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है। यही इसकी की प्रमुख विशेषता है।

भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान एम.के. 3 (GSLV MK3 को लॉन्च वाहन मार्क 3 (LVM 3) भी कहा जाता है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा विकसित एक प्रक्षेपण वाहन है।

इसको भू-स्थिर कक्षा में उपग्रहों और भारतीय अंतरिक्ष यात्री को प्रक्षेपित करने के लिये विकसित किया गया है। जीएसएलवी-III में एक भारतीय क्रायोजेनिक रॉकेट इंजन की तीसरे चरण में सुविधा है। और वर्तमान भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान की तुलना में अधिक पेलोड ले जाने क्षमता है।

 

लेखक

गजेंद्र मालव

शिक्षा : बी एस सी, राजस्थान परमाणु ऊर्जा संयंत्र NPCIL मे कार्यरत

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ब्लैक होल की रहस्यमय दुनिया

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श्याम वीवर का परिकल्पित चित्र

श्याम वीवर का परिकल्पित चित्र

कृष्ण विवर(श्याम विवर) अर्थात ब्लैक होल (Black hole) अत्यधिक घनत्व तथा द्रव्यमान वाले ऐसें पिंड होते हैं, जो आकार में बहुत छोटे होते हैं। इसके अंदर गुरुत्वाकर्षण इतना प्रबल होता है कि उसके चंगुल से प्रकाश की किरणों निकलना भी असंभव होता हैं। चूंकि यह प्रकाश की किरणों को अवशोषित कर लेता है, इसीलिए यह अदृश्य बना रहता है।

ब्लैक होल के संबंध में सबसे पहले वर्ष 1783 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन मिशेल(John Michell) ने अपने विचार रखे। मिशेल के बाद वर्ष 1796 में फ़्रांसीसी वैज्ञानिक पियरे साइमन लाप्लास(Pierre Simon Laplace )ने अपनी पुस्तक द सिस्टम ऑफ़ द वर्ल्ड(The System of the World) में ब्लैक होल के बारे में विस्तार से चर्चा की।

ब्लैक होल कैसे बनते हैं?

ब्लैक होल का निर्माण किस प्रकार से होता है, यह जानने के लिये तारे के विकास-क्रम को समझना ज़रूरी है। दरअसल तारे का विकास आकाशगंगा(Galaxy) में उपस्थित धूल एवं गैसों के एक अत्यंत विशाल मेघ(Dust & Gas Cloud) से आरंभ होता है, जिसे नीहारिका(Nebula) कहते हैं। नीहारिकाओं के अंदर हाइड्रोजन की मात्रा सर्वाधिक होती है और 23 से 28 प्रतिशत हीलियम(helium) तथा अल्प मात्रा में कुछ भारी तत्व होते हैं।

जब गैस और धूलों से भरे हुए मेघ के घनत्व में वृद्धि होती है। उस समय मेघ अपने ही गुरुत्व के कारण संकुचित होने लगता है। मेघ में संकुचन के साथ-साथ उसके केन्द्रभाग के ताप एवं दाब में भी वृद्धि हो जाती है। अंततः ताप और दाब इतना अधिक हो जाता है कि हाइड्रोजन(Hydrogen) के नाभिक आपस में टकराने लगते हैं और हीलियम के नाभिक का निर्माण करनें लगतें हैं।

ऐसे में तारों के अंदर तापनाभिकीय संलयन(Thermo-Nuclear Fusion) आरंभ हो जाता है। तारों के अंदर यह अभिक्रिया एक नियंत्रित हाइड्रोजन बम (Hydrogen bomb) विस्फोट के समान होती है। इस प्रक्रम में प्रकाश तथा ऊष्मा के रूप में ऊर्जा उत्पन्न होती है। इस प्रकार वह मेघ ऊष्मा व प्रकाश से चमकता हुआ तारा बन जाता है। तापनाभिकीय संलयन से निकलीं प्रचंड ऊष्मा से ही तारों का गुरुत्वाकर्षण संतुलन में रहता है, जिससें तारा अधिक समय तक स्थायी बना रहता है। अंतत: जब तारे के भीतर मौजूद हाइड्रोजन तथा अन्य नाभिकीय ईंधन खत्म हो जाता है, तो वह अपने गुरुत्वाकर्षण को संतुलित करने के लिए पर्याप्त ऊष्मा नहीं प्राप्त कर पाता है। ऐसे में तारा ठंडा होने लगता है।

वर्ष 1935 में भारतीय खगोलभौतिकविद् सुब्रमण्यन चन्द्रशेखर(Subrahmanyan Chandrasekhar) ने यह स्पष्ट कर दिया कि अपने ईंधन को समाप्त कर चुके सौर द्रव्यमान से 1.4 गुना द्रव्यमान वाले तारे, जो अपने ही गुरुत्व के विरुद्ध स्वयं को नही सम्भाल पाता है। उस तारे के अंदर एक विस्फोट होता है, जिसे अधिनवतारा(Supernova) विस्फोट कहा जाता है। विस्फोट के बाद यदि उसका अवशेष बचता है, तो वह अत्यधिक घनत्वयुक्त ‘न्यूट्रान तारा’(Neutron star) बन जाता है।

 

यह छवि श्याम विवर द्वारा काल-अंतराल मे उत्पन्न विकृति को समझाने के लिये है, लेकिन श्याम विवर इस आकार के नही होते है।

यह छवि श्याम विवर द्वारा काल-अंतराल मे उत्पन्न विकृति को समझाने के लिये है, लेकिन श्याम विवर इस आकार के नही होते है।

आकाशगंगा में ऐसे बहुत से तारे होते हैं जिनका द्रव्यमान सौर द्रव्यमान से तीन-चार गुना से भी अधिक होता है। ऐसे तारों पर गुरुत्वीय खिचांव अत्यधिक होने के कारण तारा संकुचित होने लगता हैं, और दिक्-काल(Space-Time) विकृत होने लगती है, परिणामत: जब तारा किसी निश्चित क्रांतिक सीमा (Critical limit) तक संकुचित हो जाता है, और अपनें ओर के दिक्-काल को इतना अधिक झुका लेता है कि अदृश्य हो जाता है। यही वे अदृश्य पिंड होते हैं जिसे अब हम ‘कृष्ण विवर’ या ‘ब्लैक होल’ कहते हैं। अमेरिकी भौतिकविद् जॉन व्हीलर (John Wheeler) ने वर्ष 1967 में पहली बार इन पिंडो के लिए ‘ब्लैक होल’ (Black Hole) शब्द का उपयोग किया।

यदि पृथ्वी के पदार्थों का घनत्व लाखों-करोंड़ों गुना अधिक हो जाए तथा इसके आकार को संकुचित करके 1.5 सेंटीमीटर छोटी कर दिया जाए तो ऐसी अवस्था में प्रबल गुरुत्वाकर्षण बल के कारण पृथ्वी भी प्रकाश- किरणों को उत्सर्जित नही कर सकेगी और यह एक ब्लैक होल बन जाएगी। किसी भी ब्लैक होल में द्रव्यमान की तुलना में घनत्व अत्यधिक महत्वपूर्ण होता है। यदि सूर्य को संकुचित करकें इसकी 700,000 किलोमीटर की त्रिज्या को 3 किलोमीटर में परिवर्तित कर दिया जाए, तो इसकी परिणति ब्लैक होल के रूप में होगी। हम जानते हैं कि पृथ्वी एवं सूर्य का इस प्रकार से संकुचित होना असम्भव हैं, क्योंकि न तो पृथ्वी का द्रव्यमान और गुरुत्वाकर्षण बल इतना अधिक हैं और न ही सूर्य का।

ब्लैक होल की विशेषताएं:

श्याम वीवर का आकार

श्याम वीवर का आकार

किसी ब्लैक होल का सम्पूर्ण द्रव्यमान एक बिंदु में केन्द्रित रहता है जिसे केन्द्रीय विलक्षणता बिंदु(Central Singularity Point) कहते हैं। विलक्षणता बिंदु के आसपास वैज्ञानिको ने एक गोलाकार सीमा की कल्पना की है जिसे प्रायः घटना क्षितिज(Event Horizon) कहा जाता है। घटना क्षितिज से परे प्रकाश सहित समस्त पदार्थ विलक्षणता बिंदु की दिशा में आकर्षित होकर खींचे चले जाते हैं। परन्तु घटना क्षितिज से होकर कोई भी वस्तु बाहर नही आ सकती है। घटना क्षितिज की त्रिज्या को स्क्वार्जस्चिल्ड त्रिज्या(Schwarzschild Radius) के नाम से जाना जाता है, जिसका नामकरण जर्मन वैज्ञानिक और गणितज्ञ कार्ल स्क्वार्जस्चिल्ड (Karl Schwarzschild) के सम्मान में किया गया है।

दिलचस्प बात यह हैं कि कार्ल स्क्वार्जस्चिल्ड ने ब्लैक होल की विद्यमानता को सैद्धांतिक रूप में सिद्ध करने के पश्चात् इसके भौतिक विद्यमानता को स्वयं अस्वीकृत कर दिया था। बहरहाल, कार्ल स्क्वार्जस्चिल्ड और जॉन व्हीलर(John Wheeler) को ब्लैक होल के खोज का श्रेय दिया जाता हैं।

अल्बर्ट आइंस्टाइन_Albert Einstein के विशेष सापेक्षता सिद्धांत (Theory of Special Relativity) के अनुसार एक निश्चित दूरी पर स्थित एक प्रेक्षक के लिए ब्लैक होल के निकट स्थित घड़ियाँ अत्यंत मंद गति से चलेंगी। विशेष सापेक्षता सिद्धांत के अनुसार समय सापेक्ष है। समय व्यक्तिनिष्ठ है, जिस समय प्रेक्षक ‘अब’ कहता हैं, वह केवल स्थानीय निर्देश-प्रणाली पर ही लागू होती है, नाकि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर! इस प्रभाव को समय विस्तारण(Time Dilation) कहते हैं।

ब्लैक होल के गुरुत्वाकर्षण के कारण, उससे दूर स्थित कोई भी प्रेक्षक यह देखेगा कि ब्लैक होल के अंदर गिरने वाली कोई भी वस्तु उसके घटना क्षितिज के निकट बहुत कम गति से नीचें गिर रही है, उस तक पहुँचनें में अनंत काल-अवधि लगती हुई प्रतीत होती है। उस समय उस वस्तु की समस्त गतिविधियाँ अत्यंत धीमी होने लगेगी, इसलिए वस्तु का प्रकाश अत्यधिक लाल और धुंधला (अस्पष्ट) प्रतीत होगा।

इस प्रभाव को गुरुत्वीय अभिरक्त विस्थापन (Gravitational Red Shift) कहते हैं। अंततः ब्लैक होल के अंदर गिरनेवाली वस्तु इतनी अधिक धुंधली हो जाएगी कि दिखाई देना बंद हो जायेगी। अधिकांशत: लोगो का यह मत होता है कि ब्लैक होल वैक्यूम क्लीनर (Vacuum Cleaner) की तरह व्यवहार करता है, परन्तु ऐसा नहीं है। जो भी वस्तु ब्लैक होल के निकट जायेगा उसे ही वह निगलेगा। इसका अभिप्राय यह है कि यदि हमारा सूर्य एक ब्लैक होल बन जाए, तब इसकी त्रिज्या 3 किलोमीटर होगी, तो भी सभी ग्रहों की कक्षाएँ पूर्णतया अपरिवर्तित होंगी। ब्लैक होल किसी भी ग्रह को निगल नही सकेगा, बशर्ते यदि वह ग्रह ब्लैक होल के निकट न आवे।

ब्रह्माण्ड में कई प्रकार के ब्लैक होल हैं जो अपने विशिष्ट भौतिक गुणों द्वारा पहचाने जाते हैं। ऐसे तारे जिनका द्रव्यमान सौर द्रव्यमान से कुछ गुना अधिक होता है और गुरुत्वीय संकुचन के कारण वे अंततः एक ब्लैक होल में बदल जाते हैं। ऐसे कृष्ण विवरों को तारकीय द्रव्यमान ब्लैक होल (Stellar Mass Black Hole) कहते हैं। ऐसे ब्लैक होल जिनका निर्माण आकाशगंगाओं के केंद्र में होता है, अतिसहंत ब्लैक होल (Super Massive Black Hole) कहलाते हैं। इनका द्रव्यमान सौर द्रव्यमान की तुलना में लाखों-करोड़ों गुना अधिक होता है। वैज्ञानिकों के अनुसार हमारी आकाशगंगा-दुग्धमेखला के केंद्र में एक विशाल ब्लैक होल हैं और इसका द्रव्यमान सौर द्रव्यमान से एक करोड़ गुना है।

ऐसे ब्लैक होल जिनका द्रव्यमान सौर द्रव्यमान से भी कम होता है, उनका निर्माण गुरुत्वीय संकुचन के कारण न होकरके, बल्क़ि अपने केंद्र भाग के पदार्थ का दाब एवं ताप के कारण संपीडित होने से होता है। ऐसे कृष्ण विवरों को प्राचीन ब्लैक होल (Primordial Black Hole) या लघु ब्लैक होल (Small Black Hole) के नाम से जाना जाता हैं। इन लघु कृष्ण विवरों के बारे में वैज्ञानिकों की मान्यता है कि इनका निर्माण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के समय हुआ होगा। भौतिकविद् स्टीफन हाकिंग (Stephen Hawking) के अनुसार हम ऐसे ब्लैक होलों के अध्ययन से ब्रह्माण्ड की आरंभिक अवस्थाओं के बारे में बहुत कुछ पता लगा सकते हैं।

कुछ ब्लैक होल अपने अक्ष पर एक नियत गति से घूर्णन भी करते हैं। सर्वप्रथम वर्ष 1963 में न्यूजीलैंड के एक गणितज्ञ व वैज्ञानिक रॉय केर ने इन घूर्णनशील ब्लैक होलों (Rotating Black Holes) के अस्तित्व को गणितीय आधार प्रदान किया। इन कृष्ण विवरों का आकार इनकें घूर्णन दर और द्रव्यमान पर निर्भर करता है। ऐसे कृष्ण विवरों को अब वैज्ञानिक केर का ब्लैक होल (Kerr’s Black Hole) कहकर संबोधित करते हैं। इनकी संरचना बहुत जटिलतायुक्त होती हैं, एवं घटना क्षितिज भी गोलाभ (Spheroid) होती हैं। ऐसे ब्लैक होल जो घूर्णन नही करतें हैं स्क्वार्जस्चिल्ड ब्लैक होल (Schwarzschild Black Hole) कहलाते हैं।

ब्लैक होल को कैसे खोजा जाता है?

जैसा कि हम जानते हैं कि ब्लैक होल प्रकाश की किरणों को उत्सर्जित नहीं करते हैं, तो हम इन्हें खोजने की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं? यह खगोलविदों के लिए पहले एक गम्भीर समस्या थी। परन्तु खगोलविदों ने इस समस्या का भी समाधान ढूढ़ निकाला। मिशेल के अनुसार ब्लैक होल अदृश्य होने पर भी अपने निकट स्थित पिंडों पर गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव डालता है। खगोलविदों ने इस परियोजना के अंतर्गत आकाश में स्थित उन युग्म तारों का प्रेक्षण किया, जो एक-दूसरे के गुरुत्वाकर्षण से बंधकर एक-दूसरे की परिक्रमा करते हैं। कल्पना करें की आकाश में दो तारें एक दूसरे की परिक्रमा कर रहे हैं, उनमें से एक तारा अदृश्य है तथा दूसरा तारा दृष्टिगोचर है। ऐसी स्थिति में दृश्य तारा अदृश्य तारे की परिक्रमा करेगा।

यदि आप जल्दबाजी में अदृश्य तारे को ब्लैक होल मान लेते हैं तो आप गलत भी हो सकतें हैं क्योंकि यह एक ऐसा तारा भी हो सकता हैं जो हमसे बहुत दूर हैं और उसका प्रकाश इतना धीमा हैं कि हमे दिखाई न दे रहा हो। यदि खगोलविद दृश्य तारे के कक्षा से सबंधित खगोलीय गणनाओं के आधार पर उसके द्रव्यमान से सबंधित जानकारी एकत्र कर लेगा तो वह खगोलीय विधियों द्वारा सरलता से उस अदृश्य तारे के द्रव्यमान के बारे में पता लगया जा सकता है। यदि उसका द्रव्यमान सौर द्रव्यमान से तीन-चार गुना अधिक होता है, तो अत्यधिक सम्भावना है कि वह अदृश्य तारा एक ब्लैक होल है।

ब्लैक होल के अस्तित्व को सिद्ध करने का एक अन्य उपाय भी है। कल्पना करें ब्लैक होल के निकट एक दृश्य तारा है, तब ब्लैक होल इस दृश्य तारे की गैसीय द्रव्यराशि को उसके पृष्ठभाग से अपनें में खींचता रहेगा। ब्लैक होल में दृश्य तारे की द्रव्यराशि के गिरने के कारण उसमें से काफी तेजी से एक्स-किरणें उत्सर्जित होने लगेंगी (घर्षण, ताप एवं दाब के कारण)। तब एक्स-किरणों के उद्गम के निरीक्षण एवं अध्ययन से ब्लैक होल के भौतिक विद्यमानता को सिद्ध किया जा सकता हैं।

सीगनस एक्स 1: दृश्य प्रकाश मे ऐसे दिखेगा। यह श्याम वीवर अपने साथी तारे का द्रव्यमान खिंच रहा है, जिससे एक्रीशन डिस्क बन रही है। इस डिस्क की गैस गर्म हो एक्स रे उत्सर्जित कर रही है।

सीगनस एक्स 1: दृश्य प्रकाश मे ऐसे दिखेगा। यह श्याम वीवर अपने साथी तारे का द्रव्यमान खिंच रहा है, जिससे एक्रीशन डिस्क बन रही है। इस डिस्क की गैस गर्म हो एक्स रे उत्सर्जित कर रही है।

खगोलविदों को वर्ष 1965 में हंस_Cygnus तारामंडल में एक अत्यंत प्रचंड एक्स-रे स्रोत मिला। उस स्रोत को सिग्नस एक्स-1(Cygnus X-l) नाम दिया गया। वर्ष 1970 में अमेरिका द्वारा प्रक्षेपित एक उपग्रह द्वारा यह पता चला कि सिग्नस एक्स-1 कोई श्वेत वामन या न्यूट्रान तारा नही है, बल्कि एक ब्लैक होल हैं। दरअसल सिग्नस एक्स-1 एक युग्म तारक-योजना है। इस युग्म तारे का दृश्य तारा अत्यंत विशाल है, जो अदृश्य तारे की परिक्रमा कर रहा है। खगोलविदों ने सिग्नस एक्स-1 के द्रव्यमान का निर्धारण खगोलीय विधियों द्वारा छह सूर्यों के द्रव्यमान के बराबर की है। इससे यह स्पष्ट होता हैं कि सिग्नस एक्स-1 एक ब्लैक होल हैं।

स्टीफेन हॉकिंग और ब्लैक होल

ब्लैक होल के संबंध में हमारी वर्तमान समझ भौतिकविद् स्टीफन हाॅकिंग (Stephen Hawking) के कार्यों पर आधारित है। हाकिंग ने वर्ष 1974 में ब्लैक होल इतने काले नहीं_Black Holes Ain’t So Black शीर्षक से एक शोधपत्र प्रकाशित करवाया। इस शोधपत्र में हॉकिंग ने सामान्य सापेक्षता सिद्धांत एवं क्वांटम भौतिकी के सिद्धांतों के आधार पर यह दर्शाया कि ब्लैक होल पूरे काले नही होते, बल्कि ये अल्प मात्रा में विकिरणों को उत्सर्जित करतें हैं। हाकिंग ने यह भी प्रदर्शित किया कि ब्लैक होल से उत्सर्जित होने वाली विकीरणें क्वांटम प्रभावों के कारण शनै: शनै: बाहर निकलती हैं। इस प्रभाव को हॉकिंग विकीरण (Hawking Radiation) के नाम से जाना जाता है।

हॉकिंग विकिरण प्रभाव के कारण ब्लैक होल अपने द्रव्यमान को धीरे-धीरे खोने लगते हैं, तथा ऊर्जा का भी क्षय होता हैं (E=mc²)। यह प्रक्रिया लम्बें अंतराल तक चलने के बाद अन्ततोगत्वा ब्लैक होल वाष्पन को प्राप्त होता है। दिलचस्प बात यह है कि विशालकाय ब्लैक हालों से कम मात्रा में विकिरणों का उत्सर्जन होता है, जबकि लघु ब्लैक होल बहुत तेजी से विकिरणों का उत्सर्जन करके वाष्प बन जाते हैं।

लेखक के बारे मे

Pradeep Kumarश्री प्रदीप कुमार यूं तो अभी  विद्यार्थी हैं, किन्तु विज्ञान संचार को लेकर उनके भीतर अपार उत्साह है। आपकी ब्रह्मांड विज्ञान में गहरी रूचि है और भविष्य में विज्ञान की इसी शाखा में कार्य करना चाहते हैं। वे इस छोटी सी उम्र में न सिर्फ ‘विज्ञान के अद्भुत चमत्कार‘ नामक ब्लॉग का संचालन कर रहे हैं, वरन फेसबुक पर भी इसी नाम का सक्रिय समूह संचालित कर रहे हैं।

 

 


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ध्रुविय ज्योति

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What the ....यह कोई साधारण चित्र नही है यह पृथ्वी पर होने वाली एक अद्भुत खगोलीय घटना है जो की हमारी पृथ्वी के ध्रुवीय क्षेत्रो में घटित होती है। पृथ्वी के धुवीय क्षेत्रो जैसे अलास्का तथा उत्तरी कनाडा के आकाश मे रंगो का अत्यंत वैभवशाली दृश्य दिखाई देता है नृत्य करते हरे गुलाबी रंग एक अदभुत दृश्य प्रस्तुत करते है ये दृश्य जितने मनोहारी है उतने ही रहस्यपूर्ण भी।

ध्रुवीय ज्योति (अंग्रेजी: Aurora), या मेरुज्योति, वह रमणीय दीप्तिमय छटा है जो ध्रुवक्षेत्रों के वायुमंडल के ऊपरी भाग में दिखाई पड़ती है। उत्तरी अक्षांशों की ध्रुवीय ज्योति को सुमेरु ज्योति (अंग्रेजी: aurora borealis), या उत्तर ध्रुवीय ज्योति, तथा दक्षिणी अक्षांशों की ध्रुवीय ज्योति को कुमेरु ज्योति (अंग्रेजी: aurora australis), या दक्षिण ध्रुवीय ज्योति, कहते हैं। प्राचीन रोमवासियों और यूनानियों को इन घटनाओं का ज्ञान था और उन्होंने इन दृश्यों का बेहद रोचक और विस्तृत वर्णन किया है। दक्षिण गोलार्धवालों ने कुमेरु ज्योति का कुछ स्पष्ट कारणों से वैसा व्यापक और रोचक वर्णन नहीं किया है, जैसा उत्तरी गोलार्धवलों ने सुमेरु ज्योति का किया है। इनका जो कुछ वर्णन प्राप्य है उससे इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि दोनों के विशिष्ट लक्षणों में समानता है।

हेंड्रिक एंटून लॉरेंज (Hendrik Antoon Lorentz :1853-1928) डेनमार्क के सैद्धान्तिक भौतिकविज्ञानी और लिण्डेन के प्रख्यात प्रोफ़ेसर थे।जिन्हें पीटर जीमन (Peter Zeeman)के साथ संयुक्त रूप से 1902 में जीमन प्रभाव के लिए नोबेल पुरस्कार मिला।

हेंड्रिक एंटून लॉरेंज (Hendrik Antoon Lorentz :1853-1928) डेनमार्क के सैद्धान्तिक भौतिकविज्ञानी और लिण्डेन के प्रख्यात प्रोफ़ेसर थे।जिन्हें पीटर जीमन (Peter Zeeman)के साथ संयुक्त रूप से 1902 में जीमन प्रभाव के लिए नोबेल पुरस्कार मिला।

हम सब जानते है सूर्य पृथ्वी के लिए ऊर्जा का महान स्रोत है कारण सूर्य पर नाभिकीय संलयन का होना। इसके कारण सूर्य से सौर लपटें(solar flair)उठती रहती है ये सौर लपटें विशेष अवधि में अपने चक्र को घटाती और बढ़ाती रहती है क्योकि सूर्य अपने ध्रुव को निश्चित समयअंतराल मे बदलता रहता है। सूर्य से सौर लपटें उठते रहने के कारण ये सौर लपटें पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र(Magnetic Field)मे प्रवेश करती है वास्तव मे सौर लपटे विशाल संख्या मे सूर्य से निकलनेवाली आवेशित इलेक्ट्रान और प्रोटोन है। ये इलेक्ट्रान और प्रोटोन जब पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र मे प्रवेश करती है तो उसपर एक बल लगने लगता है जिसे लॉरेंज बल(Lorentz force)कहा जाता है।

लॉरेंज के अनुसार, जब कोई आवेशित कण किसी चुम्बकीय बल क्षेत्र में गति करता है तो उसपर एक बल क्रियाशील हो जाता है जिसकी दिशा दोनों के तल पर लम्बवत होती है अर्थात क्रियाशील बल की दिशा आवेशित कण और चुम्बकीय क्षेत्र के तल पर लम्ब होती है। लॉरेंज़ बल कितना शक्तिशाली होगा यह आवेशित कण और चुम्बकीय क्षेत्र के बीच बनने बाले कोण पर निर्भर करता है। यदि बना कोण 0° हो तो बल न्यूनतम होगा पर यदि बना कोण 90° हो तो उसपर लगने वाला बल बहुत ही शक्तिशाली होगा मतलब जैसे जैसे कोण का मान 0° से 90° की ओर बढ़ता जायेगा लगने वाला बल ताकतवर होता जायेगा और 90° पर बल सबसे महत्तम मान पर होगा।यदि कोण का मान 90° से 180° की और ज्यो-ज्यो बढेगा तो फिर लगने वाला बल कमजोर होता जायेगा और 180° पर बल का मान नगण्य हो जायेगा।इस प्रकार हम पाते है की लगने वाला बल 90° पर अपने सबसे महत्तम मान पर होता है।
इसे इस समीकरण से दर्शाया जाता है

F=q(V×B)

=qVB.SinA

यहाँ F बल,q कण का आवेश,V आवेशित कण का वेग,B चुम्बकीय क्षेत्र,A आवेशित कण और चुम्बकीय क्षेत्र के बीच बना कोण है।

aurora-1आप ध्यान रखे F,V और B तीनो सदिश राशियाँ है। जब आवेशित इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में प्रवेश करती है तो पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र मे फँस जाती है और पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र के क्षेत्र रेखाओ के साथ-साथ वृताकार पथ पर गति करते हुए पृथ्वी के चुम्बकीय ध्रुवों के पास पहुँच जाती है। शायद आप सोच रहे होगे की सौर लपटे(इलेक्ट्रान और प्रोटोन)पृथ्वी के चुम्बकीय ध्रुवो के पास ही क्यों आ जाती है ये सौर लपटें ध्रुवों से दूर भी तो जा सकती है इसका कारण है पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र की रेखाए चुम्बकीय ध्रुवों पर बहुत पास पास आ जाती है इस कारण पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र ध्रुवों पर ज्यादा शक्तिशाली हो जाता है। इसी कारण से सौर लपटें पृथ्वी के ध्रुवों पर आ जाती है। जब ये आवेशित इलेक्ट्रान और प्रोटोन पृथ्वी के ध्रुवों पर आ जाती है तो ध्रुवो पर आवेश का घनत्व बढ़ जाता है। ये आवेशित कण वायुमंडल के अणुओ एवं परमाणुओ से टकराने लगते है इस कारण आवेशित ऑक्सीजन परमाणु हरा और लाल रंग तथा आवेशित नाइट्रोजन परमाणु नीले, गहरे लाल और गुलाबी रंग का प्रकाश उत्सर्जित करने लगता है।

जैसा की ऊपर की पंक्तियों में भी उल्लेख किया गया है ध्रुवीय ज्योति उत्पन्न होने का कारण जब उच्च ऊर्जा वाले कण (मुख्यतः इलेक्ट्रान)पृथ्वी के ऊपरी वातावरण में उपस्थित उदासीन अणुओं से उनकी जोरदार टक्कर है। बड़े तीव्रता वाली ध्रुवीय ज्योति चाँद की रौशनी के समान उज्जवल होती है। ध्रुवीय ज्योति की ऊँचाई पृथ्वी से 80 किमी से लेकर 500 किमी तक हो सकती है। सामान्य तीव्रता वाली ध्रुवीय ज्योति की औसत ऊँचाई 110 किमी से लेकर 200 किमी तक होती है।

aurora-2ध्रुवीय ज्योति के रंग का निर्धारण करने वाले कारक वायुमंडलीय गैस, उसके विशिष्ट आवेश और उस कण की ऊर्जा जो वायुमंडल के गैस से टकराती है। वातावरण प्रधान गैस नाइट्रोजन और ऑक्सीजन अपने से सबंधित लाइन स्पेक्ट्रम एवं रंगो के उत्सर्जन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार होते है।ऑक्सीजन परमाणु हरा (557.7 mn के तरंगदैर्घ्य) और लाल (630.0 mn के तरंगदैर्घ्य) रंगो के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है।नाइट्रोजन नीले और गहरे लाल (600-700 mn के तरंगदैर्घ्य) रंग उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है।यह एक प्रकार का उत्सर्जित रंगो का स्पेक्टम है जो की पृथ्वी के ऊपरी वातावरण में दृष्टिगोचर होता है।ज्यादातर ध्रुवीय ज्योति का रंग हरा और पीलापन लिए होता है लेकिन कभी-कभी सौर लपटे की लंबी किरणे इसे लाल रंग में भी बदल देती है जो की किनारो और ऊपरी सतहों पर दिखाई पड़ती है। बहुत दुर्लभ अवसरो (लगभग 10 साल में एक बार) पर जब सूर्य लपटे ज्यादा तूफानी होती है तो ध्रुवीय ज्योति का रंग गहरा लाल होता है जो की निचली वातावरण में दिखाई देती है इस समय गुलाबी रंग भी निचले क्षेत्रो में देखा गया है।इस प्रकार ध्रुवीय ज्योति का रंग उत्सर्जित प्रकाश की तरंगदैर्घ्य पर निर्भर करता है साथ साथ ऊँचाई भी ध्रुवीय ज्योति के रंग को प्रभावित करती है। ज्यादातर हरा रंग 120 किमी से लेकर 180 किमी की ऊँचाई पर निकलते है लाल रंग 180 किमी से अधिक ऊँचाई पर उत्सर्जित होते है जबकि नीले और बैगनी रंग 120 किमी से नीचे बनते है।जब सौर लपटे ज्यादा तूफानी होती है तब लाल रंग 90 किमी से लेकर 100 किमी के ऊँचाई पर देखे गए है। पूर्ण रूप से लाल रंग कभी-कभी ही उत्तरी ध्रुवो पर देखे जाते है वो भी विशेषकर कम अक्षांशों पर। अलग-अलग ऊँचाईयो पर ध्रुवीय ज्योति का अलग-अलग रंग का उत्सर्जन करना पृथ्वी के वायुमंडलीय संरचना,उसके घनत्व और ऑक्सीजन एवं नाइट्रोजन के सापेक्ष अनुपात पर भी निर्भर करता है। इस प्रकार एक अत्यंत अदभुत रंगो की छटा दिखाई देने लगती है मानो सारा आकाश रौशनी से जगमगा उठता है और एक अविश्वसनीय आतिशबाजी का दृश्य दिखाई देता है।

भौतिकी मे इस घटना को उत्तर ध्रुवीय ज्योति(Northern Lights or Aurora Borealis) या दक्षिण ध्रुवीय ज्योति (Southern Lights or Aurora Australis)कहा जाता है। यह प्राकृतिक आतिशबाजी का दृश्य रात्रि मे ही देखा जा सकता है सूर्य की उपस्थिति मे इसे आप देख नही सकते। सूर्यास्त के बाद पृथ्वी के ध्रुवीय क्षेत्रों मे(अलास्का,उत्तरी कनाडा,आइसलैंड,नॉर्वे)आप इस प्राकृतिक आतिशबाजी का आनंद ले सकते है।

aurora

स्रोत::NCERT(12-1-P139)Lucent’s Physics(12-1-P43)
लेख : पल्लवी कुमारी

लेखिका परिचय

पलल्वी  कुमारी, बी एस सी प्रथम वर्ष की छात्रा है। वर्तमान  मे राम रतन सिंह कालेज मोकामा पटना मे अध्यनरत है।

पल्लवी कुमारी

पल्लवी कुमारी


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विश्व का प्रथम स्थायी अंतरिक्ष स्टेशन मीर

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मीर अंतरिक्ष केंद्र, Mir Space Station,

मीर अंतरिक्ष केंद्र

विश्व के प्रथम स्थायी अंतरिक्ष स्टेशन मीर को 20 फरवरी 1986 को अंतरिक्ष में स्थापित किया गया। 23 मार्च सन 2001 को भारतीय समय के दिन के 11 बजकर 29 मिनट पर न्यूजीलैंड और चिली के बीच के समुद्र में जलसमाधि के साथ अंत हो गया और इसी के साथ अंतरिक्ष विज्ञान क्षेत्र के एक गौरवशाली इतिहास का भी अंत हुआ।

मीर शब्द रूसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है शांति। अपने 15 साल के अंतरिक्ष प्रवास में मीर अंतरिक्ष स्टेशन ने मानव कल्याण की दृष्टि से अंतरिक्ष अन्वेषण के क्षेत्र में अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किए और शायद इसने ‘यथा नामो तथा गुणो’ लोकोक्ति को भी चरितार्थ कर दिया।

स्थापना

अंतरिक्ष स्टेशन मीर 20 फरवरी 1986 को अंतरिक्ष में स्थापित किया गया। प्रारंभ में इसमें केवल कोर माड्यूल ही लगाया गया था तथा बाद में इसमें अनेक माड्यूल जोड़े गए। यह पृथ्वी से 225 मील की दूरी पर पृथ्वी का चक्कर लगाता था तथा पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाने की इसकी गति थी 17500 मील प्रति घंटा। एक दिन में यह पृथ्वी के 16 चक्कर लगाता था तथा पृथ्वी से इसका संपर्क मास्को स्थित नियंत्रण कक्ष के द्वारा किया जाता था। पृथ्वी की भूमध्य रेखा पर मीर अंतरिक्ष स्टेशन के अंतरिक्ष पक्ष का झुकाव 51.6 डिग्री होता था। 23 मार्च सन 2001 तक मीर अंतरिक्ष स्टेशन ने पृथ्वी की 88000 परिक्रमाएँ कर ली थीं। इसमें सामान्यतया एक बार में दो से तीन अंतरि7 यात्री रहते थे, लेकिन एक-आध सप्ताह की अल्प अवधि के मिशनों में छह अंतरिक्ष स्टेशन का निर्धारित जीवनकाल सात साल का रखा गया था, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्टेशन की जीवनकाल बढ़ा दी गई। इसका भार 130 टन था जिसमें टी-आकार में व्यवस्थित इसके छह माड्यूल शामिल थे तथा इसकी लंबाई 85 फुट और चौड़ाई 98 फुट थी। इस अंतरिक्ष स्टेशन का आकार एक रेलकार की भाँति अंतरिक्ष में था। 23 मार्च, 2001 को जब यह पृथ्वी पर वापस लाया गया तो रेकॉर्ड की बात यह थी कि अंतरिक्ष से पृथ्वी पर गिरनेवाला यह सबसे विशाल मानव निर्मित पिंड था। अमेरिकी स्पेस शटल और अंतरिक्ष स्टेशन मीर पहली बार फरवरी 1995 में सबसे अधिक समीप आए। जून 1995 में पहली बार अमेरिकी स्पेस शटल मीर अंतरिक्ष स्टेशन से अंतरिक्ष में जुड़ी। अपने पूरे जीवनकाल में मीर अंतरिक्ष स्टेशन ने पृथ्वी का चक्कर लगाने में 3.6 बिलियन किलोमीटर की यात्रा की। कई मामलों में इसने मानव जाति के लिए अपने को अंतरिक्ष में वास्तविक आवास के रूप में सिद्ध करके दिखाया।

निर्माण

130 टन के मीर अंतरिक्ष स्टेशन का निर्माण अंतरिक्ष में एक बार में पूरा नहीं हुआ, बल्कि कई माड्यूल जोड़कर पूरा किया गया। मीर अंतरिक्ष स्टेशन का पहला अवयव 20 टन का कोर माड्यूल था जिसे फरवरी, 1986 में अंतरिक्ष में स्थापित किया गया। जिस समय इसे अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया गया, उस समय इसे अंतरिक्ष शहर के एक भाग की संज्ञा दी गई थी। मीर स्टेशन का कोर माड्यूल इसके पहले के रूसी अंतरिक्ष स्टेशन सैल्यूट-7 से मिलता-जुलता था, अंतर केवल यह था कि कोर माड्यूल में भविष्य में जोड़े जानेवाले माड्यूलों के लिए डाकिंग पोर्ट थे।

31 मार्च 1987 को क्वांट-1 माड्यूल अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया गया तथा 9 अप्रैल, 1987 को यह मीर अंतरिक्ष स्टेशन के कोर माड्यूल से अंतरिक्ष में जाकर जुड़ गया। इसमें ऑस्ट्रोफिजिक्स और अन्य वैज्ञानिक प्रयोग किए गए थे। इसमें एक प्रयोगशाला, ट्रांसफर चैंबर और दाबरहित कंपार्टमेंट थे। 26 नवंबर, 1989 को क्वांट-2 माड्यूल प्रक्षेपित हुआ और छह दिसंबर 1989 को मीर स्टेशन से जुड़ा। इस मोड्यूल में तीन दाबयुक्त कंपार्टमेंट थे। इस माड्यूल ने मीर स्टेशन के लिए वैज्ञानिक हार्डवेयर और उपकरण प्रदान किए। 31 मई 1990 को एक अन्य माड्यूल-क्रिस्टल माड्यूल भेजा गया जो 10 जून 1990 को अंतरिक्ष में मीर से जाकर जुड़ा। इसमें अन्य प्रकार के वैज्ञानिक और तकनीकी परीक्षण किए गए। 20 मई 1995 को प्रक्षेपित और 1 जून 1995 को मीर स्टेशन से जुड़े स्पेक्टर माड्यूल का प्रयोग पृथ्वी के संपदा स्रोतों का पता लगाने के लिए किया गया। 12 नवंबर 1995 को डाकिंग माड्यूल प्रक्षेपित किया गया जो मीर स्टेशन से 15 नवंबर 1995 को जुड़ा। इसी डाकिंग माड्यूल से 9 बार अमेरिकी स्पेस शटल मीर से आकर जुड़ी थी। 23 अप्रैल 1996 को मीर स्टेशन का आखिरी माड्यूल-प्रिरोदा माड्यूल छोड़ा गया जो 26 अप्रैल 1996 को मीर अंतरिक्ष स्टेशन से जुड़ा। इस माड्यूल के द्वारा पृथ्वी संपदा स्रोतों, अंतरिक्ष विकिरण, भू-भौतिक प्रक्रियाएँ और पृथ्वी के ऊपरी वायुमंडल का अध्ययन किया गया।

कार्य

मीर अंतरिक्ष स्टेशन में लगभग 30 हज़ार प्रकार के वैज्ञानिक परीक्षण और अनुसंधान किए गए। मानवयुक्त अंतरिक्ष अन्वेषण की दृष्टि से 6400 से भी ज़्यादा परीक्षण तकनीकी संभावनाओं की जाँच के लिए किए गए। सुदूर संवेदन तकनीकी से संबंधित सुविधाओं और तरीकों के परीक्षण के लिए लगभग 2400 परीक्षण हुए। अंतरिक्ष जीव विज्ञान से संबंधित कुल परीक्षणों की अवधि थी लगभग डेढ़ वर्ष। अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के क्षेत्र में मीर अंतरिक्ष स्टेशन की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। 12 देशों के सहयोग से लगभग 27 अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष मिशन संपादित किए गए। इसके साथ-साथ विभिन्न देशों के उपकरणों का प्रयोग करते हुए लगभग 7000 चिकित्सीय, तकनीकी और अन्य प्रयोग संपन्न किए गए। अंतरिक्ष में कुछ पदार्थों का निर्माण गुणवत्ता की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इस बात को ध्यान में रखते हुए लगभग 2300 परीक्षण किए गए तथा इसके लिए मीर अंतरिक्ष स्टेशन में अनेक उपकरण लगाए गए थे। उदाहरणार्थ- अंतरिक्ष में बनाई गई मिश्र धातु पृथ्वी में बनाई गई मिश्र धातु से बहुत अच्छी होती है। इसके साथ साथ ऑस्ट्रोफिजिक्स के क्षेत्र में 5900 और बायो-तकनीकी के क्षेत्र में 125 प्रयोग संपन्न किए गए।

अंतरिक्ष यात्री

मीर अंतरिक्ष स्टेशन में अनेक अंतरिक्ष यात्रियों ने लंबे अरसे के अंतरिक्ष प्रवास गुज़ारे हैं। 1987 में यूरी रोमैन्को ने मीर स्टेशन में 326 दिन गुज़ारे, 1988 में ब्लैडिमिर टिटोव और मूसा मनारोव ने 365 दिन मीर अंतरिक्ष स्टेशन में गुज़ारे। 1995 में वैलेरी पालिकोव ने मीर अंतरिक्ष स्टेशन में एक समय में 438 दिन बिताकर एक विश्व रिकार्ड स्थापित किया। वैलेरी पालिकोव ने दो उड़ानों के द्वारा अंतरिक्ष स्टेशन मीर में कुल 678 दिन गुज़ारे तथा सरगेई अवडेव ने अपनी 3 उड़ानों के द्वारा अंतरिक्ष में (मीर स्टेशन में) 748 दिन गुज़ारे। सरगेई अवडेव का भी रिकार्ड बना हुआ है।

महिला अंतरिक्ष यात्रियों ने भी मीर अंतरिक्ष स्टेशन में लंबे समय प्रवास गुज़ारे हैं। 1995 में एलेना कोंडाकोवा ने मीर स्टेशन में 169 दिन गुज़ारे तथा अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री शैनन ल्युसिड ने मीर स्टेशन में 188 दिन गुज़ारे। महिलाओं में डॉ. शैनन ल्युसिड का सबसे लंबे अंतरिक्ष प्रवास का रिकार्ड बना हुआ है। विदेशी अंतरिक्ष यात्रियों में शैनन ल्युसिड के अलावा फ्रांस के जीन-पियरे और जर्मनी के थामस रीटर ने मीर अंतरिक्ष स्टेशन में क्रमशः 188 दिन और 179 दिन गुज़ारे।

मीर अंतरिक्ष स्टेशन के प्रथम यात्री ल्योनिड किजिम और ब्लैडिमिर सोलोविए थे तथा इन अंतरिक्ष यात्रियों की ख़ास बात यह थी कि ये पहले मीर अंतरिक्ष स्टेशन में पृथ्वी से आए तथा अंतरिक्ष अन्वेषण के लिए इसे प्रचालित किया, तत्पश्चात मीर के पहले के स्टेशन (जो अंतरिक्ष में उस समय मौजूद था) सैल्युट 7 पर एक सोयुज अंतरिक्ष यान के द्वारा चले गए। ये अंतरिक्ष यात्री सैल्युट 7 पर दो महीने रहने के बाद पुनः मीर अंतरिक्ष स्टेशन पर वापस आ गए। 1988 में फ्रांस के अंतरिक्ष यात्री जीन लूप चेर्टियन पहले व्यक्ति थे, (गैर रूसी और गैर अमेरिकी) जिन्होंने पहली स्पेस वॉक की। जापान के पत्रकार थे जो मीर अंतरिक्ष स्टेशन में गए। पत्रकार होने के नाते आकीयामा ने अंतरिक्ष से टोकियो आधारित टेलीविजन चैनेल के लिए सजीव टेलीविजन का प्रसारण किया।

अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन अल्फा से संबंधित समुचित अनुभव पाने के लिए अमेरिकी स्पेस शटल 8 बार मीर अंतरिक्ष स्टेशन से जुड़ी। जुड़ने की यह पहली प्रक्रिया 27 जून 1995 से 7 जुलाई 1995 के बीच हुई तथा नौर्वी डाकिंग प्रक्रिया 2 जून 1998 से 12 जून 1998 के बीच संपन्न हुई। अंतरिक्ष स्टेशन मीर में जाने वाले पहले अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री थे, डॉ. नार्मन थैगर्ड। वे सोयुज टी एम-21 अंतरिक्ष यान के द्वारा मीर अंतरिक्ष स्टेशन में गए तथा स्पेस शटल की उड़ान एस टी एस-71 के द्वारा पृथ्वी पर वापस आए। सात अमेरिकी अंतरिक्ष यात्रियों नार्मन थैगर्ड, शैनन ल्युसिड, जान ब्लाहा, जेरी लिनेंज़र, माइकल फोले, डेविड ओल्फ और ऐंडी थामस ने अंतरिक्ष यात्री मीर अंतरिक्ष स्टेशन जा चुके थे। ब्रिटेन की एकमात्र महिला हेलेन शर्मन भी मीर अंतरिक्ष स्टेशन में गई।

अंत

विश्व के प्रथम स्थायी अंतरिक्ष स्टेशन मीर का 23 मार्च सन 2001 को भारतीय समय के दिन के 11 बजकर 29 मिनट पर न्यूजीलैंड और चिली के बीच के समुद्र में जलसमाधि के साथ अंत हो गया और इसी के साथ अंतरिक्ष विज्ञान क्षेत्र के एक गौरवशाली इतिहास का भी अंत हुआ।

अपने 15 साल के अंतरिक्ष प्रवास में मीर अंतरिक्ष स्टेशन ने मानव कल्याण की दृष्टि से अंतरिक्ष अन्वेषण के क्षेत्र में अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किए और शायद इसने ‘यथा नामो तथा गुणो’ लोकोक्ति को भी चरितार्थ कर दिया।

मीर शब्द रूसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है शांति। पिछले कुछ वर्षों से मीर अंतरिक्ष स्टेशन में कई समस्याएँ चल रही थीं तथा इसका प्रचालन मुश्किल पड़ रहा था। मीर अंतरिक्ष स्टेशन में छोटी-मोटी कई दुर्घटनाएँ हुईं, लेकिन जून 1997 में मीर अंतरिक्ष स्टेशन और मालवाहक प्रोग्रेस यान के बीच अंतरिक्ष में हुए टकराव से मीर स्टेशन के ढांचे को काफी क्षति हुई और इसमें कुछ दरारें पड़ जाने से एक मोड्यूल की ऑक्सीजन अंतरिक्ष में रिस गई। बाद में इसकी मरम्मत भी की गई। रेकॉर्डों के अनुसार, अंतरिक्ष में दो मानव निर्मित पिंडों के बीच घटित होनेवाला यह पहला टकराव था। जुलाई 2000 में मीर अंतरिक्ष स्टेशन को नीदरलैंड की एक कंपनी मीर कार्प्स ने लीज पर लिया तथा इसको प्रचलित करने का बीड़ा उठाया। मीर कार्प्स कंपनी में 60 प्रतिशत शेयर आरकेके इनर्जिया कंपनी के थे जिसने मीर अंतरिक्ष स्टेशन का निर्माण किया था तथा जो अब तक इस स्टेशन का प्रचालन कर रही थी। सारे प्रयासों के बावजूद जब रूस ने यह महसूस किया कि अंतरिक्ष स्टेशन मीर काफी बूढ़ा हो गया है तथा उसके तमाम तंत्र काम नहीं करत रहे हैं और उसका प्रचालन काफी महँगा पड़ रहा है, तब रूसी अंतरिक्ष अधिकारियों एवं सरकार ने उसे कक्षा से हटाकर (डी ऑरबिट) पृथ्वी में समुद्र में गिरा देने का निर्णय लिया।

मीर अंतरिक्ष स्टेशन को पृथ्वी पर गिराने की प्रक्रिया

मीर अंतरिक्ष स्टेशन को अंतरिक्ष से हटाकर पृथ्वी पर गिराने की तैयारी काफी दिनों से की जा रही थी। इसके लिए जनवरी 2001 के महीने में एक प्रोग्रेस अंतरिक्ष यान अंतरिक्ष स्टेशन मीर के लिए छो़ड़ा गया जो अंतरिक्ष में जाकर मीर अंतरिक्ष स्टेशन से जुड़ गया। इसमें कई इंजन लगे हुए थे। यहाँ पर प्रोग्रेस अंतरिक्ष यान के विषय में जानना आवश्यक है। प्रोग्रेस अंतरिक्ष यान एक प्रकार का मानवरहित अंतरिक्ष यान होता है जिसके द्वारा अंतरिक्ष स्टेशनों को विभिन्न प्रकार की सामग्री, उपकरण, खाद्य सामग्री, डाक इत्यादि भेजी जाती है। योजना के अनुसार अंतरिक्ष स्टेशन के कंप्यूटर और इंजनों को अंतरिक्ष केंद्र (मास्को के समीप) के साकरे कमांडों का अनुसरण करते हुए मीर स्टेशन को पृथ्वी पर गिराया जाना था।

मीर अंतरिक्ष स्टेशन से जुड़े आठ इंजनों की पहली फायरिंग भारतीय समय के अनुसार सुबह 6.01 बजे (00.31 ग्रीनविच समय) पर 28 मिनट के लिए की गई और यह तिथि थी 23 मार्च, 2001 की। उस समय मीर अंतरिक्ष स्टेशन हिंद महासागर के ऊपर भूमध्य रेखा से ठीक नीचे था। मीर के प्रोग्रेस यान के इंजनों की दूसरी बार फायरिंग भारतीय समय के अनुसार सुबह 7 बजकर 30 मिनट (02.00 ग्रीनविच समय) पर 24 मिनट के लिए की गई। उस समय मीर अंतरिक्ष स्टेशन पूर्वी अफरीका के ऊपर था। इंजनों की आखिरी फायरिंग तब की गई जब वह टोंगा के ऊपर था। यह फायरिंग 22 मिनट तक चला तथा मीर स्टेशन अब तक ईरान के ऊपर पहुँच चुका था। इन तीनों फायरिंगों में मीर अंतरिक्ष स्टेशन की पृथ्वी से दूरी कम होती गई। जब अंतरिक्ष स्टेशन इंडोनेशिया के ऊपर से गुज़रा तो यह पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश कर गया तथा 1500 छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट गया। फिजी के ऊपर आते-आते इन टुकड़ों से हरे-नीले रंग की चमक आने लगी। वायुमंडल के प्रवेश करने के बाद तथा छोटे-छोटे 1500 टुकड़ों में बटने के बाद 130 टन के मीर अंतरिक्ष स्टेशन का 100 टन भार वायुमंडल में ही जल गया तथा टुकड़ों के रूप में 30 टन का भार जलती हुई अवस्था में न्यूजीलैंड में वेलिंग्टन स्थान से 1800 मील की दूरी पर पूर्व में समुद्र में गिरा। मीर के जलते हुए टुकड़े आकाश में फायर बॉल की भाँति 200 मीटर प्रति सेकंड की गति से तैरते हुए देखे गए। यद्यपि योजना और गणना के अनुसार मीर अंतरिक्ष स्टेशन का कोई भी टुकड़ा आवासीय क्षेत्रों में नहीं गिरना था तथा हुआ भी ऐसा, फिर भी सुरक्षा की दृष्टि से ऐसी स्थिति के लिए रूस ने भावी नुकसान से बचने के लिए 20 करोड़ डॉलर का बीमा करवाया था।

मीर अंतरिक्ष की पृथ्वी पर वापसी का सजीव दृश्य देखने के लिए विशेषज्ञों, पत्रकारों और मेहमानों का विशाल समुदाय बृहस्पतिवार की रात और शुक्रवार की सुबह को मास्को के मिशन नियंत्रण केंद्र में एकत्र हुआ था। विभिन्न देशों के राजदूत, वैज्ञानिक विभूतियों (विश्व के 63 देशों के) न इस दृश्य को देखने के लिए मिशन नियंत्रण कक्ष में स्थान ग्रहण किया। इन व्यक्तियों में अधिकांश प्रतिनिधि उन देशों के थे जो अंतरिक्ष स्टेशन मीर की आखिरी कक्षा में पड़ते थे। ये प्रेक्षक थे- ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, चिली, चीन, मंगोलिया, कजाकिस्तान, इटली और मैकेडोनिया। वैसे तो मीर अंतरिक्ष स्टेशन को नष्ट करने का माह फरवरी, 2001 के लिए सुनिश्चित किया गया था, लेकिन कुछ तकनीकी कारणों से इसे रोकना पड़ा था। जिस मानवरहित प्रोग्रेस अंतरिक्ष यान को अंतरिक्ष स्टेशन मीर से जोड़ा गया उसमें 2.7 टन का ईंधन केवल मीर को पृथ्वी पर लाने के लिए था। उसमें 1500 पौंड का अतिरिक्त ईंधन भी था जिसमें 700 पौंड ईंधन प्रोग्रेस यान द्वारा प्रयोग किया जाना था।

मीर को पृथ्वी पर गिराने की भाँति कुछ अन्य विश्व घटनाएँ

जिस तरह मीर को पृथ्वी पर लाया गया वह कोई नई बात नहीं थी। इसके पहले भी इस तरह के मानव निर्मित पिंडों को पृथ्वी पर लाना आम बात रही है, लेकिन मीर के मामले में एक अति विशिष्ट अंतर है और वह यह है कि मीर अंतरिक्ष स्टेशन का भार 130 टन था जो कि अब तक लाए गए मानव निर्मित पिंडों में सबसे बड़ा था। सन 1978 से अब तक मास्को के मिशन नियंत्रण केंद्र ने 80 प्रोग्रेस मानवरहित अंतरिक्ष यानों को तथा अनेक रूसी अंतरिक्ष स्टेशनों को पृथ्वी पर लाने के लिए इस तकनीक का प्रयोग किया। इनमें सबसे बड़ा सैल्यूट-7 था जिसका भार 40 टन था तथा जो 1991 में पृथ्वी पर लाया गया। सैल्यूट-7 की वापसी (पृथ्वी पर) योजनाबद्ध तरीके से संभव नहीं हो पाई थी। नियंत्रण कक्ष इसे भी उसी स्थान पर जल प्रवाहित करना चाहता था, जहाँ पर मीर अंतरिक्ष स्टेशन ने जल समाधि ली थी, लेकिन वापसी प्रक्रिया में सोवियत नियंत्रण केंद्र का संपर्क सैल्यूट-7 से टूट गया था तथा वे यह नहीं सुनिश्चित कर पाए कि सैल्यूट-7 अपनी कक्षा में नीचे आ गया या नहीं। उन्होंने यह विश्वास किया कि सैल्यूट-7 अब भी कक्षा में था। उतरते समय यह निर्धारित स्थान से दूर गिरा। मीर के मामले में यद्यपि यह एक अलग बात है, क्यों कि यह आकार तथा भार में अन्य प्रकार के उदाहरणों से भिन्न है। मीर को पृथ्वी पर लाने की घटना को 1979 में अमेरिकी अंतरिक्ष यान स्काईलैब को पृथ्वी पर लाने से की जा सकती है जिसका भार 70 टन था। स्काईलैब ऑस्ट्रेलिया के बाहर समुद्र में गिरा। राडार प्रेक्षणों के अनुसार, स्काईलैब समूचा (बिना टुकड़ों में टूटे हुए) समुद्र में गिरा। ऐसा मीर अंतरिक्ष स्टेशन के साथ शायद इसलिए नहीं हुआ, क्यों कि मीर अंतरिक्ष स्टेशन माड्यूलों को जोड़कर बनाया गया था। इसी प्रकार सन 2000 में 14 टन की काम्पटन गामा किरण प्रेक्षणशाला अमेरिका के द्वारा पृथ्वी पर वापस लाई गई। अमेरिकी नियंत्रण केंद्र के अनुसार, यह प्रेक्षणशाला 80 कि.मी. की ऊँचाई पर जलने लगी (वायुमंडल के घर्षण के कारण) तथा 70 कि.मी. की ऊँचाई पर यह कई टुकड़ों में टूट गई।

रूस ने राहत की साँस ली

मीर अंतरिक्ष स्टेशन की पृथ्वी पर सुरक्षित वापसी पर रूसी अंतरिक्ष यात्रियों ने अत्यधिक राहत की साँस ली। मीर अंतरिक्ष स्टेशन को बनानेवाली और प्रचालित रखनेवाली कंपनी एनर्जिया के अध्यक्ष यूरी सेमयोनोव के अनुसार, ”मीर को अंतरिक्ष की कक्षा से वापस लाने में कोई परेशानी नहीं हुई तथा सारा घटनाक्रम आशा के अनुरूप घटित हुआ।” रूसी अंतरिक्ष संस्था के प्रधान यूरी कोप्टेव के अनुसार, ”सारा प्रचालन बहुत अच्छे तरीके से संपन्न हुआ” और उन्होंने नियंत्रण कक्ष के सभी विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं को धन्यवाद दिया। कोप्टेव के अनुसार, ”विशेषज्ञों ने किसी भाँति की भी ग़लती नहीं की तथा उनकी गणनाएँ और प्रचालन शुद्धता एक मिलीमीट तक की थी।”

एनर्जिया कंपनी के अनुसार, अंतरिक्ष स्टेशन मीर जब पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश के समय टुकड़ों में टूटना शुरू हुआ तो इसकी गति उस समय 17895 मील प्रति घंटे यानी आठ कि.मी. प्रति सेकंड थी। मीर स्टेशन के पृथ्वी पर गिरने के समय किसी आपातकालीन परिस्थिति के पैदा हो जाने की अवस्था से निपटने के लिए ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और जापान के देशों ने सुरक्षा के समुचित प्रबंध कर लिए थे।

स्रोत : http://www.abhivyakti-hindi.org/vigyan_varta/vigyan/2009/mir.htm

 


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खगोलशास्त्रियों को सौर परिवार से बाहर मिले ‘पृथ्वी की तरह’के सात ग्रह

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trappist-1-planetsखगोलविदों ने एक ही तारे की परिक्रमा करते धरती के आकार के कम-से-कम सात ग्रहों को खोज निकाला है। मशहूर विज्ञान पत्रिका नेचर में बुधवार को प्रकाशित एक अध्ययन में इन ग्रहों की दूरी 40 प्रकाश वर्ष बताई गई है। एक प्रकाश वर्ष प्रकाश के एक वर्ष में तय की गई दूरी के बराबर होता है। इस खोज की घोषणा अमेरिकी अंतरिक्ष संस्थान नासा के वॉशिंगटन स्थित मुख्यालय में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी की गई है।

एक तारे के इर्द-गिर्द पृथ्वी के आकार के सात ग्रहों की खोज अपने आप में एक किर्तिमान है।

वैज्ञानिकों के मुताबिक इन सभी सात ग्रहों की सतह पर, इनकी दूसरी विशेषताओं के आधार पर, पानी मिलने की पूरी संभावना है। माना जा रहा है कि इनमें से तीन ग्रह पर जीवन की संभावना है और ये “बसने लायक” हैं।

ये सातों ग्रह ट्रैप्पिस्ट-1 नाम के तारे के इर्द-गिर्द मौजूद हैं। यह तारा पृथ्वी से 40 प्रकाश वर्ष दूर है। यह आकार में छोटा और और ठंडा तारा है। ये सभी सात एक्सोप्लैनिट्स (सौर परिवार से बाहर किसी तारे का चक्कर लगाने वाले ग्रह) की संरचना बेहद सख्त है और ये TRAPPIST-1 नामक एक बेहद ठंडे छोटे से तारे के आसपास मिले। उनके द्रव्यमान के अनुमान से उनके ठोस चट्टानी सतह वाले ग्रह होने की संभावना जान पड़ती है न कि बृहस्पति की तरह गैस वाले ग्रह की। इनमें तीन ग्रहों की सतह पर समुद्र भी हो सकते हैं।

ट्रपिस्ट प्रणाली के ग्रहो की पृथ्वी तथा सौर मंडल के चट्टानी ग्रहों से तुलना

ट्रपिस्ट प्रणाली के ग्रहो की पृथ्वी तथा सौर मंडल के चट्टानी ग्रहों से तुलना

नेचर पत्रिका में बताया है कि नासा के स्पलिट्जर स्पेस दूरबीन और सतह से जुड़े कुछ वेधशालाओं की मदद से इन ग्रहों को खोजा गया है।

16797011_1452886604744239_1499917084286298450_oबेल्जियम यूनिवर्सिटी ऑफ लेज के जाने माने लेखक माइकल गिल्लन का कहना है, “ये सारे ग्रह एक दूसरे के करीब हैं। साथ ही ये सातों ग्रह अपने तारे से काफी नजदीक स्थित हैं। इनकी स्थिति बृहस्पति के आसपास मौजूद चंद्रमाओं से काफी मिलती है।”

माइकल के मुताबिक़, “तारा इतना ठंडा और आकार में इतना छोटा है कि माना जा रहा है कि सातों ग्रह का तापमान समशीतोष्ण है। इसका ये अर्थ है कि वहां द्रव जल उपस्थित हो सकता है। और संभव है कि वहां की सतह पर जीवन संभव हो सके।”

ट्रैप्पिस्ट-1 के तीन ग्रह परिभाषा के अनुसार पारंपरिक आवासीय क्षेत्र(गोल्डीलाक क्षेत्र) में है। यहां की सतह पर पर्याप्त वायुमंडलीय दबाव के कारण पानी हो सकता है।

नई खोज के बारे में वैज्ञानिक केवल इसलिए उत्साहित नहीं है कि ये ग्रह पृथ्वी के आकार के हैं। बल्कि ट्रैप्पिस्ट-1 बेहद छोटा और धुंधला तारा है। इसका मतलब ये है कि दूरबीन को ग्रहों का अध्ययन करने में उतनी परेशानी नहीं हुई,जितनी उन्हें इससे अधिक चमकीले तारों का अध्ययन करते समय होती है।

एक अत्याधिक शीतल वामन तारा-ट्रेपिस्ट -1

  1.  यह अधिक ठंडा और सूर्य से लाल और बृहस्पति ग्रह से थोडा बड़ा है।
  2.  बड़ी दूरबीन के साथ शौकिया या नग्न आंखों से देखने पर यह तारा पृथ्वी के अत्यंत करीब होने के बावजूद मंद प्रकाश वाला और अधिक लाल दिखाई देता है।
    यह कुंभ (जल कैरियर) के नक्षत्र में निहित है।
  3. चिली में अपेक्षाकृत बड़े दूरबीन हॉक-I, के यन्त्र ईएसओ के 8 मीटर के साथ क्रासिंग जाँच में इसके सात मे से तीनों ग्रह पृथ्वी के समान आकार के दिखाई देते हैं।
    इनमे से दो ग्रहों की क्रमश: 1.5 और 2.4 दिन की कक्षीय अवधि है, और तीसरे ग्रह की 4.5 से 73 दिनों की कक्षीय अवधि है।
ट्रपिस्ट-1 तारे और उसके ग्रहों का तुलनात्मक आकार। इस चित्र मे सूर्य निचे दायें है। ट्रपिस्ट-1 तारा सूर्य तथा बृहस्पति ग्रह के मध्य दिखाया गया है। ट्रपिस्ट-1 तारे के ग्रहों को लाल चौखटे मे दिखाया गया है, जबकि सौर मंडल के आंतरिक ग्रह निचे पीले चौखटे मे है। उपर सफ़ेद चौखटे मे बृहस्पति के मुख्य चंद्रमा दिखाये गये है जिन्हे गैलीलियन चंद्रमा भी कहते है।

ट्रपिस्ट-1 तारे और उसके ग्रहों का तुलनात्मक आकार। इस चित्र मे सूर्य निचे दायें है। ट्रपिस्ट-1 तारा सूर्य तथा बृहस्पति ग्रह के मध्य दिखाया गया है। ट्रपिस्ट-1 तारे के ग्रहों को लाल चौखटे मे दिखाया गया है, जबकि सौर मंडल के आंतरिक ग्रह निचे पीले चौखटे मे है। उपर सफ़ेद चौखटे मे बृहस्पति के मुख्य चंद्रमा दिखाये गये है जिन्हे गैलीलियन चंद्रमा भी कहते है।

बुध से छोटी कक्षा

ये सभी ग्रह अपने मातृ तारे की काफी समीप से परिक्रमा करते है। सभी ग्रह तुलनात्मक रूप से बुध की कक्षा के अंदर समा जॉयेंगे। इन पर एक वर्ष केवल कुछ ही दिनों का होगा।

ट्रपिस्ट -1 के सारे ग्रह बुध की कक्षा मे समा जायेंगे। चित्र मे इस ग्रह प्रणाली के आकार की तुलना बुध की कक्षा तथा बृहस्पति के चंद्रमाओं की कक्षा से की गई है।

ट्रपिस्ट -1 के सारे ग्रह बुध की कक्षा मे समा जायेंगे। चित्र मे इस ग्रह प्रणाली के आकार की तुलना बुध की कक्षा तथा बृहस्पति के चंद्रमाओं की कक्षा से की गई है।

भविष्य

इससे अब बहुत दूर स्थित इस दुनिया और उनके वायुमंडल के बारे में शोध करने के कई नए अवसर पैदा हुए हैं। अगले कुछ दशकों में अनुसंधानकर्ता इन ग्रहों के वातावरण का पता लगाने की कोशिश करेंगे। इससे पक्का हो पाएगा कि सच में उनकी सतह पर पानी एवं जीवन की संभावना है भी या नहीं। हालांकि, 40 प्रकाश वर्ष सुनने में तो बहुत ज्यादा नहीं लगता है, लेकिन इन उन तक पहुंचने में हमें लाखों वर्ष लग सकते हैं। लेकिन, अनुसंधान के नजरिए से यह बेहतरीन अवसर है और सौर परिवार से बाहर जीवन की खोज का सर्वोत्तम लक्ष्य है।

शोध का अगला चरण शुरू हो चुका है। इसमें वैज्ञानिकों ने ऑक्सीजन और मिथेन जैसे महत्वपूर्ण गैसों की खोज कर रहे हैं। इससे ग्रहों की सतह पर हो रही हलचल और बदलाव के बारे में साक्ष्य मिल सकते हैं।

रोचक तथ्य

  1. इससे पहले कभी ऐसा कोई सौर मंडल नहीं मिला था, जहां धरती के आकार वाले इतने ग्रह मिले हों। इसके अलावा, ये ग्रह चट्टानी(ठोस) भी हैं। मालूम हो कि चट्टानी ग्रह ऐसे ग्रह होते हैं, जो कि मुख्य तौर पर सिलिकेट चट्टानों और धातुओं से बने होते हैं।
  2. इन 7 में से कम से कम 3 ग्रह ऐसे हैं, जहां द्रव जल के सागर होने की संभावना है। इतना ही नहीं, इनका तापमान भी जीवन के अनुकूल है।
  3. वैज्ञानिकों को जल्द ही इस ग्रह पर जीवन के साक्ष्य मिलने की उम्मीद है। इन ग्रहों की खासियत यह है कि इनकी सतह का तापमान जल को तरल स्थिति में रहने देने के लिए भी अनुकूल है। ये सभी परिस्थितियां जीवन के लिए आदर्श मानी जाती हैं।
  4. अब वैज्ञानिक इन ग्रहों के वातावरण में उपस्थित अणुओं का पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं। यह पता किया जा रहा है कि यहां ऑक्सिजन उपलब्ध है या नहीं और अगर है, तो कितनी मात्रा में है। ऑक्सिजन की उपलब्धता यहां की जैविक परिस्थितियों की ओर भी संकेत करेगी।
  5. इस खोज में शामिल शोधकर्ताओं का कहना है कि अगले एक दशक के दौरान पता लगा लिया जाएगा कि वहां जीवन मौजूद है या नहीं। उनका कहना है कि अगर ट्रैपिस्ट-1 के सिस्टम में फिलहाल जीवन नहीं भी उपलब्ध होगा, तो निराशा की बात नहीं है। यह तारा बेहद युवा है। ऐसे में उम्मीद है कि आगे भविष्य में यहां जीवन विकसित हो सकता है।
  6. यहां का सूर्य हमारे अपने सूर्य की तुलना में करीब 10 गुना बड़ा दिखेगा। इस सूर्य का रंग कुछ-कुछ सैमन मछली जैसी गुलाबी रंगत लिए हुए होगा। वैज्ञानिकों ने पहले सोचा था कि इसका रंग गहरा लाल होगा, लेकिन इस लाल रंग का अधिकांश हिस्सा अवरक्त(इन्फ्रारेड) होने के कारण यह दिखाई नहीं देता।
  7. अगर इन ग्रहों पर जीवन हुआ, तो उनके देखने की क्षमता हमारी तरह नहीं होगी। अवरक्त(इन्फ्रारेड) किरणो की अधिकता के कारण उनकी आंखें किसी और तरीके से अनुकूलित होंगी। ऐसे में हमें चीजें जैसी दिखती हैं, वैसी उन्हें नहीं दिखेंगी। हो सकता है कि वहां मौजूद जीवन के पास आंखें ही ना हों।
  8. वैज्ञानिकों के मुताबिक, जब हमारे सौर मंडल के सूर्य का ईंधन खत्म हो जाएगा और हमारा यह सौरमंडल मिट जाएगा, तब भी ट्रैपिस्ट-1 अपने शुरुआती बचपन के ही दौर में होगा। ट्रैपिस्ट-1 इतना ठंडा है कि इसके बेहद नजदीक स्थित ग्रहों की सतह पर भी पानी तरल रूप में बना रह सकता है। ट्रैपिस्ट-1 इतने धीरे-धीरे हाइड्रोजन जलाता है कि आने वाले 10,000000000000000000 से भी ज्यादा सालों तक यह जिंदा रहेगा।
  9. इतनी गिनती तो हम शायद ही गिन पाएं। सहूलियत के लिए आपको बता दें कि यह संख्या हमारे ब्रह्मांड की मौजूदा आयु से 700 गुना ज्यादा है। ऐसे में इन ग्रहों पर आने वाले समय में जीवन विकसित होने की भरपूर संभावना है।
  10. ये सभी ग्रह संक्रमण विधि (ट्रांजिट फोटोमटरी) व्यवस्था से खोजे गये हैं। इस व्यवस्था के अंतर्गत जब कोई ग्रह अपने मातृ तारे के सामने से गुजरता (ट्रांजिट/संक्रमण/ग्रहण करता) है, तो प्रकाश के एक छोटे हिस्से को रोक देता है। प्रकाश मे आई कमी से ग्रह की उपस्थिति का पता चलता है और हमें उसके आकार के बारे में भी जानकारी मिलती है।
  11. वैज्ञानिकों को ट्रैपिस्ट-1 सबसे पहले साल 2010 में दिखा था। सूर्य के नजदीक के सबसे छोटे तारे पर बारीक नजर रखने के बाद यह दिखाई दिया था। इसके बाद से ही खगोलशास्त्री यहां के संक्रमण पर नजर रख रहे हैं। 34 संक्रमण को साफ-साफ देखने के बाद वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इन्हें 7 ग्रहों की संज्ञा दी जा सकती है।
  12. इसके बाद वैज्ञानिकों ने इनके आकार और संरचना को समझने की कोशिश की। यह काम अभी भी जारी है। शोधकर्ताओं का मानना है कि इन ग्रहों पर बड़े-बड़े समुद्र हैं। माना जा रहा है कि ये ग्रह शीतोष्ण हैं। इनकी बाकी परिस्थितियां भी जीवन के अनुकूल हैं। इस खोज में शामिल वैज्ञानिकों का मानना है कि यह बेहद दिलचस्प ग्रहीय व्यवस्था है। ऐसा केवल इसलिए कि धरती के आकार से मिलते-जुलते इतने सारे ग्रहों का मिलना निश्चित तौर पर काफी रोमांचक खोज है।
  13. अगर कोई व्यक्ति इन सातों में से किसी ग्रह पर हो, तो उसे चीजें सामान्य से ज्यादा अंधेरी दिखेंगी। सूर्य से हमें जितनी रोशनी मिलती है, उससे करीब 200 गुना कम प्रकाश हमारी आंखों में जाएगा और इसीलिए यहां पर हमें कुछ-कुछ वैसा ही दिखेगा, जैसा कि अपनी धरती पर सूर्यास्त के समय दिखता है।
  14. इस अंधेरे के बावजूद, वहां का तापमान गर्म होगा। ऐसा इसलिए कि सूर्य की जितनी ऊर्जा धरती को गर्म करती है, करीब-करीब उतनी ही ऊर्जा इन 7 ग्रहों को भी मिलती है, लेकिन यह प्रकाश अवरक्त होता है।
  15. यह तारा इतना धुंधला है कि सभी सातों ग्रहों शीतोष्ण क्षेत्र में आते हैं और अच्छी तरह गर्म होते हैं। एक-दूसरे के इतने करीब होने के बावजूद वे गर्म हैं। इन सातों में से हर ग्रह की अपने सूर्य से दूरी हमारे सूर्य की बुध से दूरी की तुलना में कम है। मालूम हो कि हमारे सौर मंडल में सूर्य के सबसे नजदीक बुध है।
  16. वैज्ञानिकों के मुताबिक, इन ग्रहों का नजारा देखने में बेहद शानदार होगा। एक-दूसरे के समीप होने के कारण अक्सर यहां दूसरे ग्रहों को देखा जा सकेगा। ये ऐसे ही दिखेंगे जैसे कि हमें अपने आकाश में चांद दिखता है।
  17. वैज्ञानिक अब इन ग्रहों की प्रकृति के बारे में और जानकारी जुटाने की कोशिश कर रहे हैं। सातवें ग्रह पर खास ध्यान दिया जा रहा है। यह सबसे बाहरी छोर पर है और अभी यह पता नहीं है कि वह अंदर के बाकी 6 ग्रहों पर किस तरह प्रभाव डालता है।
  18. मालूम हो कि 1992 में पहली बार सौर मंडल के बाहर स्थित किसी ग्रह को खोजा गया था। उसके बाद से अबतक वैज्ञानिकों ने करीब 3,500 ग्रहों को खोज निकाला है। ये ग्रह 2,675 तारा प्रणाली में फैले हुए हैं।
  19. वैज्ञानिक लंबे समय से मानते आ रहे थे कि ब्रह्मांड में धरती के आकार के ग्रहों की संख्या काफी ज्यादा है। माना जा रहा है कि इन ग्रहों में से ज्यादातर को शायद कभी देखा नहीं जा सकेगा। जो ग्रह अपने मातृ तारे के सामने से नहीं गुजरते हैं वे अंधेरे में डूबे रहते हैं और उन्हें देखना मुमकिन नहीं है।
  20. बहुत कुछ ऐसा है जो कभी नहीं खोजा जा सकेगा वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर एक ग्रह की खोज होती है, तो कम से कम 100 ग्रह ऐसे छूट जाते हैं जिन्हें देखा नहीं जा सकता है।

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एक ब्रह्माण्ड या अनेक ब्रह्माण्ड(Universe or Multiverse)

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अनेक ब्रह्माण्ड(Multiverse)

अनेक ब्रह्माण्ड(Multiverse)

आज हम उस स्थिति में हैं कि अपने ब्रह्मांड की विशालता का मोटे तौर पर आकलन कर सकते हैं। हमारी विराट पृथ्वी सौरमंडल का एक साधारण आकार का ग्रह है, जो सूर्य नामक तारे के इर्दगिर्द परिक्रमा कर रही है। सौरमंडल का स्वामी होने के बावजूद सूर्य भी विशाल आकाशगंगा-दुग्धमेखला नाम की मंदाकिनी का एक साधारण और औसत आकार व आयु का तारा है। इस विराट ब्रह्मांड में हमारी आकाशगंगा की तरह लाखों अन्य आकाशगंगाएं भी हैं। अत: हमारा ब्रह्मांड आकाशगंगाओं का एक विशाल समूह है। आजकल के वैज्ञानिक यहाँ तक मानते हैं कि ब्रह्मांड एक नहीं बल्कि अनेक हैं। इसके पीछे उनका यह तर्क है कि दिक् (अंतरिक्ष) का कोई भी ओर-छोर नहीं है, इसलिए एक से अधिक ब्रह्मांड होने की सम्भावना है।

आख़िर हम यह कैसे कह सकते हैं कि हमारा ब्रह्मांड अनेक ब्रह्मांडों में से एक है?

निकोलस कोपरनिकस

निकोलस कोपरनिकस

अनेक ब्रह्मांड होने की संकल्पना में हमारी सदियों से दिलचस्पी रही है। निकोलस कोपरनिकस ने सर्वप्रथम यह बताया कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है तथा पृथ्वी ब्रह्मांड के केंद्र में नहीं है। आगे ज्योदार्न ब्रूनो ने यह बताया कि सूर्य एक तारा है और ब्रह्मांड में अनगिनत तारे हैं। उन्होंने यहाँ तक कहा कि आकाश अनंत है, तथा हमारे सौरमंडल की तरह अनेक और भी सौरमंडल इस ब्रह्मांड में अस्तित्वमान हैं। 18वी सदी आते-आते दूसरे सौरमंडलों के होने की ब्रूनों की कल्पना को सामान्य रूप से अपना लिया गया। इसलिए सूर्य की ब्रह्माण्ड में विशिष्ट स्थिति पर खतरा मंडराने लगा, यह तब और भी स्पष्ट हो गया जब यह पता चला कि सूर्य भी हमारी आकाशगंगा के अरबों तारों में से एक है और यह वहां भी केंद्र में नहीं है। जब आधुनिक काल में ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बिग बैंग सिद्धांत की खोज हुई तब लोगों को यह लगा कि हो न हो हमारी आकाशगंगा ही ब्रह्मांड के केंद्र में है, जो एक महा-विस्फोट का केंद्र बनी। परन्तु ऐसा भी नहीं था, अगर हम सोचें कि किसी अन्य आकाशगंगा से हमारा ब्रह्मांड कैसा दिखाई देगा? उत्तर है कि हमारे इस नए प्रेक्षण स्थल से भी सभी आकाशगंगाएं दूर भागती दिखाई देंगी। अत: आज पूर्व-कोपरनिकस निष्कर्षों का कोई औचित्य नहीं रह गया है। वास्तव में कोपरनिकस के सूर्यकेंद्री सिद्धांत ने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में ऐसी मांग उठाई, जैसी कभी उठाने की कल्पना भी नहीं की गयी थी! इसलिए वैज्ञानिकों को लगने लगा कि अनंत अंतरिक्ष में यह आवश्यक नहीं है कि एक ही ब्रह्मांड हो। इस सामान्य तर्क से एक से अधिक ब्रह्मांड होने की संकल्पना को बल मिला।

एक से अधिक ब्रह्मांड होने की अवधारणा के बारे में अक्सर यह दावा किया जाता है कि इसकी संकल्पना तो हमारे वेदों में भी है। मगर वेदों में वर्णित इस संकल्पना का कोई गणितीय आधार नहीं है, इसलिए ये तथ्यात्मक भी नहीं हैं। वहीं वर्तमान में जो वैज्ञानिक अनेक ब्रह्मांड होने का दावा करते हैं, प्रमाणस्वरूप उनके पास गणितीय आधार अवश्य होता है। इसलिए अनेक ब्रह्मांड होने की आधुनिक संकल्पना से प्राचीन भारतीय साहित्य की विशेषकर वेदों से समानता सतही मात्र है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से एक से अधिक ब्रह्मांड होने की बात सबसे पहले अमेरिकी दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स ने वर्ष 1895 में कही उन्होंने बहु-ब्रह्मांड के लिए सर्वप्रथम मल्टीवर्स शब्द का उपयोग भी किया, मगर आज की अनेक ब्रह्मांड की संकल्पना विलियम जेम्स के कल्पना से कहीं अधिक तथ्यगत है।
बिग बैंग समय रेखा

बिग बैंग समय रेखा

अनेक ब्रह्मांड होने की सम्भावनाओं पर बीसवी सदी में और इधर शुरू के वर्षों में काफी कार्य हुआ है। हमारे ब्रह्मांड के बारे में ऐसा कहा जाता है कि इसकी उत्पत्ति आज से तेरह अरब सत्तर करोड़ वर्ष पहले बिग बैंग नाम के महाविस्फोट से हुआ था। कहा जाता है कि हमारा संपूर्ण ब्रह्मांड एक अति-सूक्ष्म बिंदु में समाहित था। किसी अज्ञात कारण से इसी सूक्ष्म बिंदु से एक तीव्र विस्फोट हुआ तथा समस्त द्रव्य इधर-उधर छिटक गया। इस स्थिति में किसी अज्ञात कारण से अचानक ब्रह्मांड का विस्तार शुरू हुआ और यह भौतिक विज्ञानी ऐलन गुथ के अनुसार महास्फीति (महाविस्तार) की स्थिति से भी गुजरा। महास्फीति से अभिप्राय यह है कि ब्रह्मांड का यह विस्तार वर्तमान विस्तार दर की तुलना में अकल्पनीय तौर पर बहुत ही तीव्र गति से हुआ था। इस महाविस्तार को अभी तक ब्रह्मांड विज्ञान समझाने में पूर्णतया समर्थ नहीं है, परंतु वैज्ञानिकों का यह मानना है कि शुरुवाती ब्रह्मांड में अलग-अलग क्षेत्रों की विस्तारण दरें भी भिन्न-भिन्न रही होंगी और वे अपने अलग-अलग ब्रह्मांड भी बनाएं होंगे, जिनमें भौतिकी के नियम भी अलग-अलग रहे होंगे। वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि इन क्षेत्रीय ब्रह्मांडों के बीच का अंतरिक्ष इतनी तीव्र गति से विस्तृत हो रहा है कि इन ब्रह्मांडों में से किन्हीं दो ब्रह्मांडों का सम्पर्क संभव नहीं है, यहाँ तक कि संदेश प्रकाश की गति से भी भेजा जाए तो भी नहीं! वैज्ञानिक कहते हैं कि भले ही ब्रह्मांड अलग-अलग हों, किंतु वे सदैव ऐसा नहीं रहेंगे। भविष्य में एक समय ऐसा भी आएगा कि जब वो एक-दूसरे के नजदीक आएंगे, और एक-दूसरे में विलीन हो जाएंगे। स्ट्रिंग सिद्धांत, जो दस आयामों की बात करता है को जब महाविस्तार सिद्धांत से मिलाया जाता है, तो वह यह भी बताता प्रतीत होता है कि एक महाब्रह्मांड में अनेकानेक शिशु ब्रह्मांड भी उपस्थित हो सकते हैं।

वैसे अनेक ब्रह्मांड होने की संकल्पना आधुनिक ब्रह्मांड विज्ञान के दो अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर भी देती प्रतीत होती है-
  • पहला यह कि बिग बैंग से पहले क्या था? तथा
  • दूसरा यह कि भौतिकी के नियम ऐसे ही क्यों हैं, जैसाकि हम जानते हैं?
पहले का उत्तर है कि इसके अनुसार असीमित बार बिग बैंग हुआ होगा, जिससे नया ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ होगा। तथा इसलिए (दूसरे का उत्तर) भौतिकी के नियमों की असीमित सम्भावनाएं बनी होंगी, और हमारे ब्रह्मांड के भौतिकी के ये नियम असीमित नियमों में से एक हैं। यदि हम मान लें कि वास्तव में ऐसे ब्रह्मांडों का अस्तित्व है तो हो सकता है कि वहां पर जीवन भी हो। यह दिलकश ख्याल ही हमे अपने जैसों को ढूढ़ने के लिए विचलित कर देता है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने अनेक ब्रह्माण्ड होने की संभावना को लेकर कई प्रकार के सिद्धांत विकसित किये हैं, जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांतों का वर्णन हम आगे करेंगे।

समांतर ब्रह्मांड सिद्धांत

जब भी ट्रिगर दबाया जाता है, दोनो संभव परिणामो को समाविष्ट करने ब्रह्माण्ड का विभाजन हो जाता है और दो समांतर ब्रह्माण्ड बन जाते है।

जब भी ट्रिगर दबाया जाता है, दोनो संभव परिणामो को समाविष्ट करने ब्रह्माण्ड का विभाजन हो जाता है और दो समांतर ब्रह्माण्ड बन जाते है।

समांतर ब्रह्मांड की अवधारणा का विचार सर्वप्रथम वर्ष 1954 में प्रिंसटन विश्वविद्यालय के शोध छात्र हुग एवेरेट ने दिया था। उन्होंने कहा था कि हमारे अपने ब्रह्माण्ड की ही तरह दूसरे कई समांतर ब्रह्माण्ड मौजूद हो सकते हैं और वे सभी ब्रह्माण्ड हमारे ब्रह्माण्ड से संबंधित हो सकते हैं। एवेरेट की इस अवधारणा का वर्षों तक मजाक उड़ाया जाता रहा, लेकिन जब सैद्धांतिक वैज्ञानिक मैक्स टैगमार्क ने क्वांटम आत्महत्या नामक वैचारिक प्रयोग को प्रस्तावित किया, तभी से इसको गम्भीरता से लिया जाने लगा है। सामान्य भाषा में इस वैचारिक प्रयोग के अनुसार एक व्यक्ति अपने सिर पर बंदूक ताने बैठा रहता है। वह व्यक्ति घबराहट में बंदूक का ट्रिगर दबाता है। ट्रिगर दबाते ही ब्रह्मांड का विभाजन दो परिणामों के अनुसार हो जाता है। एक ब्रह्मांड में गोली चल जाती है और वह व्यक्ति मर जाता है, तो दूसरे ब्रह्मांड में गोली नहीं चलेगी और व्यक्ति जीवित रहेगा।

समांतर ब्रह्मांड सिद्धांत के अनुसार किसी भी क्रिया के सभी संभव परिणामों के अनुसार ब्रह्मांड का उतने ही भागों में विभाजन हो जाता है। प्रत्येक ब्रह्मांड मूल ब्रह्मांड का ही प्रतिरूप होता है, लेकिन किसी भी क्रिया का परिणाम हरेक ब्रह्मांड में अलग-अलग होता है। इसका अर्थ यह है कि जब आप कोई लाटरी निकालते हैं और यदि हम अपने इस ब्रह्मांड में हार जायेंगे तो किसी अन्य ब्रह्मांड में हम जीत भी जायेंगे। इसी प्रकार से किसी अन्य ब्रह्मांड में महात्मा गाँधी और अल्बर्ट आइन्स्टाइन जीवित होंगे, हिरोशिमा और नागासाकी को परमाणु बम की त्रासदी नहीं झेलनी पड़ी होगी, चाँद पर सर्वप्रथम जाने की रेस में सोवियत संघ विजयी हो गया होगा वगैरह-वैगरह। यह सब दिमाग को चकरा देने वाला है, क्योंकि इस हिसाब से हमारे ब्रह्मांड के भौतिकी के नियम उसके समांतर दूसरे ब्रह्मांड के नियमों से पूर्णतया अलग होंगे! दरअसल इस परीकल्पना के अनुसार किसी क्रिया के परिणाम केवल दो ब्रह्मांडीय भागों में ही नहीं विभाजित होते हैं, बल्कि अनंत ब्रह्मांडों में विभाजित होते हैं। जैसे अभी आप इस ब्रह्मांड में यह लेख पढ़ रहें हैं, हो सकता है कि किसी ब्रह्मांड में आपने यह लेख न पढ़ रहें हो, यह भी हो सकता है कि किसी ब्रह्मांड में आप यह लेख पढ़ चुके हों और किसी अन्य क्रियाकलाप में व्यस्त हों। इस प्रकार से अनंत सम्भावनाएं सृजित होती है इसलिए इस ब्रह्मांड में (जिसमे हम इस लेख को पढ़ रहे हैं) एक सम्भावना सच होती है, तो किसी अन्य ब्रह्मांड में इससे पूर्णतया भिन्न घटित घटनाएँ उस ब्रह्मांड की सच्चाई बन जाती हैं।
वर्तमान में समांतर ब्रह्मांड की अवधारणा के पक्ष में ब्रायन ग्रीन, मिचिओं काकू, स्टीफेन हाकिंग आदि जाने-माने भौतिक विज्ञानी खड़े हैं। इनमे से भी सबसे बड़े पक्षधर ब्रायन ग्रीन माने जाते हैं। हमें ब्रायन ग्रीन के अनेक ब्रह्मांड के सिद्धांत पर उनके कार्यों के बारे जानकारी उनकी पुस्तक ‘हिडन रियालिटी, पैरलल यूनिवर्सिज ऐंड द डीप लॉ ऑफ द कॉस्मोस’ से प्राप्त होती है। ग्रीन के अनुसार परंपरा से हमारा ब्रह्मांड हमारे लिए उस सब कुछ का जोड़ रहा है, जो कुछ उपस्थित है, लेकिन पिछले दशकों के शोध और अनुसंधान से पता चलता है कि सभी तारों, आकाशगंगाओं और सभी कुछ का यह जोड़, कहीं अधिक बड़े, ऐसे अस्तित्व का एक भाग है, जिसमे अनेक ब्रह्मांड सम्मिलित हो सकते हैं। इससे एक महा-ब्रह्मांड की संकल्पना का उदय होता है, जिसके अनुसार सभी ब्रह्मांड इस महा-ब्रह्मांड के अंदर समाहित हैं!
हुग एवेरेट को यह नहीं पता था कि समांतर ब्रह्मांड कहाँ हैं? और न ही आज के वैज्ञानिक इस विषय में ज्यादा जानते हैं। वैज्ञानिक डेलस एडम्स ने व्यंग्य करते हुए यह कहा था कि जब आप समांतर ब्रह्मांड की अवधारणा पर काम कर रहे होतें हैं तो दो बातें याद रखें- पहला यह कि ये ब्रह्मांड समांतर नहीं है और दूसरा यह कि ये वस्तुतः ब्रह्मांड हैं ही नहीं!

शिशु ब्रह्मांड सिद्धांत

शिशु ब्रह्माण्ड(baby universe)

शिशु ब्रह्माण्ड(baby universe)

क्वांटम भौतिकी के सिद्धांत, जो व्यष्टि ब्रह्मांड के अध्ययन से संबंधित है, निश्चित परिणामों की बजाय सम्भावनाओं के सन्दर्भ में ब्रह्मांड का वर्णन करते है। और इस सिद्धांत का गणित यह सुझाव देता प्रतीत होता है कि किसी भी स्थिति के सभी सम्भव परिणाम होते हैं – अपने अलग-अलग ब्रह्मांड में। उदाहरण के लिए आप एक चौराहे पर पहुंचतें हैं, जहाँ पर आप सही या बाएं रास्ते पर जा सकते हैं। तो वर्तमान ब्रह्मांड दो शिशु ब्रह्मांडों की वृद्धि करता है : एक वह जिसमे आप सही रास्ते पर जाते हैं, तो दूसरा वह जिसमे आप गलत रास्ते पर जाते हैं। यह अवधारणा मूलतः समांतर ब्रह्मांड की अवधारणा से संबंधित है। इस सिद्धांत के अनुसार शिशु ब्रह्मांडों की उत्पत्ति उसके अभिवावक महा-ब्रह्मांड से हुई है।

बुलबुला ब्रह्मांड सिद्धांत

बुलबुला ब्रह्मांड

बुलबुला ब्रह्मांड

ब्रह्मांड विज्ञान में महास्फिति नामक एक अवधारणा है, जिसके अनुसार बिग बैंग से ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बाद यह तेजी से विस्तारित हुआ। प्रभाव में यह एक गुब्बारे की तरह बढ़ रहा है, अर्थात् जब हम हम गुब्बारे को फुलाते हैं तो उसके बिंदियो के बीच दूरियों को बढ़ते हुए देखते हैं। टफ्ट्स यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक अलेक्ज़ेंडर विलनेकिन द्वारा प्रस्तावित आदिम महास्फिति से पता चलता है कि अन्तरिक्ष असंतुलित अर्थव्यवस्था की भांति अराजकता की स्थिति में तीव्र गति से विस्तृत हो रही है, और बुलबुलों की उत्पत्ति हो रही है। यह विस्तार ही बुलबुलों को जन्म दे रहा है, जोकि नए ब्रह्मांडों की उत्पत्ति का कारण है। इस प्रकार हमारे स्वयं के ब्रह्मांड में जहाँ महास्फिति समाप्त हो गयी है, जिसके फलस्वरूप तारों और आकाशगंगाओं का निर्माण हुआ और हो रहा है। ब्रह्मांड के विस्तार ने ब्रह्मांड को एक बुलबुला बना दिया और इस बुलबुले से नये ब्रह्मांडों की उत्पत्ति हुई, जिनमें न कोई आपसी जुड़ाव था और न ही उनके भौतिकी के नियम-कानून एक हैं। आसान शब्दों में कहें तो प्रत्येक बिग बैंग से एक फैलते बुलबुले का जन्म हुआ होगा और हमारा ब्रह्मांड उनमें से एक विस्फोट की उपज है।

अनेक ब्रह्मांड के बारे में वर्तमान में प्रचलित कुछ प्रमुख सिद्धांतों की ऊपर हमने चर्चा की है। मुश्किल यह है कि इसमें से किसी भी सिद्धांत को सत्य की कसौटी पर नहीं कसा जा सकता है, क्योंकि यदि दूसरे ब्रह्मांड अस्तित्व में हों भी तो वर्तमान विज्ञान उनसे सम्पर्क करने में असमर्थ है। बहरहाल, हम वर्तमान बहु-ब्रह्मांडीय सिद्धांतों को बौद्धिक विलसिता या कोरी कल्पना नहीं कह सकते हैं क्योंकि गणितीय समीकरण हमें यह अजीबोगरीब संकेत देते नज़र आ रहें हैं कि एकाधिक ब्रह्मांड हो सकते हैं! हालाँकि इन सिद्धांतों को हम तब तक नहीं स्वीकार करेंगे, जब तक कि वैज्ञानिक विधि के अनुसार प्रयोगों द्वारा इसके पक्ष में प्रभावी साक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाते हैं। फिलहाल अनेक ब्रह्मांड होने की संकल्पना पर वैज्ञानिक गम्भीरतापूर्वक काम कर रहे हैं। और वे उस बुनियादी सिद्धांत (थ्योरी ऑफ़ एवरीथिंग) को ढूढने का प्रयास कर रहें हैं, जो प्रत्येक स्थान पर, प्रत्येक स्थिति में लागू हों। तबतक के लिए आप ब्रायन ग्रीन की तरह दैनिक जीवन की सामान्यता से बाहर निकलर ब्रह्मांड को उसके विशालतम रूप (महाब्रह्मांड रूप) को गणितीय समीकरणों के अधीन देखकर आनन्दित महसूस कीजिये।

लेखक के बारे मे

प्रदीप

प्रदीप

श्री प्रदीप कुमार यूं तो अभी  विद्यार्थी हैं, किन्तु विज्ञान संचार को लेकर उनके भीतर अपार उत्साह है। आपकी ब्रह्मांड विज्ञान में गहरी रूचि है और भविष्य में विज्ञान की इसी शाखा में कार्य करना चाहते हैं। वे इस छोटी सी उम्र में न सिर्फ ‘विज्ञान के अद्भुत चमत्कार‘ नामक ब्लॉग का संचालन कर रहे हैं, वरन फेसबुक पर भी इसी नाम का सक्रिय समूह संचालित कर रहे हैं।


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आधुनिक खगोलशास्त्र के पितामह : एडवीन हबल

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एडवीन हबल( Edwin Hubble)

एडवीन हबल( Edwin Hubble)

एडविन हबल ब्रह्मांड के विस्तार सिद्धांत के प्रवर्तक और आधुनिक खगोल विज्ञान के पितामह थे । हबल बीसवीं सदी के अग्रणी खगोलविदों में से एक थे । उन पर ही हबल अंतरिक्ष टेलीस्कोप का नामकरण हुआ था । 1920 के दशक में हमारी अपनी मंदाकिनी(milky way) आकाशगंगा के परे अनगिनत आकाशगंगाओं की उनकी खोज ने ब्रह्मांड की और उसके भीतर हमारे वजूद की समझ में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया था ।

एडविन हबल (1889-1953) का जन्म मार्सफिल्ड, मिसौरी में हुआ । अपने पहले जन्मदिन से पहले उन्हें व्हीटॉन, इलिनोइस ले जाया गया । उन्होंने शिकागो के विश्वविद्यालय में गणित और खगोल विज्ञान का अध्ययन किया और 1910 में विज्ञान की स्नातक डिग्री अर्जित की । वें ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के पहले रोड्स विद्वानों में से एक थे, जहां उन्होंने कानून का अध्ययन किया । प्रथम विश्व युद्ध में संक्षेप सेवा के बाद, वह शिकागो विश्वविद्यालय लौट आए और 1917 में अपनी डॉक्टरेट की उपाधि अर्जित की । माउंट विल्सन वेधशाला में एक पूरे लंबे कैरियर के बाद 28 सितंबर,1953 को सैन मैरिनो, कैलिफोर्निया में दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई ।

हबल ट्यूनिंग फोर्क डायग्राम (Hubble, Tuning Fork)

हबल ट्यूनिंग फोर्क डायग्राम (Hubble, Tuning Fork)

हबल के समय के ज्यादातर खगोलविदों की सोच थी कि ग्रहों, अनगिनत सितारों और नीहारिकाओं से भरापूरा समूचा ब्रह्मांड मंदाकिनी(मिल्की वे) आकाशगंगा के भीतर समाहित है । हमारी आकाशगंगा ही समस्त ब्रह्मांड का पर्याय बन गई थी । 1923 में हबल ने एंड्रोमेडा(देव्यानी) निहारिका नामक आकाश के एक धुंधले पट्टे पर हूकर दूरबीन का प्रशिक्षण किया । उन्होंने पाया कि एंड्रोमेडा भी हमारी आकाशगंगा की ही तरह सितारों से भरी हुई है, लेकिन केवल मंद तारों से । उन्होंने वहां एक सितारा देखा जो सेफिड चर(cepheid variable) का था जो कि परिवर्ती चमक के तारों का एक प्रकार है, जिसका इस्तेमाल दूरी को मापने के लिए किया जा सकता है । इसकी सहायता से हबल ने निष्कर्ष निकाला कि एंड्रोमेडा निहारिका कोई नजदीकी तारा समूह नहीं बल्कि एक अन्य समूची आकाशगंगा है जिसे अब एंड्रोमेडा आकाशगंगा कहा जाता है । बाद के वर्षों में उन्होंने अन्य नीहारिकाओं के साथ इसी तरह की खोजें की । 1920 के दशक के अंत तक, अधिकाँश खगोलविद आश्वस्त थे कि हमारी मंदाकिनी आकाशगंगा( मिल्की वे) अकेली नहीं वरन ब्रह्मांड की लाखों आकाशगंगाओं में एक थी । यह खोज ब्रम्हांड की समझ की हमारी सोच में बदलाव का एक अहम् मोड़ साबित हुई ।

हबल तो एक कदम आगे चले गए । उस दशक के अंत तक उन्होंने परस्पर तुलना करने लायक पर्याप्त आकाशगंगाओं की खोज कर ली। उन्होंने आकाशगंगाओं को अण्डाकार, सर्पिल और पट्टीदार सर्पिल में वर्गीकृत करने के लिए एक प्रणाली बनाई । इस प्रणाली को हबल ट्यूनिंग फोर्क डायग्राम कहा जाता है जिसके एक विकसित रूप का आज प्रयोग किया जाता है ।

लेकिन सबसे आश्चर्यजनक खोज 46 आकाशगंगाओं के स्पेक्ट्रा के हबल के अपने अध्ययन के परिणामस्वरूप हुई और विशेष रूप से उन आकाशगंगाओं की हमारी अपनी मिल्की वे आकाशगंगा के सापेक्ष डॉप्लर वेग से । हबल ने पाया कि एक दूसरे से अलग आकाशगंगाएं जितनी ज्यादा दूर है वह उतनी ही तेजी से एक दूसरे से दूर जा रही है । इस अवलोकन के आधार पर हबल ने निष्कर्ष निकाला कि ब्रह्मांड समान रूप से फैल रहा है । कई वैज्ञानिकों ने भी आइंस्टीन के सामान्य सापेक्षता के आधार पर इस सिद्धांत को पेश किया था । लेकिन 1929 में प्रकाशित हबल डेटा ने वैज्ञानिक समुदाय को आश्वत करने में मदद की ।

हबल और माउंट विल्सन पर उनके सहयोगी मिल्टन हमसन ने ब्रह्मांड के विस्तार की दर 500 किलोमीटर प्रति सेकंड प्रति मेगापारसेक होने का अनुमान लगाया ( एक मेगापारसेक, या दस लाख पारसेक की एक दूरी लगभग 32.6 लाख प्रकाश वर्ष के बराबर है, तो एक मेगापारसेक दूर की आकाशगंगा की तुलना में दो मेगापारसेक दूर की आकाशगंगा की हमसे दूर होने की गति दोगुनी होगी )। यह अनुमान हबल नियतांक कहलाता है ।

बिग बैंग थ्योरी और एडविन हबल

1929 मे एडवीन हबल ने एक आश्चर्यजनक खोज की, उन्होंने पाया की अंतरिक्ष में आप किसी भी दिशा मे देखें आकाशगंगाएं और अन्य आकाशीय पिंड तेजी से एक दूसरे से दूर हो रहे हैं। दूसरे शब्दो मे ब्रह्मांड का विस्तार हो रहा है। इसका मतलब यह है कि इतिहास मे ब्रह्मांड के सभी पदार्थ आज की तुलना में एक दूसरे से और भी पास रहे होंगे। और एक समय ऐसा रहा होगा जब सभी आकाशीय पिंड एक ही स्थान पर रहे होंगे। खगोलशास्त्रियों ने उन परिस्थितियों का विश्लेषण करने का प्रयास किया है कि कैसे ब्रह्मांडिय पदार्थ एक दूसरे से एकदम पास होने की स्थिती से एकदम दूर होते जा रहे हैं। इतिहास में किसी समय , शायद 10 से 20 खरब साल पूर्व, ब्रम्हांड के सभी कण एक दूसरे से एकदम पास-पास थे। वे इतने पास-पास थे कि वे सभी एक ही जगह थे, एक ही बिन्दु पर। सारा ब्रह्मांड एक ही बिन्दु की शक्ल में था। यह बिन्दु अत्याधिक घनत्व का, अत्यंत छोटा बिन्दु था। ब्रम्हांड का यह बिन्दु रूप अपने अत्यधिक घनत्व के कारण अत्यंत गर्म रहा होगा। इस स्थिती में भौतिकी, गणित या विज्ञान का कोई भी नियम काम नहीं करता है। यह वह स्थिती है जब मनुष्य किसी प्रकार अनुमान या विश्लेषण करने मे असमर्थ है। काल या समय भी इस स्थिती मे रुक जाता है, दूसरे शब्दों में काल और समय के कोई मायने नहीं रखते हैं। इस स्थिती मे किसी अज्ञात कारण से अचानक ब्रम्हांड का विस्तार होना शुरू हुआ। एक महाविस्फोट के साथ ब्रह्मांड का जन्म हुआ और ब्रह्मांड में पदार्थ ने एक दूसरे से दूर जाना शुरू कर दिया। इस सिद्धांत को बिग बैंग थ्योरी का नाम दिया गया, जोकि ब्रह्माण्ड के जन्म संबधित सबसे अधिक मान्य सिद्धांत है।

यह चित्र ब्रह्मांड की समय रेखा दर्शाता है, जिसमे बायें वर्तमान दर्शाया गया है जबकी दायें अब से 13.8 अरब वर्ष पुराने बिग बैंग की स्थिति है।

यह चित्र ब्रह्मांड की समय रेखा दर्शाता है, जिसमे बायें वर्तमान दर्शाया गया है जबकी दायें अब से 13.8 अरब वर्ष पुराने बिग बैंग की स्थिति है।

हबल अंतरिक्ष दूरबीन

HST, Hubble

हब्बल अंतरिक्ष वेधशाला

हबल अंतरिक्ष टेलीस्कोप को 1990 में शुरू किया गया था, उसके प्रमुख लक्ष्यो में एक हबल नियतांक की सही व्याख्या करनी है । 2001 में, एक टीम ने भूमि आधारित ऑप्टिकल दूरबीनों के साथ साथ, हबल के साथ सुपरनोवा का अध्ययन कर 72 ± 8 किमी / सेकण्ड/ मेगापारसेक की एक दर स्थापित की । 2006 में, नासा के WMAP उपग्रह के साथ ब्रह्मांडीय सुक्ष्मतरंग पृष्ठभूमि का अध्ययन कर रही एक टीम ने इस माप को सुधार कर 70 किमी / सेकण्ड/ मेगापारसेक किया । हबल दूरबीन की सहायता से यह भी पता चला कि न केवल ब्रह्मांड का विस्तार हो रहा है, विस्तार में तेजी भी है । इस त्वरण के लिए उत्तरदायी रहस्यमय बल को अदृश्य ऊर्जा करार दिया है ।

हबल दूरबीन ने खगोल विज्ञान में क्रांतिकारी परिवर्तन लाते हुए ब्रह्मांड के बारे में हमारी समझ को बदल डाला है। सृष्टि के आरंभ और उम्र के बारे में हबल ने अनेक नए तथ्यों से हमें अवगत कराया है। इसकी नवीनतम उपलब्धि ब्रह्मांड की उम्र के बारे में सबूत जुटाने की है।

हबल के सहारे खगोलविदों की एक टोली ने 7000 प्रकाश वर्ष दूर ऊर्जाहीन अवस्था की ओर बढ़ते प्राचीनतम माने जाने वाले तारों के एक समूह को खोज निकाला है। इन तारों के बुझते जाने की रफ़्तार के आधार पर ब्रह्मांड की उम्र 13 से 14 अरब वर्ष के बीच आँकी गई है। इसके अतिरिक्त पिछले 12 वर्षों के दौरान इस दूरबीन ने सुदूरवर्ती अंतरिक्षीय पिंडों के हज़ारों आकर्षक चित्र भी उपलब्ध कराए हैं।

क़रीब सौ साल पहले अमरीका में खगोलविदों ने परावर्तक(रिफ़्लेक्टरों) पर आधारित विशाल दूरबीनों का निर्माण आरंभ किया। उन दूरबीनों में से एक का माउंट विल्सन रिफ़्लेक्टर 100 ईंच आकार का था, जिसे उस समय की सबसे बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धियों में से माना जा रहा था। उस विशाल दूरबीन को एडविन हबल नामक खगोलविद ने स्थापित किया था, जिनके सम्मान में पहली अंतरिक्ष दूरबीन को हबल दूरबीन कहा गया। अपनी दूरबीन के सहारे एडविन हबल ने साबित किया कि ब्रह्मांड का लगातार फैलाव हो रहा है। उनकी इस खोज को खगोल विज्ञान में हबल के नियम के नाम से जाना जाता है।

बाद में ब्रह्मांड की उम्र जानने की जिज्ञासा ने खगोलविदों को और बड़ी दूरबीनों के निर्माण के लिए प्रेरित किया और 200 ईंच आकार की रिफ़्लेक्टर युक्त दूरबीनें भी बनीं। लेकिन उन्हें एक ऐसी दूरबीन चाहिए थी जो धरती के वायुमंडल के व्यवधानों से अप्रभावित रहा और इस तरह अंतरिक्ष दूरबीन की बात सामने आई। लेकिन खगोलविदों का यह सपना 1990 में साकार हो सका, जब डिस्कवरी शटल ने हबल दूरबीन को अंतरिक्ष में पहुँचाया गया।

हालांकि खगोलविद एडविन हबल के सपनों को साकार करने वाली इस दूरबीन पर अमरीका में 1970 के दशक में ही काम शुरू हो चुका था। बाल्टिमोर, अमरीका के स्पेस टेलीस्कोप साइंस इंस्टीट्यूट में हबल दूरबीन का विकास किया गया। अमरीकी अंतरिक्ष शटल चैलेंजर की दुर्घटना के बाद कुछ वर्षों के लिए थमे अंतरिक्ष ट्रैफ़िक ने हबल परियोजना को बाधित किया। हबल अंतरिक्ष दूरबीन के कहीं विशाल आकार की परिकल्पना की गई थी, लेकिन अंतत: यह मात्र 96 ईंच आकार की परावर्तक सतह वाली दूरबीन साबित हुई। लेकिन वायुमंडल से दूर अंतरिक्ष में होने के कारण हबल दूरबीन धरती पर उपलब्ध कहीं बड़ी दूरबीनों ज़्यादा प्रभावी साबित हो रही है।

इसकी नियमित रूप से सर्विसिंग की जाती रही है। इसके लिए अमरीकी अंतरिक्ष संस्था नासा के अंतरिक्ष यानों के सहारे अंतरिक्षयात्रियों को हबल तक पहुँचाया जाता है।

तकनीकी तथ्य

  • नासा ने हबल दूरबीन को अंतरिक्ष में स्थापित करने में क़रीब ढाई अरब डॉलर ख़र्च किए हैं। इसकी एक सर्विसिंग पर लगभग 50 करोड़ डॉलर की लागत आती है।
  • धरती की सतह से 600 किलोमीटर ऊपर चक्कर लगा रही हबल 11 टन वज़न की है। धरती का एक चक्कर लगाने में इस क़रीब 100 मिनट लगते हैं।
  • इसकी लंबाई 13.2 मीटर और अधिकतम व्यास 4.2 मीटर है।
  • हबल दूरबीन प्रतिदिन 10 से 15 गिगाबाइट आँकड़े जुटाती है।
  • वर्ष 2009 में संपन्न पिछले सर्विसिंग मिशन के बाद उम्मीद है कि यह वर्ष 2030-40 तक काम करता रहेगा|

अंत में, एडविन हबल ने एक दूरबीन के साथ अपने नाम को सार्थक किया और ब्रह्मांड के विषय में हमारी समझ को बदल कर रख दिया । हबल अंतरिक्ष टेलीस्कोप के रूप में खोज की उनकी भावना आज भी जीवित है ।

कुछ हबल चित्रों को स्वयं देखने के लिए, हबल चित्र गैलरी पर जाएं ।

हबल दूरदर्शी पर कुछ लेख

  1. भाग 1 :हब्बल अंतरिक्ष वेधशाला चित्र कैसे लेती है?
  2. भाग 2 : हब्बल दूरबीन द्वारा प्रकाश और फिल्टरो का प्रयोग
  3. भाग 3 : प्राकृतिक, प्रतिनिधि तथा उन्नत रंग
  4. 25 अप्रैल को हबल अंतरिक्ष वेधशाला के 25 वर्ष पूरे होने पर विशेष
  5. हबल दूरबीन के शानदार 25 वर्ष पूरे
  6. हबल अंतरिक्ष दूरबीन : जब 1.6 अरब डॉलर के प्रोजेक्ट को बर्बाद होने से बचाया गया!

ओमुअमुआ(Oumuamua) : सौर मंडल के बाहर से आया एक मेहमान

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ओमुअमुआ: Oumuamua

ओमुअमुआ: Oumuamua

पहली बार खगोलविज्ञानियों ने एक क्षुद्रग्रह को खोज निकाला है जो बाहरी अंतरिक्ष से हमारे सौरमंडल में प्रवेश कर चुका है।

चिली स्थित ESO(European Southern Observatory) के वेरी लार्ज टेलिस्कोप(Very Large Telescope: VLT) और विश्व के अन्य वेधशालाओं के निरीक्षण हमे बताते है कि यह अनोखा क्षुद्रग्रह हमारे सौरमंडल में प्रवेश करने से पहले लाखों वर्षो तक अंतरिक्ष मे यात्रा कर रहा था। यह क्षुद्रग्रह रंग में काला, थोड़ी लालिमा लिए लंबी चट्टान जैसी दिखाई पड़ता है। इस क्षुद्रग्रह से जुड़े सर्वेक्षण परिमाण को 20 नवंबर के नेचर साइंस पत्रिका में प्रकाशित किया जा चुका है।

19 अक्टूबर 2017 को हवाई स्थित पैन-स्टारर्स1 दूरबीन(Panoramic Survey Telescope and Rapid Response System: Pan-STARRS) ने अपने अंतरिक्ष अवलोकन के दौरान इस क्षुद्रग्रह को खोजा था। शुरुआती जांच में इसकी कक्षा को सही तरीके से नही समझा जा सका था इसलिए खोज के बाद इसका वर्गीकरण एक धूमकेतु के रूप में किया गया था। लेकिन बाद में आंकड़ो और गणनाओं के आधार पर इसकी कक्षा को अच्छी तरह से समझा जा सका तब पता चला कि यह क्षुद्रग्रह सौरमंडल से उत्पन्न नही हुआ है ओर बाहरी अंतरिक्ष से सौरमंडल में दाखिल हो गया है।

ओमुअमुआ का पथ

ESO और अन्य अंतरराष्ट्रीय स्पेस एजेंसियों द्वारा इसकी गणना और सूर्य के सबसे निकट आने पर ही इसे एक इंटरस्टेलर क्षुद्रग्रह(Interstellar asteroid) के रूप में वर्गीकृत किया जा सका। वर्गीकरण के बाद ही इस क्षुद्रग्रह का नाम 1I/2017 U1(ओमुअमुआ: Oumuamua) दिया गया। क्षुद्रग्रह की खोज करने वाले टीम ने बताया की ‘ओमुअमुआ’ एक हवाई शब्द है जिसका अर्थ होता है यह पिंड एक संदेशवाहक है जिसे हम तक पहुंचने के लिए बहुत साल पहले भेजा गया था।

ओमुअमुआ वेगा तारे की दिशा से आया है, अब यह सूर्य के निकट से होते हुये वापिस सौर मंडल के बाहर की दिशा मे भागा जा रहा है।

ओमुअमुआ वेगा तारे की दिशा से आया है, अब यह सूर्य के निकट से होते हुये वापिस सौर मंडल के बाहर की दिशा मे भागा जा रहा है।

ESO के खगोलविज्ञानी ओलिवर हैनाउट(Olivier Hainaut) बताते है

“ताजा सर्वेक्षण से हमे पता चला है कि यह क्षुद्रग्रह सूर्य के निकटतम बिंदु को पार कर चुका है अब यह इंटरस्टेलर अंतरिक्ष मे वापस जा रहा है। ESO के VLT दूरबीन को तुरंत ही इस क्षुद्रग्रह की कक्षा, उसकी चमक और रंग को सटीक मापन के लिए लगाया गया था क्योंकि छोटे दूरबीन से ज्यादा आंकड़े नही प्राप्त किये जा सकते। यह तेजी से हमसे लुप्त होता चला जा रहा है इसलिए लगातार अवलोकन से और आंकड़े एकत्रित किये जा रहे है।”

अन्य दूरबीनों के साथ वेरी लार्ज दूरबीन द्वारा अलग अलग फिल्टरों से लिये गए चित्रों के आधार पर खगोलविज्ञानियों ने पाया है कि यह क्षुद्रग्रह नाटकीय ढंग से अपनी चमक में भिन्नता प्रदर्शित कर रहा है। पृथ्वी समययानुसार यह 7.3 घण्टे मे अपनी धुरी पर एक चक्कर काट लेता है।

खगोलविज्ञानी कारेन मीच(Karen Meech) इस क्षुद्रग्रह के चमक के बारे में कहते है

“चमक में यह असामान्य भिन्नता का अर्थ है यह एक सिर्फ लंबी वस्तु है इसका आकार भी अन्य क्षुद्रग्रहों से जटिल है। बाहरी अंतरिक्षीय वस्तुओं के समान यह क्षुद्रग्रह भी काला लालिमा लिए रंग प्रदर्शित कर रहा है जबकि इसके चारों ओर धूल के बादल होने के कोई संकेत नही है। यह क्षुद्रग्रह अधिक घना, चट्टानी और उच्च धातुओं से मिलकर बना है यहाँ बर्फ या पानी की मात्रा होने के कोई संकेत नही है। लाखों वर्षो के अंतरिक्षीय यात्रा के दौरान ब्रह्माण्डीय विकिरणों का प्रभाव इसकी सतह पर देखा जा सकता है इसी प्रभाव के कारण काला लालिमा लिये रंग का दिखाई देता है। चौड़ाई के रूप में यह 400 मीटर ही चौड़ा है जबकि इसकी लम्बाई इससे 10 गुणा ज्यादा है। ”

इस क्षुद्रग्रह के कक्षीय गणनाओं के अध्ययन से पता चला है कि यह  उज्ज्वल तारा वेगा(Vega) की दिशा से ही आया है वेगा जो कि लयरा के उत्तरी नक्षत्र(Northern Constellation of Lyra) में स्थित है। यहाँ तक कि यात्रा इस क्षुद्रग्रह ने लगभग 95000km/घंटे की गति से की है। हमारे सौरमंडल से गुजरते समय पृथ्वी की कक्षा से इसकी दूरी लगभग 24 करोड़ किलोमीटर की थी। हमारे सौरमंडल में प्रवेश करते समय इसकी गति लगभग 25.5 किलोमीटर प्रति सेकंड दर्ज की गयी थी लेकिन सूर्य के निकटतम स्थिति में इसकी गति बढ़कर लगभग 44 किलोमीटर प्रति सेकंड की हो गयी थी। आज से 3 लाख साल पहले यह क्षुद्रग्रह वेगा के काफ़ी करीब रहा होगा आप समझ सकते है इस क्षुद्रग्रह ने कितनी बढ़ी अंतरिक्षीय यात्रा की है सौरमंडल में आने से पहले यह मिल्की वे आकाशगंगा में भी काफी भटकता रहा होगा और आगे भी भटकता रहेगा।

खगोलविदों का अनुमान है कि 1I/2017 U1 जैसा इंटरस्टेलर क्षुद्रग्रह प्रति वर्ष सौरमंडल से गुजरता ही रहता है लेकिन हम आसानी से उसे ट्रैक नही कर सकते। हमे ऐसे क्षुद्रग्रहों पर नजर रखने के लिए पैन-स्टारर्स जैसे सर्वेक्षण दूरबीनों की ज्यादा जरूरत होती है क्योंकि ये सर्वेक्षण के लिए पर्याप्त शक्तिशाली और बड़े दूरबीनों के मुकाबले कम जटिल होते है।
ओलिवर हैनाउट ने अपने अंतिम निष्कर्ष में कहा

“हम लगातार ऐसे अनूठे वस्तुओं की खोज में प्रयासरत रहते है। हमारा मानना है कि ऐसे क्षुद्रग्रह अपनी अंतरिक्षीय यात्रा से जुड़े जानकारियां, अपने अनुभव को हमसे साझा करने के लिए ही आते है और हमे उनके अनुभवों की बहुत जरूरत है क्योंकि भविष्य में हमे भी लंबी अंतरिक्षीय यात्रा करनी है।”

Journal reference: Nature Astronomy.
स्रोत: ESO & Panoramic Survey Telescope and Rapid Response System (Pan-STARRS).

प्रस्तुति : पल्लवी कुमारी

लेखिका परिचय

पलल्वी  कुमारी, बी एस सी प्रथम वर्ष की छात्रा है। वर्तमान  मे राम रतन सिंह कालेज मोकामा पटना मे अध्यनरत है।

पल्लवी कुमारी

पल्लवी कुमारी


नासा ने सौर मंडल के जैसे एक और सौर मंडल खोजा : केप्लर 90

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नासा ने हमारे सौर मंडल के तुल्य एक तारा-ग्रह प्रणाली खोजी है जिसके पास आठ ग्रह है। इस तारे का नाम केप्लर 90 है।

केप्लर 90 और सौर मंडल के ग्रहों के आकार की तुलना

केप्लर 90 और सौर मंडल के ग्रहों के आकार की तुलना

अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा को एक बड़ी सफलता मिली है। NASA के केपलर अंतरिक्ष दूरबीम ने हमारे जितना बड़ा ही एक और तारा-ग्रह प्रणाली खोजी है। दरअसल, यह तारा और उसके ग्रह पहले ही खोजे गये था, अब वहीं पर आठवें ग्रह की भी पहचान कर ली गई है। ऐसे में सूर्य या उस जैसे किसी तारे की परिक्रमा करने के मामले में केपलर-90 प्रणाली की तुलना हमारे सौरमंडल से की जा सकती है।

इसका अर्थ यह है कि केप्लर 90 के पास हमारे सूर्य के जैसे आठ ग्रह है। इसके पहले केप्लर 90 मे ट्रेपिस्ट -1 के जैसे सात ग्रह ज्ञात थे।

खास बात यह है कि इस खोज में गूगल की ओर से कृत्रिम बुद्धि( आर्टिफिशल इंटेलिजेंस) की मदद ली गई, जो मानवों के रहने योग्य ग्रहों की तलाश करने में काफी मदद करेगा। केपलर-90 ग्रह प्रणाली के इस आठवें ग्रह का नाम केपलर 90i है। गूगल और नासा के इस प्रॉजेक्ट द्वारा हमारे जैसे ही सौर मंडल की खोज से इस बात की उम्मीद बढ़ी है कि ब्रह्मांड में किसी ग्रह पर परग्रही( ऐलियन) मौजूद हो सकते हैं।

दिलचस्प है कि केपलर-90 के ग्रहों की व्यवस्था हमारे सौर मंडल जैसी ही है। इसमें भी छोटे ग्रह अपने तारे से नजदीक हैं और बड़े ग्रह उससे काफी दूर मौजूद हैं। NASA के अनुसार, इस खोज से पहली बार स्पष्ट होता है कि दूर कहीं तारा प्रणाली में हमारे जैसे ही सौर परिवार मौजूद हो सकते हैं। यह सौर मंडल हमसे करीब 2,545 प्रकाश वर्ष दूर है।

नासा ने बताया कि इस ग्रह का तापमान करीब 800 डिग्री फारेनहाइट (426 डिग्री सेल्सियस) है।  नया खोजा ग्रह केपलर 90i इन ग्रहों में सबसे छोटा ग्रह है। यह ग्रह पृथ्वी की तुलना में लगभग 30 प्रतिशत बड़ा होने का अनुमान है। केपलर 90i पृथ्वी की तरह एक पथरीला ग्रह है। केपलर 90i पर पृथ्वी की तरह एक वर्ष का समय दो हफ्तों का होगा। क्योंकि ये अपनी तारे की परिक्रमा में 14.4 दिन में कर लेता है। एंड्रयू वंडरबर्ग ने कहा कि केप्लर-90 का धरातल बुध ग्रह की तरह ही बहुत ज्यादा गर्म है।

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टेक्सस यूनिवर्सिटी के नासा सगन पोस्टडॉक्टरल फेलो एवं खगोल विज्ञानी एंड्रयू वांडबर्ग ने कहा,

‘नया ग्रह पृथ्वी से करीब 30 प्रतिशत बड़ा माना जा रहा है। हालांकि यह ऐसी जगह नहीं है, जहां आप जाना चाहेंगे।’ उन्होंने बताया कि यहां काफी चट्टानें हैं और वातावरण भी घना नहीं है। सतह का तापमान काफी ज्यादा है और इससे लोग झुलस सकते हैं। वांडबर्ग के मुताबिक सतह का औसत तापमान करीब 800 डिग्री फ़ारनहाइट हो सकता है।

केप्लर अंतरिक्ष वेधशाला को 2009 में प्रक्षेपित किया गया था, और इसने करीब 1,50,000 तारों को को छाना है। खगोल वैज्ञानिको ने केप्लर डाटा के जरिए अब तक 2,500 ग्रहों की खोज की है।

नासा ने 14 दिसंबर 2017 को एक प्रेस कांफ़्रेंस मे घोषणा की है।

नोट : बहुत सी बेहुदा वेबसाईट/समाचार पत्रों ने इस प्रेस कांफ़्रेंस को एलियन की घोषणा से जोड़ा था।

हम तारों की दूरी कैसे ज्ञात कर लेते है ?

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  • हम तारों की दूरी कैसे ज्ञात कर लेते है ?
  • हम कैसे बता पाते है की उस तारे की दूरी उतनी है इस तारे की दूरी इतनी है ?

यह ऐसे सवाल है जो विज्ञान विश्व पृष्ठ पर सबसे ज्यादा लोगो ने सबसे ज्यादा बार पूछा है। ब्रह्माण्ड में स्थित तारों, ग्रहों या आकाशगंगाओं की दूरी को मापना कोई आसान काम नही होता क्योंकि पृथ्वी से इनकी दूरी आमतौर पर बहुत ज्यादा होती है। खगोलविज्ञानी ब्रह्माण्डीय दूरी को मापने के लिए कई विभिन्न तरीकों का उपयोग करते है। खगोलीय दूरी मापने में उपयोग होनेवाली सभी विधियां विज्ञान और गणित के अद्भुत संयोजन का उदाहरण है।

  • राडार मापन(Radar Measurement)
  • लंबन विधि(Parallax method)
  • सीफीड मापन(Cepheids Measurement)
  • सुपरनोवा मापन(la Supernova Measurement)
  • लाल विचलन और हबल सिद्धान्त द्वारा मापन(Redshift and Hubble’s Law Measurement)

राडार मापन(Radar Measurement):

राडार मापन(Radar Measurement)

राडार मापन(Radar Measurement)

:दूरी मापने का यह भी एक आधुनिक तरीका है। यह विधि इस तथ्य पर आधारित है की प्रकाश(रेडियो तरंग, माइक्रोवेव, दृश्य प्रकाश, X-किरण) 300000 km/s की रफ़्तार से यात्रा करता है। यह तकनीक सबसे सटीक मानी जाती है लेकिन इस विधि की भी अपनी सीमाएं है। खगोलविज्ञानी इस विधि से सौरमंडल तक कि दूरी तो निर्धारित कर सकते है लेकिन इससे अधिक दूरी के लिए यह विधि उपयोगी नही है। वैज्ञानिकों ने सौरमंडल में स्थित ग्रहों की दूरी निर्धारण के लिए इस तकनीक का उपयोग कई बार किया है खासकर पृथ्वी से चंद्रमा की दूरी मापने के लिए यह सबसे नियमित तरीका है।

इस विधि में पृथ्वी से संचारित संकेत(Transmitted signal) उस पिंड/ग्रह पर भेजे जाते है। संकेत उस ग्रह से टकराकर वापस लौटने पर पृथ्वी के संचारित केंद्रों द्वारा पकड़ लिए जाते है। वैज्ञानिक संचारित संकेतो के जाने और लौटने में लगने वाले समय को दर्ज कर लेते है इससे उस ग्रह की दूरी का पता लगा लिया जाता है।

D(Distance) = V(Velocity) × T(Time)

लंबन विधि(Parallax method):

लंबन विधि(Parallax method)

लंबन विधि(Parallax method)

खगोलविज्ञानी अंतरिक्ष में स्थित किसी तारे की दूरी को पता करने के लिए सामान्यतः एक खास विधि का उपयोग करते है जिसे लंबन/तारकीय लंबन(Stellar Parallax) कहते है। दो विभिन्न बिंदुओं से किसी वस्तु की ओर देखने पर जो कोणीय विचलन(angular shift) प्रतीत होता है, उसे लंबन कहते हैं और इन बिंदुओं को मिलानेवाली आधार रेखा उस दूरस्थ वस्तु पर जो कोण बनाती है, उससे लंबन का निरूपण होता है। सरल शब्दों में लंबन दो अलग-अलग स्थानों से देखा गया किसी तारे की स्पष्ट स्थिति में अंतर ही है जो उसके बैकग्राउंड में स्थित वस्तुओं के कारण प्रतीत होता है। आधार रेखा जितनी ही बड़ी होगी(अर्थात्‌ प्रेक्षण के बिंदु जितने ही दूर होंगे) वस्तु पर कोण उतना ही बड़ा होगा और परिणाम में सटीकता/यथार्थता की संभावना भी उतनी ही ज्यादा होगी।

 प्रेक्षण स्थान A तथा B

प्रेक्षण स्थान A तथा B

अब सवाल है लंबन विधि द्वारा बड़ी दूरियों जैसे ग्रह अथवा तारे की दूरी का मापन हम कैसे करते है ? सबसे सरल तरीका है गणितीय विधि।

किसी दूरस्थ तारे/ग्रह S की दूरी D ज्ञात करने के लिए, हम इसको पृथ्वी पर स्थित दो वेधशालाओं से भी प्रेक्षण कर सकते है लेकिन जैसा हमने ऊपर बताया की प्रेक्षण के बिंदु जितने ही ज्यादा दूर होंगे परिणाम की सटीकता उतना ही बेहतर होगी। इसलिए खगोलविज्ञानी पृथ्वी के परिक्रमण व्यास को अपनी प्रेक्षण बिंदु बनाते है इसके लिए बस खगोलविदों को 6 महीने के अंतराल पर प्रेक्षण करना पड़ता है।

मान लीजिए प्रेक्षण बिंदु A तथा B है।

A एवं B के बीच की दूरी AB = b

पृथ्वी से जुलाई तथा जनवरी सूर्य की कक्षा की विपरीत दिशा वाली स्तिथियों मे किया निरीक्षण

पृथ्वी से जुलाई तथा जनवरी सूर्य की कक्षा की विपरीत दिशा वाली स्तिथियों मे किया निरीक्षण

इन दो स्थितियों से तारे की प्रेक्षण दिशाओं AS तथा BS के बीच का कोण θ = ∠ ASB माप लिया जाता है। यह कोण लम्बन कोण या लम्बनिक कोण(parallax angle) कहलाता है।
तारे की पृथ्वी से दूरी D बहुत अधिक है अतः

b << D

इसलिए कोण θ बहुत ही छोटा है। अतः हम S को वृत्त का केंद्र, AS = D को त्रिज्या तथा AB = b चाप मान सकते हैं।

∵ त्रिज्या AS = BS,
∴ चाप AB = b
∵ कोण θ = चाप/त्रिज्या = AB/AS
θ = b/D
अतः तारे की दूरी
D = b/θ

इस सूत्र में मान रख कर लम्बन-विधि से ग्रह अथवा तारे की पृथ्वी से दूरी ज्ञात कर सकते हैं। यहाँ पर पृथ्वी के परिक्रमण व्यास को अपनी प्रेक्षण बिंदु बनाया गया है इसलिए वह दूरी 2AU(खगोलीय इकाई: Astronomical unit) है।

∴ तारे की दूरी D(Parsec) = 1/p(arcseconds).

दूरस्थ तारों का लंबन कोण बहुत ही छोटा होता है उसका मापन अर्कसेकंड(arcseconds) में किया जाता है। चूंकि तारों की दूरी भी बहुत अधिक होती है इसलिए उसका मापन भी पारसेक(Parsec) में किया जाता है। यदि किसी तारे का लंबन कोण 0.723 अर्कसेकंड है तो उस तारे की दूरी होगी
D = 1/0.723 = 1.38 पारसेक।

लंबन विधि तारो की दूरी ज्ञात करने के लिए एक अच्छी विधि है लेकिन इस विधि की भी अपनी सीमाएं है। नजदीकी तारों की दूरी ज्ञात करने में यह विधि बेहद कारगर है लेकिन बहुत ज्यादा दूरी पर स्थित तारों के लिए यह विधि उपयोगी नही है। यदि ज्ञात लंबन कोण 0.01 अर्कसेकंड से भी छोटी है तब तारो की दूरी तय करना बड़ा कठिन होता है खासकर तब जब आपका प्रेक्षण बिंदु पृथ्वी पर ही स्थित हो क्योंकि ऐसी स्थितियों में पृथ्वी का वातावरण भी बड़ा प्रभाव डाल देता है। यही वजह है की पृथ्वी पर स्थित टेलिस्कोप के मुकाबले अंतरिक्ष में स्थित टेलिस्कोप तारों की दूरी संबंधित ज्यादा अच्छे परिणाम देते है। अंतरिक्ष में स्थित टेलिस्कोप 0.001 अर्कसेकंड/लंबन कोण पर भी दूरी का सटीक आकलन करने में सक्षम है।
अभी भी आप सोच रहे होंगे की ये तो केवल 100 या 1000 पारसेक दूर स्थित तारों की दूरी ज्ञात करने की विधि है जबकि तारो की ब्रह्मांडीय दूरी तो बहुत ज्यादा है। यहां हम अन्य विधियों की भी चर्चा करेंगे जो बड़ी खगोलीय दूरी मापने में प्रयोग में लायी जाती है।

सीफीड मापन(Cepheids Measurement):

सीफीड मापन(Cepheids Measurement)

सीफीड मापन(Cepheids Measurement)

सीफीड मापन(Cepheids Measurement): सीफीड जिसे सीफीड परिवर्तन भी कहा जाता है। कुछ तारों में एक ख़ास गुण होता है वे अपने चमक को एक ख़ास अवधि में बढ़ाते और घटाते रहते है। वर्ष 1908 में, अमेरिकी खगोलविद हेनरिटा स्वान लीविट(Henrietta Swan Leavitt) जब मैग्लेनिक बादल(Magellanic Clouds) का अध्ययन कर रही थी तब उन्होंने एक तारे में इस गुण को देखा। उस तारे की चमक कभी तेज तो कभी मंद हो रही थी, उन्होंने उस तारे के अध्ययन के दौरान पाया की, उस तारे की उज्ज्वलता और मंदता का समय अवधि से बड़ा गहरा संबंध है। 1912 में प्रकाशित अपने अध्ययन में उन्होंने कहा सीफीड तारे एक निश्चित समय अंतराल में अपनी चमक में उतार चढ़ाव प्रदर्शित करते है।

तारों का यह व्यवहार भी वैज्ञानिकों को दूरी मापने के लिए एक खगोलीय मापदंड प्रदान करता है जिससे वैज्ञानिक लाखों प्रकाशवर्ष दूर स्थित तारों की दूरी का आंकलन कर पाते है। सीफीड परिवर्तनशील तारे बेहद चमकीले होते है इन तारों की चमक सूर्य से 500 से 30000 गुणा तक ज्यादा हो सकती है। खगोल वैज्ञानिक सीफीड तारों की उज्ज्वलता और समय अवधि को बड़ी बारीकी से मापते है फिर पूर्ण और स्पष्ट आंकड़ो को दूरी मापांक समीकरण में स्थापित किया जाता है। इस तकनीक से लाखों प्रकाशवर्ष दूर स्थित तारों की दूरी का आंकलन किया जाता है। वैसे दूरी मापांक समीकरण को समझने से पहले आपको निरपेक्ष और सापेक्ष कांतिमान को समझना होगा।

निरपेक्ष कांतिमान/चमक(Absolute Magnitude):

निरपेक्ष कांतिमान/चमक(Absolute Magnitude): निरपेक्ष कांतिमान किसी खगोलीय वस्तु के अपने चमकीलेपन को कहते हैं। मिसाल के लिए अगर किसी तारे के निरपेक्ष कांतिमान की बात हो रही हो तो यह देखा जाता है कि यदि वह तारा ठीक 10 पारसेक की दूरी पर होता तो वह कितना चमकीला लगता। यदि सूर्य हमसे 10 पारसेक की दूरी पर होता तो वह कितना चमकीला हमें दिखता। वैसे सूर्य का मैग्निट्यूड -26.7 है यदि 10 पारसेक दूर सूर्य को भेज दे तो उसका मैग्निट्यूड +4.8 हो जाएगा। सरल शब्दों में आप कह सकते है की सूर्य का निरपेक्ष चमक +4.8 है।

सापेक्ष कांतिमान/चमक(Apparent Magnitude)

सापेक्ष कांतिमान/चमक(Apparent Magnitude): सापेक्ष कांतिमान किसी खगोलीय वस्तु के पृथ्वी पर बैठे प्रेक्षक द्वारा प्रतीत होने वाले चमकीलेपन को कहते हैं। सापेक्ष कान्तिमान को मापने के लिए यह शर्त होती है कि आकाश में कोई बादल, धूल, वगैरा न हो और वह वस्तु साफ़ देखी जा सके। निरपेक्ष कांतिमान और सापेक्ष कांतिमान दोनों को मापने की इकाई मैग्निट्यूड(Magnitude) है।

एक निरीक्षक दो तारों को देखता है, तारा A दूसरे तारे B की तुलना मे अधिक दीप्तीमान दिखता है क्योंकि वह अधिक पास है। किसी तारे का निरपेक्ष कांतिमान/चमक(Absolute Magnitude) 10 पैरासेक की दूरी से दिखने वाली दीप्ती है। यदि तारा A तथा B दोनो निरीक्षक से 10 पैरासेक दूरी पर हो तारा B तारा A की तुलना मे अधिक चमकदार दिखेगा।

एक निरीक्षक दो तारों को देखता है, तारा A दूसरे तारे B की तुलना मे अधिक दीप्तीमान दिखता है क्योंकि वह अधिक पास है।
किसी तारे का निरपेक्ष कांतिमान/चमक(Absolute Magnitude) 10 पैरासेक की दूरी से दिखने वाली दीप्ती है। यदि तारा A तथा B दोनो निरीक्षक से 10 पैरासेक दूरी पर हो तारा B तारा A की तुलना मे अधिक चमकदार दिखेगा।

निरपेक्ष कान्तिमान किसी वस्तु की स्वयं की चमक का माप है और इसमें हमेशा यह देखा जाता है कि 10 पारसेक की मानक दूरी पर वह वस्तु कितनी रौशन लगती है। मिसाल के लिए अगर किसी तारे के निरपेक्ष कांतिमान की बात हो रही हो तो यह देखा जाता है कि यदि देखने वाला उस तारे के ठीक 10 पारसेक की दूरी पर होता और उन दोनों के बीच में कोई खगोलीय धूल वग़ैराह न हो तो वह तारा उसे कितना चमकीला लगता। इस तरह से “निरपेक्ष कांतिमान” और “सापेक्ष कांतिमान” में गहरा अंतर है।
खगोलशास्त्र में खगोलीय कान्तिमान किसी खगोलीय वस्तु की चमक का माप है। इसका अनुमान लगाने के लिए लघुगणक(लॉगरिदम: Algorithm) का इस्तेमाल किया जाता है। मैग्निट्यूड के आंकडे परखते हुए एक ध्यान-योग्य चीज़ यह है के किसी वस्तु का मैग्निट्यूड जितना कम हो वह वस्तु उतनी ही अधिक चमकीली होती है। पृथ्वी पर बैठे हुए प्रेक्षक के लिए मैग्निट्यूड का मतलब है: +6 से अधिक मैग्निट्यूड वाली वस्तुएँ इतनी धुँधली होतीं हैं के बिना दूरबीन के देखी ही नहीं जा सकती। धुँधली-सी दिखने वाली एण्ड्रोमेडा गैलेक्सी का मैग्निट्यूड +3 है। आकाश में रोशन तारे, व्याध तारा, का मैग्निट्यूड -1 है। पूर्णिमा के पूरे चाँद का मैग्निट्यूड -13 है। चढ़े हुए सूरज का मैग्निट्यूड -26.7 है(यानि शुन्य से लगभग 27 कम)। वापस दूरी मापांक समीकरण पर आते है।

उदाहरण के लिए, मान लीजिए एक खगोलविद ने 34 दिनों की अवधि के साथ एक सीफीड सितारा के उज्ज्वलता को मापा है। उस सीफीड तारे का निरपेक्ष कांतिमान -5.65 मैग्निट्यूड है जबकि उसका सापेक्ष कांतिमान +23.0 मैग्निट्यूड दर्ज किया गया है। अब खगोलविज्ञानी इस दूरी मापांक समीकरण का उपयोग कर सकते है।

m – M = 5 log d – 5

यहाँ, m = सापेक्ष कांतिमान, M = निरपेक्ष कांतिमान, d = दूरी पारसेक(pc).
व्यवस्थित करने पर,
d = 10^(m – M + 5)/5 parsecs
सीफीड तारे के आंकड़े रखने पर,
d = 10^(23 – -5.65 + 5)/5 parsecs
d = 10^6.73 parsecs
d = 5.4 × 10^6 parsecs

सीफीड मापन विधि से वैज्ञानिक द्वारा 1 किलो पारसेक से लेकर 50 मेगा पारसेक तक की दूरी का आंकलन किया जाता है। नासा के अनुसार भू-आधारित टेलिस्कोप इस विधि का उपयोग कर 13 मिलियन प्रकाशवर्ष दूर स्थित तारों की दूरी माप रहे है जबकि अंतरिक्ष में स्थापित हब्बल टेलिस्कोप या अन्य बड़े टेलिस्कोप तो 56 मिलियन प्रकाशवर्ष से ज्यादा दूरी तक इस तकनीक का बेहतर उपयोग कर रहे है।

सुपरनोवा मापन(la Supernova Measurement):

टायको द्वारा देखे गये सुपरनोवा के अवशेष

टायको द्वारा देखे गये सुपरनोवा के अवशेष

सुपरनोवा मापन(la Supernova Measurement): खगोलशास्त्र में सुपरनोवा किसी तारे के भयंकर विस्फोट को कहते हैं। सुपरनोवा नोवा से अधिक बड़ा धमाका होता है और इस से निकलता प्रकाश और विकिरण इतना ज़ोरदार होता है के कुछ समय के लिए अपने आगे पूरी आकाशगंगा को भी धुंधला कर देता है लेकिन फिर धीरे-धीरे ख़ुद धुंधला हो जाता है। जब तक सुपरनोवा अपनी चरमसीमा पर होता है, वह कभी-कभी कुछ ही हफ़्तों या महीनो में इतनी उर्जा प्रसारित कर सकता है जितनी की हमारा सूरज अपने अरबों साल के जीवनकाल में करेगा।

सुपरनोवा तारें खगोलविज्ञानियों के लिए बड़े काम की चीज है क्योंकि सुपरनोवा तारा विस्फोट से गैसों के बादल अंतरिक्ष में प्रसारित हो जाते हैं। ये गैसें नये तारों के निर्माण हेतु कच्चे पदार्थ(raw materials) प्रदान करते है साथ ही सुपरनोवा तारें खगोलीय दूरी मापने के काम भी आते है।

मानक दीपस्तंभ(Satandard Candle) से खगोलीय दूरीयों का मापन यदि आप जानते है कि यह तारा समान शक्ति के स्रोत का है तो एक विशिष्ट क्षेत्र मे उससे उत्सर्जित फोटानो की गणना कर उस स्रोत की दूरी ज्ञात की जा सकती है।(If you know you have same source strength of light, then counting the number of photons through a standard area detactor tells you the distance to source) किसी बिंदु स्रोत से उत्सर्जित प्रकाश के फोटानो मे व्युत्क्रम वर्ग नियम के अनुसार कमी होती है जो कि सीधे सीधे एक ज्यामितिय संबंध है।(Light from a point source drops off according to the inverse square law, a strictly geometrical relationship.)

मानक दीपस्तंभ(Satandard Candle) से खगोलीय दूरीयों का मापन यदि आप जानते है कि यह तारा समान शक्ति के स्रोत का है तो एक विशिष्ट क्षेत्र मे उससे उत्सर्जित फोटानो की गणना कर उस स्रोत की दूरी ज्ञात की जा सकती है।(If you know you have same source strength of light, then counting the number of photons through a standard area detactor tells you the distance to source) किसी बिंदु स्रोत से उत्सर्जित प्रकाश के फोटानो मे व्युत्क्रम वर्ग नियम के अनुसार कमी होती है जो कि सीधे सीधे एक ज्यामितिय संबंध है।(Light from a point source drops off according to the inverse square law, a strictly geometrical relationship.)

जब खगोलीय दूरी बहुत ज्यादा होती है तब लंबन विधि(parallax method) या सिफीड परिवर्तन(Cepheid variables) विधियों से दूरी का प्रत्यक्ष आंकलन करना संभव नही होता। खगोलविज्ञानियों के अनुसार जब 1 बिलियन प्रकाशवर्ष से ज्यादा की दूरी हो तो लंबन या सिफीड परिवर्तन विधियां सीधे तौर पर काम मे नही आती ऐसी स्थितियों में वैज्ञानिक सुपरनोवा तारें के माध्यम से खगोलीय दूरी का आंकलन करते है। खगोलविदों तब मानक दीपस्तंभ(standard candles) मानी जानेवाली सुपरनोवा को उपयोग में लाने वाली तरीकों की ओर अपना ध्यान केंद्रित करती है। इस तकनीक में वैज्ञानिक सर्वप्रथम किसी ऐसे पिंड को चुनते है जिसका निरपेक्ष कांतिमान उन्हें ज्ञात हो फिर तुलनात्मक रूप से देखा जाता है की वह पिंड अपने सापेक्ष किसी सुपरनोवा विस्फ़ोट से कितनी तीव्रता का प्रकाश ग्रहण करता है। इसी तुलनात्मक आधार पर किसी मापे जानेवाले पिंड(जिस खगोलीय पिंड के दूरी का मापन करना हो) का निरपेक्ष/सापेक्ष कांतिमान का आंकलन किया जाता है। अब प्रकाश तीव्रता का व्युत्क्रम वर्ग नियम(inverse square law for light intensity) का उपयोग खगोलीय दूरी मापन के काम मे लाया जाता है। कुछ विशेष प्रकार के सुपरनोवा की अनूठी विशेषताओं और विशाल चमक खगोलीय दूरी निर्धारित करने की अनुमति हमें देते रहे है।

खगोलविज्ञानी सुपरनोवा के दूरी का आंकलन ज्यादातर सिफीड परिवर्तन के आधार पर करते है क्योंकि उसकी चमक बढ़ जाती है और फिर बाद में मंद हो जाती है। कुछ सुपरनोवा ऐसे होते है जो नियमित समय अंतराल में अपनी चमक को तेज और मंद करते है ऐसे सुपरनोवा को la प्रकार(type Ia) का सुपरनोवा कहा जाता है। खगोलविज्ञानी la प्रकार के सुपरनोवा की अधिकतम चमक(1/distance^2 rule) को ज्ञात करते है जो एक प्रकाशवर्ष की दूरी तक सभी तारों के लिए समान मानी जाती है। इस प्रकार के la सुपरनोवा हमारे मानक मोमबत्तियां(standard candles) मानी जाती है।

यदि दूर की आकाशगंगा की दूरी की मापन करना हो तो सबसे पहले वैज्ञानिक एक प्रकार के la सुपरनोवा का पता लगाते है और फिर उसकी चमक को नियमित रूप से मापा जाता है। इस प्राप्त परिणाम की तुलना ऐसे सभी सुपरनोवों द्वारा प्राप्त ज्ञात अधिकतम उज्ज्वलता के साथ किया जाता है। इस विधि से आकाशगंगाओं की दूरी निर्धारित करने में मदद मिलती है। नासा के वैज्ञानिकों के अनुसार, चूंकि सुपरनोवा बेहद उज्ज्वल होता है इसलिए यह विधि बहुत बड़ी दूरियों के लिए उपयोगी है। फ़िलहाल लगभग एक अरब प्रकाशवर्ष से लेकर 6 अरब प्रकाशवर्ष तक की दूरियों के लिए यह विधि ज्यादा उपयोग में लायी जा रही है।

लाल विचलन और हबल सिद्धान्त द्वारा मापन(Redshift and Hubble’s Law Measurement)

लाल विचलन और हबल सिद्धान्त द्वारा मापन(Redshift and Hubble’s Law Measurement): अमेरिकी खगोलविज्ञानी एडविन पॉवेल हबल(Edwin Powell Hubble) ने सन 1929 में अपने खगोलीय प्रेक्षण से यह खोज निकाला की कोई आकाशगंगा पृथ्वी से जितनी दूर होती है वह उतनी ही तेजी से पृथ्वी से और दूर होती जाती है। उन्होंने खगोलीय प्रेक्षण के दौरान पाया की आकाशगंगा जितनी दूर हो उन आकाशगंगाओं से आने वाले प्रकाश का डॉप्लर प्रभाव उतना ही अधिक होता है, सरल शब्दों में कहे तो उनके प्रकाश में लालिमा अधिक प्रतीत होती है क्योंकि उनसें उत्सर्जित प्रकाश वर्णक्रम में लाल रंग की ओर विचलित हो रहा है। इसे हबल सिद्धांत कहा जाता है और इसका सीधा अर्थ यह निकला की हमारा ब्रह्माण्ड निरंतर फैल रहा है। यह सिद्धांत खगोलशास्त्र मे आकाशीय पिंडों की गति और दूरी को मापने के लिये उपयोग मे लाया जाता है। इस विधि से खगोलीय दूरी मापने से पहले आपको डाप्लर प्रभाव और लाल विचलन को भलीभांति समझना होगा।

डाप्लर प्रभाव(Doppler effect)

डाप्लर प्रभाव(Doppler effect): यह किसी तरंग की तरंगदैधर्य(wavelength) और आवृत्ती(frequency) मे आया वह परिवर्तन है जिसे उस तरंग के श्रोत के पास आते या दूर जाते हुये निरीक्षक द्वारा महसूस किया जाता है। यह प्रभाव आप किसी अपने निकट पहुंचते वाहन की ध्वनी और दूर जाते वाहन की ध्वनी मे आ रहे परिवर्तनो से महसूस कर सकते है। इसे वैज्ञानिक रूप से देंखे तो होता यह है कि आप से दूर जाते वाहन की ध्वनी तरंगो(Sound waves) का तरंगदैधर्य बढ जाती है, और पास आते वाहन की ध्वनी तरंगो का तरंगदैधर्य कम हो जाती है। दूसरे शब्दो मे जब तरंगदैधर्य बढ जाती है तब आवृत्ती कम हो जाती है और जब तरंगदैधर्य कम हो जाती है आवृत्ती बढ जाती है।

लाल विचलन (Red Shift):

लाल विचलन(Redshift)

लाल विचलन(Redshift)

लाल विचलन (Red Shift): यह वह प्रक्रिया जिसमे किसी पिंड से उत्सर्जीत प्रकाश वर्णक्रम मे लाल रंग की ओर विचलीत होता है। वैज्ञानिक तौर से यह उत्सर्जीत प्रकाश किरण की तुलना मे निरिक्षित प्रकाश किरण के तरंगदैधर्य मे हुयी बढोत्तरी या उसकी आवृती मे कमी है। दूसरे शब्दो मे प्रकाश श्रोत से प्रकाश के पहुंचने तक प्रकाश किरणो के तरंगदैधर्य मे हुयी बढोत्तरी या उसकी आवृती मे कमी होती है।

प्रकाश किरणों मे लाल रंग की प्रकाश किरणों का तरंगदैधर्य सबसे ज्यादा होता है, इसलिये किसी भी रंग की किरण का वर्णक्रम मे लाल रंग की ओर विचलन ‘लाल विचलन’ कहलाता है। यह प्रक्रिया अप्रकाशिय किरणों (गामा किरणें, X किरणें, पराबैगनी किरणें) के लिये भी लागु होती है और इसी नाम से जानी जाती है। वैसी किरणें जिनका तरंगदैधर्य लाल रंग की किरणों से भी ज्यादा होता है (अवरक्त किरणें(infrared), सूक्ष्म तरंगें(Microwave), रेडीयो तरंगें) यह विचलन लाल रंग से दूर होता है।

सामान्यतः लाल विचलन उस समय होता है जब प्रकाश श्रोत प्रकाश निरिक्षक से दूर जाता है, बिलकुल ध्वनी तरंगो के डाप्लर सिद्धांत की तरह !

खगोलविज्ञानी दूर की आकाशगंगाओं के लाल विचलन को सटीकता से मापने के लिए स्पेक्ट्रोस्कोपी(spectroscopy) का उपयोग करते है। प्रकाश किरणें जब किसी प्रिज्म पर पड़ती है तब वह सात रंगों(ROYGBIV) में विभक्त हो जाती है इसे ही स्पेक्ट्रम या स्पेक्ट्रा(spectrum) कहते है। खगोलविज्ञानी सितारों या आकाशगंगाओं से प्राप्त स्पेक्ट्रम को सामान्य स्पेक्ट्रम से उसकी तुलना करते है। ये उत्सर्जित वर्णक्रम किसी रासायनिक तत्व या रासायनिक यौगिक से उत्पन्न होने वाले विद्युतचुंबकीय विकिरण होते है जो हमें अरबों प्रकाशवर्ष दूर स्थित तारों व ग्रहों की रसायनिक रचना समझने में भी मददगार होते है। वैज्ञानिक तुलनात्मक रूप से देखते है की अवशोषण या उत्सर्जन वर्णक्रम लाइनें कितनी स्थानांतरित(shift) हो जाती है इससे पता चलता है की वह पिंड हमसे कितना दूर है।

बहुत-बहुत दूर स्थित पिंडो ख़ासकर क्वासर(quasars) जैसे पिंड के वर्णक्रम स्पेक्ट्रोस्कोपी के माध्यम से भी बहुत धुँधले दिखाई देते है क्योंकि इनका लाल विचलन बहुत ज्यादा होता है। ऐसी स्थितियों में वैज्ञानिक फोटोमेट्रिक रेडशिफ्ट(photometric redshifts) से लाल विचलन का पता लगाते है। स्पेक्ट्रोस्कोपी से प्राप्त स्पेक्ट्रम यदि ज्यादा धुंधला हो तो विभिन्न फिल्टर के माध्यम से भी स्पेक्ट्रम का अध्ययन किया जाता है। लाल विचलन को लाल विचलन पैरामीटर z(redshift parameter z) से सूचित किया जाता है।

z = (λobserved – λemitted)/λemitted.

यहां, λobserved = स्पेक्ट्रम लाइन में देखा गया तरंगदैर्ध्य
λemitted = सामान्य अवस्था मे स्रोत का तरंगदैर्ध्य

यहाँ आप ध्यान दे, z आपको वर्षों की संख्या बताता है जो वस्तु से प्रकाश आपके पास पहुँचने में लगा समय है। यह पृथ्वी से उस वस्तु की वास्तविक दूरी नहीं है क्योंकि ब्रह्मांड विस्तार कर रहा है इसलिए वस्तु, z संख्या के मुकाबले पृथ्वी से बहुत दूर होती है।

हब्बल डीप फ़िल्ड

हब्बल डीप फ़िल्ड

हमसब जानते है, कोई आकाशगंगा पृथ्वी से जितनी दूर होती है वह उतनी ही तेजी से पृथ्वी से और दूर होती जा रही है और इसे हबल स्थिरांक परिभाषित करता है। जिसे गणितीय रूप से इस समीकरण से प्रदर्शित किया जाता है।
V = H × D ….(1)
V = HoD ….(2)
यहां V= वेग, H/Ho = हबल स्थिरांक, D = दूरी

हालांकि हबल स्थिरांक का सटीक मान अभी भी कुछ अनिश्चित है लेकिन आम तौर पर दूरी के प्रत्येक मेगापारसेक के लिए लगभग 65~71 किलोमीटर प्रति सेकेंड माना जाता है। एक मेगापारसेक(1Mpc) का मतलब 3×10^6 प्रकाशवर्ष होता है। इसका मतलब यह है की एक आकाशगंगा यदि हमसे 1 मेगापारसेक दूर हो तो 65 Km/s की रफ्तार से दूर होता जा रहा है जबकि कोई आकाशगंगा यदि 100 मेगापारसेक की दूरी पर हो तो वह इससे 100 गुना तेज गति से दूर होती जाएगी। हबल स्थिरांक ब्रह्मांड का विस्तार करने वाली दर को दर्शाता है।

खगोलविज्ञानियों द्वारा स्पेक्ट्रम के इस बदलाव से उसकी लाल विचलन पैरामीटर z निर्धारित करते है। इस लाल विचलन z के आधार पर यह पता चलता है की प्रकाश को स्रोत/आकाशगंगा से पृथ्वी पर आने में कितना समय लगा। इतनी दूरी पर वहाँ विस्तार की दर को हबल समीकरण से ज्ञात किया जाता है और फिर पृथ्वी से उस पिंड की दूरी निर्धारित की जाती है। यहां आप यह भी ध्यान दें की दूरी निर्धारित करने की यह विधि अवलोकन(स्पेक्ट्रम में बदलाव) और एक सिद्धांत(हबल सिद्धान्त) पर आधारित है। यदि हबल सिद्धांत सही नहीं है, तो इस तरह से दूरी का आंकलन करना गलत हो सकता है लेकिन अधिकांश खगोलविदों का मानना है की हबल सिद्धांत ब्रह्माण्ड में दूरी की एक बड़ी रेंज के लिए बिल्कुल सही हैं। इस खगोलीय विधि से 1 अरब प्रकाशवर्ष से लेकर 30 अरब प्रकाशवर्ष तक की दूरी का आंकलन किया जा सकता है।

 

स्रोत:

  • NASA.
  • Las Cumbres Observatory.
  • National Science Foundation.
  • Wikipedia.

लेखिका परिचय

प्रस्तुति : पल्लवी कुमारी

प्रस्तुति : पल्लवी कुमारी

पलल्वी  कुमारी, बी एस सी प्रथम वर्ष की छात्रा है। वर्तमान  मे राम रतन सिंह कालेज मोकामा पटना मे अध्यनरत है।

जब एंड्रोमिडा आकाशगंगा हमारी आकाशगंगा से टकरायेगी

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आज से तकरीबन चार अरब वर्षों के बाद हमारी आकाशगंगा मंदाकिनी (मिल्की वे) और एंड्रोमेडा आकाशगंगा आपस मे टकरा जाएगी लेकिन अफसोस तबतक हमारा सूर्य एक विशाल लाल तारा बन चुका होगा। न ही पृथ्वी और न ही सौर मंडल इस खगोलीय टकराव का साक्षी होगा। दो पड़ोसी आकाशगंगाओं का मिलन बड़ा दुर्लभ होता है और इसके प्रभाव बड़े पैमाने पर देखे जाते है। लेकिन यहां तो चार अरब वर्षो के बाद दो बड़े आकाशगंगा एक दूसरे से विलय करेंगी। एंड्रोमेडा आकाशगंगा जो की एक अण्डाकार आकाशगंगा है और हमारी मिल्की वे एक सर्पीली आकाशगंगा। शोधकर्ताओं द्वारा भविष्यवाणी की गई है की इस अद्भुत टकराव के बाद दोनों आकाशगंगाओं की वर्तमान संरचना बिल्कुल बदल जायेगी खासकर मिल्की वे की सर्पीली संरचना।

चित्र1: 3.75 अरब साल बाद एंड्रोमेडा और मिल्की वे लगभग आमने सामने आ जायेंगे और अंतरिक्ष से वो नजारा कुछ ऐसा ही दिखाई देगा। Credit: NASA/ESA/Z. Levay/R. van der Marel/T. Hallas/A. Melliger.

चित्र1: 3.75 अरब साल बाद एंड्रोमेडा और मिल्की वे लगभग आमने सामने आ जायेंगे और अंतरिक्ष से वो नजारा कुछ ऐसा ही दिखाई देगा। Credit: NASA/ESA/Z. Levay/R. van der Marel/T. Hallas/A. Melliger.

फ़िलहाल एंड्रोमेडा गैलेक्सी हमारी आकाशगंगा से 250 लाख प्रकाश वर्ष दूर है लेकिन गुरुत्वाकर्षण के पारस्परिक पुल के कारण एंड्रोमेडा लगभग 70 मील/110 किलोमीटर प्रति सेकंड की रफ्तार से हमारी आकाशगंगा के पास आ रहा है। इस दर से यदि अनुमान लगाया जाय तो यह टक्कर शुरू होने से लगभग चार अरब वर्ष शेष हैं। हालांकि जब मिल्की वे और एंड्रोमेडा एक-दूसरे से विलय करना आरंभ करेंगे तो उनके लिए पूरी तरह से एक दूसरे में विलीन हो जाने और एक नये विशाल अण्डाकार आकाशगंगा के रूप में निर्मित होने में एक या दो अरब साल और लगेंगे। इसके अलावा नासा के अनुसार, स्थानीय समूह की तीसरी सबसे बड़ी आकाशगंगा, त्रिकोणीय आकाशगंगा(M33) भी विलय की गई जोड़ी के चारों ओर अपनी कक्षा स्थापित करेंगी लेकिन अंततः बाद की तारीख में M33 भी उन दोनों एकीकृत होते आकाशगंगाओं के साथ विलय कर सकती है ऐसा वैज्ञानिकों को उम्मीद है।

एंड्रोमेडा आकाशगंगा में लगभग एक ट्रिलियन तारे हैं और हमारी आकाशगंगा में लगभग 300 अरब सितारें है। इसके बावजूद दोनों आकाशगंगाओं में बहुत बड़ी जगह खाली है इसलिए वैज्ञानिकों को लगता है की आपस मे तारों के टकराने की संभावना बहुत कम हो सकती है। स्पेस टेलिस्कोप साइंस इंस्टीट्यूट(Space Telescope Science Institute, Baltimore) के वैज्ञानिक टोनी सोहं(Tony Sohn) का कहना है

“जब हम कहते हैं की दो आकाशगंगाएं आपस मे टकराने जा रही है इसका मतलब है दोनों आकाशगंगाओं में उपस्थित डार्क मैटर का भी विलय होगा। डार्क मैटर अभी भी खगोलविज्ञानियों और कण भौतिकविदों के लिए अज्ञात क्षेत्र है लेकिन एक चीज सुनिश्चित है कि इन कणों को वर्तमान ब्रह्मांड में नहीं बनाया जा रहा है।”

 

चित्र2: जब एंड्रोमेडा और मिल्की वे एकीकृत हो रहे होंगे तब M33 आकाशगंगा इन दोनों की परिक्रमा कर रही होगी। Credit: NASA/ESA/STScI/A.Felid/R. van der Marel.

चित्र2: जब एंड्रोमेडा और मिल्की वे एकीकृत हो रहे होंगे तब M33 आकाशगंगा इन दोनों की परिक्रमा कर रही होगी। Credit: NASA/ESA/STScI/A.Felid/R. van der Marel.

इन आकाशगंगाओं का विलय दोनों आकाशगंगा के केंद्र में मौजूद अतिसंवेदनशील बड़े ब्लैक होल को पास ले आयेगा। ये ब्लैक होल एक-दूसरे की ओर बढ़ेंगे और अंत में जब वे बहुत करीब होंगे तो वे एक-दूसरे के गुरुत्वाकर्षण पुल से बच नहीं सकते हैं। बड़े ब्लैकहोल का विलय एक बहुत ही हिंसक घटना है जो अंतरिक्ष-समय के फैब्रिक के माध्यम से भारी गुरुत्वाकर्षण लहरों को अंतरिक्ष मे प्रसारित करते है। इन गुरुत्वाकर्षण लहरों की तीव्रता बहुत शक्तिशाली होती है और यह भी संभव है की बहुत सारे सितारों को आकाशगंगा से ही बाहर फेंक सकती है। वैज्ञानिकों के अनुसार इन परिस्थितियों में हमारे सौर मंडल वर्तमान की तुलना में कही और नई कक्षा में स्थापित हो जाएगा।

ऐसा भी नही है की वैज्ञानिकों ने अबतक किसी आकाशगंगा की टकराव को नही देखा है। कोर्वस नक्षत्र(Corvus constellation) में एंटीना आकाशगंगाओ NGC-4038 and 4039 की टक्कर आजतक चल रही है। इन दोनों युवा आकाशगंगाओं का टकराव करीब 200 मिलियन वर्ष पहले शुरू हुआ था जो अबतक जारी है। ताजा आकड़ों के अनुसार इन आकाशगंगाओं और इनके घने क्षेत्रों के भीतर कई गोलाकार समूहों का गठन हो चुका है। इस टकराव में भी एक आकाशगंगा का आकार सर्पीली है इसलिये इस विलय को देखकर वैज्ञानिक, एंड्रोमेडा और मिल्की वे के साथ होने वाली टक्कर के बारे में उपयोगी अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकते हैं।

ब्रह्मांड में इस प्रकार के आकाशगंगाओं का टकराव एक सामान्य प्रक्रिया हैं क्योंकि स्थानीय स्तर पर, गुरुत्वाकर्षण पुल ब्रह्मांड के समग्र विस्तार से अधिक शक्तिशाली होता है दूसरे शब्दों में कहा जाय तो गुरुत्वाकर्षण बल संपूर्ण ब्रह्मांड के विस्तार पर हावी हो जाता है। हमसब जानते है की ब्रह्माण्ड विस्तार कर रहा है लेकिन किसी एक गुब्बारा पर कई डॉट्स आसपास हो और उसे फुलाया जाता है तब वे डॉट्स काफी बड़े हो जाते है। इन ब्रह्माण्डीय परिस्थितियों में गुरुत्वाकर्षण बड़े वस्तुओं के लिए जीत जाता है और वस्तुओं को एक-दूसरे के निकट ले आता है। वास्तव में हमारी आकाशगंगा और एंड्रोमेडा के बीच की दूरी बहुत करीब मानी जाता है यह इतनी करीब है की इनके गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव ब्रह्मांड के विस्तार पर हावी है। वास्तव में गुरुत्वाकर्षण को एक कमजोर बल माना जाता है लेकिन यह ब्रह्माण्ड का असली नायक है।

टोनी सोहं का कहना है

“जब एंड्रोमेडा हमारी आकाशगंगा तक पहुचेगा उससे पहले ही सूर्य एक लाल विशालकाय तारा बन चुका होगा और इस तारे की सतह ने पहले से ही पृथ्वी को अपने घेरे में ले लिया होगा। हम इस खगोलीय टकराव को रोक तो नही पायेंगे और न ही देख सकते है लेकिन कम्प्यूटर सिमुलेशन हमे इस टकराव की झलक दिखा रहे है और भविष्य में अधिक सटीकता से दिखाते ही रहेंगे।”

चित्र3: चित्रों की यह श्रृंखला हमे बताती है मिल्की वे आकाशगंगा और एंड्रोमेडा आकाशगंगा के बीच अबतक से लेकर टकराव की संभावित समय सीमा। छवियां दिखाती हैं की रात का आकाश कैसा दृष्टिगोचर होगा: वर्तमान दिन (पंक्ति 1, बाएं); 2 अरब वर्ष (पंक्ति 1, दाएं); 3.75 अरब वर्ष (पंक्ति 2, बाएं); 3.85 अरब साल (पंक्ति 2, दाएं); 3.9 बिलियन वर्ष (पंक्ति 3, बाएं); 4 अरब वर्ष (पंक्ति 3, दाएं); 5.1 अरब साल (पंक्ति 4, बाएं); और 7 अरब वर्ष (पंक्ति 4, दाएं)। Credit: NASA/ESA/Z. Levay/R. van der Marel/T. Hallas/A. Melliger.

चित्र3: चित्रों की यह श्रृंखला हमे बताती है मिल्की वे आकाशगंगा और एंड्रोमेडा आकाशगंगा के बीच अबतक से लेकर टकराव की संभावित समय सीमा। छवियां दिखाती हैं की रात का आकाश कैसा दृष्टिगोचर होगा: वर्तमान दिन (पंक्ति 1, बाएं); 2 अरब वर्ष (पंक्ति 1, दाएं); 3.75 अरब वर्ष (पंक्ति 2, बाएं); 3.85 अरब साल (पंक्ति 2, दाएं); 3.9 बिलियन वर्ष (पंक्ति 3, बाएं); 4 अरब वर्ष (पंक्ति 3, दाएं); 5.1 अरब साल (पंक्ति 4, बाएं); और 7 अरब वर्ष (पंक्ति 4, दाएं)। Credit: NASA/ESA/Z. Levay/R. van der Marel/T. Hallas/A. Melliger.

 

नोट: एंड्रोमेडा और मिल्की वे आकाशगंगाओं में स्थित तारों की संख्या पिछली शोध अध्ययन के अनुसार दर्शाये गए हो सकते है।

ऑस्ट्रेलियाई शोधकर्ताओं ने अपने ताजा शोध अध्ययन में कहा है की एंड्रोमेडा और हमारी आकाशगंगा मिल्की वे दोनों का आकार लगभग समान ही है और दोनों का द्रव्यमान लगभग 800 बिलियन सौर द्रव्यमान के बराबर है। 2014 में शोधकर्ताओं ने अपने शोध अध्ययन में एंड्रोमेडा को मिल्की वे से तीन गुनी बड़ी बतायी थी लेकिन ताजा शोध ने इसे पूरी तरह से नकार दिया है। इस पूरे शोध पत्र को 14.2.2018/Monthly Notices of the Royal Astronomical Society के जर्नल में प्रकाशित किया गया है जिसे Astronomy Magazine में भी पढ़ा जा सकता है।

स्रोत: Astronomy magazine.

लेखिका परिचय

प्रस्तुति : पल्लवी कुमारी

प्रस्तुति : पल्लवी कुमारी

पलल्वी  कुमारी, बी एस सी प्रथम वर्ष की छात्रा है। वर्तमान  मे राम रतन सिंह कालेज मोकामा पटना मे अध्यनरत है।

ब्रह्माण्ड के शुरुआती सितारों के जन्म का रहस्य

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महा विस्फोट का सिद्धांत ब्रह्मांड की उत्पत्ति के संदर्भ में सबसे ज्यादा मान्य है। यह सिद्धांत व्याख्या करता है कि कैसे आज से लगभग 13.8 अरब वर्ष पूर्व एक अत्यंत गर्म और घनी अवस्था से ब्रह्मांड का जन्म हुआ। इसके अनुसार ब्रह्मांड की उत्पत्ति एक बिन्दु से हुयी थी।

प्रस्तावित ब्रह्माण्ड का सबसे पहला निर्मित तारा, विशाल आकार के साथ नीले रंग में दिखाया गया है। यह तारा पूरी तरह से गैसीय तंतुओं से निर्मित हुआ है इसके पृष्टभूमि पर खगोलीय माइक्रोवेव(cosmic microwave background: CMB) को देखा जा सकता है। यह छवि रेडियो अवलोकनों पर आधारित है क्योंकि हम शुरुआती तारों को सीधे तौर पर नही देख सकते। शोधकर्ताओं के अनुसार खगोलीय माइक्रोवेव पृष्टभूमि की मंदता से तारे की उपस्थिति का अनुमान लगाने में मदद मिलती है क्योंकि खगोलीय माइक्रोवेव सितारों से निकले परावैगनी प्रकाश को अवशोषित कर लेते है। छवि में जहां पर खगोलीय माइक्रोवेव पृष्टभूमि कम है यह दर्शाता है वहां गैसीय तंतु अपेक्षा से कही अधिक ठंडे हो सकते है संभव है वे डार्क मैटर के साथ परस्पर प्रतिक्रिया कर रहे हो। Credit: N.R.Fuller, National Science Foundation.

प्रस्तावित ब्रह्माण्ड का सबसे पहला निर्मित तारा, विशाल आकार के साथ नीले रंग में दिखाया गया है। यह तारा पूरी तरह से गैसीय तंतुओं से निर्मित हुआ है इसके पृष्टभूमि पर खगोलीय माइक्रोवेव(cosmic microwave background: CMB) को देखा जा सकता है। यह छवि रेडियो अवलोकनों पर आधारित है क्योंकि हम शुरुआती तारों को सीधे तौर पर नही देख सकते। शोधकर्ताओं के अनुसार खगोलीय माइक्रोवेव पृष्टभूमि की मंदता से तारे की उपस्थिति का अनुमान लगाने में मदद मिलती है क्योंकि खगोलीय माइक्रोवेव सितारों से निकले परावैगनी प्रकाश को अवशोषित कर लेते है। छवि में जहां पर खगोलीय माइक्रोवेव पृष्टभूमि कम है यह दर्शाता है वहां गैसीय तंतु अपेक्षा से कही अधिक ठंडे हो सकते है संभव है वे डार्क मैटर के साथ परस्पर प्रतिक्रिया कर रहे हो। Credit: N.R.Fuller, National Science Foundation.

ब्रह्माण्ड का जन्म अर्थात बिग बैंग के लगभग 400000 साल बाद भी ब्रह्माण्ड पूरी तरह से स्याह काला था। कोई तारा या मंदाकिनी का जन्म भी उस समय तक नही हुआ था। उस समय ब्रह्माण्ड मुख्य रूप से उदासीन हाइड्रोजन गैस से भरा हुआ था फिर अगले, 50-100 मिलियन वर्षो तक गुरुत्वाकर्षण ने धीरे-धीरे अपना कार्य किया इन उदासीन गैसों को एक क्षेत्र में एकत्रित कर दिया जिससे वह क्षेत्र काफी घना होता चला गया। अंत मे इन घने गैसों ने तारों का रूप ले लिया इस प्रकार सबसे पहले तारे का जन्म हुआ। खगोलविज्ञानी लंबे समय से ब्रह्माण्ड के शुरुआती तारों के जन्म और इन तारों द्वारा ब्रह्माण्ड पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने में लगे रहे है। लगभग 12 सालो के प्रयोगिक प्रयासों के बाद स्कूल ऑफ अर्थ( ASU School of Earth) और स्पेस एक्सप्लोरेशन(Space Exploration) के खगोलविदों ने ब्रह्माण्ड के शुरुआती सितारों के जन्म के रहस्य को बताया है जिसका उल्लेख ऊपर के पंक्तियों में किया गया है।

जुड बोमन(Judd Bowman) के नेतृत्व वाली खगोलविदों की टीम ने रेडियो संकेतों के उपयोग कर बताया है की ब्रह्माण्ड के जन्म के केवल 180 मिलियन वर्ष बाद ही प्रथम तारा का जन्म हो गया था। यह सुनने या लिखने में बड़ा सरल तथ्य लगता है लेकिन इन आंकड़ों को जुटाना वैज्ञानिकों के लिए भी बड़ी चुनौती होती है चाहे वे कितनी ही अत्याधुनिक तकनीक या रेडियो संकेतों का उपयोग क्यों न कर रहे हो। इसका कारण ब्रह्माण्डीय शोर है क्योंकि ब्रह्माण्ड का शोर रेडियो संकेतों के मुकाबले कई हजार गुना ज्यादा शक्तिशाली होते है। शुरुआती रेडियो संकेतों को खोजना उतना ही कठिन है जितना कठिन संपूर्ण पृथ्वी पर एक खास कण को खोजना है। नेशनल साइंस फाउंडेशन(National Science Foundation: NSF) समर्थित इस शोध में कई रेडियो एंटीना और अंतरिक्ष में मौजूद शक्तिशाली दूरबीनों का उपयोग किया गया है। रेडियो खगोलविज्ञान वेद्यशाला(Radio-astronomy Observatory) के साथ दक्षिणी गोलार्द्ध स्थित सभी वेधशालाओं से प्राप्त खगोलीय संकेतों और रेडियो स्पेक्ट्रम को मापा गया है। रेडियो स्पेक्ट्रोमीटर से प्राप्त आंकड़े संकेत देते है की उदासीन हाइड्रोजन गैस शुरुआती ब्रह्माण्ड में बड़े पैमाने पर उपस्थित थे और इन गैसों ने ही शुरुआती तारों बाद में, ब्लैकहोल और आकाशगंगाओं का गठन किया है साथ ही उन्हें विकसित भी करते रहे है।

खगोलविज्ञानी जुड बोमन कहते है

“हम किसी भी तरह प्रत्यक्ष तौर पर शुरुआती जन्मे तारों के इतिहास को नही देख सकते लेकिन जो संकेत मिले है वे हमें इन तारों के जन्म और विकास को दर्शाते हैं। यह प्रोजेक्ट हमें दिखाता है की नयी तकनीक एक बेहतरीन प्रदर्शन कर सकती है और नये खगोलीय खोजों में ऐसी तकनीक बेहतर विकल्प है। इस शोध के परिणाम शुरुआती सितारों के गठन और उसके बुनियादी गुणों के सामान्य सिद्धान्तों की पुष्टि भी कर रहे है।”

MIT के खगोलविज्ञानी एलन रोजर्स(Alan Rogers) का कहना है

“घनी हाइड्रोजन गैस ने विकरणों को अवशोषित कर लिया। वास्तव में हम उस समय के हाइड्रोजन गैस से उत्सर्जित विकरणों को देख पा रहे है। हम लगभग 78 मेगाहर्ट्ज पर रेडियो संकेतों को पकड़ते है यह आवृत्ति बिग बैंग के बाद करीब 180 मिलियन वर्ष के आसपास की है। यह पहला वास्तविक संकेत है जो बताता है बिग बैंग के 180 मिलियन साल बाद पहला तारा का जन्म हुआ।”

अध्ययन से पता चलता है की शुरुआती ब्रह्माण्ड में मौजूद गैस संभावित अपेक्षा से कही अधिक ठंडी रही होगी। ज्यादातर पिछले शोधों द्वारा प्रस्तावित तापमान, इस नई प्रस्तावित तापमान से आधे से भी कम है।

चित्र 2: ब्रह्माण्ड की समय रेखा जिसमे देखा जा सकता है की बिग बैंग के 180 मिलियन वर्षो के बाद संभावित प्रथम तारा का जन्म हुआ था। Credit: N.R.Fuller, National Science Foundation.

चित्र 2: ब्रह्माण्ड की समय रेखा जिसमे देखा जा सकता है की बिग बैंग के 180 मिलियन वर्षो के बाद संभावित प्रथम तारा का जन्म हुआ था। Credit: N.R.Fuller, National Science Foundation.

खगोलशास्त्री रेननं बरकाना(Rennan Barkana) ने एक अवधारणा प्रस्तावित किया था जिसके अनुसार बेरिऑन(baryons) ने डार्क मैटर के साथ परस्पर प्रतिक्रिया की होगी और इसके फलस्वरूप प्रारंभिक ब्रह्माण्ड में धीरे-धीरे डार्क मैटर ने अपनी ऊर्जा खो दिया होगा। जुड बोमन कहते है अगर हमारा शोध रेननं बरकाना के अवधारणाओं की पुष्टि करता है तो हमें डार्क मैटर के बारे में बहुत कुछ जानने को मिल सकता है।

चित्र 1: प्रस्तावित ब्रह्माण्ड का सबसे पहला निर्मित तारा, विशाल आकार के साथ नीले रंग में दिखाया गया है। यह तारा पूरी तरह से गैसीय तंतुओं से निर्मित हुआ है इसके पृष्टभूमि पर खगोलीय माइक्रोवेव(cosmic microwave background: CMB) को देखा जा सकता है। यह छवि रेडियो अवलोकनों पर आधारित है क्योंकि हम शुरुआती तारों को सीधे तौर पर नही देख सकते। शोधकर्ताओं के अनुसार खगोलीय माइक्रोवेव पृष्टभूमि की मंदता से तारे की उपस्थिति का अनुमान लगाने में मदद मिलती है क्योंकि खगोलीय माइक्रोवेव सितारों से निकले परावैगनी प्रकाश को अवशोषित कर लेते है। छवि में जहां पर खगोलीय माइक्रोवेव पृष्टभूमि कम है यह दर्शाता है वहां गैसीय तंतु अपेक्षा से कही अधिक ठंडे हो सकते है संभव है वे डार्क मैटर के साथ परस्पर प्रतिक्रिया कर रहे हो। Credit: N.R.Fuller, National Science Foundation.

चित्र 2: ब्रह्माण्ड की समय रेखा जिसमे देखा जा सकता है की बिग बैंग के 180 मिलियन वर्षो के बाद संभावित प्रथम तारा का जन्म हुआ था। Credit: N.R.Fuller, National Science Foundation.

Journal reference: Nature(2018).
स्रोत: Arizona State University.

लेखिका परिचय

प्रस्तुति : पल्लवी कुमारी

प्रस्तुति : पल्लवी कुमारी

पलल्वी  कुमारी, बी एस सी प्रथम वर्ष की छात्रा है। वर्तमान  मे राम रतन सिंह कालेज मोकामा पटना मे अध्यनरत है।

टेरा फ़ार्मिंग: किसी ग्रह को जीवन योग्य बनाना

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हमारी अब तक की जानकारी के अनुसार द्रव जल जीवन के लिये आवश्यक है, इसके बिना जीवन संभव नही है। पृथ्वी पर हर कहीं द्रव जल उपलब्ध है और जीवन ने पनपने का मार्ग खोज निकाला है। इसलिये मानव अंतरिक्ष अण्वेषण मे सबसे पहले जल खोजता है। अब तक चंद्रमा, मंगल, युरोपा और एन्सलेडस पर जल की उपस्थिति के प्रमाण मिल चुके है, जिसमे युरोपा और एन्सलेडस पर जल द्रव रूप मे उपस्थित है, जबकी चंद्रमा पर जल हिम के रूप मे उपस्थित है। मंगल पर जल के हिम रूप मे होने के ठोस प्रमाण है लेकिन द्र्व रूप मे उपस्तिथि के अस्पष्ट प्रमाण है। जीवन की दूसरी आवश्यकता ऐसे वातावरण की उपस्थिति है जिसमे मानव बिना अंतरिक्ष सूट के विचरण कर सके। दुर्भाग्य से सौर मंडल मे पृथ्वी के अतिरिक्त किसी भी अन्य ग्रह पर ऐसा वातावरण नही है। बुध ग्रह पर वातावरण ही नही है, शुक्र का वातावरण अत्यंत घना है, बृहस्पति, शनि , युरेनस , नेपच्युन पर वातावरण है लेकिन ठोस धरातल नही है। चंद्रमाओ मे युरोपा और एन्सलेडस पर भी वातावरण नही है। शेष रह जाता है मंगल जिस पर वातावरण है लेकिन विरल है, आक्सीजन की उपस्थिति है लेकिन कार्बन डाय आक्साइड जानलेवा है, इसके अतिरिक्त चुंबकीय क्षेत्र की अनुपस्थिति के कारण घातक रूप से सौर विकिरण की उपस्थिति है। इसका अर्थ यही है कि पृथ्वी से बाहर सौर मंडल मे जीवन आसान नही है।

आपने पिछले कुछ वर्षो मे अखबारो मे पढ़ा होगा, टीवी पर देखा होगा कि मंगल ग्रह पर बसने के लिये कुछ उम्मीदवारो का चयन किया गया है और वे मंगल ग्रह पर बसने के उद्देश्य से एकतरफ़ा यात्रा के लिये निकट भविष्य मे रवाना होने वाले है। तो वे यात्री मंगल ग्रह पर जीवन कैसे गुजारेंगे ?

इस चुनौति से निपटने के लिये वैज्ञानिको ने दो उपाय सोच रखे है। एक उपाय है मंगल ग्रह कांच के बड़े बड़े गोल गुंबदो का निर्माण, जिसके अंदर एक ऐसा वातावरण बनाया जाये जिसमे मानव बिना अंतरिक्ष सूट के पृथ्वी के जैसे जीवन बीता सके। इसके लिये इस गुंबद के अंदर पृथ्वी के जैसे वायुमंडलीय दबाव, गैसो का मिश्रण का निर्माण करना होगा, इस वातावरण मे 20% आक्सीजन, 78% नाईट्रोजन , 0.04% कार्बन डायाआक्साईड , अल्प मात्रा मे जल नमी तथा शेष अन्य गैसे होंगी। इस गुंबद मे जल स्रोत और आवासीय इमारतो का निर्माण होगा। कृषि तथा अन्य खाद्य सामग्री का उत्पादन की सुविधा होगी। लेकिन इस तरह के बड़े पैमाने के निर्माण की व्यवस्था करनी कठीन होगी और उसमे समय लगेगा। तब तक मंगल पर आरंभीक मानव बस्तिया कालोनी छोटे सीलेंडर नुमा संरचनाओ के रूप मे ही होंगी, जिसमे अधिकतम कुछ लोग ही रह पायेंगे, एक सिलेंडर से दूसरे सिलेंडर मे जाने के लिये उन्हे अंतरिक्ष सूट पहनने होंगे।

मंगल या किसी अन्य ग्रह पर बसने का दूसरा उपाय टेराफ़ार्मिंग है। इस उपाय मे किसी ग्रह को संपूर्ण रूप से ट्रासफ़ोर्म किया जायेगा और उसे कृत्रिम रूप से पृथ्वी के जैसे बनाया जायेगा। अर्थात उस ग्रह पर पृथ्वी के जैसे वायुमंडल का निर्माण, चुंबकीय क्षेत्र का निर्माण, सागरो , झीलो, नदीयो और जंगलो का निर्माण किया जायेगा, साथ ही पृथ्वी के जैसे मौसम बनाना होगा, जिसमे बरसात, बर्फ़बारी, ग्रीष्म , शीत का समावेश होगा। लेकिन यह एक बहुत दूर की सोच है और अभी हमारा विज्ञान उस स्तर तक नही पहुंचा है लेकिन शायद अगली एक सदी मे यह संभव होगा।

गोल्डीलाक क्षेत्र :जीवन पनपने के लिये सर्वोत्तम क्षेत्र

गोल्डीलाक जोन

गोल्डीलाक जोन

हर तारे के पास एक ऐसा क्षेत्र होता है जहाँ पर द्रव जल पाया जा सकता है जिसे गोल्डीलाक जोन कहते है। इस क्षेत्र मे तारे से प्राप्त ऊर्जा इतनी होती है कि जल द्रव अवस्था मे रह सकता है।

तारों के वर्गीकरण के अनुसार गोल्डीलाक जोन

तारों के वर्गीकरण के अनुसार गोल्डीलाक जोन

लेकिन टीकाउ जीवन के लिये उस ग्रह तक आनेवाली ऊर्जा के अतिरिक्त और भी बहुत से महत्वपूर्ण कारक होते है।

किसी जीवन योग्य ग्रह के लिये आवश्यक होता है कि वह अपने तारे से प्राप्त ऊर्जा का किस तरह से प्रयोग करता है। तारे से प्राप्त कुछ ऊर्जा का अवशोषण होना चाहिये कि जिससे उस तारे पर एक विशिष्ट तापमान बनाये रखा जा सके लेकिन आयोनाइजींग विकिरण जीवन के लिये खतरनाक हो सकता है।

किसी भी जीवन की संभावना वाले ग्रह के पास सतह तक अधिक तीव्रता वाले आयोनाइजींग विकिरण के पहुंचने से बचाव की व्यवस्था होनी चाहिये, जबकी उष्मा और ऊर्जा के रूप मे कम ऊर्जा वाले आयोनाइजींग विकिरण को पहुचने देना चाहिये।

 

ग्रह का द्रव्यमान

केप्लर 90 और सौर मंडल के ग्रहों के आकार की तुलना

केप्लर 90 और सौर मंडल के ग्रहों के आकार की तुलना

जीवन के लिये ग्रह के आसपास एक वायुमंडल होना चाहिये जो उष्मा को ग्रहण कर के रख सके तथा हानिकारक विकिरण का परावर्तन करे। सभी चट्टानी ग्रह इस आकार के नही होते कि वे वायुमंडल के निर्माण योग्य गुरुत्वाकर्षण उत्पन्न कर सके।
जबकि कुछ ग्रह इतने विशाल होते है कि उनपर अत्याधिक वायुमंडलीय दबाव से जीवन कुचल जायेगा।
ग्रह का आकार और उस पर उपस्थित वायुमंडल का दबाव ही अकेला महत्वपूर्ण कारक नही है।

वायुमंडल और ग्रीनहाउस प्रभाव

पृथ्वी जैसे ग्रह की सतह पर कम ऊर्जा वाला विकिरण ही पहुंच पाता है।
वायुमंडल मे उपस्तिथ गैसे तथा कण आने वाले विकिरण से एक जटिल तरह से प्रतिक्रिया करती है।
हम वातावरण मे CO2 तथा उसके जैसी ग्रीनहाउस गैसे उत्सर्जन करते है, जोकि वातावरण मे विकिरण को उष्मा को सोख कर रखती है।

वातावरण को परिवर्तित करना कठीन है लेकिन हम जानते है कि यह संभव है।

चुंबकीय क्षेत्र

पृथ्वी का शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र पृथ्वी के वातावरण को सूर्य के हानिकारक आयोनाइजींग विकिरण से बचाता है।

चुंबकीय क्षेत्र द्वारा सौर वायु से बचाव

चुंबकीय क्षेत्र द्वारा सौर वायु से बचाव

पृथ्वी का पिघला लोहे का केंद्र समस्त सौर मंडल मे सबसे शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न करता है। यह हमे सौर वायु तथा ब्रह्माण्डीय विकिरण से बचाता है, जिससे ना केवल जीवन की रक्षा होती है साथ ही वायुमंडल के क्षरण से भी बचाव होता है।

नासा ने इसवर्ष एक प्रोजेक्ट का प्रस्ताव किया है जिसमे मंगल पर कृत्रिम रूप से चुंबकिय क्षेत्र का पुन:निर्माण किया जायेगा और वह वातावरण के पुन: निर्माण को सहायता करेगा।

मंगल के सामने एक चुंबकीय क्षेत्र के निर्माण से उसके वायुमंडल के सौर वायु और ब्रह्मांडीय विकिरण से क्षरण मे रोक लगेगी।

लेकिन इससे मंगल के CO2 से भरे वातावरण पर क्या प्रभाव होगा स्पष्ट नही है। इससे सतत क्षरित होते हुये वातावरण पर रोक लगेगी लेकिन इसके बावजूद जीवन संभव नही होगा। अब हम मंगल के वातावरण के घटको के बदलाव पर कार्य कर उसे जीवन योग्य बनाने की ओर कार्य कर सकते है।

किसी ग्रह को जीवन योग्य बनाना एक लंबे अरसे तक नही होगा लेकिन हमारे पास तकनीक है, यह संभव है और अंतरिक्ष मे मानव के आगे बढने की ओर एक महत्वपूर्ण कदम होगा।

 

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