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Channel: अंतरिक्ष –विज्ञान विश्व
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मानवता : पृथ्वी के अतिरिक्त एक और घर की तलाश

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शीत ऋतु , अमावस की रात, निरभ्र आकाश मे चमकते टिमटिमाते तारे, उत्तर से दक्षिण की ओर तारों से भरा श्वेत जलधारा के रूप मे मंदाकीनी आकाशगंगा का पट्टा! आकाश के निरीक्षण के लिये इससे बेहतर और क्या हो सकता है। अपनी दूरबीन उठाई और आ गये छत पर; ग्रह, तारों और निहारिकाओ को निहारने के लिये। दूरबीन लेकर छत पर जाते देख कर गार्गी, अनुषा और सारी बाल मंडली भी पीछे पीछे छत पर आ गये।

गार्गी: “पापा आज क्या दिखा रहे हो ?”

प्रॉक्सिमा सॅन्टौरी या मित्र सी, जिसका बायर नाम α Centauri C या α Cen C है, नरतुरंग तारामंडल में स्थित एक लाल बौना तारा है। हमारे सूरज के बाद, प्रॉक्सिमा सॅन्टौरी हमारी पृथ्वी का सब से नज़दीकी तारा है और हमसे 4.24 प्रकाश-वर्ष की दूरी पर है। फिर भी प्रॉक्सिमा सॅन्टौरी इतना छोटा है के बिना दूरबीन के देखा नहीं जा सकता। पृथ्वी से यह मित्र तारे (अल्फ़ा सॅन्टौरी) के बहु तारा मंडल का भाग नज़र आता है, जिसमें मित्र "ए" और मित्र "बी" तो द्वितारा मंडल में एक दूसरे से गुरुत्वाकर्षण से बंधे हुए हैं, लेकिन प्रॉक्सिमा सॅन्टौरी उन दोनों से 0.24 प्रकाश-वर्ष की दूरी पर है जिस से पक्का पता नहीं कि यह पृथ्वी से केवल उनके समीप नज़र आता है या वास्तव में इसका उनके साथ कोई गुरुत्वाकर्षक बंधन है।

प्रॉक्सिमा सॅन्टौरी या मित्र सी, जिसका बायर नाम α Centauri C या α Cen C है, नरतुरंग तारामंडल में स्थित एक लाल बौना तारा है। हमारे सूरज के बाद, प्रॉक्सिमा सॅन्टौरी हमारी पृथ्वी का सब से नज़दीकी तारा है और हमसे 4.24 प्रकाश-वर्ष की दूरी पर है।

आज दिखाते है हमारे सौर मंडल के बाहर का सबसे समीप का तारा! वो देखो जो तारा दिख रहा है, वह है अल्फ़ा सेंटारी। लेकिन हम जो एक तारा देखते है ना, वह एक तारा नही है, वह तीन तारो का समूह है, जिनके नाम है अल्फ़ा सेंटारी अ, अल्फ़ा सेंटारी ब और प्राक्सीमा सेंटारी।

हाँ पापा , अभी हाल ही मे इस तारे का एक ग्रह भी खोजा गया था ना!

हाँ, इन तीन तारो मे हमारे सबसे करीब का तारा है प्राक्सीमा सेंटारी। इसी तारे की परिक्रमा करता हुआ एक नया ग्रह खोजा गया है। प्राक्सीमा सेंटारी जोकि एक लाल वामन(Red Dwarf) तारा है और हमारे पड़ोस मे ही सबसे समीप का केवल 4.24 प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित तारा है। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि प्राक्सीमा सेंटारी तारे के इस इस नये खोजे गये ग्रह की कक्षा ऐसी है कि इस ग्रह की सतह पर द्रव जल की उपस्थिति होना चाहीये।

इसका क्या मतलब है , ताउजी ? अब तक शांत अनुषा ने प्रश्न उछाला।

इसका अर्थ यह है कि यह नया खोजा गया ग्रह गोल्डीलाक झोन मे है। गोल्डीलाक झोन का अर्थ होता है किसी तारे के पास का एक ऐसा क्षेत्र जहाँ पर जीवन संभव हो सकता है। इस क्षेत्र मे ग्रह की अपने मातृ तारे से दूरी इतनी होती है कि वहाँ पर पानी द्रव अवस्था मे रह सकता है। इस दूरी से कम होने पर तारे की उष्णता से पानी भाप बन कर उड़ जायेगा, दूरी इससे ज्यादा होने पर वह बर्फ के रूप मे जम जायेगा। हमारी अब तक की जानकारी के अनुसार द्रव जल जीवन के लिये आवश्यक है, इसके बिना जीवन संभव नही है।

तो इसपर एलियन होंगे ?

तारों के वर्गीकरण के अनुसार गोल्डीलाक जोन

तारों के वर्गीकरण के अनुसार गोल्डीलाक जोन

अभी तक ऐसा कुछ नही कह सकते है। लेकिन हमारे लिये यह ग्रह बहुत महत्वपूर्ण है। इस तारा प्रणाली का मुख्य तारा अल्फा सेंटारी एक लंबे समय से विज्ञान फतांशी लेखको की पसंद रहा है। यदि कभी मानवो को सौरमंडल से बाहर की यात्रा करनी हो तो यह तारा इस खगोलीय यात्रा का पहला पड़ाव होगा, यही नही किसी कारण से पृथ्वी पर जीवन पर कोई खतरा आये तो इस तारे को भविष्य की मानव सभ्यता के लिये बचाव केंद्र माना जाता रहा है।

तो पापा, क्या पृथ्वी पर जीवन को खतरा है भी है?

तुम्हे याद है, पिछले साल हम नाशिक गये थे। नाशिक के पास एक बड़ी झील देखी थी, लोणार झील। तुमने उसका आकार देखा था, एकदम गोलाकार झील!

हाँ झील देखी तो थी लेकिन उस झील का इस तारे, आकाश या जीवन से क्या संबंध है ? आप तारो से सीधे लोणार झील पर कैसे आ गये?

रूको ना, बताते है। लोणार झील, मानव निर्मित नही है। यह आकाश से आई एक विशालकाय चट्टान की पृथ्वी से टक्कर से बनी झील है। आज से लगभग 50,000 वर्ष पहले अंतरिक्ष से एक चट्टान जिसे उल्का पिंड भी कहते है, पृथ्वी से टकराया था था, इस टकराव से एक विशाल गोलाकार गढ्ढा बना जो कि वर्तमान मे इस झील के रूप मे है। पृथ्वी पर इस तरह के उल्का पिंडो से टकराव होते रहते है। इसी तरह की एक और घटना मे 6.5 करोड़ वर्ष पहले एक विशाल उल्का पिंड या क्षुद्रग्रह पृथ्वी से टकराया था। यह टक्कर इतनी भयावह थी कि पृथ्वी पर उपस्थित अधिकांश जीवन समाप्त हो गया था।

हाँ, इस घटना मे ही सारे डायनोसोर भी समाप्त हो गये थे ना! मैने टीवी पर देखा था।

एकदम सही कहा। जिस तरह आज पृथ्वी के हर चप्पे चप्पे पर मानव बस्तीयाँ है, उस समय पृथ्वी के चप्पे चप्पे पर डायनोसोर का राज था। लाखों वर्षो तक पृथ्वी पर राज कर रहे सारे डायनोसोर एक ही घटना मे समाप्त हो गये थे। जब कोई उल्का पिंड पूरी गति से पृथ्वी जैसे ग्रह से टकराता है तो टक्कर से भीषण ऊर्जा उत्पन्न होती है, जो कि टक्कर के स्थान और उसके आसपास सैकड़ो किलोमीटर के दायरे मे सब कुछ नष्ट कर देती है। जीवन पर सबसे पहला प्रहार इस प्राथमिक ऊर्जा का होता है। यदि टक्कर सागर मे टक्कर हो तो प्रचंड सुनामी आती है। लेकिन जीवल को हानि इसके बाद के कुछ माह या वर्षो मे होती है। ये अगले कुछ वर्ष शीत युग या हीमयुग के होते है। होता यह है कि उल्कापिंड के पृथ्वी से टकराव से बड़ी मात्रा मे धूल मिट्टी, धुंआ उछलकर आकाश मे उंचाई तक पहुंच जाता है और घने गहरे बादलो का रूप ले लेता है। इन बादलो के छंटने मे कई महिने, साल भी लग जाते है। यह बादल इतने घने होते है कि इनसे पृथ्वी की सतह तक पहुंचने वाला अधिकांश प्रकाश रूक जाता है। प्रकाश के ना होने से तापमान कम होगा, तापमान के कम होने से एक लंबी शीत ऋतु आ जाती है, सब कुछ हिम के रू जम जाता है। प्रकाश के ना होने तथा तापमान के कम हो जाने से सारी वनस्पति नष्ट हो जाती है। वनस्पति ना होने से उसपर निर्भर प्राथमिक जीवन समाप्त हो जायेगा। अगली बारी इन प्राथमिक जीवो पर निर्भर मांसाहारी जीवो की होती है। खाद्य चक्र के नष्ट होने से लगभग समस्त जीवन समाप्त हो जाता है!

तो क्या ऐसा अब भी हो सकता है? किसी उल्का की टक्कर मे हम भी मर जायेंगे ?

हाँ! ऐसा अब भी हो सकता है। पृथ्वी से उल्का पिंड अब भी टकरा सकते है। लेकिन वर्तमान मे हमारी पास तकनीक है। हमारी दूरबीने और उपग्रह इस तरह की टक्कर का पुर्वानुमान लगा लेते है, वे ऐसी घटना से बचने के लिये कुछ दिन, कुछ माह या कुछ वर्ष पहले ही चेतावनी दे सकते है।

चिंटु बोल उठा, तो क्या अंकल ऐसी चट्टानो को हम मिसाईल या बम से अंतरिक्ष मे नष्ट नही कर सकते? मैने एक फ़िल्म मे देखा था!

यह इतना आसान नही है। अंतरिक्ष मे उल्का को किसी मिसाईल या बम से नष्ट करने के प्रयास मे संभव है कि उसके कई टूकड़े हो जाये और पृथ्वी के कई क्षेत्रो से टकराकर अधिक तबाही फ़ैला दे!

तब हम क्या कर सकते है ?

अच्छा यह बताओ कि गर्मियों की छूट्टी मे आप क्या कर करते हो ?

गार्गी : हम तो नाना नानी के घर जाते है।

अनुषा : हम तो गर्मीयों मे हिल स्टेशन जाते है! बड़ा मजा आता है।

इसका अर्थ यह है कि गर्मीयों से बचने के लिये आप लोगो के पास वैकल्पिक रहने की व्यवस्था है। कितना अच्छा हो कि मानव के पास भी पृथ्वी के अतिरिक्त एक वैकल्पिक निवास के लिये ग्रह हो ? तब छुट्टीयों मे आप नाना नानी के घर की बजाये किसी अन्य ग्रह पर जाओगे।

तब तो बड़ा मजा आयेगा। लेकिन पापा यदि कोई उल्का पिंड नही टकराया तो हमे किसी अन्य ग्रह पर रहने की जगह खोजने की आवश्यकता तो नही है ना!

ऐसा भी नही है। बीसवी सदी के आरंभ मे मानव जनसंख्या 1.5 अरब थी। वर्तमान मे मानव जनसंख्या साढे सात अरब है। बढ़ती जनसंख्यासे पृथ्वी के संसाधनो पर प्रभाव पड़ रहा है। पृथ्वी पर उपलब्ध संसाधन सिमीत है, वे एक क्षमता तक ही जनसंख्या का बोझ सह सकते है। कुछ समय बाद ऐसा समय आना तय है कि पृथ्वी पर खाद्यान, पीने योग्य जल की कमी हो जायेगी। बढ़ती जनसंख्या से अन्य समस्याये भी बढ़ रही है। अधिक जनसंख्या के लिये रहने के लिये अधिक जगह चाहिये, जिससे वनो की कटाई हो रही है। बढती जनसंख्या और अधिक सुख सुविधाओं के लिये अधिक ऊर्जा चाहिये और वर्तमान मे हम ऊर्जा के लिये हम जीवाश्म इंधन जैसे पेट्रोल, कोयले पर निर्भर है। इन इंधनो के ज्वलन से प्रदुषण बढ़ रहा है, पृथ्वी हर वर्ष अधिक गर्म होते जा रही है। इसे ही ग्लोबल वार्मींग कहते है जिसके प्रभाव मे ध्रुवो पर, ग्लेशियरो की बर्फ़ पिघल रही है, सागर का जल स्तर बढ़ रहा है। इन सब कारको से जलवायु मे सतत परिवर्तन आ रहे है, कहीं बाढ़, कहीं सूखा पड़ रहा है, बेमौसम बरसात, चक्रवात, तूफ़ान आ रहे है। यदि इस गति से पर्यावरण नष्ट होता रहा तो हमे निकट भविष्य मे ही रहने के लिये कोई अन्य ग्रह खोजना होगा।

सौर मंडल मे द्रव जल की उपस्तिथी

सौर मंडल मे द्रव जल की उपस्तिथी

तो ताउजी, हमे रहने के लिये कैसा ग्रह चाहीये?

हमारे जीवन के लिये सबसे आवश्यक है, पानी वह भी द्रव अवस्था मे। इसके लिये हमे ऐसा ग्रह चाहिये जिसमे द्रव अवस्था मे जल मिले अर्थात वह ग्र्ह गोल्डीलाक झोन मे हो।

लेकिन हमारे सौर मंडल मे तो ऐसा कोई ग्रह नही है ? तो क्या हमे सौर मंडल से बाहर ही जाना होगा ?

हमारे सौर मंडल मे कुछ ऐसे स्थान है जहाँ द्रव जल की उपस्तिथी है, जैसे बृहस्पति का चंद्रमा युरोपा। यह एक बर्फ़िला पिंड है, लेकिन इसकी सतह के नीचे द्रव जल के सागरो के होने के प्रमाण है।

ताउजी, मैने टीवी मे देखा था कि हम मंगल पर भी तो रह सकते है ना ? अनुषा ने पूछा!

मंगल पर द्रव जल के प्रमाण तो है। लेकिन प्रचुर मात्रा मे जल की उपस्तिथि नही दिखी है। लेकिन मंगल के ध्रुवो पर बर्फ़ उपलब्ध है। दूसरी समस्या मंगल का वातावरण है जो कि काफ़ी विरल है, आक्सीजन कम है और कार्बनडाय आक्साईड की मात्रा जानलेवा है, जिससे मंगल पर पृथ्वी के जैसे सांस नही ले सकते है।

तो हम मंगल पर कैसे रहेंगे ?

कांच के गुंबदो के अंदर मानव कालोनी(कोपरनिकस डोम)

कांच के गुंबदो के अंदर मानव कालोनी(कोपरनिकस डोम)

हमारे पास दो उपाय है , सबसे पहला तो यह है कि कांच के बड़े बड़े गुंबदो का निर्माण कर उसके अंदर जीवन योग्य वातावरण बनाया जाये। दूसरा उपाय है मंगल को पृथ्वी के जैसा बनाया जाये, इस उपाय को टेराफ़ार्मिंग कहते है जिसमे मंगल पर पृथ्वी के जैसे चुंबकीय क्षेत्र, सागर और वायुंमंडल को बनाया जा सकेगा। लेकिन यह उपाय अभी विज्ञान फ़ंतांशी मे ही है, हमारा विज्ञान अभी इतना उन्नत नही हुआ है कि किसी ग्रह को कृत्रिम रूप से बदल कर पृथ्वी जैसे बना सके।

लेकिन अंकल यदि सूर्य ही नष्ट हो गया तो ?

तब तो हमे सौर मंडल के बाहर ही जाना होगा। किसी अन्य तारे की परिक्रमा करते किसी पृथ्वी जैसे ग्रह की तलाश मे।

क्या यह संभव है, अंकल ?

लंबी यात्राओं के लिये अंतरिक्ष यान

लंबी यात्राओं के लिये अंतरिक्ष यान

हाँ क्यों नही! बस उसके लिये हमे तैयारी करनी होगी। सबसे पहले अंतरिक्ष की दूरीयों को समझो। अंतरिक्ष की दूरीयाँ कल्पना से अधिक है। इस दूरी को मापने हम किलोमीटर, मील जैसी ईकाई की जगह प्रकाश वर्ष का प्रयोग करते है। एक सेकंड मे तीन लाख किमी चलने वाला प्रकाश एक वर्ष मे जितनी दूरी तय करता हौ उसे एक प्रकाश वर्ष कहते है। हमारे सबसे निकट का तारा भी हमसे चार प्रकाश वर्ष दूर है। ये दूरी इतनी अधिक है कि वर्तमान के सबसे तेज यान को भी इस तारे तक पहुंचने मे सैकडो वर्ष ले लेंगे। यदि हम किसी तरह से प्रकाशगति के आधी गति से चलने वाला यान भी बना लें तो उसे इस तारे तक जाने मे ही आठ वर्ष लग जायेंगे। इस गति से तेज यात्रा करने मे बहुत सी समस्याये है, उस पर चर्चा किसी अन्य दिन करेंगे।

तो पापा यह बताओ कि हम किसी अन्य तारे तक कैसे जायेंगे ?

तुम नाना नानी के घर जाने से पहले क्या करते हो ? अपना सारा सामान पैक करते हो, रास्ते के लिये खाना पानी पैक करते हो। वैसी ही तैयारी इस यात्राओं के लिये करनी होगी। इतनी लंबी यात्रा के लिये खाना पानी पैक करना ही काफ़ी नही होगा, ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि यान मे ही खाना उगाया जा सके, अर्थात खेती की व्यवस्था, जल की व्यवस्था, आक्सीजन पुन:निर्माण की व्यवस्था, ऊर्जा उत्पादन की व्यवस्था करनी होगी। इन सब के लिये कार्यो के लिये अंतरिक्ष यान भी विशालकाय बनाना होगा। यह यान एक तरह से पूर्णरूप से आत्मनिर्भर एक छोटा शहर होगा जोकि कुछ वर्षो की नही कुछ दशको या शताब्दि की यात्रा करने मे सक्षम होगा। पूरी संभावना है कि इस यात्रा का आरंभ यात्रीयों की एक पीढ़ी करेगी और समाप्ति दूसरी या तीसरी पीढी मे होगी। और सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात , इस तरह की यात्रा एक तरफ़ा होगी, अंतरिक्षीय दूरीयों के कारण पृथ्वी पर फ़िर कभी वापिस ना लौटने के लिये…..

मानव जाति ने पृथ्वी पर जन्म तो लिया है लेकिन वह पृथ्वी पर समाप्त नही होगी!


विज्ञान की अद्भुत शाखा : कैओस सिद्धांत

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वैज्ञानिक सिद्धांतों विशेषकर आइजैक न्यूटन और अल्बर्ट आइंस्टाइन के सिद्धांतों की सफलता ने एक कठोर नियतत्ववाद (Rigid determinism) की शुरुआत की, जिसके अनुसार यदि हम प्रकृति के नियमों से वर्तमान में भलीभांति परिचित होंगे तो सैद्धांतिक रूप से ब्रह्मांड में भविष्य में घटित होनेवाली किसी भी घटना की सफल भविष्यवाणी करने में सक्षम होंगे। उदाहरण के लिए यदि हम किसी समय विशेष पर सौरमंडल के ग्रहों की गति और स्थिति (Speed and position) को जानतें हों तो हम बड़ी सटीकता से यह भी भविष्यवाणी कर सकते हैं कि एक वर्ष उपरांत ग्रहों की स्थिति और गति क्या होगी। इस नियतत्ववाद को तब बड़ा झटका लगा जब वर्नर हाइजेनबर्ग ने क्वांटम यांत्रिकी (Quantum mechanics) के एक महत्वपूर्ण पहलू, अनिश्चितता-सिद्धांत (Uncertainty principle) की खोज की। परमाण्विक स्तर (Atomic level) पर यह सिद्धांत कहता है कि हम किसी कण की स्थिति और उसके संवेग (Momentum) को एक साथ नहीं जान सकते। उदाहरण के लिए यदि हम यह जानना चाहते हैं कि परमाणु के भीतर किसी कण की क्या स्थिति है, तो कण की स्थिति जानने के लिए हमें उसपर प्रकाश (फ़ोटॉन) फेंकना पड़ेगा। जब फ़ोटॉन उस कण से टकरायेंगे तब उस टक्कर के परिणामस्वरूप कण की स्थिति और अवस्था परिवर्तित हो जाएगी। इस तरह हम उसकी स्थिति को नहीं जान पाएंगे क्योंकि स्थिति को जानने के क्रम में हमने स्थिति में परिवर्तन कर दिया। क्वांटम भौतिकी में हम किसी कण के कहीं पर होने का पूर्वानुमान लगाने का प्रयास तो कर सकते हैं मगर सटीकता से यह नहीं बता सकते कि वह कहाँ पर हैं। वह कहीं पर भी हो सकता है।

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क्या है कैओस सिद्धांत?
परंतु, यदि हमे किसी कण या पत्थर की स्थिति, उसका संवेग, वायु का घनत्व, उसका वेग, पृथ्वी द्वारा लगाया गुरुत्वाकर्षण बल आदि सबकुछ पता हो और हम उस पत्थर को अंतरिक्ष से पृथ्वी पर फेंक दें तो क्या हम पत्थर के कहीं पर भी गिरने से पहले ही सटीकतापूर्वक यह बता सकते हैं कि वह पत्थर कहाँ पर गिरेगा? सैद्धांतिक रूप से हाँ, मगर हम व्यवहारिक रूप से बिलकुल सटीकतापूर्वक नहीं बता सकते की पत्थर यहीं पर गिरेगा क्योंकि छोटी प्रारंभिक अनियमिता और अनिश्चितता भी पत्थर की गति, स्थिति आदि को प्रभावित करके हमारी भविष्यवाणी को निरर्थक और अव्यवहारिक सिद्ध कर सकती है। ठीक इसी प्रकार से आज हम ग्रहों की गति और स्थिति की भविष्यवाणी करने में सक्षम हैं, मगर लंबे अर्से के लिए नहीं, हम यह नहीं बता सकते कि आज से पांच हजार वर्ष बाद सूर्य, पृथ्वी और अन्य ग्रहों की क्या स्थिति होगी। हम जानते हैं कि क्वांटम यांत्रिकी यादृच्छिकता (Randomness) का प्रतीक है, इसलिए आइंस्टाइन ने इसे ‘पासा लुढ़काने वाला सिद्धांत’ कहा था। परंतु पत्थर का फेंकना या ग्रहों की भविष्यवाणी एक स्थूल (विशाल) पैमाने से संबंधित है, जिसे न्यूटन और आइंस्टाइन की भौतिकी को संभालने में सक्षम होना चाहिए। वास्तव में, यह काफी अच्छी तरह से संभालता भी है। मगर, आधुनिक गणित और विज्ञान की एक शाखा ‘कैओस सिद्धांत’ (Chaos Theory) चिरसम्मत भौतिकी (Classical physics) की भविष्यवाणी संबंधी सीमाओं को इंगित करती है। इस सिद्धांत के अनुसार अतिसूक्ष्म परिवर्तन भी बड़े पैमाने पर किसी क्रिया के परिणाम को प्रभावित कर सकता है। आज हम देखतें हैं कि किस प्रकार से अधिकांश मौसम की भविष्यवाणियाँ या पूर्वानुमान गलत साबित हो जाते हैं, फिर भी हम मौसम विज्ञान क्षेत्र की निंदा नहीं करते और न ही बेकार अनुमान लगाने के सिद्धांत के रूप में इसे खारिज कर देते हैं। बल्कि हम यह मानते हैं कि यह एक अपूर्ण विज्ञान है, यह तो केवल हमे किसी विशेष परिणाम (जैसे बारिश होगी या नहीं होगी) की संभावना को ही बताता है। दशकों पहले की तुलना में, आज पूर्वानुमान बहुत बेहतर हैं। मगर, प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में चाहें कितनी भी प्रगति हो जाए ‘कैओस सिद्धांत’ के अनुसार मौसम की भविष्यवाणी कभी भी पूरी सटीकता के साथ नहीं की जा सकेगी।

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एडवर्ड लोरेंज़

1960 के दशक के आरंभिक वर्षों में मौसम विज्ञान के एक प्रोफेसर एडवर्ड लोरेंज अपने कंप्यूटर द्वारा मौसम का पूर्वानुमान लगाने की कोशिश कर रहे थे। उस समय मौसम को तापमान, दबाव, और वायु वेग जैसे मापने योग्य कारकों के समुच्चय (Set) द्वारा निर्धारित किया जाता था, तत्कालीन पारंपरिक ज्ञान यह था कि एक ठोस मॉडल, डेटा का पूरा समुच्चय और एक शक्तिशाली संख्या-संकुचन उपकरण (Number-crunching device) द्वारा मौसम की सफल भविष्यवाणी की जा सकती है। लोरेंज अपने शोधकार्य के दौरान यह देखकर चकित रह गए कि प्रारंभिक स्थितियों में नगण्य बदलाव भी व्यापक रूप से भिन्न परिणाम देता है। दूसरे शब्दों में, छोटी प्रारंभिक अनिश्चितता और संख्यात्मक गणनाओं में निकटतम त्रुटि भी व्यापक रूप से मौसम के मिजाज़ को प्रभावित करती है।
कैओस सिद्धांत के आरंभिक समर्थकों में से एक थे महान गणितज्ञ हेनरी पॉइंकारे, जिन्होंने बीसवी सदी के आरंभ में ही एडवर्ड लोरेंज का मार्गदर्शन करते हुए कहा था कि प्रारंभिक स्थिति में हो रही छोटी सी असमानताएं भी अंतिम घटना में बहुत बड़ी असमानता उत्पन्न कर सकती है। प्रारंभिक स्थितियों के प्रति संवेदनशीलता का अभिप्राय यह है कि एक कैओटिक प्रणाली (Chaotic System) में प्रत्येक बिंदु, अलग-अलग भविष्य के पथों की बिंदुओं द्वारा अनुमान लगाया जाता है। इस प्रकार, वर्तमान प्रक्षेपवक्र (Trajectory) में एक छोटे (नगण्य) परिवर्तन से भविष्य के व्यवहार में भिन्नता हो सकती है। प्रारंभिक स्थितियों के प्रति संवेदनशीलता का एक परिणाम यह है कि अगर हम किसी प्रणाली (सिस्टम) के बारे में कुछ कम जानकारी के साथ कार्य करना शुरू करते हैं तो एक निश्चित समय के बाद सिस्टम का पूर्वानुमान लगाना असंभव हो सकता है।

Butterfly Element

तितली प्रभाव

यह सिद्धातं मौसम विज्ञान के मामले में सर्वाधिक परिचित है, जो आमतौर पर केवल एक हफ्ते तक का पूर्वानुमान लगा सकता है। दरअसल, किसी भी कैओटिक प्रणाली में, पूर्वानुमान लगाने की अनिश्चितता बीते समय के साथ तेजी से बढ़ जाती है।प्रारंभिक स्थितियों की इस अत्यधिक निर्भरता या संवेदनशीलता (Initial conditions) को लोरेंज द्वारा ‘तितली प्रभाव’ (The butterfly effect) नाम दिया गया। इसका अभिप्राय यह है कि एक जटिल प्रणाली में एक स्थान पर एक छोटा-सा भी बदलाव दूसरे स्थान पर बड़ा प्रभाव उत्पन्न कर सकता है, उदाहरण के लिए, यदि एक तितली अमेज़न के जंगलों में अपने पंख फड़फड़ाती है तो इसकी वजह से टेक्सास में तूफ़ान आ सकता है। वास्तव में, हम यह जानते हैं कि एक तितली के पंख फड़फड़ाने से कहीं भी तूफ़ान नही आ सकता, मगर इस कथन का मूल अर्थ यह है कि किसी भी सिस्टम (प्रणाली) में एक बेहद मामूली बदलाव भी क्रियाओ की उन श्रंखलाओं को जन्म दे सकता है, जो उस सिस्टम के भविष्य को पूरी तरह बदल देगी। लोरेंज और अन्य वैज्ञानिकों ने इस परिघटना का नेतृत्व किया, जिसको बाद में ‘कैओस सिद्धांत’ (Chaos Theory) के रूप में व्यापक समर्थन मिला। इस सिद्धांत के बारे में एडवर्ड लोरेंज ने संक्षेप कहा था : ‘जब वर्तमान स्थिति भविष्य को निर्धारित करता है, लेकिन अनुमानित वर्तमान भविष्य का निर्धारण नहीं करता है’। इस वजह से किसी भी व्यवहार और गतिविधि की दीर्घकालिक स्थिति की भविष्यवाणी करना असंभव है। यह हमें अजीब लग सकता है, मगर वास्तव में कैओस सिद्धांत के अंतर्गत ऐसे ही व्यवहारों, गतिविधियों और प्रणालियों का अध्ययन किया जाता है जिनका पूर्वानुमान लगाना या जिन पर नियंत्रण करना असंभव है, जैसे कि मौसम और जलवायु, शेयर बाजार, विभिन्न प्रकार की खगोलीय गतिविधियाँ और हमारे मस्तिष्क की स्थितियां आदि।

अनुप्रयोग

‘कैओस’ शब्द का अर्थ है भ्रम, अनिश्चितता, अराजकता और अनियमितता। चूँकि अराजक या अनिश्चित व्यवहार कई प्राकृतिक प्रणालियों (जैसे, मौसम और जलवायु) और कृत्रिम घटकों या सामाजिक व्यवहारों (जैसे, सड़क यातायात या अनियंत्रित भीड़) में मौजूद है, इसलिए कैओस सिद्धांत विश्लेषणात्मक तकनीकों के माध्यम से इनका अध्ययन करता है। अत: कैओस सिद्धांत वर्तमान में वैज्ञानिक अनुसंधान का एक सक्रिय क्षेत्र बना हुआ है।

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कैओस सिद्धांत का समीकरण

‘कैओटिक लाइट हार्वेस्टिंग’ जैसे नवीनतम अनुसंधानों से यह भी पता चला है कि कैओस सिद्धांत संबंधी हमारी यह आम धारणा कि यह उपकरणों की कार्य-क्षमता को कम कर देती है, सदैव सच नहीं होती। जैसे-जैसे तकनीक और विकसित होगी उपकरणों की कार्य-क्षमता में भी बढ़ोत्तरी होगी। हालाँकि कैओस सिद्धांत के अनुसार भविष्य में भी, किसी भी प्रणाली में अत्यंत सूक्ष्म कारक की अज्ञानता या थोड़ी-सी अनिश्चितता भी हमारे पूर्वानुमान को गलत सिद्ध कर देगी। कैओस सिद्धांत निश्चितता और अनिश्चितता के बीच परिवर्तन को खोजता है। हम यह कह सकते हैं कि कैओस सिद्धांत मानव जाति के लिए अत्यंत लाभप्रद है। इसका एक सामान्य उदाहरण यही दिया जा सकता कि वर्तमान में मनोवैज्ञानिक व मनोचिकित्सक मन-मस्तिष्क की बीमारियों के चिकित्सीय अध्ययन के लिए इस सिद्धांत का उपयोग कर रहे हैं क्योंकि इससे मरीज की प्रारंभिक स्थिति का पता लगाकर उसका यथोचित ईलाज किया जा सकता है।कैओस सिद्धांत का जन्म मौसम के पैटर्न देखने से हुआ था, लेकिन वर्तमान में यह कई अन्य स्थितियों पर लागू हो गया है। कैओस सिद्धांत का इन क्षेत्रों में व्यापक अनुप्रयोग हो रहा है : भूविज्ञान, गणित, सूक्ष्म जीव विज्ञान, जीव विज्ञान, कंप्यूटर विज्ञान, अर्थशास्त्र, इंजीनियरिंग, एल्गोरिथम ट्रेडिंग, पारिस्थितिकी, मौसम विज्ञान, दर्शन, नृविज्ञान, भौतिकी, राजनीति, जनसंख्या गतिशीलता, डीएनए कंप्यूटिंग, मनोविज्ञान, रोबोटिक्स आदि।

इस प्रकार हम यह देखते हैं कि क्वांटम यांत्रिकी के साथ-साथ प्रकृति, कृत्रिम घटकों और सामाजिक व्यवहारों में भी सूक्ष्म मगर प्रभावी रूप से यादृच्छिकता मौजूद है। अगर आइंस्टाइन जीवित होते तो कैओस सिद्धांत के बारे में कुछ इस प्रकार से टिप्पणी करते : ‘ईश्वर एक से अधिक तरीकों से पासा फेंकता है’।

लेखक परिचय

pradeep

प्रदीप

प्रदीप कुमार एक साइंस ब्लॉगर एवं विज्ञान संचारक हैं। ब्रह्मांड विज्ञान, विज्ञान के इतिहास और विज्ञान की सामाजिक भूमिका पर लिखने में आपकी  रूचि है। विज्ञान से संबंधित आपके लेख-आलेख राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं, जिनमे – टेक्निकल टुडे, स्रोत, विज्ञान आपके लिए, समयांतर, इलेक्ट्रॉनिकी आपके लिए, अक्षय्यम, साइंटिफिक वर्ल्ड, विज्ञान विश्व, शैक्षणिक संदर्भ आदि पत्रिकाएँ सम्मिलित हैं। संप्रति : दिल्ली विश्वविद्यालय में स्नातक स्तर के विद्यार्थी हैं। आपसे इस ई-मेल पते पर संपर्क किया जा सकता है : pk110043@gmail.com

अंतरिक्ष –क्या है अंतरिक्ष ? : भाग 1

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अंतरिक्ष(Space)

हम सब लोग इस पृथ्वी पर रहते है और अपनी दुनियाँ के बारे में हमेशा सोचते भी रहते है जैसे- सामानों, कारों, बसों, ट्रेनों और लोगो के बारे में भी। लगभग सारे संसार मे हमारी रोजमर्रा की जिंदगी के सभी चीज हमारे आसपास ही मौजूद है किसी बड़े महानगर जैसे- न्यूयॉर्क, मुम्बई, दिल्ली इन भीड़-भाड़ वाले शहरों में तो ये सभी सामान से भरे पड़े है। फिर भी, हमारे रोजमर्रा के जिंदगी के सभी चीजों के आसपास ही कुछ और भी है जो काफी महत्वपूर्ण है और बहुत अधिक रहस्यमय भी है। वो है स्थान(Space)। वही स्थान जहाँ सब सामान मौजूद है हम आप से लेकर सबकुछ तक। हम जिस स्थान के बारे में बात कर रहे है इसे महसूस करने के लिए एक पल के लिए रुककर आप कल्पना करें। क्या होगा यदि यह सब सामान को हटा दिया जाय मेरा मतलब यह है कि सभी लोगो, कारो, बसों, ट्रेनों, इमारतों यहाँ तक कि पृथ्वी, सभी बड़े छोटे ग्रहों, तारो और आकाशगंगाओ तक को हटा दिया जाय और तो और न सिर्फ बड़े सामानों को बल्कि छोटी से छोटी चीजो जैसे गैसों और धूल के अंतिम परमाणुओं तक को हटा दिया जाय तो वास्तव में क्या बचेगा ?

हममे से अधिकांश लोगों का जवाब होगा “कुछ भी नही”।

यह जवाब सही भी है लेकिन दूसरे तरीके से इसे देखे तो यह जवाब गलत भी है। क्या खाली है खाली स्थान ? खाली स्थान भी कहीं खाली हो सकता है ? जैसा कि हमलोग सोचते है और हमे पता भी चलता है कि रिक्त स्थान का मतलब कुछ भी नही है लेकिन वास्तव में यह रिक्त स्थान ही अपनी छिपी हुई विशेषताओं के साथ बहुत कुछ है जो कि हमारे रोजमर्रा के जीवन के लिए सभी चीजों के साथ हमारे आसपास ही मौजूद है। जब बात अंतरिक्ष(स्पेस, रिक्त स्थान) की होती है तो हम ज्यादातर लोग आसमान को ओर निहारने लगते है जबकि वास्तव में अंतरिक्ष तो आपके आसपास सभी जगह मौजूद ही है यहाँ तक कि आपके पैरों के नीचे भी। अंतरिक्ष वास्तव में एक सत्य है जो सभी जगह मौजूद है आप अंतरिक्ष को मोड़ सकते है इसे लहरेदार बना सकते है इसे सिकोड़ सकते है फैला भी सकते है। अंतरिक्ष इतना वास्तविक है कि यह खाली स्थान ही हमारे आसपास की दुनियां में सबकुछ को आकार देने में मदद करता है और हमारे ब्रह्माण्ड को फैब्रिकेटेड(Fabricated) बनाता है।

शिकागो विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर और भौतिकविद् क्रैग होगन(Craig Hogan) का कहना है कि

आप इस दुनियां के बारे में कुछ नही समझ सकते जबतक की आप अंतरिक्ष को नही समझते हो क्योंकि इस दुनियां में उसके सामानों के साथ -साथ दुनियां का स्थान भी विद्यमान है।

मेरीलैंड विश्वविद्यालय के भौतिकविद् प्रोफ़ेसर एस जेम्स गेट्स जेआर(S.James Gates, Jr) कहते है:

हम आमतौर पर अंतरिक्ष के बारे में बहुत सचेत नही होते लेकिन मैं फिर भी लोगो को बताता हूँ शायद मछली भी पानी के प्रति सचेत नही होती जबकि उसे हर समय उसमे ही रहना है।

फर्मी राष्ट्रीय त्वरक प्रयोगशाला के भौतिकवैज्ञानिक जोसफ लयकेन(Joseph Lykken) का कहना है:

हमारी नजर से अंतरिक्ष कुछ भी नही है लेकिन वास्तव में इसके अंदर बहुत कुछ हमेशा चल रहा होता है।

हममे से ज्यादातर लोगों के दिमाग मे जो अंतरिक्ष की छवि होती है वो बाहरी अंतरिक्ष के बारे में होती है एक ऐसी जगह जो हमसे दूर है बहुत दूर लेकिन अंतरिक्ष तो सब जगह मौजूद है। आप कह सकते है अंतरिक्ष ब्रह्माण्ड में सबसे प्रचुर मात्रा में मौजूद है यहाँ तक की सबसे छोटी चीजो जैसे- परमाणुओं, आपके और मेरे मूल तत्व और हमारे चारों ओर की दुनियां में जो कुछ भी हम देखते वो लगभग पूरी तरह से खाली स्थान ही है। यदि आप किसी बड़ी इमारत जैसे एम्पायर स्टेट बिल्डिंग को तोड़कर किसी परमाणु के अंदर डाल दे और उस परमाणु में रिक्त स्थान न बचने दे तो यह पूरी बिल्डिंग एक चावल के दाने से भी छोटी आकर में समा जाएगी लेकिन इस चावल के दाने का वजन पूरी बिल्डिंग के वजन के बराबर होगा। इससे आप अनुमान लगा सकते है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कितनी खाली जगह मौजूद है।

अब सवाल उत्पन्न होता है कि वास्तव में स्पेस क्या है ?

हम आपको अंतरिक्ष की तस्वीर तो दिखा सकते है लेकिन आपको अंतरिक्ष दिखेगा क्या ? सिर्फ रिक्त स्थान। जब अंतरिक्ष मे खाली स्थान के अलावा कुछ दिखता ही नही तो आप अंतरिक्ष को कैसे समझ सकते है ?

लिओनार्ड सस्किंदलियोनार्ड सुसकिंड(Leonard Susskind) स्टैनफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक है उनके अनुसार अंतरिक्ष क्या है इसे समझने के वजाय

  • अंतरिक्ष ऐसा क्यों है ?
  • अंतरिक्ष तीन आयामी क्यो है ?
  • अंतरिक्ष बड़ा क्यों है ?
  • हमारे चारों ओर घूमने के लिए बहुत सारी खाली जगह क्यों मौजूद है ?
  • अंतरिक्ष छोटा क्यों नही है ?

इन सारे प्रश्नों पर विचार करना ज्यादा महत्वपूर्ण है लेकिन इन चीजों के बारे में हममे कोई आम सहमति नही है।

एलेक्स फिलिपेन्को(Alex Filippenko) कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय(वर्कले) इनके अनुसार अंतरिक्ष क्या है ? हम वास्तव में अभी तक पुर्णतः जान नही पाये है। एस जेम्स गेट्स जेआर के अनुसार अंतरिक्ष भौतिकी के सबसे गहन रहस्यों में से एक है।

लेकिन सौभाग्य से, हम पूरी तरह अंधेरे मे भी नही है हम सदियों से अंतरिक्ष के बारे में जानकारी इकट्ठा करने में लगे है। हम जल्द ही यह जानने लगे है कि कोई भी वस्तु अंतरिक्ष के माध्यम से कैसे आगे बढ़ पाता है। इसे समझने के लिए आप रिंग पर स्केटिंग(Sketting) करती हुई एक युवती पर नजर डाले। यह युवती पूरी रिंग भर में कलाबाजियां दिखा रही है। वह अपने चारों ओर निर्विरोध गति कर रही है जब वह युवती गोल-गोल घूमने लगती है तो वह देखती है कि उसके आसपास की सारी चीजें घूम रही है वह इसे महसूस भी कर रही है। जब वह अपनी बाँह को फैला देती है तो उसे लगता है कि यह स्पेस उसे बाहर की तरफ खिंच रहा है यहाँ वास्तव में सिर्फ वो युवती ही स्पिन नही कर रही है यहाँ अंतरिक्ष भी उसके साथ स्पिन कर रहा होता है। एक पल के लिए आप यह कल्पना करे यह युवती किसी रिंग में नही बल्कि अंतरिक्ष मे स्केटिंग कर रही है उसका दायरा अब बढ़कर सम्पूर्ण आकाशगंगा हो गया है। उसके आसपास कुछ भी नही सिर्फ अंतरिक्ष को छोड़कर वह सिर्फ खाली स्थान में स्केटिंग कर रही है। यहाँ भी यह युवती बाँहे फैलाने पर वह बाहर की ओर खिंचाव महसूस करेंगी लेकिन वो युवती जानती है कि वो सिर्फ स्केटिंग कर रही है। लेकिन अगर खाली स्थान कुछ नही है तो वह स्केटिंग किस माध्यम से कर रही है ? अगर आप भी स्केटिंग कर रहे है तो आपको बाहर की ओर देखने पर सिर्फ सामानों के अलावा कुछ नही दिखेगा लेकिन आप जानते है आपके आसपास खाली स्थान मौजूद है यही खाली स्थान आपको स्केटिंग करने की अनुमति दे रहा है। आप कह सकते है कि किसके साथ स्केटिंग कर रहा हूँ कुछ तो ऐसा है जो मैं देख नही पा रहा हूँ लेकिन मेरी स्केटिंग उसके माध्यम से ही हो रही है। अंतरिक्ष को समझने और इन जटिल सवालो के जवाब देने की कोशिश वैज्ञानिक काफी समय से कर रहे है। नई जानकारियां और विशेषताओं को आपसे साझा भी कर रहे है यह वैज्ञानिक आपको अंतरिक्ष की बिल्कुल नई तस्वीर दिखा रहे है।

जब आप किसी थियेटर या सिनेमाघरों में जाते है तो अभिनेता, अभिनेत्री, दृश्यावली या कहानी देखते है और शायद प्रोडक्शन कंपनी, थियेटर, फ़ाइल फुटेज भी। लेकिन यहाँ कुछ और भी महत्वपूर्ण है जिसका उल्लेख न तो फ़िल्म की कहानी में मिलेगा न ही अपने कभी ध्यानपूर्वक नोटिस किया होगा। वो है…मंच…शो का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा।

फिर भी हममे से अधिकांश लोग इसपे ज्यादा विचार नही करते परंतु एक व्यक्ति था जिसने इसपर सर्वप्रथम अपने विचार रखा था नाम..सर आइजैक न्यूटन(Sir Issac Newton)। उन्होंने जो अंतरिक्ष का चित्रण किया था उसके अनुसार अंतरिक्ष सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक खाली स्थान के रूप में है जो सबकुछ के लिए एक रूपरेखा तैयार करता है अंतरिक्ष वो खाली स्थान है जहाँ ब्रह्माण्ड अपना नाटक खेलता है। न्यूटन के अनुसार स्पेस पूर्ण शाश्वत और अपरिवर्तनीय(Unchangeable) है। आपके द्वारा किया गया कोई भी कार्य अंतरिक्ष को प्रभावित नही कर सकता और अंतरिक्ष भी आपके कार्य को प्रभावित नही कर सकता। इस प्रकार न्यूटन ने जो अंतरिक्ष का चित्रण किया वह हमारी दुनियां का वर्णन करने में तो सक्षम था क्योंकि इससे पहले कभी ऐसा सोचा नही गया था। उनके इस अपरिवर्तनीय सिद्धान्त ने हमे लगभग सभी अंतरिक्षीय प्रस्तावों को समझने की अनुमति तो दे दी जो हमलोग अपने चारों ओर देखते है जैसे कि सेब का पेड़ से गिरने से लेकर पृथ्वी की सूर्य का चक्कर लगाने तक। न्यूटन के इन नियमो ने इतनी अच्छी तरह से काम किया कि आज भी हम उपग्रहों के प्रक्षेपण से लेकर एयरप्लेन के लैंडिंग तक इन नियमो का प्रयोग करते है। अंतरिक्ष वास्तविक है हालांकि आप उसे देख नही सकते, छू नही सकते लेकिन प्रत्येक भौतिक चीज के लिए यह जरूरी है।

हम सब वाक़ई रंगमंच की कठपुतलियाँ हैं। हमारे सामने लोग सड़कों पर चल रहे हैं, गाड़ियाँ दौड़ रही हैं। बच्चे स्कूल जा रहे हैं, लोग दफ़्तर। रेलगाड़ियाँ पटरियों पर सरक रही हैं, हवाई जवाज़ आसमान में। सूर्य गगन में उगता दिख रहा है, चन्द्रमा भी। अब तनिक पृथ्वी छोड़िए और अन्तरिक्ष में जाकर ठहर जाइए।अगर किसी आम व्यक्ति से आप अन्तराल की अवधारणा पूछें, तो खाली जगह बताएगा। वह खाली जगह, ‘जिसमें’ सभी छोटी-बड़ी घटनाएँ हो रही हैं। लोग ‘खाली जगह’ पाते हैं, तो चलते हैं। गाड़ियाँ ‘खाली जगह’ में दौड़ती हैं। ट्रेनें और हवाई जहाज़ ‘खाली स्थान’ पाकर ही आगे बढ़ते हैं। और थोड़ा कुरेदने पर कि क्या यह ‘खाली स्थान’ सचमुच खाली है, तो कह देते हैं कि है तो, लेकिन इसमें हवा मौजूद है।

और फिर अन्तरिक्ष में जो ‘खाली स्थान’ है, वह क्या है ? वहाँ तो बहुत जगहों पर धूल-गैस है, लेकिन ज़्यादातर जगह वह भी नहीं। तो उसका खालीपन कैसे समझा जाए ? और फिर समय क्या है ? क्या सबके लिए समय एक-सा ही है ? क्या ब्रह्माण्ड में हर स्थान पर समय एक-सा ही बर्ताव करेगा ? ब्रह्माण्ड में कहीं रुके हुए या अलग-अलग गतियों से चलते व्यक्तियों के लिए समय का ‘गुज़रना’ कैसा होगा ?

आइजैक न्युटन

आइजैक न्युटन

अगर सर आइज़ेक न्यूटन से इन प्रश्नों के उत्तर पूछे जाते, तो वे कुछ-कुछ ऐसा ही जवाब देते। उनके अनुसार ब्रह्माण्ड का हर पिण्ड(मनुष्य-जीवजन्तु-पेड़पौधे-खगोल पिण्ड) रंगमंच की कठपुतलियाँ ही हैं। और रंगमंच ? वह एकदम स्थिर और तटस्थ रहता है। सभी पात्रों के लिए समय एक-सा बीतता है और नाटक ख़त्म हो जाता है। न्यूटन से अगर आइंस्टाइन मिले होते तो न्यूटन से जरूर पूछते कि रंगमंच की कठपुतलियों के कारण मंच पर कोई प्रभाव पड़ता है ? क्या मंच इन कठपुतलियों के कारण फैल या सिकुड़ सकता है ? हालांकि इन प्रश्नों का उत्तर वे ‘ना’ में देते। न्यूटन के अनुसार रंगमंच, जो कि नाटक के पात्रों के लिए एक रेफ़रेंस फ़्रेम है, किसी के होने या न होने से ‘बदलता’ या ‘प्रभावित’ नहीं होता। वह यथावत् बना रहता है।

हममें से ज़्यादातर लोग गुरुत्व को और ब्रह्माण्ड को न्यूटनीय दृष्टि से ही समझते हैं। हम सोचते हैं कि सेब पृथ्वी पर गिरता है क्योंकि इनके बीच में कोई अदृश्य बल की डोरी है जिस कारण पृथ्वी सेब को अपनी ओर खींच लेती है। लेकिन क्या सेब पृथ्वी को अपनी ओर नहीं खींच रहा, सत्य यह है कि सेब भी पृथ्वी को अपनी ओर खींच रहा है। बल्कि सत्य यह है कि सेब और पृथ्वी दोनों एक-दूसरे को अपनी ओर खींच रहे हैं। सेब पृथ्वी पर गिर रहा है, लेकिन पृथ्वी भी सेब पर गिर रही है। गुरुत्व का यह बल परस्पर है, दोनों पिण्डों को एक-दूसरे के समीप ला रहा है। लेकिन फिर सेब और पृथ्वी के ‘होने’ से, जहाँ वे स्थिर हैं, वहाँ कोई प्रभाव पड़ रहा है ? ‘वहाँ’ यानी अन्तराल या खाली जगह में ? अब यह अधिकांश को चकराने वाली बात लगेगी। लेकिन वास्तविकता वह नहीं है, जो न्यूटन हमें बताते हैं। बल्कि न्यूटन का बताया गुरुत्व-ज्ञान हमारे लौकिक जगत् के लिए व्यावहारिक तो है, पर अधूरा है। इसीलिए न्यूटनीय भौतिकी से हम रोज़मर्रा के जीवन में गेंद-सेब-बस-आदमी-जैसी चीज़ों की गति और स्थिति समझ सकते हैं, किन्तु दो तरह के पिण्डों के मामले में न्यूटन हमें गच्चा दे जाते हैं और भौतिकी के उनके नियम असत्य सिद्ध हो जाते हैं। वे दो तरह के पिण्ड, बहुत छोटे(एलेक्ट्रॉन-प्रोटॉन-न्यूट्रॉन) व बहुत बड़े पिण्ड ग्रह-तारे-गैलेक्सी हैं। यहाँ न्यूटन की समझ से बातें नहीं घटतीं, कुछ और ही ढंग-ढर्रा काम करता है। न्यूटन का यह सिद्धान्त बड़ा हिट हुआ 200 साल से अधिक समय तक इस सिद्धान्त का वर्चस्व बना रहा लेकिन 20वी सदी के शुरुआती दशकों में एक युवा क्लर्क ने अपनी बिल्कुल नई विचारो से अंतरिक्ष के इस चित्रण को ही बदल कर रख दिया। वो था स्विस पेटेंट कार्यालय में क्लर्क की नौकरी करनेवाला एक युवा, नाम – अलबर्ट आइंस्टाइन(Albert Einstein)

अलबर्ट आइंस्टाइन जिन्होंने हमें बताया कि रंगमंच कोई तटस्थ और स्थिर स्थान नहीं, वह भी फैलता और सिकुड़ता है। समय भी हर पात्र के लिए एक-सा नहीं बीतता, वह अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग दर से बीत सकता है। न्यूटन से अगर आइंस्टाइन मिलते तो यही कहते कि आपने सेब का गिरना देखा और समझा, लेकिन सेब के चारों और धँस रहे काल और अन्तराल के समन्वय को न देख पाये।

फिलॉसफर भी अंतरिक्ष की प्रकृति पर बहुत लंबे समय से बहस करते आ रहे है लेकिन न्यूटन के इस अपरिवर्तनीय सिद्धान्त ने उनके बहस के शर्तों को ही बदल कर रख दिया शायद इसलिए न्यूटन को आधुनिक विज्ञान का जनक कहा जाता है। 1800 के दशक के उत्तरार्द्ध में पूरा विज्ञान जगत विधुत धारा(Electric power) से बड़े शहरों को प्रकाश देने में लगा रहा था इस घटनाओं में कुछ ने आइंस्टीन को बड़ा प्रभावित किया था अब आइंस्टीन सिर्फ कुछ शहरों को प्रकाश बल्ब या स्ट्रीट लाइट ही नही बल्कि संपूर्ण विश्व को प्रकाश की प्रकृति से अवगत करनेवाले थे। प्रकाश की यह अजीब विशेषता न्यूटन के अंतरिक्ष की तस्वीर को अब गिराने वाली थी।

इसे अच्छी तरह समझने के लिए हम एक कैब(Cab) की यात्रा पर आपको ले चलते है। मैं अब एक कैब में हूँ मेरी कैब लगभग 20 मील/घण्टे की रफ्तार से चल रही है। मैं अपनी कैब की रफ्तार को और बढ़ा रहा हूँ आप इस गति के बदलाव को महसूस कर सकते है और अपनी कैब की स्पीडोमीटर(Speedometer) पर देख भी सकते है। आपके कैब का स्पीडोमीटर आपके लिए एक गति संकेत है आप अपनी कैब की रफ्तार को बढ़ा भी सकते है या घटा भी सकते है। अब आप कल्पना करे कि आपके पास एक और स्पीडोमीटर है जो प्रकाश की गति को भी माप सकता है। आपने अपनी कैब की हेडलाइट जलाई आपका स्पीडोमीटर संकेत 671,000,000 मील/घण्टे की माप कर रहा है। एक सिद्धान्त हमे बताता है कि जब कैब चलनी शुरू करती है तो प्रकाश की गति को भी आखिरकार बढ़नी ही चाहिये क्योंकि कैब की गति प्रकाश को अतिरिक्त पुश दे रहा है। लेकिन आश्चर्य की बात है ऐसा नही हो रहा वास्तव में प्रकाश की गति सभी के लिए समान ही है। मेरी कैब चलती रहे या रुकी रहे मेरा हेडलाइट प्रकाश स्पीडोमीटर हमेशा 671,000,000 मील/घण्टे की गति को ही दर्शाता रहेगा। यहाँ सवाल उत्पन्न होता है कि

  • क्यों प्रकाश की गति सभी के लिए एक समान ही है ?
  • प्रकाश की गति में परिवर्तन क्यों नही हो रहा है ?

आइंस्टीन ने इस असाधारण पहेली का जवाब खोज निकाला था। जैसा कि हमसब जानते है गति समय के साथ स्थान परिवर्तन है। आइंस्टीन ने कहा अंतरिक्ष और समय अलग-अलग नही है दोनों एक है और एक साथ काम करते है। आप प्रकाश की गति को मापेगे तो हमेशा आपको प्रकाश की गति एक समान ही मिलेगी चाहे आप किसी भी गति से यात्रा क्यों न कर रहे हो। प्रकाश की गति की गुणवत्ता एवं उसकी गति सीमा की रक्षा के लिए समय अपनी रफ्तार को धीमा करने लगता है और अंतरिक्ष गति की दिशा में सिकुड़ने लगता है। मतलब स्पष्ट था, वास्तव में अंतरिक्ष और समय बहुत लचीला है लेकिन हमें कभी इसका आभास नही होता केवल इसलिए कि हम रोजमर्रा के जीवन मे इतनी तेज गति से कभी भी यात्रा नही करते। यदि मैं अपनी कैब को प्रकाश के गति के समीप ले जाऊ तो यह प्रभाव अब बिल्कुल भी छिप नही सकता।

मान लीजिये मेरी कैब अब प्रकाश गति के समीप की गति से यात्रा कर रही है यदि आप सड़क के किनारे खड़े होकर मेरी कैब को देख रहे है तो आप क्या देखेगे ?? आपको मेरी कैब सिर्फ एक इंच लंबी दिखाई देगी क्योंकि आपके नजर में मेरा स्पेस सिकुड़ गया है। यदि आप किसी तकनीक से मेरी घड़ी को देख पा रहे है तो आपको मेरी घड़ी बहुत धीमी या लगभग रुकी हुई मालूम पड़ेगी। लेकिन मेरे परिपेक्ष्य से कैब के अंदर, न केवल मेरी घड़ी सामान्य दर से चल रही है बल्कि अंतरिक्ष भी बिल्कुल सामान्य है अर्थात उसमे कोई बदलाव नही आया है। जब मैं कैब के बाहर देखता हूँ तो सभी जगहों को बेतहाशा समायोजन होते हुए देख रहा हूँ यहाँ भी प्रकाश गति सीमा की रक्षा हो रही होती है क्योंकि प्रकाश गति सबके लिए समान ही होनी चाहिये। आइंस्टीन के अनुसार, समय और अंतरिक्ष न तो कठोर है न ही निरपेक्ष इसके वजाय वे एकत्रित होकर एक एकल इकाई बनाते है जिसे उन्होंने “स्पेसटाइम”(Spacetime) कहा है।

जैसा कि हमसब अपनी जिंदगी जीते है। हम न्यूटन के द्वारा प्रस्तावित समय और स्पेस के साथ बहुत सहज महसूस करते है और शायद आइंस्टीन भी सहज महसूस करते होंगे इसके बावजूद आइंस्टीन ने जो स्पेसटाइम का चित्रण किया वह वास्तव में उनके अद्भुत प्रतिभा को दर्शाता है।

अंतरिक्ष और समय सबके लिए एक समान है यह हमारी कितनी गलत धारणा रही है आइंस्टीन से पहले कभी किसी ने इसका प्रतिवाद नही किया था शायद मनुष्यों द्वारा किया गया अनुभव इस प्रतिवाद को रोकता आ रहा होगा। आइंस्टीन द्वारा सुझाया स्पेसटाइम की नई तस्वीर ब्रह्माण्ड के नायक कहे जानेवाले सबसे परिचित ताकत से जुड़ी एक गहरी रहस्य को भी हल करने वाली थी वह नायक था…

गुरुत्वाकर्षण(Gravitation)।

न्यूटन के अनुसार गुरुत्वाकर्षण एक बल है जिसके कारण एक वस्तु दूसरे वस्तु को अपनी ओर आकर्षित करता है। अपने गुरुत्वाकर्षण नियम से उन्होंने दो वस्तुओं के बीच लगनेवाले बल की परिशुद्धता से अनुमान लगाया और मापन भी किया।

  • लेकिन गुरुत्वाकर्षण वास्तव में कैसे काम करता है ?
  • लाखो मील की दूरी पर स्थित पृथ्वी, चन्द्रमा को अपनी ओर कैसे खिंच सकती है जबकि दोनों के बीच मे केवल रिक्त स्थान है ?

चन्द्रमा ऐसा व्यवहार करती है जैसे वह पृथ्वी से एक अदृश्य रस्सी से जुड़ी हो लेकिन हमसबको पता है यह सत्य नही है। न्यूटन का नियम इसकी कोई व्याख्या नही कर पाता कि चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा क्यों करती है ?

आइंस्टीन को भी यह समस्या हल करने में दस साल लग गये अब आइंस्टीन फिर से एक चौकाने वाले निष्कर्ष के साथ उपस्थित होनेवाले थे। आइंस्टीन ने कहा- गुरुत्वाकर्षण का रहस्य वास्तव में अंतरिक्ष और समय की प्रकृति में छुपा हुआ है इसे समझने के लिए आपको पहले स्पेसटाइम को समझना होगा।

असल मे अंतरिक्ष और समय बहुत लचीला है बहुत ही ज्यादा लचीला। यह एक वास्तविक फैब्रिकेटेड कपड़े की तरह ही फैल सकता है सिकुड़ भी सकता है। इसे समझने के लिए हम कल्पना करे कि हमारी टेबल एक स्पेसटाइम है और कुछ गेंदे इस स्पेसटाइम के वास्तु है। अब यदि यह स्पेसटाइम कठोर और सपाट हो तो सभी वस्तुओं को सीधी रेखा में ही गति करनी चाहिये थी। लेकिन वास्तव में यह अंतरिक्ष ऐसा नही है स्पेसटाइम फैब्रिकेटेड है जिसमे खिंचाव, सिकुड़न, मुड़ाव जैसी विकृतियाँ बनती है। यह सुनने में थोड़ा अजीब लग सकता है लेकिन अगर हम इस खिंचाव वाली स्पेसटाइम के कपड़े पर कोई भारी वस्तु रख दे तो यह वस्तु स्पेसटाइम में वक्रता उत्पन्न कर देता है। अगर मेरी यह टेबल कठोर और चिकनी न होकर फैब्रिकेटेड हो और मैं एक भारी गेंद इसके बीच मे रख दूँ तो यह गेंद मेरी टेबल में वक्रता ला देगा। अब मैं कोई छोटी गेंद उस बड़ी गेंद की ओर फेक दूँ तो मेरी छोटी गेंद उस बड़ी गेंद द्वारा बनी स्पेसटाइम वक्रता के कारण उसके चारों ओर चक्कर लगाने लगेगा।

आइंस्टीन को यह अहसास हुआ फिर उन्होंने विश्व को बताया देखो गुरुत्वाकर्षण ऐसे काम करता है। चन्द्रमा इसलिए पृथ्वी की परिक्रमा नही करती की पृथ्वी उसे अपनी ओर एक अदृश्य ताकत से खींचता है बल्कि इसलिए करती है कि पृथ्वी द्वारा बनी स्पेसटाइम वक्रता उसे परिक्रमा करने के लिए बाध्य कर देता है। आइंस्टीन ने अनुसार अंतरिक्ष सिर्फ वास्तविक ही नही बल्कि लचीली भी है बिल्कुल एक पतली रबर शीट की तरह। जहाँ न्यूटन ने अंतरिक्ष को निष्क्रिय बताया था आइंस्टीन ने उसे डायनामिक(Dynamic) बताया जो समय के साथ पूरी तरह से जुड़ा है। आइंस्टीन के सिद्धान्त को सत्यापित करने की सबसे उपयुक्त जगह तो ब्लैक होल ही थी। ब्लैक होल बड़ा सघन(Dense) होता है तारो और ग्रहों को अपने मे समा लेता है इसके चारों ओर गुरुत्वाकर्षण बड़ा प्रवल होता है। बड़ा ब्लैक होल अंतरिक्ष और समय मे बहुत बड़ी विकृति ला देता है। पृथ्वी से निकटतम ब्लैक होल भी खरबों मील की दूरी पर स्थित है जिसके कारण आइंस्टीन की भविष्यवाणी का परीक्षण करना बड़ी चुनौती बन रही थी।

लेकिन 1950 के दशक में, एक भौतिकविज्ञानी लियोनार्ड शिफ़(Leonard Schiff) ने अंतरिक्ष के बारे में आइंस्टीन के सिद्धांतों के परीक्षण के लिए एक क्रांतिकारी रास्ता खोज निकाला। उनका प्रस्तावित उपकरण आमतौर पर एक बच्चे के खिलौने जैसा ही था नाम था घूर्णदर्शी(जाइरोस्कोप/Gyroscope).

घूर्णदर्शी : तीनों अक्षों में घूमने के लिये स्वतंत्र, बाहरी वलय का झुकाव चाहे कुछ भी क्यों न हो, रोटर की स्पिन-अक्ष की दिशा नहीं बदलती है।

जाइरोस्कोप(Gyroscope) एक घूमता हुआ पहिया या डिस्क है जिसमे रोटेशन का अक्ष(Axis) स्वतः किसी भी अभिविन्यास(Orientation) को ग्रहण करने के लिए स्वतंत्र रहता है।

 

लिओनार्ड स्किफ़

उन्होंने सोचा अगर अंतरिक्ष वास्तव में एक कपड़े की तरह ट्वीस्टी(Twisty) है तो जाइरोस्कोप यह पता लगाने में मददगार साबित हो सकता है। यह एक अजीब विचार था शिफ़ ने अपने दो कॉलेज मित्रों विलियम फैरबैंक और बॉब केनन(William Fairbank and Bob Cannon) से अपने इस विचार को साझा किया। जाइरोस्कोप को और उच्च तकनीक से बनाने की कोशिशों पर भी विचार विमर्श किया साथ ही साथ पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करने का भी फैसला किया। समान्यतः जाइरोस्कोप का जो अक्षीय केंद्र होता है वो एक निश्चित दिशा में स्थित रहता है लेकिन अगर पृथ्वी वास्तव में अंतरिक्ष को खींच रही है तो जाइरोस्कोप के अक्ष को भी इसके साथ खिंचेगी। लियोनार्ड शिफ़ इसी खिंचाव को देखना और मापना चाह रहे थे।

यह शानदार और बेहद सरल लगनेवाली योजना लग रही थी सिर्फ एक समस्या अब भी बनी हुई थी। आइंस्टीन का यह सैद्धान्तिक अनुमान की पृथ्वी का घूमना केवल एक छोटी सी राशि है जो अंतरिक्ष मे एक बहुत मामूली खिंचाव ला रही है तो क्या हम इस जाइरोस्कोप से इस नगण्य सी खिंचाव को माप सकेंगे वो भी सिर्फ 62 मील की दूरी से। वैज्ञानिको की टीम ने सटीक मापन करने के लिए दो साल से अधिक का समय इसपर खर्च किया। आखिरकार इस टीम ने एक दूरबीन के साथ चार स्वतंत्र रूप से फ्लोटिंग जाइरोस्कोप(Freely-Floating Gyroscopes) संलग्न करने की योजना बनायी। 1962 में इनलोगों ने नासा को एक अनुदान के लिए आवेदन किया जिसमें इस योजना(ग्रैविटी प्रोब-बी : Gravity Prob-B) के लिए 1 लाख डॉलर का अनुरोध किया गया था। टीम के सदस्य काफी आशावादी थे उन्होंने सोचा कि इस परियोजना में तीन साल लगेंगे लेकिन बढ़ती हुई टीम के साथ, ग्रैविटी प्रोब-बी विज्ञान के इतिहास में सबसे लंबे समय तक चलने वाले प्रयोगों में से एक बन गया।

चार दशकों से अधिक और लगभग 750,000,000 डॉलर खर्च को देखते हुए नासा ने यह परियोजना लगभग नौ बार रद्द कर दी। पर अंत मे नासा ने अप्रैल 2004 में इसे प्रक्षेपित किया लेकिन इस समय 1959 के तीन मुख्य सूत्रधार लोगों में से केवल एक ही इसे देखने के लिए जीवित था। एक वर्ष से अधिक समय तक ग्रैविटी प्रोब-बी ने पृथ्वी की कक्षा में परिक्रमा की जबकि टीम ने घबराहट के साथ हर कदम पर पूरी नजर गड़ाये रखी यह देखने की लगातार कोशिश करती रही कि पृथ्वी सच मे अंतरिक्ष को मोड़ती है या नही। अंत मे आंकड़े आने शुरू हो गए और समस्यायें भी। जाइरोस्कोप बहुत ही अप्रत्याशित आंकड़े दे रहे थे जो वैज्ञानिको के लिए किसी झटके से कम नही था।

वैज्ञानिको ने इस आंकड़े के विश्लेषण करने के लिए लाखों डॉलर और खर्च होने का अनुमान लगाया। इस अतिरिक्त धनराशि लगने के चलते इस मिशन को पूरा करना बड़ा मुश्किल होने लगा फिर लगभग आखिरी संभावित क्षणों में अतिरिक्त धन के दो स्रोत सामने आये एक विलियम फैरबैंक के बेटे और दूसरा सऊदी शाही परिवार के एक सदस्य टर्की अल-सऊद(Turki al-Saud) जिन्होंने इस बड़े अनुदान की व्यवस्था की। अगले दो वर्षों में आंकड़ो के साथ आनेवाली सारी समस्याएं हल हो गयी और यह खुलासा हुआ कि जाइरोस्कोप का अक्ष बिल्कुल आइंस्टीन के समीकरणों की भविष्यवाणी को पूरा कर रहा था। पहली बार विज्ञानियों ने आइंस्टीन के प्रभावों को नग्न आंखों से देखा था। यह प्रयोग सबसे प्रत्यक्ष सबूत था जिसने बताया कि अंतरिक्ष वास्तविक भौतिक इकाई है। वैज्ञानिको ने माना अगर अंतरिक्ष कुछ भी नही है तो उसमें कोई मोड़ या विकृति कभी नही आ सकती।अल्बर्ट आइंस्टीन ने जो हमे अंतरिक्ष की तस्वीर दिखाई यह तो अंतरिक्ष के बड़े पैमाने पर हमें दिखता देता है लेकिन अंतरिक्ष सिर्फ बड़े पैमाने पर ही नही बल्कि छोटे पैमाने(Tiny Scale) में भी स्थित है वो है क्वांटम पैमाना(Quantum Scale).।

जारी….

अगले भाग मे क्वांटम स्केल पर अंतरिक्ष..

स्रोत :

ब्रायन ग्रीन द्वारा प्रस्तुत वृत्तचित्र द फ़ेब्रिक आफ द कासमास (The Fabric of the Cosmos by Brian Greene)

ब्रायन ग्रीन कोलंबीया विश्वविद्यालय मे भौतिक वैज्ञानिक(Physicist, Columbia University) है।

इस लेख मे निम्नलिखित वैज्ञानिको के कथनों और विचारों का समावेश भी किया गया है।

• Raphael Bousso (UC Berkeley)
• Robert Cannon(Stanford University)
• Alex Filippenko(University of California) Berkeley astro.berkeley.edu/people/faculty/filippenko.html
• S. James Gates, Jr.(University of Maryland)
• Brian Greene(Columbia University)
• Peter Higgs(University of Edinburgh)
• Craig Hogan(University of Chicago)
• Clifford Johnson(University of Southern California)
• Rocky Kolb(University of Chicago)
• Janna Levin(Columbia University)
• Joseph Lykken(Fermilab)
• Brad Parkinson(Stanford University)
• Saul Perlmutter(University of California, Berkeley)
• Adam Riess(Johns Hopkins University)
• Leonard Susskind(Stanford University)

 

प्रस्तुति : पल्लवी कुमारी

प्रस्तुति : पल्लवी कुमारी

प्रस्तुति : पल्लवी कुमारी

पल्लवी कुमारी, बी एस सी द्वितीय वर्ष(B.Sc 2nd Year) की छात्रा है। वर्तमान मे राम रतन सिंह कालेज मोकामा पटना मे अध्यनरत है।

वह आदमी जो ब्रह्मांड को जानता था  

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“मुझे सबसे ज्यादा खुशी इस बात की है कि मैंने ब्रह्माण्ड को समझने में अपनी भूमिका निभाई। इसके रहस्य लोगों के सामने खोले और इस पर किये गये शोध में अपना योगदान दे पाया। मुझे गर्व होता है जब लोगों की भीड़ मेरे काम को जानना चाहती है।’’ – स्टीफन हॉकिंग

विश्व के सबसे प्रसिद्ध वैज्ञानिकों में गिने जाने वाले वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग का 76 वर्ष की आयु में विगत 14 मार्च को निधन हो गया। कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में सैद्धांतिक भौतिक विज्ञान और गणित के प्रोफेसर रहे स्टीफन हॉकिंग को अल्बर्ट आइंस्टाइन के बाद विश्व सबसे का सबसे बड़ा भौतिकशास्त्री माना जाता था। अपनी अद्भुत जिजीविषा, अपूर्व इच्छाशक्ति और अदम्य साहस के बल पर शारीरिक विकलांगता की बाधाओं को पार करते हुए प्रोफेसर हॉकिंग ने सैद्धांतिक भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में अभूतपूर्व खोजें कीं।

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स्टीफन हॉकिंग

स्टीफन हॉकिंग अपने जीवनकाल में ही एक किंवदंती (आख्यान-पुरुष) बन गए थे। इसके कारणों को समझना ज्यादा कठिन नहीं है। पहला कारण तो यही है कि उन्होंने शारीरिक विकलांगता के बावजूद ब्रह्मांड विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण शोधकार्य किए और कुछ क्रांतिकारी सिद्धांत प्रस्तावित किए। प्रत्येक विचारशील मनुष्य को ब्रह्मांड की उत्पत्ति के विचार और सिद्धांत आकर्षित और प्रभावित करते रहें हैं, फिर चांहे वह व्यक्ति वैज्ञानिक हो, धर्माचार्य हो या आम मनुष्य। हॉकिंग की बेतहाशा लोकप्रियता का दूसरा कारण उनकी लोकप्रिय पुस्तक ‘ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ़ टाइम’ है। दरअसल, हॉकिंग का नाम उन विलक्षण वैज्ञानिकों में शुमार होता है, जिनका अनुसंधान भी पहले दर्जे का होता है और लेखन भी पहले दर्जे का! हॉकिंग का यह मानना था कि किसी भी वैज्ञानिक के शोधकार्यों की पहुंच सामान्य जनमानस तक होनी चाहिए। इसी विचार से प्रेरित होकर उन्होंने जनसामान्य के लिए सरल-सहज भाषा में लेख और पुस्तकें लिखीं तथा सार्वजनिक व्याख्यान भी दियें। उपर्युक्त बातों के आलावा हॉकिंग की लोकप्रियता का एक प्रमुख कारण था –  उनका विलक्षण व्यक्तित्व, उनकी विनम्रता और अपनी बातों को व्यक्त करने का उनका अनूठा अंदाज। आइए, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक नज़र डालते हैं।

प्रारंभिक जीवन

स्टीफन विलियम हॉकिंग का जन्म 8 जनवरी, 1942 को इंग्लैंड के ऑक्सफ़ोर्ड में फ्रेंक और इसाबेल हॉकिंग दंपत्ति के घर में हुआ था। इसे महज एक संयोग ही माना जा सकता है कि हॉकिंग का जन्म महान वैज्ञानिक गैलीलियो गैलिली के देहांत के ठीक तीन सौ वर्ष बाद हुआ था। आठ वर्ष की उम्र में जब स्टीफन विद्यालय जाने के योग्य हुए तो उनको प्राथमिक शिक्षा के लिए लड़कियों के एक स्कूल में उनका दाखिला दिला दिया गया। 11 वर्ष की उम्र के बाद हॉकिंग ने सेंट मेलबर्न नामक स्कूल में अपनी आगे की पढ़ाई की। हॉकिंग को बचपन में उनके सहपाठी ‘आइंस्टाइन’ कहकर संबोधित करते थे। मगर आइंस्टाइन की ही तरह हॉकिंग भी बचपन में प्रतिभाशाली विद्यार्थी नहीं माने जाते थे। मगर हाईस्कूल के अंतिम दो वर्षों में गणित और भौतिक विज्ञान के अध्ययन में उनकी रूचि बढ़ने लगी थी। उनके पिता चाहते थे कि स्टीफन आगे की पढ़ाई जीव विज्ञान विषय लेकर करें। मगर स्टीफन की जीव विज्ञान में रूचि नहीं थी, इसलिए उन्होंने अपनी रूचि के विषय गणित और भौतिक विज्ञान की पढ़ाई के लिए ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। इसके बाद वे ‘ब्रह्मांड विज्ञान’ (कॉस्मोलॉजी) में उच्चस्तरीय अध्ययन के लिए कैंब्रिज विश्वविद्यालय चले गये। वे अपनी पी-एच.डी. उस समय के प्रसिद्ध खगोल वैज्ञानिक सर फ्रेड हॉयल के मार्गदर्शन में करना चाहते थे, मगर गुरु के रूप में उन्हें हॉयल का सानिध्य नहीं मिला बल्कि उन्हें डॉ. डेनिश शियामा नामक एक कम जानेमाने भौतिकविद का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ।

असाध्य बीमारी

जब स्टीफन 21 वर्ष के थे तो एक बार छुट्टियां मनाने के लिए अपने घर पर आये हुए थे। वे सीढ़ियों से उतर रहे थे कि तभी उन्हें बेहोशी का एहसास हुआ और वे तुरंत ही नीचे गिर पड़े। उन्हें फैमली डॉक्टर के पास ले जाया गया शुरू में उन्होंने उसे मात्र एक कमजोरी के कारण हुई घटना मानी, मगर बार-बार ऐसा होने पर उन्हें विशेषज्ञ डॉक्टरो के पास ले जाया गया, जहाँ यह पता चला कि वे अमायो‍ट्राफिक लेटरल स्‍कलेरोसिस (मोटर न्यूरॉन) नामक एक दुर्लभ और असाध्य बीमारी से ग्रस्त हैं। इस बीमारी में शरीर की मांसपेशियां धीरे-धीरे काम करना बंद कर देती हैं, जिसके कारण शरीर के सारे अंग बेकाम हो जाते हैं और अंतत: मरीज घुट-घुट कर मर जाता है। डॉक्टरों का कहना था कि चूँकि इस बीमारी का कोई भी इलाज मौजूद नहीं है इसलिए हॉकिंग बस एक-दो साल ही जीवित रह पाएंगें। स्टीफन को यह लगने लगा था कि इस बीमारी के कारण अपनी पी-एच.डी. पूरी नहीं कर पाएंगे। वे यह भी सोचने लगे कि ‘यदि अनुसंधान कार्य पूरा भी हो जाता है, तो मैं जीवित ही नहीं रहूँगा तो डिग्री का क्या फायदा?’ लेकिन कुछ समय डिप्रेशन में रहने के बाद आखिरकार स्टीफन की सोच और कार्यशैली में जबरदस्त बदलाव आया। धीरे-धीरे उन्हें लगने लगा कि वे कई अच्छे कार्य कर सकते हैं। हॉकिंग ने कहा भी था कि हमें वह सब करना चाहिए जो हम कर सकते हैं, लेकिन हमें उन चीजों के लिए पछताना नहीं चाहिए जो हमारे वश में नहीं है। उन्होंने ऐसा ही किया और अपना अनुसंधान कार्य जारी रखा।

इधर स्टीफन का सौभाग्य कि डॉक्टरों की भविष्यवाणी के दो वर्ष बीत गए और उन्हें कुछ भी नहीं हुआ तथा बिमारी की बढ़त भी धीमी होती गई, जिससे उनका उत्साह और मनोबल बढ़ता गया। इसी बीच जेन वाइल्ड नामक एक लड़की से स्टीफन को प्रेम हो गया। वे दोनों शादी करना चाहते थे, मगर शादी के बाद जीवनयापन के लिए स्टीफन को नौकरी की जरूरत थी और नौकरी के लिए पी-एच.डी. की डिग्री प्राप्त करना अनिवार्य जरूरत थी। अत: वह अपने अनुसंधान कार्य के प्रति गंभीर हो गए और अपने काम में पूर्णतया तल्लीन हो गए। इसी दौरान जॉनविले एंड क्यूस कॉलेज में उन्हें रिसर्च फेलोशिप मिल गई। यह उनके लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी। इसके बाद हॉकिंग ने अपनी प्रेमिका जेन वाइल्ड से विवाह किया, तब तक हॉकिंग के शरीर का दाहिना हिस्सा पूरी तरह से लकवाग्रस्त हो चुका था। दिन-ब-दिन उनकी परेशानियाँ बढ़ती ही गई अब वे लाठी के सहारे ही चल सकते थे। मगर साथ में, विज्ञान के प्रति हॉकिंग की ललक में भी दिन-ब-दिन बढ़ोत्तरी होती गई। इस बीमारी के चलते उन्हें बाद में बोलने में भी काफी परेशानी होने लगी, इसी कारण वे स्पीच जनरेटिंग डिवाइस का उपयोग करने लगे। बीमारी बढ़ने पर जब वे चलने-फिरने में पूर्णत: असमर्थ हो गये, तो उन्‍होंने तकनीकी रूप से सुसज्जित व्‍हील चेयर का इस्‍तेमाल शुरू कर दिया।

वर्ष 1965 में उनका पहला शोधपत्र ‘ऑन द हॉयल-नार्लीकर थ्‍योरी ऑफ ग्रेविटेशन’ प्रोसीडिंग ऑफ द रॉयल सोसाइटी में प्रकाशित हुआ। मार्च 1966 में हॉकिंग को पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त हुई। डॉक्टरेट की उपाधि मिलने के बाद उन्होंने सापेक्षता सिद्धांत और क्वांटम भौतिकी पर शोधकार्य शुरू कर दिया। उन्होंने गणितज्ञ रोजर पेनरोज के साथ मिलकर ब्‍लैक होल पर शोधकार्य प्रारम्‍भ किया और  वर्ष 1970 में उन्हें क्‍वांटम यांत्रिकी और आइंस्टाइन के सामान्‍य सापेक्षता सिद्धांत का  उपयोग करके ब्‍लैक होल से विकिरण उत्‍सर्जन का प्रदर्शन करने में सफलता प्राप्‍त हुई।  इस प्रकार से हॉकिंग ने अपने वैज्ञानिक जीवन का सफ़र शुरू कर दिया और धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि पूरी दुनिया में फैलने लगी।

हॉकिंग के प्रमुख अनुसंधान कार्य

वर्ष 1966 में रोजर पेनरोज के साथ मिलकर ब्लैक होल पर अनुसंधान कार्य शुरुआत करने से लेकर 1990 दशक के मध्य तक स्टीफन हॉकिंग गणित और मूलभूत भौतिकी की संधि पर गंभीरतम काम में जुटे रहे।  1960 के दशक में स्टीफन हॉकिंग, जार्ज एलिस और रोजर पेनरोज ने आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत को दिक् और काल की गणना में प्रयुक्त करते हुए यह बताया कि दिक् और काल सदैव से विद्यमान नहीं थे, बल्कि उनकी उत्पत्ति ‘महाविस्फोट’ के साथ हुई। हॉकिंग को एहसास हुआ कि महाविस्फोट दरअसल ब्लैक होल का उलटा पतन ही है। स्टीफ़न हॉकिंग ने पेनरोज के साथ मिलकर इस विचार को और विकसित किया और दोनों ने 1970 में एक संयुक्त शोधपत्र प्रकाशित किया और यह दर्शाया कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति ब्लैक होल के केंद्रभाग में होने वाली ‘विलक्षणता’ (सिंगुलैरिटी) जैसी स्थिति से ही हुई होगी। दोनों ने यह दावा किया कि महाविस्फोट से पहले ब्रह्मांड का समस्त द्रव्यमान  एक ही जगह पर एकत्रित रहा होगा। उस समय ब्रह्मांड का घनत्व असीमित था तथा सम्पूर्ण ब्रह्मांड एक अति-सूक्ष्म बिंदू में समाहित था। इस स्थिति को परिभाषित करने  में विज्ञान एवं गणित के समस्त नियम-सिद्धांत निष्फल सिद्ध हो जाते हैं। वैज्ञानिकों ने इस स्थिति को विलक्षणता नाम दिया है। किसी अज्ञात कारण से इसी सूक्ष्म बिन्दू से एक तीव्र विस्फोट हुआ तथा समस्त द्रव्य इधर-उधर छिटक गया। इस स्थिति में किसी अज्ञात कारण से अचानक ब्रह्मांड का विस्तार शुरू हुआ और दिक्-काल की भी उत्पत्ति हुई। इस परिघटना को सर फ्रेड हॉयल द्वारा  ‘बिग बैंग’ का नाम दिया गया।

सूर्य से लगभग 10 गुना अधिक द्रव्यमान वाले तारों का जब हाइड्रोजन और हीलियम खत्म हो जाता है, तब वे अत्यधिक गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़कर अत्यधिक सघन पिंड ब्लैक होल बन जाते हैं। ब्लैक होल अत्यधिक घनत्व तथा द्रव्यमान वाले ऐसें पिंड होते हैं, जो आकार में तो बहुत छोटे होते हैं। मगर, इनके अंदर गुरुत्वाकर्षण इतना प्रबल होता है कि इसके चंगुल से प्रकाश की किरणों का निकलना भी असंभव होता हैं। चूंकि यह प्रकाश की किरणों को भी अवशोषित कर लेता है, इसीलिए यह हमारे लिए सदैव अदृश्य बना रहता है। ब्लैक होल के बारे में हमारी वर्तमान समझ स्टीफन हॉकिंग के कार्यों पर ही आधारित है। हॉकिंग ने वर्ष 1974 में ‘ब्लैक होल इतने काले नहीं’ शीर्षक से एक शोधपत्र प्रकाशित करवाया। इस शोधपत्र में हॉकिंग ने सामान्य सापेक्षता सिद्धांत एवं क्वांटम भौतिकी के सिद्धांतों के आधार पर यह दर्शाया कि ब्लैक होल पूरे काले नही होते, बल्कि ये अल्प मात्रा में विकिरणों को उत्सर्जित करतें हैं। हाकिंग ने यह भी प्रदर्शित किया कि ब्लैक होल से उत्सर्जित होने वाली विकीरणें क्वांटम प्रभावों के कारण धीरे-धीरे बाहर निकलती हैं। इस प्रभाव को हॉकिंग विकीरण (हॉकिंग रेडिएशन) के नाम से जाना जाता है। हॉकिंग विकिरण प्रभाव के कारण ब्लैक होल अपने द्रव्यमान को धीरे-धीरे खोने लगते हैं, तथा ऊर्जा का भी क्षय होता हैं। यह प्रक्रिया लम्बें अंतराल तक चलने के बाद आखिरकार ब्लैक होल वाष्पन को प्राप्त होता है। दिलचस्प बात यह है कि विशालकाय ब्लैक हालों से कम मात्रा में विकिरणों का उत्सर्जन होता है, जबकि लघु ब्लैक होल बहुत तेजी से विकिरणों का उत्सर्जन करके वाष्प बन जाते हैं।

आधुनिक खगोल वैज्ञानिक ब्रह्मांड की व्याख्या दो मूल किंतु अधूरे सिद्धांतों की सहायता से करते हैं, पहला आइंस्टाइन का सामान्य सापेक्षता सिद्धांत और दूसरा क्वांटम सिद्धांत। सामान्य सापेक्षता सिद्धांत विराट ब्रह्मांड की संरचनाओं जैसे- तारों, ग्रहों और आकाशगंगाओं आदि पर लागू होती है। विशाल खगोलीय पिंडों पर गुरुत्वाकर्षण बल किस प्रकार से प्रभाव डालता है, का अध्ययन सामान्य सापेक्षता सिद्धांत द्वारा किया जाता है। वहीं क्वांटम सिद्धांत में बेहद सूक्ष्म चीज़ों जैसेकि परमाणु, इलेक्ट्रान आदि का अध्ययन किया जाता है। मूल रूप से ये दोनों सिद्धांत एक दूसरे से असंगत लगते हैं। इसलिए स्टीफन हॉकिंग ने एक सार्वभौमिक सिद्धांत (थ्योरी ऑफ़ एवरीथिंग) के विकास का प्रयास किया, जो प्रत्येक स्थान पर, प्रत्येक स्थिति में लागू हो। हॉकिंग का मानना था कि ब्रह्मांड का निर्माण स्पष्ट रूप से परिभाषित सिद्धांतों के आधार पर हुआ है। उनका कहना था कि थ्योरी ऑफ़ एवरीथिंग हमें इस सवाल का जवाब देने के लिए काफ़ी होगा कि ब्रह्मांड का निर्माण कैसे हुआ, ये कहां जा रहा है और क्या इसका अंत होगा और अगर होगा तो कैसे होगा? अगर हमें इन सवालों का जवाब मिल गया तो हम ईश्वर के मस्तिष्क को समझ जाएंगे।

स्टीफन हॉकिंग का मानना था कि परग्रही प्राणी यानी एलियन हमारे ब्रह्मांड में निश्चित रूप से मौजूद हैं, मगर उनका यह भी कहना था कि बेहतर होगा कि मानवजाति उनसे संपर्क करने का प्रयास न करें क्योंकि एलियंस हमारे लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं, वे संसाधनों के लिए पृथ्वी पर हमला कर सकते हैं और यदि वे तकनीकी दृष्टि से हमसे समृद्ध प्राणी हुए तो उनके कारण संपूर्ण मानवजाति संकट में पड़ सकती है। इतिहास भी इस बात का साक्षी है कि ताकतवर ने हमेशा कम ताकतवर को अपने अधीन किया है, इसलिए हॉकिंग का कहना था कि हमे परग्रही प्राणियों से सावधान रहना चाहिए।

स्टीफन हॉकिंग ने लियोनार्ड म्लोदिनोव के साथ लिखी अपनी पुस्तक ‘द ग्रैंड डिजाइन’ में यह तर्क दिया था कि सदियों से यह विश्वास किया जाता रहा है कि ब्रह्मांड अनादि-अनंत है जिसके पीछे यह उद्देश्य था कि उसकी उत्पत्ति के बारे में कोई विवाद न हो। दूसरी ओर कुछ का विश्वास था कि इसकी एक निश्चित शुरुवात हुई थी और उन लोगों ने उस तर्क का प्रयोग ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करने में किया।  आधुनिक ब्रह्मांड विज्ञान का यह विश्वास कि काल दिक् की तरह व्यवहार करता है, एक नया विकल्प प्रस्तुत करता प्रतीत होता है। इससे लंबे समय से चली आ रही यह आपत्ति तो दूर हो जाती है कि ब्रह्मांड की कोई शुरुवात हुई थी बल्कि इसका यह अभिप्राय भी है कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति भौतिक विज्ञान या प्रकृति के मूलभूत नियमों के अधीन हुई थी, इसलिए इसको उत्पन्न करनेवाले किसी रचयिता या ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं है। हॉकिंग और लियोनार्ड म्लोदिनोव के उक्त विचारों से संपूर्ण विश्व में बड़ी खलबली मच गई थी। और दोनों की काफी आलोचना भी हुई।

क्या कहता है स्टीफन हॉकिंग का ‘आखिरी’ शोधपत्र?    

स्टीफन हॉकिंग का आखिरी शोधपत्र प्रकाशित होने की चर्चा गरम है। बेल्जियन भौतिकशास्त्री टॉमस हर्टोग के साथ उनका यह काम कॉस्मॉलजी के ‘इन्फ्लेशन’ मामले से संबंधित है, जिस पर हम यहां थोड़ी चर्चा करेंगे। लेकिन इससे पहले यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि 14 मार्च 2018 को दिवंगत हुए बहुचर्चित थिअरेटिकल फिजिसिस्ट स्टीफन हॉकिंग का यह अंतिम रिसर्च पेपर नहीं है। उनके प्रिय शोध क्षेत्र ब्लैकहोल्स पर केंद्रित कई और शोधपत्र आने वाले दिनों में भी प्रकाशित होते रहेंगे। यह बात और है कि ये सारे पेपर किसी न किसी के साथ मिलकर ही लिखे हुए हैं।

75 साल की उम्र पाए स्टीफन के लिए अपने अंतिम वर्षों में अकेले दम पर पर्याप्त सामग्री जुटाकर उस पर फैसलाकुन ढंग से काम करना संभव नहीं था, हालांकि इसका दूसरा पहलू यह भी था कि उनके साथ अपना नाम जोड़ना नई पीढ़ी के हर भौतिकशास्त्री का सपना हुआ करता था। बहरहाल, बड़े फलक की विषयवस्तु इन्फ्लेशन पर टॉमस हर्टोग के साथ मिलकर किया हुआ उनका यह काम कॉस्मॉलजी से जुड़े भौतिकशास्त्रियों और उनके करीब पड़ने वाले गणितज्ञों के बीच चर्चा का विषय बनेगा। खासकर इस शोधपत्र की यह प्रस्थापना कि बिग बैंग के बाद गुजरे एक सेकेंड के बहुत ही छोटे हिस्से में- जिसे इन्फ्लेशन का समय कहा जाता है- समय जैसी किसी चीज का कोई अस्तित्व नहीं था।  

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किसी को यह बात अटपटी लग सकती है, क्योंकि बात चाहे सेकेंड के कितने भी छोटे हिस्से की क्यों न हो, समय तो समय है। उसके न होने की बात का भला क्या मतलब है? यहां आपको इस बात का मतलब समझाने का दावा इन पंक्तियों का लेखक नहीं कर सकता, क्योंकि सीमावर्ती भौतिकी बहुत सारी बातों का कोई व्यावहारिक मतलब समझ पाना आला से आला दर्जे के भौतिकशास्त्रियों के भी बूते से बाहर की बात हुआ करती है। वहां सारा मतलब गणित की भाषा में ही समझना पड़ता है। तो सवाल यह बचता है कि क्या हॉकिंग और हर्टोग ने सृष्टि के प्रारंभिक क्षणों का कोई ऐसा गणितीय समीकरण ढूंढ निकाला है, जो समय जैसी किसी चीज के बिना भी सफलतापूर्वक काम कर सकता हो? जवाब नहीं में है। उन्होंने एक प्रस्थापना भर दी है, जिसका खंडन-मंडन होना अभी बाकी है।

अब थोड़ी बात इन्फ्लेशन के बारे में, जिसे 1979 से ब्रह्मांड के निर्माण से जुड़ी दूसरी सर्वाधिक महत्वपूर्ण मान्यता जैसी प्रतिष्ठा प्राप्त है। पहली मान्यता 1927 में आई, 1929 में लगभग और 1964 में पूरी तरह पुष्ट मान ली गई बिग बैंग की प्रस्थापना की है। इस प्रस्थापना के मुताबिक बिग बैंग वह बिंदु है, जहां से देशकाल की शुरुआत होती है। ब्रह्मांड में आकाशगंगाओं के एक-दूसरे से दूर भागने की दर का अध्ययन करके यह नतीजा निकाला गया है कि अनंत विस्तार का सारा किस्सा दरअसल 13.8 अरब साल पहले एक बिंदु से शुरू हुआ था, जिसके पहले आकाश और समय नहीं था, और अगर रहा भी हो तो उसके बारे में जाना नहीं जा सकता।

1964 में कॉस्मिक बैकग्राउंड रेडिएशन (सीआरबी) की खोज से बिग बैंग पर तो पक्की मोहर लग गई लेकिन दो नए सवाल भौतिकशास्त्रियों को परेशान करने लगे। पहला यह कि ब्रह्मांड हर तरफ एक जैसा क्यों है, और दूसरा यह कि ब्रह्मांड में कहीं द्रव्य के होने और कहीं न होने की गुंजाइश कैसे पैदा होती है। इन दोनों सवालों का जवाब 1979 में एलन गुथ ने इन्फ्लेशन की थीसिस के जरिये दिया। इसके मुताबिक बिग बैंग के समय को शून्य समय नहीं बल्कि क्वांटम समय माना जाए, यानी 1 के बाद 36 शून्य लगाकर एक बहुत बड़ी संख्या बनाई जाए और एक सेकेंड समय को उससे भाग दे दिया जाए। क्वांटम थिअरी की अनिवार्य प्रस्थापना अनिश्चितता के सिद्धांत पर खरे उतरने के लिए ऐसा करना जरूरी है। 10 की ऋण 36 घात सेकेंड वाले इस क्वांटम समय से लेकर 10 की ऋण 33 घात वाले समय के बीच ब्रह्मांड अपने सूक्ष्म आकार का कम से कम साठ बार दो गुना होता चला गया- यह इन्फ्लेशन का सिद्धांत है।

समय का यह इतना छोटा हिस्सा भी समय ही है, लेकिन हॉकिंग और हर्टोग की प्रस्थापना के मुताबिक यह समय न होकर स्पेस की तीन विमाओं में ही समाहित है। यानी शून्य समय। अच्छा होगा कि हम इस प्रस्थापना के खंडन-मंडन का इंतजार करें। वैसे, स्टीफन हॉकिंग के ही कद के, बल्कि अपने शास्त्र में उनसे कहीं ज्यादा कद्दावर गणितज्ञ रॉजर पेनरोज शुरू से ही इन्फ्लेशन की धारणा को ही खारिज करते आए हैं। बाल की खाल निकालने वाली इन बहसों के देर-सबेर कुछ व्यावहारिक अर्थ भी निकलेंगे। तब तक चीजों और सिद्धांतों के नामों का आनंद लेते रहें। (साभार : चन्द्रभूषण जी)

खुले मन के वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग

हॉकिंग ने यह सिद्ध करने के बाद कि विलक्षणता (सिंगुलैरिटी) की स्थिति से ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई थी, (इस सिद्धांत को तबतक विज्ञान जगत में सामान्य स्वीकृति मिल चुकी थी) उन्होंने यह मत प्रस्तुत किया कि चूँकि ब्रह्मांड की कोई भी सीमा नहीं है, इसलिए ब्रह्मांड अनादि-अनंत है। इसी कारण से विलक्षणता की स्थिति हो नहीं हो सकती!  ऐसे ही एक बार उन्होंने अपनी गणनाओं से यह निष्कर्ष निकाला था कि ब्लैक होल का आकार सिर्फ़ बढ़ सकता है और ये कभी भी घटता नहीं है, मगर बाद में उन्होंने बड़ी मेहनत से अपने आपको गलत सिद्ध कर दिया!

स्टीफन हॉकिंग का दावा था कि हिग्स बोसॉन कभी भी खोजा नहीं जा सकेगा। बाद में लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर के एक प्रयोग में हिग्स बोसॉन को खोज लिया गया। हॉकिंग ने तुरंत अपनी गलती मान ली तथा हिग्स बोसॉन की खोज के लिए पीटर हिग्स को बधाई दी। हॉकिंग विज्ञान की निरंतर प्रगतिशीलता और मौलिकता में विश्वास करते थे, ‘मुझसे गलती हो गई’ यह कहना अपने आप में वैज्ञानिक मनोवृत्ति का एक महत्वपूर्ण लक्षण है। हॉकिंग ने हमे बता दिया कि विज्ञान में कोई भी सर्वज्ञानी नहीं होता!

स्टीफन हॉकिंग को 13 मानद उपाधियाँ और अमेरीका का सर्वोच्च नागरिक सम्मान प्राप्त हुआ था। उन्हें ब्रह्मांड विज्ञान में उत्कृष्ट योगदान के लिए अल्बर्ट आइंस्टाइन पुरस्कार सहित अनेक पुरस्कार प्राप्त हुए थे। मृत्यु के बाद हॉकिंग को आइजैक न्यूटन और चार्ल्स डार्विन जैसे महान वैज्ञानिकों के बेस्टमिस्टर एब्बे स्थित कब्र के बगल में दफनाया गया।

आज स्टीफन हॉकिंग हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन उनके विचार प्रेरणा बनकर हमारे साथ सदैव जीवित रहेंगे। ब्रह्मांड की उत्पत्ति, ब्लैक होल, क्वांटम गुरुत्व पर अपने कार्यों के कारण वे विज्ञानप्रेमियों के बीच सदैव एक जिंदादिल, जीनियस और जांबाज के रूप में याद किये जायेंगे। अलविदा प्रोफेसर हॉकिंग!

(मासिक चिंतनपरक ‘समयांतर’ में पूर्व प्रकाशित)

लेखक परिचय

pradeep

प्रदीप एक साइंस ब्लॉगर एवं विज्ञान संचारक हैं। ब्रह्मांड विज्ञान, विज्ञान के इतिहास और विज्ञान की सामाजिक भूमिका पर लोकोपयोगी लेख लिखने में विशेष रूचि है। सम्प्रति : दिल्ली विश्वविद्यालय में स्नातक छात्र हैं। आप से इस ई-मेल एड्रेस के माध्यम से संपर्क किया जा सकता है : pk110043@gmail.com

 

 

 

आसमानी मौत के दूत : संभावित रूप से खतरनाक धूमकेतु और क्षुद्रग्रह

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पृथ्वी सूर्य का तीसरा ग्रह और ज्ञात ब्रह्मांड में एकमात्र ग्रह है जहाँ जीवन उपस्थित है। यह सौर मंडल में सबसे घना और चार स्थलीय ग्रहों में सबसे बड़ा ग्रह है।रेडियोधर्मी डेटिंग और साक्ष्य के अन्य स्रोतों के अनुसार, पृथ्वी की आयु लगभग 4.54 बिलियन साल हैं। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण, अंतरिक्ष में अन्य पिण्ड के साथ परस्पर प्रभावित रहती है, विशेष रूप से सूर्य और चंद्रमा से, जोकि पृथ्वी का एकमात्र प्राकृतिक उपग्रह हैं। सूर्य के चारों ओर परिक्रमण के दौरान, पृथ्वी अपनी कक्षा में 365 बार घूमती है; इस प्रकार, पृथ्वी का एक वर्ष लगभग 365.26 दिन लंबा होता है। पृथ्वी के परिक्रमण के दौरान इसके धुरी में झुकाव होता है, जिसके कारण ही ग्रह की सतह पर मौसमी विविधताये(ऋतुएँ) पाई जाती हैं। पृथ्वी और चंद्रमा के बीच गुरुत्वाकर्षण के कारण समुद्र में ज्वार-भाटे आते है, यह पृथ्वी को इसकी अपनी अक्ष पर स्थिर करता है, तथा इसकी परिक्रमण को धीमा भी कर देता है।

पृथ्वी न केवल मानव का अपितु अन्य लाखों प्रजातियों का भी घर है और साथ ही ब्रह्मांड में एकमात्र वह स्थान है जहाँ जीवन का अस्तित्व पाया जाता है। माना जाता है की इसकी सतह पर जीवन का प्रस्फुटन लगभग एक अरब वर्ष पहले प्रकट हुआ था लेकिन इस दरम्यान पृथ्वी पर बहुत सारे उतार-चढ़ाव और प्राकृतिक घटनाएं हुई। लेकिन पृथ्वी पर लंबे समय तक जीवन का अस्तित्व बना रह सके ऐसी भविष्वाणी नहीं की जा सकती, वैसे माना जाता है की जीवन उत्पत्ति और विकास क्रम बड़ा ही जीवट होता है किसी भी परिस्थिति में आपने आप को ढाल सकता है इसके वावजूद भी ब्रह्माण्ड में जीवन का न मिलना हमे बताता है की जीवन उत्पत्ति पर ब्रह्मांडीय नियम/ब्रह्मांडीय घटनाएं ज्यादा हावी है। वैसे पृथ्वी पर जीवन नष्ट होने के बहुत सारे संभावित कारण हो सकते है कुछ मानव निर्मित और कुछ प्राकृतिक निर्मित। इस लेख में हम उन प्राकृतिक निर्मित क्षुद्रग्रहों(Asteroids) और धूमकेतुओ(Comets) की चर्चा कर रहे है जो पृथ्वी के आसपास ही ख़तरा बनकर मड़राते रहते है।

नियर अर्थ ऑब्जेक्ट(near-Earth object: NEO)

काल्पनिक छवि: पृथ्वी के लिए संभावित रूप से खतरनाक एक क्षुद्रग्रह

विज्ञान की भाषा में ऐसे पिंडो को नियर अर्थ ऑब्जेक्ट(near-Earth object: NEO) कहा जाता है जिसे संभावित खतरनाक वस्तु(Potentially Hazardous object: PHO) के श्रेणी में रखा जाता है। इस श्रेणी में केवल क्षुद्रग्रह ही नहीं आते बल्कि वे धूमकेतु भी आते है जो पृथ्वी के काफी करीब से गुजरते रहते है, यदि इनकी टक्कर पृथ्वी से हो तो यह पृथ्वी के लिए बड़े घातक साथ ही दूरगामी प्रभाव छोड़ सकते है। इनमें से अधिकतर संभावित रूप से खतरनाक क्षुद्रग्रह हैं जो 0.05 खगोलीय इकाइयों(AU) से भी कम दुरी से पृथ्वी की कक्षा से गुजरते है कभी-कभी तो इनका निरपेक्ष कांतिमान/चमक(Absolute magnitude) 22 तक देखा गया है। जनवरी 2018 तक लगभग 1885 ज्ञात संभावित खतरनाक वस्तुओं को खोजा जा चूका है। इनमे से 157 ऐसे PHOs जिनका व्यास 1 किलोमीटर से ज्यादा है जबकि 1601 अपोलो श्रेणी की क्षुद्रग्रह है शेष एटेन श्रेणी की क्षुद्रग्रह(Aten asteroids) है। सभी संभावित खतरनाक वस्तु को अगले 100 वर्षों या उससे अधिक के लिए पृथ्वी के लिए खतरा नहीं माना जा सकता है, क्योकि इनकी कक्षा अच्छी तरह से निर्धारित कर ली गयी है। लेकिन कुछ ऐसे भी क्षुद्रग्रह और धूमकेतु है जो अगले संभावित 100 सालों में पृथ्वी के लिए खतरनाक हो सकते है, यहां हम केवल इन्ही पिंडो को सूचीबद्ध कर रहे है।

संभावित रूप से खतरनाक धूमकेतु(Potentially hazardous comets)

धूमकेतु स्विफ्ट-टटल(109P/Swift-Tuttle)

धूमकेतु स्विफ्ट-टटल(109P/Swift-Tuttle)

अमेरीकन खगोलविज्ञानी लेविस शिफ्ट(Lewis Swift) ने 16 जुलाई 1862 में इस धूमकेतु की खोजा था यह एक नियमित अवधि में अपनी परिक्रमा पूरी करने वाला धूमकेतु है। यह अपनी एक परिक्रमा 133 सालो में पूरा करता है इसकी कक्षा को अच्छी तरह से निर्धारित किया जा चूका है। यह एक बड़ा धूमकेतु है जिसका व्यास लगभग 26 किलोमीटर है। यह काफी उज्जवल धूमकेतु(सापेक्ष कांतिमान 0.7) माना जाता है इसलिए इसे नंगी आँखों से भी देखा जा सकता है। वैसे अब 2126 में यह धूमकेतु पृथ्वी के वेहद करीब होगा। यह एक ऐसा खतरनाक धूमकेतु है जिसकी कक्षा पृथ्वी के बेहद पास से गुजरती है, इस दरम्यान पृथ्वी कक्षा से इसकी कक्षा दुरी महज 84000 मील(0.0009 AU) की होती है। अबतक के प्राप्त अवलोकनों के अनुसार भविष्यवाणी की गयी है की अगस्त 2126 में पृथ्वी से इसकी दुरी 0.147 AU अर्थात 13,700,000 मील की हो सकती है लेकिन इस धूमकेतु से पृथ्वी की सबसे नजदीकी मुलाकात 3044 में होगी जब इन दोनों के बीच की दुरी 10 लाख किलोमीटर से भी कम की होगी। अभी तक के प्राप्त आंकड़ों के अनुसार जब स्विफ्ट-टटल सूर्य के वेहद करीब होता है तब इसकी अधिकतम गति 42.6 km/s तक हो जाती है जबकि इसकी सबसे न्यूनतम गति जब स्विफ्ट-टटल सूर्य से सबसे दूर होता है तब 0.8 km/s दर्ज की गयी है। आधुनिक शोध के अनुसार किसी धूमकेतु की कक्षा ज्यादा स्थिर(stable) नहीं होती, इसे स्थिर मानना मानव जाति के लिए घातक साबित हो सकता है इसलिए ऐसे धूमकेतुओ पर लगातार नजर बनाये रखना आवश्यक हो जाता है।

स्विफ्ट-टटल द्वारा छोड़े गए उल्काओ के मध्य से गुजरती पृथ्वी

वैसे स्विफ्ट-टटल पृथ्वी के लिए खतरनाक धूमकेतुओ की श्रेणी में तो है लेकिन यह प्रति वर्ष आपके लिए अद्भुत मनोरम दृश्य भी देकर चला जाता है। पृथ्वी अपनी कक्षा में आगे बढ़ते हुए जब इस धूमकेतु द्वारा छोड़े गए उल्काओ के मध्य से गुजरती है, तब सैकड़ों छोटी-बड़ी उल्काएं पृथ्वी पर बरसते हुए ऊपरी वायुमंडल में जलती हुई नजर आती हैं और आकाश में मनोरम दृश्य उत्पन्न हो जाता है। स्विफ्ट-टटल द्वारा प्रदर्शित इस मनोरम उल्का पात को अगस्त के महीने में देखा जा सकता है।

टेम्पल-टटल(55P/Tempel–Tuttle)

 

टेम्पल-टटल(55P/Tempel–Tuttle)

यह भी एक नियमित अवधि में सूर्य की परिक्रमा करने वाला धूमकेतु है इसका परिक्रमण काल लगभग 33 वर्षो का है। इस धूमकेतु को हेली टाइप धूमकेतुओं के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इस धूमकेतु की खोज स्वंतंत्र रूप से विल्हेल्म टेम्पल(Wilhelm Tempel) द्वारा 19 दिसंबर 1865 में की गयी थी। उस समय इसकी कक्षा को ठीक तरह से नहीं समझा जा सका था इसलिए आवधिक धूमकेतु के रूप वर्गीकृत नहीं किया गया था बाद के अवलोकनों में ही इसकी कक्षा को भलीभांति समझा जा सका। पूर्व के अवलोकनों से हमे पता चलता है की यह धूमकेतु 26 अक्टूबर 1366 में पृथ्वी के सबसे करीब से गुजर चूका है उस समय पृथ्वी से इसकी दुरी लगभग 0.0229 AU अर्थात 3,430,000 किलोमीटर की रही थी।टेम्पल-टटल के केंद्र का द्रव्यमान लगभग 1.2×10^13 किलोग्राम और इसका व्यास लगभग 3.6 किलोमीटर का है जबकि पेरीहेलियन के समय इससे निकलनेवाली धारा का द्रव्यमान 5×10^12 किलोग्राम है। इस धूमकेतु की गति अवलोकन के समय 2.673 km/s की मापी गयी है लेकिन इसकी अधिकतम और न्यूनतम गति सम्बंधित आंकड़े अभी मौजूद नहीं है।

टेम्पल-टटल की कक्षा लगभग ऐसी है जो पृथ्वी की कक्षा से छेड़छाड़ ज्यादा करती है, जब पृथ्वी पेरीहेलियन(perihelion) के समय इसकी कक्षा के क्षेत्र में दाख़िल होती है तब यह धूमकेतु द्वारा छोड़ा गया सामग्री का फ़ैलाव ज्यादा नहीं होता है। इसका सरल अर्थ है की इसकी कक्षा पृथ्वी के कक्षा से जायदा दूर नहीं है। वैज्ञानिको को लगता है की इस संयोग का मतलब है पेरीहेलियन में धूमकेतु से निकलने वाली धाराएं घनी होती हैं जब वे पृथ्वी का ज्यादा करीब से सामना करते हैं। यह धूमकेतु भी मनमोहक लियोनिड उल्का पात(Leonid meteor shower) का प्रदर्शन कराती है, इस मनोरम दृश्य प्रदर्शन को दिसम्बर के महीने में देखा जाता है।

फिनले(15P/Finlay)

फिनले(15P/Comet-Finlay)

यह भी हमारे सौरमंडल का एक नियमित अंतराल पर दिखने वाला आवधिक धूमकेतु(periodic comet) है। इस कॉमेट की खोज साउथ अफ्रीका स्थित रॉयल ऑब्ज़र्वेट्री में कार्यरत खगोलविद विलियम हेनरी फ़िनले(William Henry Finlay) ने 26 सितंबर 1886 में की थी।इसी साल पहली बार पैराबोलिक कक्षा(parabolic orbit) की गणना की गयी थी, इस गणना से पहले एक भूले हुए धूमकेतु की कक्षा और फिनले की कक्षा को लगभग समान माना जाता था।  उस भूले धूमकेतु का नाम 54P/de Vico-Swift-NEAT था जिसे इटैलियन खगोलविद फ्रांसेस्को डी विको(Francesco de Vico) ने 1844 में खोजा था। कई साल के अवलोकनों के बाद यह निष्कर्ष निकला की डी विको द्वारा भुला धूमकेतु फिनले नहीं है क्योकि दोनों की कक्षाएं समान नहीं है दोनों कक्षाओं में कई विसंगतिया है।

इस धूमकेतु का व्यवहार भी कुछ अजीब सा रहा है इसकी उज्ज्वलता में 1929 के बाद से गिरावट दर्ज की गयी जो 1953 तक लगातार मापी गयी फिर इसकी उज्ज्वलता स्थिर हो गयी। लेकिन 16 दिसम्बर 2014 को इसकी उज्ज्वलता में वृद्धि देखी गयी तब इसकी उज्ज्वलता 11-9 दर्ज की गयी लेकिन 23 दिसम्बर 2014 को इसकी उज्ज्वलता फिर से मंद पड़ गयी थी। अभी तक हम केवल अनुमानित रूप से मानते है की इस धूमकेतु का व्यास लगभग 1.8  किलोमीटर का है लेकिन यह अनिश्चित आंकड़ा है। पृथ्वी कक्षा से इसकी न्यूनतम कक्षा दुरी 930,000 मील की है अनुमानित आंकड़ों के अनुसार 2060 में यह धूमकेतु पृथ्वी से लगभग  3,700,000 मील की दुरी से गुजरेगा। इस धूमकेतु की गति लगभग 6.510 km/s दर्ज की गयी है लेकिन इसकी अधिकतम और न्यूनतम गति सम्बंधित आंकड़े अभी तक अज्ञात है। इसकी उज्ज्वलता में कमी पृथ्वी के लिए अच्छे संकेत नहीं है क्योकि ऐसे परिस्थितियों में इसका सटीक पूर्वानुमान लगाना मुश्किल होता है।

ब्लैनपैन(289P/Blanpain)

ब्लैनपैन(289P/Blanpain)

यह एक छोटे अंतराल(short-period comet) पर पृथ्वी के पास से गुजरने वाला धूमकेतु है, इस धूमकेतु की खोज जीन जैक्विस ब्लैनपैन(Jean-Jacques Blanpain) ने 28 नवम्बर 1819 में की थी। ब्लैनपैन ने इस धूमकेतु को “बहुत छोटा और भ्रमित पिंड” बताया था। इसका परिक्रमण समय केवल 5.18 साल का है। इस धूमकेतु के खोजे जाने के बाद यह कही गायब हो गया था इसलिए इस धूमकेतु को उस समय मृत करार दे दिया गया था लेकिन 2013 में एक नया धूमकेतु खोजा गया जिसे 2003 WY25 नाम दिया गया। पान स्टारर्स(Pan-STARRS) ने कई अवलोकनों के बाद 2013 में अपने आधिकारिक बयान में बताया की यह कोई नया धूमकेतु नहीं है बल्कि यह 289P ही है जो अबतक भुला हुआ था। इतने कम समय पर अपनी परिक्रमा करने के वावजूद इस धूमकेतु के बारे में हमे ज्यादा जानकारी नहीं है। पृथ्वी कक्षा से इसकी न्यूनतम कक्षा दुरी 0.015 AU(2,200,000 km; 1,400,000 mi) की है, अनुमान के अनुसार यह धूमकेतु फिर से दिसम्बर 2019 में और 2025 में पृथ्वी के करीब से गुजरेगा। पृथ्वी से सबसे करीबी दुरी पर इसकी गति 10.282 km/s देखी गयी है लेकिन इसकी अधिकतम और न्यूनतम गति का आंकलन हम अभी तक नहीं लगा पाए है। यह धूमकेतु भी शानदार उल्कापात(Phoenicid meteor stream) का प्रदर्शन करता है जिसे भारत, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, हिंद महासागर, और दक्षिण अफ्रीका में भी देखा जा सकता है लेकिन इस उल्कापात को देख पाना बड़ा दुर्लभ माना जाता है।

लेवी(255P/Levy)

लेवी(255P/Levy)

लेवी जिसे P/2006 T1 और P/2011 Y1 के नाम से भी जाना जाता है यह एक आवधिक धूमकेतु है। इसकी कक्षा ज्यादा बड़ी नहीं है यह केवल 5.25 ~ 5.30 वर्ष में ही अपनी एक परिक्रमा पूरी कर लेता है। इस धूमकेतु की खोज डेविड लेवी(David H Levy) ने 2 अक्टूबर 2006 को की थी।  पिछली बार जब यह सूर्य के काफी करीब आया था 2012 में तब इसकी सापेक्ष उज्ज्वलता 7 मापी गयी थी जबकि 2006 में इसकी सापेक्ष उज्ज्वलता लगभग 9.5 मापी गयी थी। इस धूमकेतु की गति अवलोकन के समय 13.684 km/s की मापी गयी है लेकिन इसकी अधिकतम और न्यूनतम गति सम्बंधित आंकड़े अभी मौजूद नहीं है।

2012 में इसकी उपस्थिति सूर्य के पास होने पर पृथ्वी से इसकी दुरी 0.2359 AU(35,290,000 km; 21,930,000 mi) के आसपास मापी गयी थी जबकि 2017 में जब यह सूर्य के पास आया तो इसकी दुरी पृथ्वी से थोड़ी कम मापी गयी थी। वैसे अवलोकनों के आधार पर यह माना गया की पृथ्वी कक्षा से इसकी न्यूनतम कक्षा दुरी 0.025 AU(3,700,000 km; 2,300,000 mi) के लगभग की रही है। इस धूमकेतु को भी संभावित रूप से खतरनाक धूमकेतु(Potentially hazardous comets) की श्रेणी में रखा गया है क्योकि यह एक शांत धूमकेतु है जो अपने आने का कोई आहट नहीं देता न ही कोई पद-चिन्ह छोड़ता है।

बर्नार्ड-बॉयटिनी(206P/Barnard–Boattini)

बर्नार्ड-बॉयटिनी(206P/Barnard–Boattini)

बर्नार्ड-बॉयटिनी पहला धूमकेतु था जिसे फोटोग्राफिक(photographic) तकनीक की मदद से खोजा गया था। अमेरीकन खगोलविज्ञानी एडवर्ड एमर्सन बर्नार्ड(Edward Emerson Barnard) ने 13 अक्टूबर 1882 को रात्रि में फोटोग्राफी करते इस धूमकेतु को खोजा था। खोजा जाने के बाद यह फिर से लुप्त हो गया थी जिसे बाद में देखे जाने पर इसे D/1892 T1 नाम से नामांकित किया गया फिर लंबे अंतराल तक यह धूमकेतु नजरों से ओझल बना रहा लेकिन आखिरकार 2008 में यह धूमकेतु एंड्रिय बॉयटिनी(Andrea Boattini) द्वारा फिर से देखा गया तब से इस धूमकेतु को बर्नार्ड-बॉयटिनी के नाम से जाना जाता है।

21 अक्टूबर 2008 को यह धूमकेतु पृथ्वी से करीब 0.1904 AU(28,480,000 km; 17,700,000 mi) की दुरी से गुजरा। इस धूमकेतु की भी गति सम्बंधित आंकड़े पूरी तरह से निश्चित नहीं है अवलोकन के अनुसार इसकी गति लगभग 8.882 km/s की है। यह बहुत ही फीका दिखने वाला धूमकेतु है इसलिए 2014 में इसे नहीं देखा जा सका। यह धूमकेतु वापस मार्च 2021 में फिर से पृथ्वी के पास से गुजरने वाला है लेकिन देखे जाने की संभावना फ़िलहाल अनिश्चित है इस धूमकेतु सूर्य का एक चक्क्र लगभग 6.51 जूलियन वर्ष में पूरी करता है इसलिए इस धूमकेतु को एक आवधिक धूमकेतु कहा जाता है।

धूमकेतु जिओकोबिनी-जेनर(Comet Giacobini–Zinner)

धूमकेतु जिओकोबिनी-जेनर(Comet Giacobini–Zinner)

 इसे आधिकारिक रूप से 21P/Giacobini–Zinner के नाम से भी जाना जाता है। यह हमारे सौरमंडल का एक नियमित अंतराल पर दिखने वाला आवधिक धूमकेतु(periodic comet) है। इसका परिक्रमण काल लगभग 6.621 जूलियन वर्ष का है। इस कॉमेट की खोज फ्रेंच खगोलविद मिचेल जिओकोबिनी(Michel Giacobini) और जर्मन खगोलविद अर्नेस्ट जेनर(Ernst Zinner) ने संयुक्त रूप से 20 दिसम्बर 1900 में की थी। यह एक उज्जवल धूमकेतु है इसे 1946 में सबसे उज्जवल रूप में देखा जा चूका है उस समय इसकी सापेक्ष उज्ज्वलता 5 मापी गयी थी जबकि कुछ अवलोकनों में इसकी उज्ज्वलता 8 मापी गयी है। सूर्य के करीब मापी गयी इसकी गति लगभग 29.250 km/s की है लेकिन यह इसकी अधिकतम गति हो ऐसा अभी तक नहीं माना जा सकता है।

इस धूमकेतु का केंद्र लगभग 2 किलोमीटर के व्यास का है पृथ्वी कक्ष से इसकी कक्षीय दुरी लगभग 0.035 AU(5,200,000 km; 3,300,000 mi) दर्ज की गयी है। इंटरनेशनल कोमेट्री एक्सप्लोरर(International Cometary Explorer) यान इस धूमकेतु के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए इसके पुछ के करीब से गुजरा था और उनसे इस धूमकेतु के विषय में महत्वपूर्ण जानकारियां हासिल की थी। जापानी मानव रहित प्रोब भी इस धूमकेतु के बारे में जानने के लिए 1998 में तैयारी की थी लेकिन ईंधन की कमी के कारण उसे इस अभियान को बंद करना पड़ा।

स्क़्वासमान-वाचमान(73P/Schwassmann–Wachmann)

स्क़्वासमान-वाचमान(73P/Schwassmann–Wachmann)

 जर्मन खगोलविद अर्नाल्ड स्क़्वासमान(Arnold Schwassmann) और अर्नो वाचमान(Arno Arthur Wachmann) द्वारा इस धूमकेतु की खोज 2 मई 1930 में हुई थी। यह एक नियमित अवधि में अपनी परिक्रमा पूरी करने वाला धूमकेतु है। यह अपनी एक परिक्रमा 5.36 साल में पूरा करता है और अब इसकी कक्षा को अच्छी तरह से निर्धारित किया जा चूका है। 2006 में जब यह सूर्य के बेहद करीब आ गया था तब सूर्य की गर्मी से इसका बहरी आवरण जो शायद बहुत ठंडा बर्फीला होगा इस धूमकेतु से टूटकर अंतरिक्ष में फ़ैल गया था। इस घटना से इस धूमकेतु की सापेक्ष चमक में कमी आयी लेकिन इसकी स्पस्ट संरचना का भी पता चला। फिर से जब 2011 में जब यह धूमकेतु सूर्य के करीब आया था तब इसकी सापेक्ष उज्ज्वलता 21.3 मापी गई थी। वैज्ञानिको के अनुसार यह धूमकेतु भी कई बार नजरों से ओझल होकर खो चूका है और वापस देखा भी गया है।

इस धूमकेतु के केंद्र का व्यास 1100 मीटर का है, पृथ्वी की कक्षा से इसकी कक्षीय दुरी लगभग 0.04 AU(6,000,000 km; 3,700,000 mi) की है। इस धूमकेतु की गति अवलोकन के समय 12.516 km/s की मापी गयी है लेकिन इसकी अधिकतम और न्यूनतम गति सम्बंधित आंकड़े अभी मौजूद नहीं है। धूमकेतु 73 पी शानदार उल्का शॉवर टाऊ हरक्यूलिड्स(Tau Herculids) का मूल जन्मदाता है इस उल्का पात को मई जून के महीने में देखा जा सकता है।

खगोलविज्ञानी लंबे समय से पृथ्वी के पास भटकने वाले और पृथ्वी के लिए संभावित खतरा उतपन्न करने वाले इन धूमकेतुओ को देख रहे है लेकिन संभव है कुछ धूमकेतु ऐसे भी हो सकते है जो अबतक हमारी नजरों से दूर हो। इन धूमकेतुओ पर लगातार नजर रखना बड़ा मुश्किल काम है क्योकि इनका आकार छोटा होता है इसलिए ये प्रकाश की बेहद कम मात्रा को ही प्रतिबिंबित कर पाते है। अवलोकनों से हमे पता चलता है की सूर्य के करीब आने पर ही हम इन धूमकेतुओं को देख पाते है। वैज्ञानिक काफी पहले इन धूमकेतुओं की कक्षा को स्थिर माना करते थे लेकिन आधुनिक अनुसंधान और धूमकेतुओं के व्यवहार से अब हम जानते है की इन धूमकेतुओं की कक्षा ज्यादा स्थिर नहीं है और कई आधुनिक शोध पत्रों में मुख्य रूप से उल्लेख किया गया है की धूमकेतुओं की कक्षा को सटीक मानना मानव की बड़ी भूल साबित हो सकती है। वैज्ञानिको ने 1908 में साइबेरिया में घटित तुंगुस्का घटना(Tunguska event) और चेल्याबिंस्क उल्का गिरने(Chelyabinsk meteor event) जैसी बड़ी घटनाओं को देखा है। जुलाई 2004 में वृहस्पति के साथ धूमकेतु शूमेकर-लेवी 9(Comet Shoemaker–Levy 9) की टक्क्र ने मानव जाति को दिखा दिया की धूमकेतु कितने घातक सिद्ध हो सकते है। अब वैज्ञानिक और खगोलविद नए उन्नत दूरबीनों और उपकरणों से सभी संभावित खतरनाक धूमकेतुओं पर लगातार नजर बनाये रखने की कोशिश में प्रयासरत है। वैसे पृथ्वी को खतरा केवल धूमकेतुओं से ही नहीं बल्कि क्षुद्रग्रहों से भी है आंकड़ों के अनुसार 20 से ज्यादा क्षुद्रग्रह संभावित रूप से पृथ्वी के लिए खतरनाक क्षुद्रग्रहों की श्रेणी में आते है।

अगले भाग में हम इन्ही संभावित रूप से खतरनाक क्षुद्रग्रहों की चर्चा करेंगे..

स्रोत:  NASA JPL. Wikipedia. Seiichi Yoshida(Comet@aerith.net) and Sky.org.

 

 

 

 

 

पृथ्वी के बाहर किसी अन्य ग्रह पर बसने की बेताबी

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“हमारी पृथ्वी ही वह ज्ञात विश्व है जहाँ जीवन है। आनेवाले समय में भी कहीं ऐसा कुछ नहीं दिखता जहाँ हम प्रस्थान कर सकें। जा भी सकें तो बस न सकेंगे। मानें या न मानें, इस क्षण तो पृथ्वी ही वह स्थान है जहाँ हम अटल रह सकते हैं।”

carl-sagan

कार्ल सागन

प्रसिद्ध खगोल वैज्ञानिक कार्ल सागन का यह कथन शनि ग्रह के समीप से 1990 मे वायेजर अंतरिक्ष यान द्वारा ली गई पृथ्वी की विश्वप्रसिद्ध तस्वीर “पेल ब्ल्यु डाट” के संदर्भ मे था। 1990 से लेकर अब तक अंतरिक्ष विज्ञान  मे क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। क्या कार्ल सागन का यह कथन आज भी प्रासंगिक है? क्या हम पृथ्वी के बाहर किसी अन्य ग्रह पर जा सकते है ? क्या मानवता का अस्तित्व पृथ्वी के बाहर संभव है ?

मानवता का कुछ लाख वर्ष का इतिहास है लेकिन मानव पहली बार पृथ्वी के बाहर कदम पिछली सदी मे ही रखा है, यह क्षण 12 अप्रैल 1961 को आया था जब रूसी अंतरिक्ष यात्री युरी गागारीन अंतरिक्ष मे पहुंचे थे। मानवता की इस यात्रा का दूसरा पड़ाव 10 जुलाई 1969 को  आया था, जब नील आर्मस्ट्रांग ने चंद्रमा कदम पर रखे थे। उन्होने चंद्रमा की सतह पर कदम रखते हुये कहा था कि “एक मानव का एक छोटा कदम, मानवता के लिये एक बड़ी छलांग है। (दैट्स वन स्माल स्टेप ऑफ़ [अ] मैन, वन जायंट लीप फॉर मैनकाइंड)”। यह अंतरिक्ष युग का आरंभ था,  इसके बाद हमारे कई अंतरिक्ष यान अंतरिक्ष की गहराईयों मे थाह लेने भेजे गये है, जिसमे से वायेजर युग्म यान तो सौर मंडल के बाहर जा चुके है।

"एक मानव का एक छोटा कदम, मानवता के लिये एक बड़ी छलांग है। (दैट्स वन स्माल स्टेप ऑफ़ [अ] मैन, वन जायंट लीप फॉर मैनकाइंड)"

“एक मानव का एक छोटा कदम, मानवता के लिये एक बड़ी छलांग है। (दैट्स वन स्माल स्टेप ऑफ़ [अ] मैन, वन जायंट लीप फॉर मैनकाइंड)”

पिछले कुछ दशको मे हमारा अंतरिक्ष का ज्ञान पहले से कई गुणा बेहतर हुआ है। 1992 तक सूर्य के  आठ ग्रहों को ही जानते थे। 1992 मे पहली बार हमने सौर मंडल के बाहर किसी अन्य तारे की परिक्रमा करते एक ग्रह को खोजा था। इस खोज के पश्चात आज हम सौर मंडल के बाहर 3800 से अधिक ग्रहों को खोज चुके है। इसका अर्थ यह है कि मानवता को पृथ्वी से बाहर बसने के विकल्प पहले की तुलना मे अधिक है।

इसके दूसरी ओर अंतरिक्ष अध्ययन की दिशा मे कई परिवर्तन आये है। अब तक अंतरिक्ष अण्वेषन का कार्य सरकारी अंतरिक्ष संस्थानो के ही हाथो मे था, जिसमे अमरीकी संस्थान नासा, युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी, भारतीय अंतरिक्ष संस्थान इसरो, चीनी अंतरिक्ष संस्थान और जापानी अंतरिक्ष संस्थान है। पिछ्ले कुछ समय से कुछ निजी अंतरिक्ष संस्थान भी अंतरिक्ष अण्वेषण मे सामने आये है जिसमे एलन मस्क के नेतृत्व मे स्पेसएक्स प्रमुख है। स्पेसएक्स अंतरिक्ष संस्थान का जन्म ही मंगल पर मानव पर मानव कालोनी की स्थापना के उद्देश्य से हुआ है।

मानव पृथ्वी से बाहर जाने इतना बेताब क्यों है ? इस प्रश्न का उत्तर मानवता, पृथ्वी के इतिहास और मानव प्रवृत्ति से जुडा हुआ है। मानव ऐतिहासिक रूप से अपनी निवास स्थान से बाहर के स्थानो की यात्रा, और उन स्थानो पर अपनी कालोनिया बसाता आ रहा है। अब जब मानव पृथ्वी के चप्पे चप्पे पर पहुंच चुका है तो अगला पड़ाव निसंदेह ही पृथ्वी के बाहर के ग्रह है। वर्तमान मे इन यात्राओं का लक्ष्य सौर मंडल ही है और इनमे प्रमुख है हमारा चंद्रमा, पड़ोसी मंगल ग्रह, बृहस्पति का चंद्रमा युरोपा, शनि का चंद्रमा एन्सलेडस।

सौर मंडल मे जल

सौर मंडल मे जल

हमारी अब तक की जानकारी के अनुसार द्रव जल जीवन के लिये आवश्यक है, इसके बिना जीवन संभव नही है।  इसलिये मानव अंतरिक्ष अण्वेषण मे सबसे पहले जल खोजता है। अब तक चंद्रमा, मंगल, युरोपा और एन्सलेडस पर जल की उपस्थिति के प्रमाण मिल चुके है, जिसमे युरोपा और एन्सलेडस पर जल द्रव रूप मे उपस्थित है, जबकी चंद्रमा पर जल हिम के रूप मे उपस्थित है। मंगल पर जल के हिम रूप मे होने के ठोस प्रमाण है लेकिन द्र्व रूप मे उपस्तिथि के अस्पष्ट प्रमाण है। जीवन की दूसरी आवश्यकता ऐसे वातावरण की उपस्थिति है जिसमे मानव बिना अंतरिक्ष सूट के विचरण कर सके। दुर्भाग्य से सौर मंडल मे पृथ्वी के अतिरिक्त किसी भी अन्य ग्रह पर ऐसा वातावरण नही है। बुध ग्रह पर वातावरण ही नही है, शुक्र का वातावरण अत्यंत घना है, बृहस्पति, शनि , युरेनस , नेपच्युन पर वातावरण है लेकिन ठोस धरातल नही है। चंद्रमाओ मे युरोपा और एन्सलेडस पर भी वातावरण नही है। शेष रह जाता है मंगल जिस पर वातावरण है लेकिन विरल है, आक्सीजन की उपस्थिति है लेकिन कार्बन डाय आक्साइड जानलेवा है, इसके अतिरिक्त चुंबकीय क्षेत्र की अनुपस्थिति के कारण घातक रूप से सौर विकिरण की उपस्थिति है। इसका अर्थ यही है कि पृथ्वी से बाहर सौर मंडल मे जीवन आसान नही है।

आपने पिछले कुछ वर्षो मे अखबारो मे पढ़ा होगा, टीवी पर देखा होगा कि मंगल ग्रह पर बसने के लिये कुछ उम्मीदवारो का चयन किया गया है और वे मंगल ग्रह पर बसने के उद्देश्य से एकतरफ़ा यात्रा के लिये निकट भविष्य मे रवाना होने वाले है। तो वे यात्री मंगल ग्रह पर जीवन कैसे गुजारेंगे ?

कांच के गुंबदो के अंदर जीवन

कांच के गुंबदो के अंदर जीवन

इस चुनौति से निपटने के लिये वैज्ञानिको ने दो उपाय सोच रखे है। एक उपाय है मंगल ग्रह कांच के बड़े बड़े गोल गुंबदो का निर्माण, जिसके अंदर एक ऐसा वातावरण बनाया जाये जिसमे मानव बिना अंतरिक्ष सूट के पृथ्वी के जैसे जीवन बीता सके। इसके लिये इस गुंबद के अंदर पृथ्वी के जैसे वायुमंडलीय दबाव, गैसो का मिश्रण का निर्माण करना होगा, इस वातावरण मे 20% आक्सीजन, 78% नाईट्रोजन , 0.04% कार्बन डायाआक्साईड , अल्प मात्रा मे जल नमी तथा शेष अन्य गैसे होंगी। इस गुंबद मे जल स्रोत और आवासीय इमारतो का निर्माण होगा। कृषि तथा अन्य खाद्य सामग्री का उत्पादन की सुविधा होगी। लेकिन इस तरह के बड़े पैमाने के निर्माण की व्यवस्था करनी कठीन होगी और उसमे समय लगेगा। तब तक मंगल पर आरंभीक मानव बस्तिया कालोनी छोटे सीलेंडर नुमा संरचनाओ के रूप मे ही होंगी, जिसमे अधिकतम कुछ लोग ही रह पायेंगे, एक सिलेंडर से दूसरे सिलेंडर मे जाने के लिये उन्हे अंतरिक्ष सूट पहनने होंगे।

मंगल की टेराफ़ार्मिंग

मंगल की टेराफ़ार्मिंग

मंगल या किसी अन्य ग्रह पर बसने का दूसरा उपाय टेराफ़ार्मिंग है।  इस उपाय मे किसी ग्रह को संपूर्ण रूप से ट्रासफ़ोर्म किया जायेगा और उसे कृत्रिम रूप से पृथ्वी के जैसे बनाया जायेगा। अर्थात उस ग्रह पर पृथ्वी के जैसे वायुमंडल का निर्माण, चुंबकीय क्षेत्र का निर्माण, सागरो , झीलो, नदीयो और जंगलो का निर्माण किया जायेगा, साथ ही पृथ्वी के जैसे मौसम बनाना होगा, जिसमे बरसात, बर्फ़बारी, ग्रीष्म , शीत का समावेश होगा। लेकिन यह एक बहुत दूर की सोच है और अभी हमारा विज्ञान उस स्तर तक नही पहुंचा है लेकिन शायद अगली एक सदी मे यह संभव होगा।

अंतरिक्ष यात्राओं मे सबसे बड़ी चुनौति यात्रा मे लगने वाले समय की होती है। हमारे तेज से तेज यान को अपने पड़ोस के मंगल ग्रह तक पहुंचने मे नौ से दस महिने लग जाते है। वायेजर को सौरमंडल से बाहर जाने मे चार दशक लग गये। सौर मंडल के बाहर तो तारों के मध्य दूरी अत्याधिक होती है। सूर्य के सबसे निकट का तारा प्राक्सीमा सेंटारी 4 प्रकाश वर्ष दूर है, उससे प्रकाश को भी हम तक पहुँचने मे 4 वर्ष लगते है। प्रकाश की गति अत्याधिक है, वह एक सेकंड मे लगभग तीन लाख किमी की यात्रा करता है। तुलना के लिये सूर्य से पृथ्वी तक प्रकाश पहुँचने केवल आठ मिनट लगते है। कई प्रकाश वर्ष की दूरी तय करने के लिये इतनी दूरी तक यात्रा करने मे वर्तमान के हमारे सबसे तेज राकेट को भी सैकड़ों वर्ष लगेंगे।

अंतरखगोलीय यात्राओं के लिये विशाल यान

अंतरखगोलीय यात्राओं के लिये विशाल यान

ऐसी लंबी यात्रा मे ढेर सारी अड़चने है, जिसमे कई वर्षो की इतनी लंबी यात्रा मानव या किसी भी अन्य बुद्धिमान जीव के लिये आसान नही होगी। यात्रा मे लगने वाले यान के निर्माण मे ढेर सारी प्रायोगिक मुश्किले आयेंगी, जैसे इस यान मे इस लंबी यात्रा के लिये राशन, पानी, कपड़े तथा ऊर्जा का इंतज़ाम करना होगा। यान मे कई वर्षो की भोजन सामग्री ले जाना संभव नही होगा, ऐसी स्थिति मे यान मे ही कृषि, पेड़, पौधे उगाने की व्यवस्था करनी होगी। विशाल यान के संचालन तथा यात्रीयों के प्रयोग के ऊर्जा के निर्माण के लिये बिजली संयत्र का निर्माण करना होगा। यान मे वायु से विषैली गैस जैसे कार्बन डाय आक्साईड को छान कर आक्सीजन के उत्पादन के लिये संयत्र चाहीये होंगे। प्रयोग किये गये जल के पुनप्रयोग के लिये संयत्र, उत्पन्न कचरे के पुनप्रयोग के लिये संयत्र चाहिये होंगे। इन सभी संयंत्रो के यान मे लगाने पर वह किसी छोटे शहर के आकार का हो जायेगा। इतना बड़ा यान पृथ्वी या ग्रह पर निर्माण कर अंतरिक्ष मे भेजना भी आसान नही है, इस आकार के यान का निर्माण भी अंतरिक्ष मे ही करना होगा।

इतने विशाल यान का निर्माण हो भी जाये तो इस यान के अंतरिक्ष यात्रीयों को मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार करना होगा। यान के अंतरिक्षयात्रीयों के दल मे हर क्षेत्र से विशेषज्ञ चूनने होगे जिसमे इंजीनियर, खगोलशास्त्री, चिकित्सक इत्यादि प्रमुख होंगे। यदि यात्रा समय 30-40 वर्ष से अधिक हो तो इन यात्रीयों मे स्त्री-पुरुष जोड़ो को भेजना होगा जिससे इतनी लंबी यात्रा मे  यात्रीयों की नयी पिढी तैयार हो और वह इस यात्रा को आगे बढ़ाये। इस अवस्था मे यान मे पाठशाला और शिक्षक भी चाहीये होंगे।

समय संकुचन (Time Dilation)

समय संकुचन (Time Dilation)

लंबी यात्रा की इन सब परेशानीयो को देखते हुये यह स्पष्ट है कि पारंपरिक तरिके के यानो से अन्य तारामंडलो की यात्रा अत्याधिक कठीन और चुनौति भरी है। इस कठीनाई का भी हल है प्रकाशगति या उससे तेज गति के यानो का निर्माण। ध्यान रहे कि प्रकाशगति से तेज चलने वाले यान भी सबसे निकट के तारे से आवागमन मे कम से कम 8 वर्ष लेंगे, जबकि अंतरिक्ष मे दूरीयाँ सैकड़ो, हजारो या लाखो प्रकाशवर्ष मे होती है। प्रकाशगति से तेज यात्रा मे सबसे बड़ी परेशानी यह है कि वैज्ञानिक नियमो के अनुसार प्रकाश गति से या उससे तेज यात्रा संभव नही है। यह आइंस्टाइन के सापेक्षतावाद के सिद्धांत का उल्लंघन है जिसके अनुसार प्रकाशगति किसी भी कण की अधिकतम सीमा है। कोई भी वस्तु जो अपना द्रव्यमान रखती है वह प्रकाशगति प्राप्त नही कर सकती है; उसे प्रकाशगति प्राप्त करने के लिये अनंत ऊर्जा चाहिये जोकि संभव नही है। मान लेते है कि किसी तरह से सापेक्षतावाद के इस नियम का तोड़ निकाल लिया गया और प्रकाश गति से यात्रा करने वाला यान बना भी लिया गया। इस अवस्था मे समय विस्तार (Time Dilation) वाली समस्या आयेगी। हम जानते है कि समय कि गति सर्वत्र समान नही होती है, प्रकाशगति पर या अत्याधिक गुरुत्वाकर्षण वाले क्षेत्रो मे प्रकाशगति धीमी हो जाती है। यदि कोई याम प्रकाश गति  से चलता है तो उस यान मे समय की गति धीमी हो जायेगी, जबकि पृथ्वी/एलीयन ग्रह पर समय की गति सामान्य ही रहेगी। प्रकाश गति से चलने वाला यान को पृथ्वी से प्राक्सीमा सेंटारी तक पहुँचने मे 4 वर्ष ही लगेंगे लेकिन तब तक पृथ्वी पर कई सदियाँ बीत जायेंगी।

यह तय है कि मानव का पृथ्वी से बाहर किसी अन्य ग्रह पर बसना आसान नही है लेकिन ऐसी क्या चुनौतियाँ है कि मानव पृथ्वी से बाहर किसी अन्य ग्रह पर बसने की सोच रहा है?

बीसवी सदी  के आरंभ मे मानव जनसंख्या 1.5 अरब थी। वर्तमान मे मानव जनसंख्या साढे सात अरब है। बढ़ती जनसंख्यासे पृथ्वी के संसाधनो पर प्रभाव पड़ रहा है। पृथ्वी पर उपलब्ध संसाधन सिमीत है, वे एक क्षमता तक ही जनसंख्या का बोझ सह सकते है। कुछ समय बाद ऐसा समय आना तय है कि पृथ्वी पर खाद्यान, पीने योग्य जल की कमी हो जायेगी। बढ़ती जनसंख्या से अन्य समस्याये भी बढ़ रही है। अधिक जनसंख्या के लिये रहने के लिये  अधिक जगह चाहिये, जिससे वनो की कटाई हो रही है। बढती जनसंख्या और अधिक सुख सुविधाओं के लिये अधिक ऊर्जा चाहिये और वर्तमान मे हम ऊर्जा के लिये हम जीवाश्म इंधन जैसे पेट्रोल, कोयले पर निर्भर है। इन इंधनो के ज्वलन से प्रदुषण बढ़ रहा है, पृथ्वी हर वर्ष अधिक गर्म होते जा रही है। इसे ही ग्लोबल वार्मींग कहते है जिसके प्रभाव मे ध्रुवो पर, ग्लेशियरो की बर्फ़ पिघल रही है, सागर का जल स्तर बढ़ रहा है। इन सब कारको से जलवायु  मे सतत परिवर्तन आ रहे है, कहीं बाढ़, कहीं सूखा पड़ रहा है, बेमौसम बरसात, चक्रवात, तूफ़ान आ रहे है। यदि इस गति से पर्यावरण नष्ट होता रहा तो हमे निकट भविष्य मे ही रहने के लिये कोई अन्य ग्रह खोजना होगा।

दूसरा महत्वपूर्ण कारण है पृथ्वी पर जीवन को अंतरिक्ष से मिलने वाली चुनौति, जैसे कोई आवारा क्षुद्रग्रह, धूमकेतु का पृथ्वी से टकराव। पृथ्वी पर इस तरह के उल्का पिंडो से टकराव होते रहते है। इसी तरह की एक और घटना मे 6.5 करोड़ वर्ष पहले एक विशाल उल्का पिंड या क्षुद्रग्रह पृथ्वी से टकराया था। यह टक्कर इतनी भयावह थी कि पृथ्वी पर उपस्थित अधिकांश जीवन समाप्त हो गया था।  ऐसी परिस्थितियों से बचने के लिये आवश्यक है कि मानव के पास रहने के लिये कम से कम एक और वैकल्पिक ग्रह हो।

हालीवुड फ़िल्म इंटरस्टेलर का एक संवाद है

 “मानव जाति ने पृथ्वी पर जन्म तो लिया है लेकिन मानवता का भविष्य पृथ्वी पर समाप्त होना नही है। “

कादंबिनी जून 2018 मे प्रकाशित



खगोल सॉफ्टवेयर : ब्रह्मांड का आभासी अन्वेषण

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खगोल शास्त् अथवा खगोलविज्ञान(Astronomy) विज्ञान की वह शाखा है जिसमें आकाशीय पिण्डों, उनकी गतियों और अंतरिक्ष में मौजूद विविध प्रकार की चीजों की खोज और उनका अध्ययन किया जाता है। खगोलविज्ञान दुनिया का सबसे लुभावना और सबसे पुराना विज्ञान है, वास्तव में यह ब्रह्मांड का वह विज्ञान है, जिसमें सूर्य, ग्रहों, सितारों, उल्काओं, पिण्डों, नक्षत्रों, आकाश गंगाओं तथा उपग्रहों की गति, प्रकृति, नियम, संगठन, इतिहास तथा भविष्य में संभावित विकासों का विस्तृत अध्ययन किया जाता है।

भौतिकशास्त्र का एक अहम हिस्सा माने जाने वाले खगोल विज्ञान को कई शाखाओं में वर्गीकृत किया गया है, जिनमें प्रमुख हैं।

  • एस्ट्रोफिजिक्स(Astrophysics)
  • एस्ट्र्रोमेटेओरोलॉजी(Astrometeorology)
  • एस्ट्र्रोबायोलॉजी(Astrobiology)
  • एस्ट्र्रोजियोलॉजी(Astrogiology)
  • एस्ट्र्रोमेट्री(Astrometry)
  • कास्मोलॉजी(Cosmology)

ये सभी शाखाएँ मिलकर ब्रह्मांड के रहस्यों को उजागर करने में मदद करती हैं। यह विज्ञान की ऐसी शाखा है जिसमें अतिउन्नत तकनीक का उपयोग किया जाता है, चाहें सूर्य, ग्रहों, सितारों, उल्काओं, पिण्डों, नक्षत्रों, आकाशगंगाओं का अध्ययन हो या उस अध्ययन को प्रस्तुत करना हो।

सिमुलेशन(Simulation): एक ऐसी ही तकनीक है जिसका उपयोग खगोलविज्ञान के अध्ययन को प्रस्तुत करने में किया जाता है। शाब्दिक रूप से, किसी वास्तविक चीज, प्रक्रम या कार्यकलाप का किसी अन्य विधि से अनुकरण करना सिमुलेशन कहलाता है। सिमुलेशन का कार्य कम्प्यूटरों के द्वारा किया जाता है। वर्तमान समय में प्रौद्योगिकी, प्राकृतिक विज्ञानों, सामाजिक विज्ञानों एवं अन्यान्य क्षेत्रों में कम्प्यूटरी सिमुलेशन महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं। सिद्धान्त एवं प्रयोग के अलावा कम्प्यूटरी सिमुलेशन भी विज्ञान में शोध की एक अपरिहार्य विधि बन गयी है। यदि आपको भी खगोलविज्ञान में रूचि है और आप कंप्यूटर का उपयोग करते हो तो आप भी सिम्युलेटर सॉफ्टवेयर का उपयोग कर सकते है। कंप्यूटर सिमुलेशन सॉफ्टवेयर(computer simulation software) छोटे बच्चों को भी अपनी ओर आकर्षित कर सकते है और खगोलविज्ञान में उनकी दिलचस्पी को बढ़ा सकते है।

यहां हम उन सिम्युलेटर सॉफ्टवेयर का उल्लेख कर रहे है जो न केवल लुभावने है बल्कि आपके और आपके बच्चों के ज्ञान को भी बढ़ायेंगे। ये वे अंतरिक्ष सिमुलेटर है जो आपको परत्यक्ष ब्रह्मांड का अन्वेषण करने की अनुमति देते है।

स्पेस इंजन(Space Engine)

स्पेस इंजन

यह उत्कृष्ट सिमुलेशन आपको विंडोज पीसी पर ब्रह्मांड को बेहतर तरीके से देखने और समझने की अनुमति देता है। आप इस सिम्युलेटर को विंडो कंप्यूटर पर डाउनलोड और रन करने के लिए स्वतंत्र है। यह तारों, ग्रहों, सूर्य समेत पृथ्वी से दूरस्थ आकाशगंगाओं तक, ब्रह्मांड को फिर से बनाने के लिए वास्तविक खगोलीय डेटा का उपयोग करता है। किसी खगोलीय अवलोकन में जहां डेटा की कमी है, वहां यह कार्यक्रम स्टार सिस्टम और ग्रहों को प्रक्रियात्मक रूप से उत्पन्न आंकड़ो का उपयोग करता है। स्पेस इंजन वास्तव में बेहतरीन सिम्युलेटर है जो बड़े पैमाने पर आपको अंतरिक्ष की सैर करा सकता है। हमें विश्वास है यह अंतरिक्षीय अन्वेषण आपके लिए संतोषजनक और प्रेरणादायक होगा। अधिकृत वेबसाइट पर जाने के लिए यहाँ Space Engine क्लिक करें।

 

यूनिवर्स सैंडबॉक्स(Universe Sandbox)

यूनिवर्स सैंडबॉक्स

यह भी विंडोज कंप्यूटर के लिए निर्मित लेकिन अब सभी ऑपरेटिंग सिस्टम में कार्यरत शानदार अंतरिक्ष सिम्युलेटर है। कोई भी भौतिक विज्ञानी आपको बताता है की ब्रह्मांड में सबसे महत्वपूर्ण बल गुरुत्वाकर्षण है। यह सिम्युलेटर आपको सटीक न्यूटनियन भौतिकी का उपयोग करके सिमुलेशन निर्मित करता है साथ ही आपको न्यूटनियन भौतिकी के साथ बदलाव करने का अवसर भी देता है। बृहस्पति के बगल में आप एक ब्लैक होल निर्मित कर सकते है और अपने सौर मंडल को भी निगल सकते है। आप चंद्रमा को उड़ा सकते है और हर किसी पिंड को बर्बाद भी कर सकते है। गुरुत्वाकर्षण को स्थिर कर दो आकाशगंगाओं को एक दूसरे की तरफ झुका सकते है।यूनिवर्स सैंडबॉक्स आपको मैक्रो स्तर पर अपने ब्रह्मांडीय प्रयोगों को देखने का वेहतर विकल्प देता है। वैसे आप इस सिम्युलेटर का उपयोग ज्ञान अर्जित करने के लिए करें, खगोलीय विध्वंसो के लिए नहीं। अपने सिस्टम पर इस सॉफ्टवेयर को स्थापित करने या अधिकृत वेबसाइट पर जाने के लिए यहाँ Universe Sandbox क्लिक करें।

ऑर्बिटर 2016(Orbiter 2016)

ऑर्बिटर 2016

ऑर्बिटर पूरे ब्रह्मांड को फिर से बनाने के बजाय अंतरिक्ष उड़ान के यांत्रिकी पर केंद्रित है। आप अपना नासा अंतरिक्ष यान लॉन्च करें या अपना खुद का निर्माण करें और अनुकरण करें कि यह पृथ्वी के वायुमंडल को छोड़ने और सौर मंडल की कितनी दूर तक पहुंचने के लिए आप पसंद करते है। आप किसी भी ग्रह को या अंतरिक्ष स्टेशनों को देख सकते है और आप किसी भी ग्रह की सतह पर अंतरिक्ष स्टेशनों, उपग्रहों और लॉन्चिंग पैड तैनात कर सकते हैं। स्पेस इंजन की तरह, यह एक गैर-वाणिज्यिक परियोजना है, और इस प्रकार आप  विंडोज पीसी पर डाउनलोड और चलाने के लिए स्वतंत्र है। अपने विंडो सिस्टम पर इस सॉफ्टवेयर Orbiter 2016 को स्थापित करने के लिए इसके अधिकृत वेबसाइट पर जा सकते है।

सौर प्रणाली: अन्वेषण(The Solar System: Explore)

सौर प्रणाली: अन्वेषण

एक पूर्ण अंतरिक्ष सिमुलेशन की तुलना में यह एक डिजिटल तारामंडल है। यह सौर मंडल से जुड़े सभी जानकारिया और शैक्षणिक विवरण प्रदान करता है। यह एक खगोलीय सटीक प्रतिपादन उत्पन्न करने के लिए अवास्तविक गेम इंजन का उपयोग करता है। आप इस सिम्युलेटर के माध्यम से अपने सौर मंडल के जन्म और विकास को भलीभांति समझ सकते है। आपको पृथ्वी पर हर देश की जानकारी और उनकी सीमाएं की जानकारी भी देता है साथ ही 88 नक्षत्रों का प्रतिनिधित्व भी यह सिम्युलेटर करता है। अपने कंप्यूटर पर इस सिमुलेशन सॉफ्टवेयर को डाउनलोड करने के लिए यहाँ The Solar System: Explore Your Backyard क्लिक करें।

सेलेस्टीआ(Celestia)

सेलेस्टीआ

स्पेस सिमुलेशन फ्रंटियर के एक अनुभवी सॉफ्टवेयर के रूप में इसे देखा जाता है। सेलेस्टिया को मूल रूप से 2001 में रिलीज़ किया गया था और वैज्ञानिक रूप से सटीक, खुले ब्रह्मांड की खोज के लिए कई बार सेट किया गया है। आप इसके कैटलॉग में 118,322 सितारों में से किसी भी दिव्य निकायों के बीच पहुंच सकते हैं। यह एक ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर है जिसे किसी भी ऑपरेटिंग सिस्टम पर चलाया जा सकता है। आप प्रति सेकंड लाखों प्रकाश वर्ष तक की रफ्तार से अंतरिक्षीय यात्रा सिमुलेट कर सकते हैं। इस ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर को अपने कंप्यूटर पर स्थापित करने के लिए यहाँ Celestia क्लिक करें।

वर्ल्डवाइड टेलिस्कोप(WorldWide Telescope)

वर्ल्डवाइड टेलिस्कोप

वर्ल्डवाइड टेलीस्कोप वास्तव में एक खगोलीय नक्शा है जो 3 डी वातावरण पर ब्रह्मांड की वास्तविक छवियों को ओवरले करता है। यह माइक्रोसॉफ्ट द्वारा विकसित किया गया है और हबल सहित जमीन और अंतरिक्ष दूरबीनों दोनों से इमेजरी का उपयोग करता है। कार्यक्रम कुछ गुंबद ग्रहों में भी पेश किया गया है। यह मुफ़्त है और वेब क्लाइंट के रूप में भी चलता है, बशर्ते आपके पास उपयुक्त सिल्वरलाइट ब्राउज़र प्लगइन हों। बेहद आकर्षक और विंडो कंप्यूटर के लिए पूर्णतः स्वतंत इस सिम्युलेटर को स्थापित करने के लिए आप यहाँ WorldWide Telescope जा सकते है।

केरवल स्पेस प्रोग्राम(Kerbal Space Program)

केरवल स्पेस प्रोग्राम

केरवल अंतरिक्ष कार्यक्रम यह एक काल्पनिक ब्रह्मांड को अनुकरण करता है, लेकिन यह व्यापक रूप से खगोल भौतिकी के बारे में एक महान शैक्षिक खेल के रूप में प्रशंसा करता है। व्यावहारिक अंतरिक्ष यान का निर्माण करें जो आपको छोटे केर्बल्स को कक्षा में लाने के लिए गुरुत्वाकर्षण और ईंधन की खपत के प्रभावों के बारे में बता सकता है। यह काल्पनिक रूप से आपके जहाज में जोड़े गए घटकों की स्थिति, आकार और मात्रा से यह सिम्युलेटर निर्धारित करेगी कि यह यान समताप मंडल या अंतरिक्ष तक पहुंचती है या नहीं। इस सिम्युलेटर में बहुत सुधार की जरूरत है जो लगातार किया जा रहा है। अधिकृत वेबसाइट पर जाने के लिए यहाँ Kerbal Space Program क्लिक करें।

उल्लेखनीय सभी सिम्युलेटर सॉफ्टवेयर आपको खगोलविज्ञान की बहुत सारी जानकारिया और शैक्षणिक विवरण प्रदान करता है लेकिन इन में से कुछ सॉफ्टवेयर का उपयोग ज्यादातर गेम खेलने के उद्देश्य से किये जाते है इसलिए हम सुझाव देते है की आप अपने बच्चों को अपने देख-रेख में ही इन सिम्युलेटर सॉफ्टवेयर के प्रयोग की अनुमति दे। इसमें से कुछ सिम्युलेटर खगोलीय विध्वंसो को भी सिमुलेट करने की अनुमति देते है इसलिए आप इन सिम्युलेटर का उपयोग अपने विवेक के अनुसार करें।

विज्ञान नोबेल पुरस्कार : वे हकदार जिन्हे यह सम्मान नही मिला!

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नोबेल पुरस्कार विश्व का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार है शायद इसी कारण नोबेल पुरस्कार ने कई बार विवाद को भी जन्म दिया है। अक्सर वैज्ञानिक, विशेष वैज्ञानिक क्षेत्र में अपनी कड़ी मेहनत के वावजूद वे नोबेल पुरस्कार पाने से वंचित रह गए। भौतिकी में 1965 के नोबेल पुरस्कार विजेता रिचर्ड फेनमैन ने एक बार कहा था कि इस पुरस्कार की अवधारणा भ्रामक है। “नोबेल” के रूप में किसी के शोध को वर्गीकृत करना एक अच्छा विचार नहीं है। प्रत्येक वैज्ञानिक की प्रतिभा और उसका प्रत्येक शोध अपने आप में एक नोबेल है।

यहां हम कुछ वैज्ञानिकों की महत्वपूर्ण योगदान का उल्लेख कर रहे है जिन्होंने विज्ञान के क्षेत्र में हमारी समझ बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया लेकिन वे इस शीर्ष सम्मान को कभी नहीं पा सके।

सत्येन्द्र नाथ बोस(SATYENDRA NATH BOSE)

सत्येन्द्र नाथ बोस

सत्येन्द्र नाथ बोस

उपलब्धि: बोस आइंस्टीन सांख्यिकी(Bose Einstein Statistics) और बोस आइंस्टीन कंडेनसेट्स(Bose Einstein Condensates) के जन्मदाता।
एस.एन. बोस एक भारतीय भौतिक विज्ञानी थे। भौतिकी, गणित, रसायन शास्त्र, जीवविज्ञान, खनिज, समेत विभिन्न क्षेत्रों में उनकी गहन रूचि थी। सत्येन्द्र नाथ बोस को बोस-आइंस्टीन के आंकड़ों और एकीकृत क्षेत्र सिद्धांत में उनके योगदान के लिए, के बनर्जी(K. Banerji, 1956), डीएस कोठारी(D.S. Kothari, 1959), एसएन बागची(S.N. Bagchi, 1962) और एके दत्ता(A.K. Dutta, 1962) द्वारा भौतिकी में नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया था। 12 जनवरी 1956 को एक पत्र में भौतिकी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रमुख केदारेश्वर बनर्जी ने नोबेल समिति को लिखा – बोस ने भौतिकी में बहुत ही उत्कृष्ट योगदान दिया है, उन्होंने एक सांख्यिकी विकसित किया है जिसे बोस सांख्यिकी कहा जा सकता है, आज हम बोस आइंस्टीन सांख्यिकी के नाम से जानते है। हाल के वर्षों में यह आंकड़े मौलिक कणों के वर्गीकरण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे है और परमाणु भौतिकी के विकास में अत्यधिक योगदान दे रहे है। 1953 से लेकर आज तक की अवधि के दौरान बोस ने आइंस्टीन के यूनिटरी फील्ड थ्योरी के विषय पर गहन अध्यन्न किया है और दूरगामी परिणामों के लिए बहुत ही रोचक योगदान किए हैं। बोस के काम का मूल्यांकन नोबेल कमेटी के एक विशेषज्ञ ओस्कर क्लेन(Oskar Klein) ने किया था लेकिन उन्होंने बोस के काम को नोबेल पुरस्कार के योग्य नहीं पाया।

दमित्री मेंडलीव(DMITRI MENDELEEV)

दमित्री मेंडलीव

उपलब्धि: तत्वों की आवधिक सारणी(The Periodic Table of Elements)
मेंडलीव एक रुसी रसायनज्ञ और आविष्कारक माने जाते है। मेंडलीव विश्व के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बताया की तत्वों के रासायनिक गुण उनके परमाणु संख्याओं के साथ सहबद्ध होते है और तत्वों के रासायनिक गुण कुछ परमाणु संख्याओं के बाद समय-समय पर दोहराए जाते हैं। इसी गुण को आधार मानकर मेंडेलेव ने आधुनिक आवधिक सारणी की भी नींव रख दी थी और बाद में अज्ञात तत्वों के लिए रिक्त स्थान छोड़े थे। उन्हें 1906 में रसायन विज्ञान में नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया था, लेकिन 1907 में उस सम्मान को पाए बिना ही उनकी मृत्यु हो गई।

एनी जंप कैनन(ANNIE JUMP CANNON)

एनी जंप कैनन

उपलब्धि: सितारों को वर्गीकृत करना(Classifying The Stars)
कैनन हार्वर्ड वेधशाला में मैपिंग का काम करती थी, उनका काम था आकाश में मौजूद हर तारे का अध्यन्न कर उसे वर्गीकृत करना। अपने करियर के दौरान उन्होंने 200,000 से अधिक सितारों को देखा, उसका विस्तृत अध्यन्न किया और वर्गीकृत किया। लेकिन उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान यह है कि उन्होंने स्पेक्ट्रल अवशोषण लाइनों के आधार पर सितारों को वर्गीकृत करने के लिए एक स्टार वर्गीकरण प्रणाली तैयार की। हालांकि उनके योगदान उनके चालीस वर्ष के खगोल विज्ञान कैरियर के दौरान मान्यता प्राप्त नहीं कर सके लेकिन आज भी खगोलविज्ञान उनके द्वारा विकसित स्टार वर्गीकरण प्रणाली का उपयोग करती है। आज भी किसी तारे को आप तापमान के आधार पर वर्गीकृत कर रहे हो तो आपको एनी जंप कैनन का शुक्रगुजार होना चाहिए। आज तक अरबों-खरबों तारे उनकी विकसित प्रणाली के आधार पर ही सात ग्रुपो में वर्गीकृत की गयी है।

मेघनाद साहा(MEGHNAD SAHA)

मेघनाद साहा

उपलब्धि: साहा का आयनीकरण समीकरण(Saha’s Ionisation Equation)

मेघनाद साहा(6 अक्टूबर 1893 – 16 फरवरी 1956) एक भारतीय खगोलशास्त्री थे जिन्हे साहा आयनीकरण समीकरण के विकास के लिए जाना जाता है। उनका समीकरण, सितारों में रासायनिक और भौतिक संरचना संबंधी स्थितियों का वर्णन करने के लिए प्रयोग किया जाता है। साहा विश्व के पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने बताया की किसी तारे का स्पेक्ट्रम उस तारे के तापमान से जुड़ा होता है। साहा थर्मल आयनीकरण समीकरण आज भी खगोल भौतिकी और एस्ट्रोकैमिस्ट्री के क्षेत्र में आधार स्तंभ माना जाता है।

साहा को 1930 के लिए देबेन्द्र मोहन बोस(Debendra Mohan Bose) और सिसीर कुमार मित्र(Sisir Kumar Mitra) द्वारा भौतिकी में नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया था। नोबेल समिति ने साहा के काम का मूल्यांकन किया। इसे एक उपयोगी अनुप्रयोग के रूप में देखा, लेकिन साहा थर्मल आयनीकरण समीकरण को “खोज” नहीं माना। इस प्रकार उन्हें नोबल पुरस्कार से सम्मानित नहीं किया जा सका, लेकिन आर्थर कॉम्प्टन(Arthur Compton) ने 1937 और 1940 में साथ ही सिसीर कुमार मित्र ने 1939, 1951 और 1955 में फिर से साहा को भौतिकी में नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया परंतु नोबेल समिति से अपने पहले के निर्णय को बदलना उचित नहीं समझा।

गिल्बर्ट न्यूटन लेविस(GILBERT NEWTON LEWIS)

गिल्बर्ट न्यूटन लेविस

उपलब्धि: रासायनिक बंधन कार्यप्रणाली(Understanding How Chemical Bonding Works)
लेविस एक अमेरिकी रसायनज्ञ थे, जिन्होंने 1900 के दशक में रसायन शास्त्र में अपना अभूतपूर्व योगदान दिया है। सहसंयोजक बंधन(covalent bond) की खोज लेविस की ही देन है, सहसंयोजक बंधन(जहां परमाणु इलेक्ट्रॉन जोड़े साझा करते हैं) और उन पदार्थों के रूप में अम्ल और क्षार की प्रकृति को समझाते हैं जो क्रमशः इलेक्ट्रॉनों की एक जोड़ी स्वीकार करते हैं या देते हैं। उन्होंने लेविस डॉट संरचना(Lewis dot structure) से भी दुनियां को अवगत कराया, लेविस डॉट संरचना, परमाणुओं और अणुओं में रासायनिक बंधन और अनबॉन्ड इलेक्ट्रॉनों का प्रतिनिधित्व करने का एक तरीका का सुझाव देता है।

हालांकि इस वैज्ञानिक को 35 बार नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया था लेकिन दुर्भाग्य से उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित नहीं किया गया। स्रोत बताते है की लेविस के अपने सहयोगियों और उनके समकालीन लोगों के साथ शत्रुतापूर्ण संबंध, उनकी आलोचना ने उन्हें रसायन शास्त्र में नोबेल पुरस्कार जीतने से रोक दिया था।

सर फ़्रेड हॉयल(SIR FRED HOYLE)

सर फ़्रेड हॉयल

उपलब्धि: बिग बैंग’ तारकीय न्यूक्लियोसिंथेसिस सिद्धांत(Big Bang’ Stellar nucleosynthesis theory), ब्रह्माण्ड का स्थिर अवस्था सिद्धांत(Steady state theory), हॉयल नर्लीकर सिद्धांत(Hoyle-Narlikar theory), ट्रिपल-अल्फा प्रक्रिया(Triple-alpha process)

तारों के केंद्र मे नाभिकिय संलयन के फलस्वरूप तत्वों के निर्माण की प्रक्रिया को समझने के लिये सर फ़्रेडेरिक हॉयल का बड़ा योगदान है। वे ब्रिटिश खगोलशास्त्री थे जिनके विचार अक्सर मुख्य वैज्ञनिक समुदाय के विपरीत होते थे। इनका काम मुख्यतः ब्रह्माण्डविज्ञान के क्षेत्र में है। इन्होंने तारों के नाभिकों में हो रही नाभिकीय प्रक्रियाओं का अध्ययन किया और पाया कि कार्बन तत्व बनने के लिये जिस प्रक्रिया की आवश्यकता होती है उसकी सम्भावना सांख्यिकी के अनुसार बहुत कम है। चूंकि मनुष्य और पृथ्वी पर मौजूद अन्य जीवन कार्बन पर आधारित है, हॉयल का विचार था कि ऐसा सम्भव होना इस बात को इंगित करता है कि पृथ्वी पर जीवन की मौजूदगी में किसी ऊपरी शक्ति का हाथ है। नाभिकीय प्रक्रियाओं पर इनके काम को नोबेल समिति ने उनकी अधिकतर अवधारणाओं के मुख्य धारा विज्ञान से विपरीत होने के कारण अनदेखा कर दिया और 1983 का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार इनके सहयोगी विलियम ए फोलर(William Alfred Fowler) को दिया(सुब्रह्मण्यन् चन्द्रशेखर के साथ)। फ़्रेड हॉयल ब्रह्माण्ड के जन्म के बिग बैंग सिद्धांत में विश्वास नहीं रखते थे और उन्होने ही इस सिद्धांत का नाम मजाक उड़ाते हुये “बिग बैंग” रखा था। इनका विचार था कि ब्रह्माण्ड एक स्थिर अवस्था में है। महाविस्फोट सिद्धान्त के पक्ष में अधिक प्रमाण इकट्ठा होने पर वैज्ञानिकों ने स्थिर अवस्था को लगभग त्याग दिया है। हॉयल का यह भी विश्वास था कि पृथ्वी पर जीवन धूमकेतुओं के जरिए अन्तरिक्ष से आए विषाणुओं के जरिये शुरु हुआ। वे नहीं मानते थे कि रासायनिक प्रक्रियाओं के जरिए जीवन का प्रारंभ संभव है। इन्होंने विज्ञान कथाएँ भी लिखी हैं जिनमें शामिल है द ब्लैक क्लाउड(The Black Cloud, काला बादल) और ए फ़ॉर एन्ड्रोमीडा(A for Andromeda)। द ब्लैक क्लाउड में ऐसे जीवों का वर्णन है जो तारों के बीच के गैस के बादलों में उत्पन्न होते हैं और विश्वास नहीं कर पाते हैं कि ग्रहों पर भी बुद्धिमान जीव उत्पन्न हो सकते है।

स्रोत बताते है की सर फ़्रेड हॉयल को नोबेल पुरस्कार न देने के लिए नोबेल समिति ने राजनीती से प्रेरित कूटनीतिक चाल चली थी। 1974 का भौतिकी नोबेल पुरस्कार पल्सर तारों की खोज के लिए एंटनी हेविश(Antony Hewish) को दिया गया था। उस समय सर फ़्रेड हॉयल ने एक संवाददाता को दिए इंटरव्यू में कहा

जोसेलीन बेल(Jocelyn Bell) पल्सर तारे के वास्तविक खोजकर्ता है जबकि एंटनी हेविश तो उनके पर्यवेक्षक थे। मेरा मानना है जोसेलीन बेल को नोबेल पुरस्कार में शामिल करना चाहिए था।”

हॉयल की यह टिप्पणी अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में आ गयी थी और नोबेल समिति को उनकी यह टिप्पणी बड़ी नागावार लगी।

दूसरा विवाद तब जन्म लिया जब 1983 का भौतिकी नोबेल पुरस्कार विलियम अल्फ्रेड फाउलर(William Alfred Fowler) को ब्रह्मांड में रासायनिक तत्वों के गठन में तारकीय नाभिक प्रतिक्रियाओं के अपने सैद्धांतिक और प्रयोगात्मक अध्ययनों के लिए दिया गया। अब विवाद उठ खड़ा हुआ, क्योंकि हॉयल न्यूक्लियोसिंथेसिस के सिद्धांत के जन्मदाता थे और उनका न्यूक्लियोसिंथेसिस सिद्धांत दो शोध पत्रों में तुरंत प्रकाशित होने वाला था। अब संदेह उत्पन्न हो गया की नोबेल समिति ने उनकी अधिकतर खोजों को, उनकी अवधारणाओं के मुख्य धारा विज्ञान से विपरीत होने के कारण अनदेखा कर दिया है। बाद में ब्रिटिश वैज्ञानिक हैरी क्रोटो ने कहा कि

नोबेल पुरस्कार केवल काम के टुकड़े के लिए मिला एक पुरस्कार नहीं है, बल्कि एक वैज्ञानिक की समग्र प्रतिष्ठा है और होयले के चैंपियनिंग की मान्यता कई विवादित और अपमानजनक विचारों से उन्हें अमान्य कर सकती है।

नेचर के संपादक जॉन मैडॉक्स(John Maddox) ने कहा

फाउलर को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया और हॉयल को नहीं, यह बेहद शर्मनाक है।

एन्नाक्कल चांडी जॉर्ज सुदर्शन(ENNACKAL CHANDY GEORGE SUDARSHAN)

एन्नाक्कल चांडी जॉर्ज सुदर्शन

उपलब्धि: प्रकाशिय संबद्धता(Optical coherence), सुदर्शन-ग्लौबर निरूपण(Sudarshan-Glauber representation), क्वांटम शून्य प्रभाव(Quantum Zeno effect), प्रचक्रण-सांख्यिकी प्रमेय(Spin-statistics theorem), विवृत क्वांटम निकाय(Open quantum system), टेक्योन कण अवधारणा(Tachyon hypothetical particle)
जॉर्ज सुदर्शन टेक्सास विश्वविद्यालय, ऑस्टिन में प्रोफेसर, लेखक और भारतीय वैज्ञानिक थे। इनका योगदान भी सैद्धांतिक भौतिकी में अद्वितीय माना जाता है, प्रकाशिय संबद्धता सिद्धांत हमे बताता है की दो तरंग स्रोत पूरी तरह से सुसंगत हो सकते है यदि उनका आवृत्ति समान हो, वेवफॉर्म समान हो और उनका फेज अंतर नियत हो। यह सिद्धांत लहरों के भौतिकी की समझ की अनुमति देती हैं, और क्वांटम भौतिकी में एक बहुत ही महत्वपूर्ण अवधारणा बन गई हैं। सुदर्शन-ग्लौबर निरूपण, क्वांटम यांत्रिकी अर्थात क्वांटम पैमाने पर अंतरिक्ष वितरण को दर्शाने का एक तरीका है। सुदर्शन-ग्लौबर पी निरूपण(Glauber-Sudarshan P representation) नकारात्मक द्विपदीय अवस्थाओं के निरूपण और उसके गुण की व्याख्या करता है, इस प्रकार ये सुसंगत अवस्था और थर्मल अवस्था के एकीकृत विवरण करने की अनुमति प्रदान करते है। क्वांटम यांत्रिकी में, स्पिन-सांख्यिकी प्रमेय एक कण के आंतरिक स्पिन से संबंधित है और सभी कण इस सांख्यिकी का पालन करते है। टेक्योन कण की अवधारणा जॉर्ज सुदर्शन ने ही की थी, उनका मानना था की टेक्योन की गति प्रकाश गति से भी तेज है । वैसे Tachyon एक काल्पनिक कण है। जब बात प्रकाश गति (C) से भी तेज गति की होती है तब ऐसे किसी कण का द्रव्यमान काल्पनिक या नेगेटिव होना चाहिये। माना जाता है की ऐसे कण का अस्तित्व केवल गणितीय रूप से संभव है लेकिन वास्तविक रूप में ऐसे किसी कण का अस्तित्व नहीं हो सकता।

जॉर्ज सुदर्शन का नोबेल पुरस्कार का विवाद सुदर्शन-ग्लौबर निरूपण सिद्धांत से जन्म लिया था। जॉर्ज सुदर्शन 1960 से ही रोचेस्टर विश्वविद्यालय में क्वांटम ऑप्टिक्स पर काम करना शुरू किया था लेकिन दो साल बाद ही ग्लौबर ने ऑप्टिकल क्षेत्रों को समझाते हुए उनके शास्त्रीय विद्युत चुम्बकीय सिद्धांत के उपयोग की आलोचना की। इस वाकये ने सुदर्शन को हैरान कर दिया क्योंकि उनका मानना ​​था कि उनके सिद्धांत ने सटीक स्पष्टीकरण प्रदान किए हैं। सुदर्शन ने बाद में अपने विचार व्यक्त करते हुए एक पत्र लिखा और ग्लेबर को एक प्रीप्रिंट भेजा। ग्लेबर ने इसी तरह के परिणामों के साथ अपने शोध को सुदर्शन को दिखाया और जॉर्ज सुदर्शन की आलोचना भी की। हालांकि ग्लेबर का शोध विशिष्ट क्वांटम ऑप्टिक्स घटना की व्याख्या करने में सक्षम नहीं था लेकिन ग्लेबर को लगता था की सुदर्शन ने उनकी शोध को अपना नाम से प्रकाशित किया है। दोनों वैज्ञानिकों के बीच विवाद बढ़ता गया लेकिन बाद में इस शोध(सुदर्शन-ग्लौबर निरूपण) को दोनों वैज्ञानिकों के नाम से जाना जाने लगा।

जॉर्ज सुदर्शन को कई बार सुदर्शन-ग्लौबर निरूपण के लिए नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया, लेकिन सुदर्शन-ग्लौबर निरूपण के लिए अमेरिकी भौतिक विज्ञानी रॉय जे ग्लेबर(Roy J. Glauber) को 2005 भौतिकी नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। हालांकि 2005 में कई भौतिकविदों ने स्वीडिश अकादमी को लिखा था कि सुदर्शन को सुदर्शन-ग्लौबर निरूपण के लिए पुरस्कार का हिस्सा दिया जाना चाहिए था। सुदर्शन और अन्य भौतिकविदों ने नोबेल समिति को एक पत्र भेजा कि सुदर्शन-ग्लौबर पी निरूपण में “ग्लेबर” की तुलना में “सुदर्शन” का अधिक योगदान है। लेकिन नोबेल समिति ने अपने नियम का हवाला देकर पुरस्कार में कोई बदलाव करने से साफ़ मना कर दिया।

2007 में, सुदर्शन ने हिंदुस्तान टाइम्स को दिए इंटरव्यू में बताया,

भौतिकी के लिए 2005 नोबेल पुरस्कार मेरे काम के लिए सम्मानित किया गया था, लेकिन मैं इसे प्राप्त करने वाला नहीं था। इस शोध में से प्रत्येक को यह पता था कि नोबेल को मेरे शोध के आधार पर मेरे ही काम के लिए दिया गया था।”

सारांश

वैसे नोबल पुरस्कार किसी वैज्ञानिक की प्रतिभा और उसके शोध का सटीक मापदंड तो नहीं हो सकता लेकिन किसी वैज्ञानिक को दी गयी सम्मान, प्रतिष्ठा तो है ही। नोबेल फाउंडेशन द्वारा स्वीडन के वैज्ञानिक अल्फ्रेड नोबेल की याद में वर्ष 1901 में शुरू किया गया यह शांति, साहित्य, भौतिकी, रसायन, चिकित्सा विज्ञान और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में विश्व का सर्वोच्च पुरस्कार है। दिसंबर 1896 में अल्फ्रेड नोबेल ने अपने मृत्यु से पूर्व अपनी विपुल संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने एक ट्रस्ट के लिए सुरक्षित रख दिया। उनकी इच्छा थी कि इस पैसे के ब्याज से हर साल उन लोगों को सम्मानित किया जाए जिनका काम मानव जाति के लिए सबसे कल्याणकारी पाया जाए। स्वीडिश बैंक में जमा इसी राशि के ब्याज से नोबेल फाउँडेशन द्वारा हर वर्ष नोबेल पुरस्कार शांति, साहित्य, भौतिकी, रसायन, चिकित्सा विज्ञान और अर्थशास्त्र में सर्वोत्कृष्ट योगदान के लिए दिया जाता है।

नोबेल पुरस्कार, विश्व का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार, मानव जाति के लिए सबसे कल्याणकारी शोध कार्य, किसी वैज्ञानिक का सर्वोत्कृष्ट योगदान जैसे मापदंडों से चुनना बड़ा कठिन कार्य है क्योंकि हजारों-हजार शोध प्रति वर्ष होते है जिनमें बहुत सारे शोध मानव जाति के लिए बड़े महत्वपूर्ण होते है। वैसे तो नोबेल पुरस्कार के लिए किसी को चुनना बड़ा कठिन कार्य है लेकिन कई ऐसे अवसर आये है जब नोबेल समिति ने गलतियां की है और विवादों को जन्म दिया है, नोबेल समिति चाहती तो इन विवादों पर लगाम लगा सकती थी लेकिन नोबेल समिति इन विवादों को रोकने में असफल रही। यहां हम नोबेल समिति पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगा रहे है लेकिन जो तथ्य है वो तो रहेंगे ही।

प्रत्येक वैज्ञानिक की प्रतिभा और उसका प्रत्येक शोध अपने आप में एक नोबेल है।”


मिशन धूमकेतु

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लेखक : देवेंद्र मेवाड़ी

धूमकेतु  पर धमाका

उस दिन दुनिया भर के समाचारपत्रों की सुर्खियों में यह खबर थीः

केप केनवरल, जनवरी 13: नासा के धूमकेतु  टैम्पल-1 से मिलने के लिए हालीवुड नामधारी अंतरिक्ष यान डीप इम्पैक्टका बुधवार को ठीक 1: 47:08 बजे अपराह्न प्रक्षेपण किया गया। डीप इम्पैक्टअपनी 6 माह की 43.10 करोड़ किलोमीटर लंबी यात्रा पर सफलतापूर्वक आगे बढ़ रहा है।

मानव इतिहास में यह पहला अवसर था जब कोई मानव निर्मित यान करोड़ों किलोमीटर दूर अंतरिक्ष की गहराइयों में किसी धूमकेतु से टकराने जा रहा था। मानव सभ्यता को इस मिशन से पहली बार किसी धूमकेतु  के भीतर का दृश्य देखने और उसकी रचना का रहस्य जानने का सुअवसर मिलने की आशा थी।

डीप इम्पैक्टके सफल प्रक्षेपण के अवसर पर आयोजित प्रेस सम्मेलन में पत्रकारों में इस मिशन से जुड़े वैज्ञानिक दल के सदस्यों से कई तरह के सवाल पूछे।

पत्रकारों को सम्बोधित करते हुए मिशन के प्रमुख विज्ञानी माइकल ए हेर्न ने उत्साह के साथ कहा- डीप इम्पैक्ट आगे बढ़ रहा है। हम 4 जुलाई को वहां होंगे और टैम्पल-1 से टक्कर लेंगे।

क्या आप बता सकते हैं कि इस मिशन का असली मकसद क्या है?” एक पत्रकार ने पूछा।

मकसद है, यह जानना कि धूमकेतु किन चीजों से बने हैं। दुनिया भर के वैज्ञानिकों का यह अनुमान है कि वे शायद जमी हुई बर्फ, धूल और गैसों से बने हैं। वे कहते हैं- धूमकेतु बर्फ की मैली गेंदें हैं। मिशन से पता लगेगा कि क्या यह सच है।माइकल ने जवाब दिया।

एक महिला पत्रकार ने पूछा- अगर यही पता लगा कि वह धूल, बर्फ और गैसों का गोला है तो आप जानते हैं यह जानने की कीमती कितनी होगी- 33 करोड़ डालर!

हां, मैं जानता हूं लेकिन यह भी जानता हूं कि धूमकेतु की धूल सिर्फ धूल नहीं है। उसकी जमी हुई गैसें, बर्फ और बाकी मलबा हमारे सौरमंडल की वह आदि निर्माण सामग्री है जिससे सभी ग्रह- नक्षत्र बने। धूमकेतु तो कालपात्र हैं। उनमें वह सब सामग्री वैसी की वैसी ही है जैसी 4.5 अरब वर्ष पहले सौरमंडल के निर्माण के समय थी। तो, इससे हमें सौरमंडल और अपनी पृथ्वी के जन्म के बारे में भी पता लगेगा।ए हेर्न ने कहा।

    वाशिगटंन पोस्ट के रिपोर्टर ने पूछा- डीप इम्पैक्टक्यों? क्या यह हालीवुड फिल्म की तरह है?”

जवाब नासा के प्रक्षेपण-निदेशक ओमर बेज ने दिया-यह वैज्ञानिक मिशन है- फिल्मी नहीं। यहां जो कुछ होगा असलियत में होगा। मिशन का नाम भी हमने स्वयं रखा डीप इम्पैक्टक्योंकि धूमकेतु से हमारे यान की गहरी टक्कर होगी। संयोग है कि यह हाॅलीवुड फिल्म का भी नाम है।

एक और पत्रकार का प्रश्न था- क्या अंतरिक्ष यान जाकर सीधे धूमकेतु से टकरा जाएगा?

ओह नहीं, तब टक्कर की तस्वीरें कौन लेगा? हमें कैसे पता लगेगा? ‘डीप इम्पैक्टयान, के साथ 370 किलोग्राम भारी एक और छोटा यान जुड़ा है- इम्पैक्टर। धूमकेतु के साथ टकराने से 24 घंटे पहले यह डीप इम्पैक्टरयान, मेरा मतलब है मुख्य या फ्लाइ बाइयान से अलग हो जाएगा और धूमकेतु की ओर चल पड़ेगा। फ्लाइ बाइ यान किनारा करके करीब 500 किलोमीटर की दूरी से टक्कर का नजारा देखेगा और अपनी हाइ रिजोल्यूशन व मिड रिजोल्यूशन दूरबीनों से तस्वीरें लेकर पृथ्वी पर भेजता रहेगा।ओमर बोले।

    बी बी सी संवाददाता ने पूछा- इम्पैक्टर सीधे धूमकेतु में जाकर धंस जाएगा?”

माइकल हंसे- धंस कर भाप बन जाएगा, लेकिन यों ही नहीं। शहीद होने से पहले वह भी तस्वीरें भेजेगा। टकराने तक की तस्वीरें। उसमें भी कैमरा लगा हुआ है। इसलिए धूमकेतु की सबसे नजदीकी तस्वीरें तो उसी से मिलेंगीं। इम्पैक्टर के टकराने से काफी बड़ा गड्ढा बन जाएगा। फुटबाल स्टेडियम के बराबर। उसी में धूमकेतु के भीतर का नजारा दिखाई देगा।

    एक रूसी पत्रकार ने सवाल किया-यान टकराने की क्या जरूरत थी। बम से भी तो विस्फोट किया जा सकता था?”

    अभियान के सह-अन्वेषणकर्ता और ग्रहीय भूगर्भ विज्ञानी जे. मेलोश ने हंसते हुए जवाब दिया- हम सापेक्षता सिद्धांत का लाभ उठा रहे हैं। धूमकेतु भी चल रहा है और यान भी। इम्पैक्टर यान 37000 किलोमीटर प्रति घंटे की चाल से धूमकेतु से जा टकराएगा। इससे साढ़े चार टन टी एन टी के बराबर विस्फोट होगा। तो, बम की क्या जरूरत है? हां, इस धमाके की चमक अंधेरे आकाश में कोरी आंख को भी दिखाई देगी।

    अभियान के प्रबंधक रिक ग्रेमियर ने उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा- पृथ्वी पर हम यह सब देखेंगे अपनी दूरबीनों से। अंतरिक्ष में स्थित हब्बल, चंद्रा, स्पिजर दूरबीनें इस दृश्य की तस्वीरें दिखाएंगीं। शौकिया खगोल विज्ञानी अपनी दूरबीनों का मुंह बृहस्पति ग्रह और स्पाइका तारे की ओर कर देंगे। उसी के आसपास धूमकेतु के धमाके की चमक दिखाई देगी।

हिंदुस्तान टाइम्सके वांशिगटन स्थित संवाददाता अमिताभ घोष भी प्रेस सम्मेलन में मौजूद थे। रिक ग्रेमियर की बात सुन कर वे समझ गए कि स्पाइकाचित्रा नक्षत्र को कहा जा रहा है। उन्होंने पूछा- क्या आप बता सकते हैं कि टैम्पल-1 धूमकेतु का आकार कैसा और कितना बड़ा है?”

    जे. मेलोश बोले- इस धूमकेतु के आकार के बारे में अधिक पता नहीं है। अनुमान है कि इसकी लंबाई करीब 14 किलोमीटर औेर चौड़ाई 5 किलोमीटर है। इसकी खोज 1867 में हुई थी और यह 5 वर्ष 5 माह की अवधि में सूर्य की परिक्रमा करता है। जब इम्पैक्टरइससे टकराएगा तो पृथ्वी से यह धूमकेतु करीब 12 करोड़ 90 लाख किलोमीटर दूर होगा।

    वह तो ठीक है, लेकिन जब धूमकेतु का आकार पता नहीं है तो मिस फायरभी तो हो सकता है?” घोष ने पूछा।

नहीं, ऐसा नहीं होगा। आइ टी एस मेरा मतलब है इम्पैक्टर टार्गेटिंग सेंसर ऐसा नहीं होने देगा।मेलोश ने कहा।

काफी सवाल- जवाबों के बाद कैनेडी स्पेस सेंटर के निदेशक जेम्स कैनेडी ने पत्रकारों से कहा- आप सब हमारे साथ 4 जुलाई 2005 की प्रतीक्षा कीजिए जब इम्पैक्टर धूमकेतु टैम्पल- 1 से टकराएगा। धूमकेतु के बारे में तमाम सवालों का जवाब तो तभी मिल सकेगा। अभी तो यह भी नहीं पता है कि टैम्पल-1 की परत सख्त है या मुलायम। इम्पैक्टर जाकर सख्त चट्टान से टकराने वाला है या कार्न फ्लैक्स के ढेर से, हमें कुछ नहीं पता। एक बात और। अपनी लाखों किलोमीटर लंबी पूंछ लहराते हुए धूमकेतु आते हैं और लौट जाते हैं। धीरे-धीरे वे बुसबुसा कर गायब हो जाते हैं। आप लोग भी सोचिए- उनकी गैस, धूल और बर्फ कहां जाती है। सब कुछ उड़ जाता है क्या? या कहीं ऐसा तो नहीं कि बाहरी परत इतनी सख्त हो जाती है कि धूल, बर्फ और गैसें उसके भीतर कैद हो जाती हैं? अगर ऐसा हुआ तो इम्पैक्टर के टकराने से धूल, गैस और बर्फ का जखीरा फूट पड़ेगा। क्यों?”

ले मोंडके संवाददाता ने पूछा- मोंशेयर, इम्पैक्टर यान के टकराने से साढ़े चार टन टी एन टी के बराबर विस्फोट होगा, ठीक है? तो इस जबर्दस्त विस्फोट से धूमकेतु के टुकड़े-टुकड़े भी तो हो सकते हैं? क्यों?”

आप ठीक कह रहे हैं।केनेडी बोले।

तब यह भी तो हो सकता है कि धूमकेतु का कोई टुकड़ा फ्लाइ बाइयान डीप इम्पैक्टर से टकरा जाए? वह उसे तहस-नहस कर सकता है? उसका कोई विशाल टुकड़ा पृथ्वी की ओर भी आ सकता है? क्यों?” संवाददाता ने पूछा।

लगता है आप जरूर हालीवुड की फिल्म डीप इम्पैक्टदेख कर आए हैं। वह हालीवुड की कल्पना थी। उसमें धूमकेतु का एक टुकड़ा अटलांटिक महासागर में आ गिरा और उससे उठी सुनामी लहरों ने तबाही मचा दी। क्यों? लेकिन, मान लीजिए इम्पैक्टरकार्नफ्लेक्स के ढेर से टकराता है तो? यों भी, किसी भी खतरे से निबटने के लिए हर तरह का एहतियात बरता गया है। इसलिए मैं आपको विश्वास दिलाता हूं, ऐसा कुछ भी नहीं होगा। हमें भी विश्वास है कि इम्पैक्टरके टकराने से एक विशाल गड्ढा बन जाएगा। बस। हां, धूल बिखरेगी तो उससे बचाने के लिए इम्पैक्टरऔर फ्लाइ बाइदोनों को तांबे की कई परतों के कवच से ढका गया है।”  

पत्रकार ने पीछा नहीं छोड़ा- लेकिन अगर टुकड़े हो गए और कोई टुकड़ा पृथ्वी की ओर आ ही गया तो?”

अब एहेर्न बोले- ऐसा नहीं होगा। इस मिशन की सफलता के लिए हमने हर तरह की गणनाएं की हैं, अनुमान लगाए हैं और हर स्थिति से निबटने की तैयारी की है। इसलिए जैसा मि. कैनेडी ने कहा, ऐसे किसी खतरे की संभावना नहीं है।

पत्रकार पूरी तरह संतुष्ट नहीं हुआ। तब तक दूसरे पत्रकारों ने अपने प्रश्नों की झड़ी लगा दी।

लंदन टाइम्स के प्रतिनिधि ने पूछा- क्या ऐसा भी हो सकता है कि पूरी कोशिश के बावजूद यान रास्ता भटक जाए और इम्पैक्टर धूमकेतु से टकराए ही नहीं?”

नहीं, क्योंकि यान में धूमकेतु की टोह लेने के लिए जो शक्तिशाली सेंसर लगा हुआ है। वह यान को लक्ष्य से भटकने नहीं देगा। फ्लाइ बाइयान ठीक समय पर इम्पैक्टर को छोड़ेगा और इम्पैक्टर अचूक गोली की तरह धूमकेतु को वेधने के लिए चल पड़ेगा। फ्लाइ बाइ किनारा करके हाइ रिजोल्यूशन तथा मीडियम रिजोल्यूशन दूरबीनों के साथ इम्पैक्टर की टक्कर को रिकार्ड करने के लिए तैयार हो जाएगा।

रिक ग्रैमियर ने जवाब दिया और फिर जैसे कुछ याद आते ही बोल पड़े- भटकने की कोई गुंजाइश नहीं है फिर भी एहतियातन हमने मिशन के प्रारंभ में ही डीप इम्पैक्टको मर्जी से राह से थोड़ा भटका कर और फिर सही राह पर लाकर भी देख लिया है। वह किसी समझदार बच्चे की तरह कहना मान रहा है।फिर हंसते हुए बोले-यह इतना त्रुटिहीन है कि यान के भटकने की बात सोची भी नहीं जा सकती।

मानव इतिहास की इस अनोखी घटना के संबंध में आयोजित वह प्रेस कांफ्रेंस कई तरह के सवालों, जवाबों, जिरह और कयासों के साथ खत्म हुई।

07.3.05- डीप इम्पैक्ट स्टेटस रिपोर्ट

डीप इम्पैक्ट अंतरिक्ष यान अपनी यात्रा के निर्धारित चरण पूरा करने के बाद धूमकेतु टैम्पल-1 के पास पहुंच गया है। यान ने धूमकेतु के कई नायाब चित्र भेजे हैं। उसकी दोनों एच आर आइ और एम आर आइ दूरबीनें, इंफ्रारेड स्पेक्ट्रोमीटर, कैमरा और टोही सेंसर कुशलता से काम कर रहे हैं। सौर पैनलों से समुचित ऊर्जा प्राप्त हो रही है। यान टैम्पल-1 धूमकेतु की ओर लगातार बढ़ रहा है।

 

07.04.05

……24 घंटे….डीप इम्पैक्ट फ्लाइ बाइ यान से इम्पैक्टर यान सफलतापूर्वक अलग हो गया है। और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है….मदरशिप डीप इम्पैक्ट ने अपनी राह तय कर ली है। वह धूमकेतु से सुरक्षित दूरी बना कर आगे बढ़ रहा है। लगातार…

….शेष 2 घंटे…..इम्पैक्टर यान ने अपनी गति पकड़ ली है….वह सीधा धूमकेतु की ओर बढ़ रहा है…..

…..शेष 90 मिनट….इम्पैक्टर से फ्लाइ बाइ यान का रेडियो सम्पर्क बना हुआ है। बीसों रेडियो लिंक काम कर रहे हैं।

….शेष 7.5 मिनट….इम्पैक्टर पूरी ताकत से धूमकेतु टैम्पल-1 से टकराने के लिए तेजी से आगे बढ़ रहा है….गति 10 किलोमीटर प्रति सेकेंड….

…..काउंट डाउन….दस, नौ, आठ, सात, छः, पांच, चार, तीन, दो, एक…शून्य। धमाका।

 

पृथ्वी पर नासा के नियंत्रण कक्ष में उपकरणों पर आखें गड़ाए वैज्ञानिक हर्षातिरेक में चिल्लाए- वी हैव डन इट!

एक तेज चमक, धूमकेतु से छिटके हुए मलबे की बौछार में कुछ देर तक सब कुछ धुंधला पड़ गया लेकिन थोड़ी देर बाद वह छंटा और फ्लाइ बाइ यान ने धूमकेतु के भीतर की तस्वीरें भेजना शुरू कर दिया वैज्ञानिक उन तस्वीरों के विश्लेषण की तैयारी में जुट गए। इंफ्रारेड स्पेक्ट्रोमीटर ने पृथ्वी पर धूल और बारीक कणों के वर्णक्रम भेजे जिनसे वैज्ञानिक यह पता लगा सकेंगे कि धूमकेतु किन तत्वों से बना हुआ है।

दुनिया भर में लोगों ने अपने टेलीविजन सेटों पर धूमकेतु के धमाके की चमक देखी।

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डीप इम्पैक्ट ने शुरू से धमाके के 60 घंटे बाद तक जो तस्वीरें भेजी थीं, वैज्ञानिकों ने महीनों उनका विश्लेषण और अध्ययन किया। उनसे यह अनुमान लगा कि धूमकेतु वास्तव में जमी हुई गैसों, बर्फ और धूल तथा चट्टानों के टुकड़ों से बना था। उसमें कम से कम 40 तत्वों का पता लगा जिनमें कार्बन के यौगिक और पानी भी था। इम्पैक्टर धूमकेतु के भीतर किसी कड़ी चट्टान से भी टकराया था। वैज्ञानिकों का यह अनुमान था कि जब सौरमंडल बना होगा तो जिन तत्वों से ग्रह बने उन्हीं के बचे-खुचे टुकड़े सौरमंडल के चारों ओर जमा हो गए और वहां की भयानक ठंड में जम कर बर्फ की गेंदों में बदल गए। छोटी-छोटी गेंदों से लेकर कई किलोमीटर मोटी-लंबी चट्टानों तक में।

मिशन डीप इम्पैक्ट की सबसे बड़ी सफलता रही- लक्ष्य भेद, जो खगोल वैज्ञानिकों की उपलब्धि बन गई। साथ ही स्पेक्ट्रोमीटर द्वारा भेजे गए वर्णक्रम तथा अन्य तस्वीरों से जिन तत्वों का पता लगा उनसे साबित हुआ कि ब्रह्मांड की ईंटें एक समान हैं। शायद सभी ग्रह-नक्षत्र तत्वों की इन्हीं ईंटों से बने हैं। यह बात पूरी तरह तो तभी सिद्ध हो सकती है जब धूमकेतु के नमूने एकत्र करके प्रयोगशाला में उनकी जांच की जाए जिस तरह कभी चांद की मिट्टी लाई गई थी।

जब डीप इम्पैक्ट मिशन के परिणाम न्यूयार्क में धूमकेतुओं पर आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में प्रस्तुत किए गए तो उसमें सर्वसम्मति से यह विचार बना कि धूमकेतुओं के गहन अध्ययन के लिए उनके नमूने लिए जाने चाहिए ताकि विश्व के अन्य इच्छुक देशों के वैज्ञानिक भी इस मिशन में शामिल हो सकें।

मिशन के संचालन की जिम्मेदारी नासा को सौंपी गई ताकि डीप इम्पैक्ट के अनुभवों का इस मिशन में पूरा लाभ उठाया जाय। यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने मिशन में विशेष सहयोग का आश्वासन दिया। एजेंसी ने इससे पूर्व 1986 में जोत्तो मिशन के तहत हेली धूमकेतु के अध्ययन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। रूस ने भी वेगा-1 से हेली का अध्ययन किया था। इसलिए उसने भी इस मिशन में विशेष रूचि दिखाई। सुखद बात यह थी कि इस प्रस्तावित अंतरराष्ट्रीय मिशन में यूरोपीय सदस्य देशों के अलावा भारत, चीन और जापान ने भी सक्रिय सहयोग का आश्वासन दिया। भारत के खगोलविज्ञानी डा. विष्णु खानवलकर के इस प्रस्ताव को सभी देशों के वैज्ञानिकों ने एकमत से स्वीकार किया कि आगामी मिशन में हमें पृथ्वी वासियों की ओर से धूमकेतु में एक कालपात्र भी रखना चाहिए। जब धूमकेतु अंतरिक्ष में अपनी लंबी यात्रा पर लौटे तो अपने साथ कालपात्र भी ले जाए। हो सकता है धूमकेतु के बुसबुसा जाने पर कहीं किसी अनजान लोक के किसी अज्ञात ग्रह में वह कालपात्र गिर पड़े। अगर वहां कोई सभ्यता हुई तो हो सकता है कालपात्र उन्हें मिल जाए और पता लगे कि विशाल ब्रह्मांड में वे अकेले नहीं हैं। चीनी और रूसी वैज्ञानिकों ने सुझाव दिया कि हमें अपनी सभ्यता की सूचना के साथ ही सभ्यता के बीज भी वहां भेजने चाहिए। कालपात्र के साथ ही एक बीजपात्र भी भेजना चाहिए जिसमें न्यूनतापमान पर बीज और कंद भेजे जा सकते हैं। धूमकेतु में वे स्वयं हिमीकरण की अवस्था में रहेंगे और कभी कहीं सही उचित वातावरण मिलने पर अंकुरित हो जाएंगे।

खगोल वैज्ञानिकों ने कहा कि डा. फ्रेड हायल व चंद्र विक्रम सिंघे ने तो यह सिद्धांत रखा ही था कि पृथ्वी पर जीवन शायद धूमकेतुओं के साथ आया होगा। कुछ वैज्ञानिकों ने सुझाव दिया कि जब हिमीकरण की अवस्था में ही सभ्यता के बीज भेजने हैं तो द्रव नाइट्रोजन के फ्लास्क में जीवों के निषेचित डिंब भी भेजे जा सकते हैं। वे भी सुरक्षित ही रहेंगे। कभी किसी अज्ञात सभ्यता को मिल गए तो पृथ्वी का जीवन वे अपनी दुनिया में भी जगा सकेंगे।

सम्मेलन में कुछ वैज्ञानिकों ने आरोप लगाया कि ठोस वैज्ञानिक प्रयोगों की योजना बनाने के बजाय कई वैज्ञानिक भावुक हो रहे हैं और स्वप्न देख रहे हैं। तब सम्मेलन के अध्यक्ष ने स्वयं स्थिति को संभालते हुए कहा मानव ने सदा स्वप्न देखे हैं और उन्हें साकार किया है। अगर इस सम्मेलन में भी कुछ वैज्ञानिक स्वप्न देख रहे हैं तो शायद वे अपने पुरखों की परंपरा का ही पालन कर रहे हैं। मैं समझता हूं, हमें अपने आगामी धूमकेतु मिशन में सभ्यता के बीज भी भेजने चाहिए और कालपात्र भी। मिशन के कुल व्यय को देखते हुए यह व्यय नगण्य होगा।सम्मेलन के अंतिम और निर्णायक सत्र में इन प्रस्तावों को स्वीकृति दे दी गई।   

सम्मेलन में एक महत्वपूर्ण निर्णय यह लिया गया कि कालपात्र और सभ्यता के बीज रखने के लिए धूमकेतु पर रोबोट लेंडर उतारा जाएगा जो इन्हें सावधानी से धूमकेतु पर उतार देगा। यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के प्रतिनिधियों ने कहा कि एजेंसी 2014 में रोजेटा यान से चुरूमोव-गेरासिमेंको धूमकेतु पर रोबोट लेंडर उतारने की योजना पर काम कर रही है। अनेक वैज्ञानिकों ने डीप इम्पैक्ट अभियान की सफलता को देखते हुए वर्ष 2014 तक की अवधि को बहुत लंबा समय बताया। इसलिए सर्वसम्मति से निश्चय किया गया कि यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी बेशक अपनी प्रस्तावित योजना पर काम जारी रखे लेकिन नए अंतरराष्ट्रीय मिशन को पहले पूरा करने में पूरी मदद करे। एजेंसी ने रोबोट लेंडर तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपने का अनुरोध किया जिसे स्वीकार कर लिया गया।

प्रस्तावित मिशन को मिशन धूमकेतु-2’ का नाम दिया गया और इसे आगामी पांच-छः वर्षों के भीतर कार्यरूप देने का निश्चय किया गया। सम्मेलन में आगामी वर्षों में आने वाले धूमकेतुओं में से किसी धूमकेतु का चयन करके उस पर कालपात्र और सभ्यता के बीज उतारने का निश्चय कर लिया गया।

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सभ्यता के बीज

वर्ष 2008। अंतराष्ट्रीय सहयोग से स्थापित अंतरिक्ष स्टेशन की ब्रह्मांड को टटोलती विशाल दूरबीन ने नवंबर में पृथ्वी की ओर आ रहे एक अज्ञात धूमकेतु की झलक पा ली। धीरे-धीरे धूमकेतु का आकार स्पष्ट होता चला गया और वह ज्यों-ज्यों सूर्य की ओर बढ़ता गया, उसकी पूंछ बढ़ती चली गई। जनवरी अंत में धूमकेतु को कोरी आंखों से देखना संभव हो गया। अपनी लाखों मील लंबी पूंछ लहराता धूमकेतु पृथ्वी के आकाश में अनोखी छटा बिखेरने लगा। कोरी आंखों से वह नील गगन में रूई के फाहे-सा तैरता दिखाई देता। धूमकेतु के शुभ-अशुभ होने या अकाल और युद्ध जैसी विपदाएं लाने की बातें पिछली सदी के आठवे दशक में धूमकेतु हेली के साथ ही हवा हो गई थीं फिर भी कुछ पुराने विचारों वाले लोगों का मन भय और आशंका से भरा हुआ था। तब विश्व भर में हेली दर्शन का आयोजन किया गया था जिससे लोगों को इस बात का विश्वास हो सके कि धूमकेतु अंतरिक्ष के सुंदर सैलानी हैं। बड़ी संख्या में लोग इस बात को समझ गए कि धूमकेतु के सुंदर, नयनाभिराम दृश्य को देखना जीवन की एक अनोखी उपलब्धि है। उसके बाद पिछली सदी के अंत में, वर्ष 1997 में जब 4000 वर्ष बाद धूमकेतु हेल-बाप आकाश में चमका तो लाखों लोगों ने महीनों तक उसका नजारा देखा था। उसके बाद भी कुछ धूमकेतु आए थे लेकिन उन्हें कोरी आंख से नहीं देखा जा सका।

    वर्षों बाद अब यह धूमकेतु सौरमंडल की सैर पर आ रहा था। वैज्ञानिक प्रथा के अनुसार वैज्ञानिकों ने उसका नाम ‘2011डीरख दिया। वर्ष 2011 में दिखाई देने वाला यह चैथा धूमकेतु था। इसी प्रथा के अनुसार इसे खोजने वाले वैज्ञानिकों के नाम पर इसका नामकरण बाद में करने का निश्चय किया गया।

    मिशन धूमकेतु-2 की युद्ध स्तर पर तैयारियां चल रही थी। यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी की ओर से निर्मित रोबोट लेंडर केप केनवरल के वायु सेना केन्द्र में काफी पहले पहुंच चुका था। उस पर परीक्षण पूरे हो चुके थे। सभ्यता के बीजों में सभी प्रमुख फसलों, फलों, साग-सब्जियों, फूलों और पेड़-पौधों के बीज, कंद-मूल आदि रखे गए। उन्हें जीवाणुओं और विषाणुओं से पूरी तरह मुक्त कर लिया गया ताकि अगर किसी अन्य लोक में वे बीज पहुंचें तो वहां पृथ्वी के अदृश्य जीवाणुओं या विषाणुओं का हमला न हो सके। धातु के एक विशेष फ्लास्क के भीतर द्रव नाइट्रोजन में मानव तथा कुछ पशुओं के निषेचित डिंब व प्रारंभिक अवस्था के भ्रूण भी रख दिए गए।

    कालपात्र में मानव सभ्यता के इतिहास का संक्षिप्त विवरण रखने के साथ ही उसकी सभ्यता के प्रमुख चिह्नों के फोटो भी रखे गए। मजबूत धातु की कम्प्यूटर डिस्कों में पक्षियों के कलरव, बारिश की रिमझिम, हवा की सांय-सांय और सागर के गर्जन की आवाजें, संगीत की धुनें और पृथ्वी के तमाम दृश्य भरे गए। इन सबके साथ टंगस्टन धातु के फलक के एक ओर सौरमंडल में पृथ्वी, अन्य ग्रहों और हमारे सूर्य की स्थिति उकेरी गई। फलक के दूसरी ओर यह संदेश उकेरा गयाः

    अनजाने लोक के साथियों, हम आकाशगंगा के एक सौरमंडल में स्थित छोटे-से ग्रह पृथ्वी के निवासी सौहार्द और शांति की कामना करते हैं। हमारे सौरमंडल में एक सूर्य और नौ ग्रह हैं। हम जिस ग्रह पृथ्वीमें रहते हैं उसके चारों ओर वायुमंडल है। ग्रह का दो-तिहाई भाग पानी से भरा है। पृथ्वी का एक चांद है जो इसका चक्कर लगाता है। हमारे सौरमंडल के सभी ग्रह अपनी धुरी पर घूमते हैं और सूर्य की परिक्रमा करते हैं। पृथ्वी के घूमने के कारण यहां दिन और रात होते हैं। इस ग्रह पर हमारी आबादी करीब 6 अरब है। इसके अलावा करोड़ों पशु-पक्षी, मछलियां कीड़े-मकोड़े और सूक्ष्म जीव हैं। पेड़-पौधों की लाखों जातियां हैं। हम इनके कुछ नमूने साथ भेज रहे हैं। अगर ये आपकी दुनिया में किसी काम आ सकें तो इसे अपनी ब्रह्मांडीय बिरादरी में हमारी ओर से एक छोटी-सी भेंट मान लेना और यह भी मान लेना कि इस विशाल ब्रह्मांड में आप अकेले नहीं हैं। हम आपके साथ हैं। हम इस धूमकेतु के सदा आभारी रहेंगे जिसने हमारा संदेश आपकी दुनिया तक पहुंचाया। हमारे और हमारी दुनिया के बारे में आपको इस सामग्री से काफी जानकारी मिल जाएगी। शांति और सहयोग की कामना के साथ- हम सभी पृथ्वीवासी।

    वैज्ञानिकों की गणना के अनुसार धूमकेतु 2011डी मई माह में पृथ्वी से सबसे कम दूरी पर पहुंचने वाला था। इसलिए मिशन धूमकेतु-2 के अंतरिक्ष यान के प्रक्षेपण की तैयारी तेजी से की जाने लगी। गणना के अनुसार यान को धूमकेतु तक पहुंचने में साढ़े पांच माह का समय लगना था। यान के प्रक्षेपण की तिथि 20 नवंबर 2010 तय कर दी गई।

    20 नवंबर 2010 को दुनिया भर के लोग अपने टी वी सेटों पर केप केनवरल से मिशन धूमकेतु-2 के प्रक्षेपण का आंखों देखा हाल सुन रहे थे।

…..केप केनवरल…..मिशन धूमकेतु-2 के प्रक्षेपण का काउंट डाउन शुरू हो गया है…..यान का प्रक्षेपण कुछ क्षणों के बाद ठीक 2:35:04 बजे अपराह्न को किया जा रहा है…..पांच….चार….तीन…..दो….एक…..शून्य। और, आप देख रहे हैं शक्तिशाली बोइंग डेल्टा-4 राकेट धुएं का गुबार छोड़ता हुआ यान को लेकर अंतरिक्ष की ओर कूच कर गया है…..आसमान साफ है इसलिए राकेट के धुंए की लंबी लकीर आकाश में दूर तक दिखाई दे रही है……राकेट मिशन धूमकेतु-2 के अंतरिक्ष यान को लेकर अंतरिक्ष में ओझल हो गया है…..

…..मिशन धूमकेतु-2 महत्वाकांक्षी अंतरिक्ष अभियान है। इस यान के दो भाग हैं- एक है मुख्य यान और दूसरा रोबोट लैंडर। धूमकेतु के निकट पहुंचने के बाद मदरशिप अर्थात् मुख्य यान लगभग 500 से 800 किलोमीटर की दूरी बनाए रख कर अपनी शक्तिशाली दूरबीनों से धूमकेतु और रोबोट लेंडर की तस्वीरें लेगा। उन पर लगातार नजर रखेगा। और, रोबोट लैंडर मुख्य यान से 48 घंटे पहले अलग होकर धूमकेतु के पास पहुंचेगा। उसके संवेदनशील उपकरण धूमकेतु के चलने की गति की गणना करेंगे। रोबोट लैंडर वही गति अपना कर धूमकेतु की सतह पर साफ्ट लैंडिंग करेगा। रोबोट लैंडर के नुकीले पाए धूमकेतु की सख्त बर्फ में पर्वतारोहियों के कंटीले जूतों की तरह मजबूती से टिक जाएंगे। नियंत्रण कक्ष के निर्देशों के अनुसार रोबोट लैंडर के पाए कदम बढ़ाएंगे और कुछ जगहों की सामग्री खोद कर उसकी जांच करेंगे। लैंडर से इस्पात की एक लंबी खोखली छड़ निकलेगी और बर्मे की तरह सूराख करके गहराई से धूमकेतु की सामग्री निकालेगी। उसकी भी जांच की जाएगी।

…….लैंडर एक गड्ढा खोदेगा जिसमें कालपात्र और सभ्यता के बीजों की पेटी डाल दी जाएगी।…..

…..हमें 17 मई तक इंतजार करना होगा जब रोबोट लैंडर धरती से लगभग 13 लाख किलोमीटर दूर अंतरिक्ष में धूमकेतु पर उतर कर ये सभी काम करेगा।…..

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11.25.05- मिशन धूमकेतु-2 स्टेटस रिपोर्ट  

मिशन धूमकेतु-2 सफलतापूर्वक आगे बढ़ रहा है। उसके सभी उपकरण ठीक काम कर रहे हैं। दूरबीनों, स्पेक्ट्रोमीटर और कैमरों को चांद की ओर घुमा कर फोकस करके देखा जा चुका है। उनसे उम्दा तस्वीरें मिलने की आशा है।

    आकंड़ों से पता लगा है कि यान ने अपने सौर-पैनलों का परीक्षण कर लिया है। यान को नियमित रूप से ऊर्जा मिल रही है। यान आशातीत सफलता के साथ आगे बढ़ रहा है। इस अंतरराष्ट्रीय मिशन से जुड़े सभी वैज्ञानिक यान की स्थिति से संतुष्ट हैं।

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    मिशन धूमकेतु-2 लगभग निर्धारित समय के अनुसार ही धूमकेतु 2011डी के पास तक पहुंच गया। नियंत्रण कक्ष के निर्देश पाकर रोबोट लैंडर मुख्य यान से अलग हुआ। उपकरणों ने धूमकेतु की गति का संकेत दिया और रोबोट लैंडर अपनी गति को उसी हिसाब से नियंत्रित करते हुए धूमकेतु के बहुत पास पहुच गया। फिर नियंत्रण

कक्ष के निर्देशों के अनुसार धीरे-धीरे धूमकेतु की सतह पर उतर गया। रोबोट लैंडर भी अपने कैमरे से पृथ्वी पर लगातार तस्वीरें भेज रहा था। कालपात्र और सभ्यता के बीजों की पेटी रोबोट लैंडर से जुड़ी हुई थी। धूमकेतु की सतह पर रोबोट लैंडर किसी बर्फीले वीराने में भटकी हुई गाड़ी की तरह दिखाई दे रहा था। उसके उपकरणों ने अपना काम शुरू कर दिया था और वे धूमकेतु की रचना के बारे में बेशकीमती जानकारी पृथ्वी पर भेज रहे थे। वैज्ञानिकों के अनुमान के अनुसार रोबोट लैंडर से पांच माह तक आंकड़े मिलने की आशा थी। सूरज से न्यूनतम दूरी पर पहुंच कर जब धूमकेतु की वापसी यात्रा शुरू होगी तब सौर हवा से उसकी लाखों किलोमीटर लंबी पूंछ की दिशा बदल जाएगी। वह धूमकेतु की राह में आगे की ओर हो जाएगी। पूंछ के दिशा परिवर्तन के समय रोबोट लैंडर पर धूल और गैसों की बौछार होगी जिससे उपकरणों को नुकसान पहुंचने की आशंका थी। लेकिन तब तक उसके उपकरणों के ठीक-ठाक काम करने की आशा थी।

    उधर मुख्य यान रोबोट लैंडर को छोड़ने के बाद धूमकेतु से 700 किलोमीटर की दूरी बना कर धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था और धूमकेतु तथा रोबोट लैंडर की तस्वीरें पृथ्वी पर भेज रहा था। रोबोट लैंडर के धूमकेतु पर उतरने के अद्भुत दृश्य मुख्य यान ने ही भेजे थे। वह दो माह तक धूमकेतु के चित्र भेजता रहा और फिर अंतरिक्ष की असीम गहराइयों में कहीं खो गया।

    वैज्ञानिकों की दृष्टि से मिशन धूमकेतु-2 आशा के अनुरूप सफल रहा। इस मिशन से मिले आंकड़ों के अध्ययन से धूमकेतुओं के बारे में पहली बार इतनी अधिक प्रामणिक जानकारी मिली। इस मिशन की उपलब्धियों पर हाइडेलबर्ग, जर्मनी में आयोजित अंतरराष्ट्रीय धूमकेतु सम्मेलन में विस्तृत चर्चा हुई और इसका श्रेय अंतरराष्ट्रीय सहयोग को दिया गया। उस सम्मेलन में यह भी निश्चय किया गया कि भावी धूमकेतु अभियानों में भी इसी तरह सभी सहयोगी मित्र देशों का सहयोग लिया जाएगा। सम्मेलन में एक महत्वपूर्ण निर्णय यह भी लिया गया कि आगामी धूमकेतु मिशन में रोबोट लैंडर न केवल धूमकेतु पर उतारा जाए बल्कि वह धूमकेतु की सतह से बर्फ, धूल, गैस आदि के नमूने भी एकत्र करे और फिर आकर मुख्य यान से जुड़ कर पृथ्वी पर लौट आए। जिस तरह कभी चांद की मिट्टी लाई गई थी उसी तरह धूमकेतु की सतह के नमूने भी प्राप्त किए जाएं।

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हम यहां हैं

धूमकेतु तो सौरमंडल की सैर पर कभी भी आ धमकते हैं। मिशन धूमकेतु-2 को कई वर्ष बीत चुके थे। ब्रह्मांड की टोह लेती अंतरिक्ष में स्थित शक्तिशाली दूरबीनों ने एक और विशाल धूमकेतु के आने का संकेत दिया। वह पृथ्वी से करोड़ों किलोमीटर दूर था लेकिन अब तक आए अन्य धूमकेतुओं की तुलना में उसके सिर का आकार काफी बड़ा लगता था। सूर्य से बहुत दूर होने के कारण अभी उसकी पूंछ का आकार बहुत बड़ा नहीं हुआ था लेकिन वैज्ञानिकों का कहना था कि धीरे-धीरे यह लाखों किलोमीटर लंबी हो जाएगी। वैज्ञानिक धूमकेतु के मार्ग की गणना में जुट गए। गणना से यह स्पष्ट लगता था कि वह धूमकेतु हमारी पृथ्वी के काफी करीब से गुजरेगा। पृथ्वी उसकी विशाल पूंछ से होकर गुजरेगी। पूंछ की धूल और गैसों की बौछार कैसी होगी यह तभी पता लग सकेगा।

    इस धूमकेतु के आगमन की खबर से विश्व भर में धूमकेतु अध्ययन में जुटे वैज्ञानिक सतर्क हो गए और अंतरराष्ट्रीय सहयोग से मिशन धूमकेतु-3 को कार्यान्वित करने की तैयारियां जोर-शोर से शुरू कर दी गईं। पृथ्वी के काफी निकट से गुजरने की आशंका के कारण विश्व भर में धूमकेतु जागरूकताअभियान चलाने का निश्चय किया गया ताकि लोगों को किसी प्रकार का भय न रहे। हर संभव मीडिया से धूमकेतु की छवि अंतरिक्ष के एक सुंदर सैलानी के रूप में प्रस्तुत करने का निश्चय किया गया।

    धूमकेतु लगातार आगे बढ़ रहा था।

    कई देशों ने धूमकेतु के पृथ्वी के निकट आने पर अपने अंतरिक्ष यानों से अलग से भी धूमकेतु की जांच करने का निश्चय किया। कुछ और देशों ने अंतरिक्ष में पहले से मौजूद अपने अंतरिक्ष यानों का मार्ग बदल कर धूमकेतु के करीब भेजने का निर्णय लिया। इस तरह इस बार धूमकेतु के अध्ययन की अभूतपूर्व तैयारियां की गईं।

    धूमकेतु निकट आता जा रहा था। अब सौर विकिरण और हवाएं उसकी धूल और गैसों के गुबार को पीछे अंतरिक्ष में धकेलने लगी थीं जिससे उसकी लाखों किलोमीटर लंबी पूंछ लहराने लगी। नियत तिथि और समय पर केप केनवरल से मिशन धूमकेतु-3 को अंतरिक्ष में रवाना कर दिया गया। अंतरिक्षयान नए सुधरे हुए रोबोट लैंडर के साथ अपने लक्ष्य की ओर चल पड़ा।

    गरीब और विकासशील देशों में ही नहीं, कई विकसित देशों में भी ज्योतिषियों ने धूमकेतु के बारे में अपना कुप्रचार जारी रखा कि इसका आगमन अशुभ है और इससे भूख, बीमारी और युद्ध की घटनाएं बढ़ेंगी। दुर्घटनाओं में वृद्धि होगी। राजनीतिक उथल-पुथल होगी। इस आशंका से डर कर कई राजनीतिज्ञों ने धूमकेतु का आसन्न प्रभाव नष्ट करने के लिए चुपके-चुपके निराकरण अनुष्ठानो की व्यवस्था की। पूजा, यज्ञ आदि सम्पन्न किए गए।  लेकिन, मीडिया के माध्यम से धूमकेतु की जानकारी से लोगों की जागरूकता बढ़ी और विश्व भर के करोड़ों लोग धूमकेतु के आगमन का एक अशुभ घटना के रूप में नहीं बल्कि आकाश के एक नयनाभिराम, अलौकित व दर्शनीय दृश्य के रूप में इंतजार करने लगे जिसे देखने का जीवन में प्रायः एकाध ही अवसर मिलता है।

    धूमकेतु बृहस्पति और मंगल ग्रह की कक्षाओं के बीच में पहुंच चुका था। मिशन धूमकेतु-3 अंतरिक्ष-यान अपनी राह पर अबाध गति से आगे बढ़ रहा था। कई अंतरिक्ष यानों के मार्ग में परिवर्तन किए जाने लगे ताकि वे वक्त आने पर निकट से धूमकेतु दर्शन कर सकें।

    अपनी साढ़े चार माह की यात्रा पूरी करके अंततः मिशन धूमकेतु-3 यान नए धूमकेतु के निकट पहुंच गया और अपनी शक्तिशाली दूरबीनों से धूमकेतु की सतह के शानदार चित्र पृथ्वी पर भेजने लगा। चित्रों के विश्लेषण से वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया कि इस धूमकेतु की बर्फीली सतह इससे पूर्व के धूमकेतुओं की तुलना में कहीं अधिक कड़ी है। नियत दूरी पर पहुंच जाने के बाद रोबोट लैंडर को मुख्य यान से अलग होकर धूमकेतु की सतह पर उतरना था और मुख्य यान को इन दृश्यों के चित्र भेजने के बाद आगे बढ़ कर निर्धारित दूरी से  नियंत्रण कक्ष के निर्देशों के अनुसार धूमकेतु की समानांतर दिशा में वापस लौटना था।

मुख्य यान से रोबोट लैंडर को अलग होने में केवल कुछ ही मिनट शेष रह गए थे। मुख्य यान की दूरबीनें धूमकेतु की सतह को टटोल रही थीं कि तभी….तभी…..यान के संवेदनशील यंत्रों ने सतह पर एक जगह किसी ठोस धातु की उपस्थिति का संकेत दिया। दूरबीन को उस स्थान पर फोकस करने के बाद पता लगा कि बर्फ में निश्चित रूप से धातु की कोई चीज है। नियंत्रण कक्ष ने रोबोट के उतरने के लिए वही स्थान निर्धारित किया और रोबोट लैंडर को उतरने का निर्देश दिया। रोबोट लैंडर मुख्य यान से अलग होकर धूमकेतु की सतह पर उतरने के लिए आगे बढ़ा और मुख्य यान निश्चित दूरी पर आगे बढ़ते हुए रोबोट लैंडर के उतरने की तस्वीरें पृथ्वी पर भेजने लगा। रोबोट लैंडर का लक्ष्य-संवेदी उपकरण उसे निर्धारित स्थान की ओर बढ़ने में मदद कर रहा था।

    रोबोट लैंडर धीरे-धीरे धूमकेतु के उस निर्धारित स्थान पर उतर गया। पृथ्वी से निर्देश पाकर वह अपने नुकीले पायों से धीरे-धीरे आगे बढ़ा। सतह के नमूने लेने के लिए उसकी यांत्रिक बांहें बाहर निकलीं। उन्होंने सतह को खुरचा, खोदा और बर्फ व मलबे की कुछ मात्रा उठा कर लैंडर की पेटी में जमा कर दी। तब नियंत्रण कक्ष ने रोबोट लैंडर को धातु का संकेत देने वाले स्थान की फिर जांच करने का निर्देश दिया। सुरक्षा की दृष्टि से भी जांच की गई। एक्स-किरणों और इंफ्रारेड किरणों से पता लगा कि धातु की वस्तु बेलनाकार और किरणों के लिए अभेध्य है। इसलिए पृथ्वी पर वैज्ञानिक उसकी भीतरी रचना का कोई अनुमान नहीं लगा सके। गंभीर विचार-विमर्श करने के बाद निर्णय लिया गया कि उस अज्ञात वस्तु को भी नमूने के रूप में पृथ्वी पर मंगाया जाए। इसके लिए रोबोट को निर्देश दे दिए गए। रोबोट लैंडर की दोनों बाहें बर्फ हटाने लगीं। नियत्रंण कक्ष के निर्देश पर रोबोट लैंडर ने लौटे हुए मुख्य यान का लक्ष्य तय किया, अपने रोबोट इंजन दागे और धूमकेतु की सतह से ऊपर उठ कर मुख्य यान की ओर चल पड़ा।

    मुख्य यान से जुड़ने के बाद मिशन धूमकेतु-3 की पृथ्वी की ओर वापसी यात्रा शुरू हुई। इस मिशन को अब तक आशातीत सफलता मिल चुकी थी। यह अंतरिक्ष यान मानव इतिहास में पहली बार न केवल धूमकेतु के नमूने लेकर लौट रहा था बल्कि उसकी सतह पर से एक अज्ञात और रहस्यमय धातु पिंड को भी ला रहा था। पृथ्वी पर वैज्ञानिक उस धातु पिंड के बारे में कई तरह की आशंकाएं और अनुमान व्यक्त कर रहे थे लेकिन उनकी दृष्टि में खोज के लिए यह खतरा मोल लेना भी अनिवार्य था। इस बात को ध्यान में रखते हुए अंतरिक्ष यान के पृथ्वी पर लौटने के बाद उसकी हर दृष्टि से कड़ी जांच करने का निश्चय किया गया। इसके लिए युद्ध स्तर पर आवश्यक तैयारियां शुरू कर दी गईं।

    यान की सुरक्षित वापसी के बाद उसे क्वारंटाइन में रखा गया और जांच की गई कि धूमकेतु के सम्पर्क से लौटे अंतरिक्ष यान के साथ कहीं कोई जीवाणु, विषाणु तो नहीं आ गए। ऐसे नए जीवाणु, विषाणु या कोई अन्य सूक्ष्मजीव धरती पर जीवन के लिए खतरनाक साबित हो सकते थे। साथ ही यह भी कि अगर कोई सूक्ष्मजीव है तो धूमकेतु पर जीवन की संभावना सच साबित हो सकती है। फिर, प्रोफेसर फ्रेड हायल व चंद्र विक्रम सिंघे की यह बात भी सच साबित हो जाएगी कि धूमकेतुओं से भी जीवन का बीजारोपण हो सकता है।

    कई दिनों की कड़ी जांच के बाद भी यान पर सूक्ष्मजीवों काी उपस्थिति का पता नहीं लगा। फिर भी यान का पूरी तरह निर्जर्मीकरण कर लिया गया। रोबोट लैंडर द्वारा एकत्रित नमूनों को सख्त सुरक्षा में बिल्कुल पृथक रखा गया ताकि कोई भी सीधे उनके संपर्क में न आ सके। हर तरह से सुरक्षित तथा निर्जर्मीकृत प्रयोगशाला में, विशेष पोशाक और मास्क पहन कर नमूनों के विश्लेषण का कार्य शुरू हुआ। धातु के बेलनाकार पिंड की जांच के लिए वैज्ञानिकों का एक अति गोपनीय दल बना दिया गया जो न केवल प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों बल्कि स्वयं मानव सभ्यता की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए उसकी गहन जांच में जुट गया।

    उधर धूमकेतु मंगल के परिक्रमा पथ को पार कर पृथ्वी और मंगल के बीच से गुजर रहा था। मंगल तब सूर्योच्चस्थिति में था। पृथ्वी व सूर्य से निकटतम दूरी की यह स्थिति 17 वर्ष बाद आई थी। धूमकेतु ज्यों-ज्यों सूर्य से न्यूनतम दूरी पैरीहिलियनकी ओर बढ़ रहा था उसकी पूंछ की मनोहारी छवि द्विगुणित हो रही थी। आकाश में विचरते उस पुच्छल तारे की पूंछ पूरी पृथ्वी को अपनी लपेट में लेने को भी आगे बढ़ रही थी। उस दिन की प्रतीक्षा सभी कुतूहल के साथ कर रहे थे।

और, धूमकेतु पृथ्वी के पास से होकर गुजरने लगा। कई अंतरिक्षयानों ने करीब से उसकी तस्वीरें लीं। अपने उपकरणों से उसका अध्ययन किया। पृथ्वी के एक बहुत बड़े भूभाग से धूमकेतु की पूंछ गुजरी। संवेदशील उपकरणों ने बेशक कुछ गैसों और धूल की न्यून मात्रा की उपस्थिति का पता लगा लिया लेकिन आम लोगों को उसका विशेष पता नहीं लगा। लाखों किलोमीटर लंबी पूंछ जैसे पृथ्वी को बुहार कर चली गई। जाते हुए धूमकेतु की मनोहारी छवि करोड़ों लोगों ने देखी। अंतिम कुछ महीनों में वह सूर्यास्त के बाद आकाश में एक अद्भुत रचना के रूप में दिखाई देता रहा।

    धूमकेतु धरती को अलविदा कर रहा था लेकिन सुरक्षा पोशाक पहने चंद वैज्ञानिकों का दल धातु पिंड की जांच में जुटा था। धातु पिंड को करीब से अच्छी तरह देखते ही वैज्ञानिक चैंक पड़े। उस पर संकेत चिह्न बने थे। उस बेलनाकार धातु पिंड को बेहद सावधानी के साथ घुमाने पर वह खुल गया। भीतर कुछ गोल डिस्कनुमा चीजें रखी थीं और एक धातु के फलक पर चित्र उकेरा गया था। उसका अध्ययन करने पर पता लगा कि उसमें एक ऐसा सूर्य दिखाया गया है जिसके चारों ओर छोटे-बड़े आकार के ग्यारह ग्रह परिक्रमा कर रहे हैं। उनमें से अधिकांश बहुत विशाल ग्रह थे। जिन दो ग्रहों पर संकेत चिह्न लगे थे वे आकार में बड़े ग्रहों से काफी छोटे थे। उनमें से एक के चारों ओर चार और दूसरे के दो चांद दिखाए गए थे। उन ग्रहों के पास ही बड़ी-बड़ी आंखों वाले विचित्र आकृति के कुछ जीव दिखाए गए थे।

    वैज्ञानिकों ने हर्षातिरेक में एक-दूसरे को गले लगा लिया। यह कालपात्र था। ब्रह्मांड की किसी दूसरी सभ्यता द्वारा भेजा गया कालपात्र। मतलब ब्रह्मांड के किसी ग्रह में वे भी हैं। जांच करने वाले वैज्ञानिक खुशी से चिल्लाए- मतलब इस विशाल ब्रह्मांड में हम अकेले नहीं हैं। कहीं किन्हीं दो अनजान ग्रहों पर भी सभ्यता पनप रही है। अपूर्व और अविश्वसनीय। वैज्ञानिकों ने शांत होकर उस सामग्री का गंभीर अध्ययन शुरू किया। विशाल ब्रह्मांड की असंख्य मंदाकिनियों के अनगिनत नक्षत्रों की परिक्रमा कर रहे लाखों अज्ञात ग्रहों में से कौन-से दो ग्रह हैं वे? ब्रह्मांड के किस कोने में हैं वे? वे संकेतों की भाषा को समझने की कोशिश करते रहे। संकेतों के कूट को पढ़ने का प्रयास करते रहे और धीरे-धीरे उनके संकेत समझ में आने लगे। उन्होंने पहली डिस्क को उठा कर उलट-पुलट कर देखा और फिर खुले हुए ढक्कननुमा भाग पर रख दिया। और अचानक……उसमें से एक भारी आवाज आने लगी। अजीबोगरीब और अनजानी आवाज। फिर संगीत का झरना-सा फूट पड़ा। उसके बाद काफी देर तक कई तरह की आवाजें आती रहीं। उनमें से कोई भी जानी-पहचानी आवाज नहीं थी। लेकिन, सहसा….. सहसा…..सांय….सांय..हवा चलने की आवाज सुनाई दी। फिर बादल गरजे, बिजली कड़की और रिमझिम बारिश…..हां, वह बारिश की ही आवाज थी…..वैज्ञानिकों का मन भीतर तक भीग गया। मतलब वहां….वहां….भी जीवन है! मतलब हम….हम…ब्रह्मांड में अकेले नहीं हैं।

    आवाज रूकने के बाद उन्होंने दूसरी डिस्क उठाई। उसमें से भी आवाज और संगीत की जैसी लय सुनाई दी। जांच करने वाले वैज्ञानिकों को लगा डिस्क दृश्य रूप में देखने के लिए है। लेकिन, उस अलग आकार की डिस्क को कम्प्यूटर के विशेष डी

वी डी मोड में लगा कर देखना संभव नहीं था। तब निश्चय किया गया कि डिस्क के लिए उसके आकार के अनुसार डी वी डी मोड बना कर देखा जाए।

    और, तब उस आकार में डी वी डी मोड पर डिस्क को देखना संभव हो गया। वह सभ्यता भी शायद इस प्रकार की कम्प्यूटर प्रौद्योगिकी से परिचित थी। कम्प्यूटर के स्क्रीन पर उस अलौकिक दुनिया का अनोखा दृश्य उभरा। शुरूआत उनके सूर्य और ग्रहों के बनने से हुई। वे शायद यह बताना चाहते थे कि जिस दुनिया में वे रहते हैं वह कैसे बनी। ग्रहों के बन जाने के बाद उन्होंने डिस्क में आकाश से गुजरते धूमकेतु दिखाए। ग्रहों पर उन धूमकेतुओं से झरती धूल दिखाई और उस धूल से जल और थल में पनपता जीवन दिखाया। जीवन का विकास दिखाया कि कैसे वहां जल और थल में जीवन पनपा। और, धीरे-धीरे उनके पुरखे विकास की दौड़ में आगे बढ़ गए। वे पूरे ग्रह पर फैल गए। डिस्क के दृश्यों में एनीमेशन से चारों ओर विचरते वही जीव दिखाए गए थे- डायनोसौर! हां, हमारी दुनिया के प्राचीन डायनासोरों की तरह के प्राणी।

डिस्क देख रहे वैज्ञानिक चौंके। तो, क्या कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी पृथ्वी और उनकी दुनिया में जीवन का बीजारोपण एक ही स्रोत से हुआ हो? जिसने वहां जीवन बोया, उसी ने यहां भी जीवन के बीज बोए? तो क्या वहां भी करोड़ों वर्ष पहले जुरैसिक युग आया होगा? तब तक यहां और वहां समानांतर विकास ही हुआ होगा? फिर यहां वह भीषण दुर्घटना हुई होगी।…..उन वैज्ञानिकों को नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक लुइस अल्वारेज और उनके वैज्ञानिक पुत्र वाल्टर के सातवें दशक के अंत में व्यक्त किए गए वे विचार याद आए कि……..साढ़े छः करोड़ वर्ष पहले 70 किलोमीटर प्रति सेकेंड की गति से लगभग 8 किलोमीटर व्यास का एक धूमकेतु धरती से टकराया होगा। उससे शायद 40 किलोमीटर गहरा और 80 किलोमीटर चैड़ा गड्ढा बना होगा। उससे निकली धूल और चट्टानों के गुबार से आकाश भर गया होगा। धूल की मोटी परत ने सूरज की किरणें रोक दीं होंगी। पृथ्वी पर अंधेरा छा गया होगा। अंधेरे में वनस्पतियां उजड़ गईं होंगी और डायनोसौर नष्ट हो गए होंगे…..धरती पर उनका साम्राज्य समाप्त हो गया होगा।

लेकिन, विकास की प्रक्रिया चलती रही, स्तनपोषी प्राणी विकास की दौड़ में सबसे आगे पहुंच गए और एक दिन वानर कुल का एक प्राणी आदमी के रूप में अपने दो पैरों पर खड़ा होकर विकास की सर्वोच्च सीढ़ी पर पहुंच गया। धूमकेतु ने धरती पर विकास की दिशा बदल दी।

लेकिन, वहां? वहां क्या हुआ होगा…? डिस्क के दृश्यों से बिल्कुल स्पष्ट था कि वहां जीवन उसी रूप में पनपता रहा। डायनासौरों का दोपाया पुरखा विकास की दौड़ में आगे बढ़ता रहा। वह अपने दो पैरों पर खड़ा हो गया। विकास क्रम में दो पैरों पर चलने वाला डायनोसोरायडप्राणी बन गया। डिस्क में उस दुनिया के प्राणियों ने अपने विकास के इतिहास की झांकी दिखाई थी। उनका पुरखा अपने दोनों हाथों से काम करने लगा। उसके हाथों में तीन-तीन अंगुलियां थीं। शरीर पर बाल नहीं थे। चेहरा नुकीला और उभरा हुआ था। उस पर दो बड़ी-बड़ी बिल्ली की तरह चमकदार आंखे थीं। समय के साथ शरीर सुघड़ बनता गया और आज वहां, उस दुनिया में उनका राज है।

लेकिन, वह दूसरा ग्रह? डिस्क के दृश्यों के अनुसार ग्रह में उनकी आबादी बढ़ती गई। सारे ग्रह में शहर फैल गए। तब उन्होंने अपने ग्रह के समान ही दूसरे ग्रह पर भी बसने का निश्चय किया। उनके अंतरिक्ष यानों ने दूसरे ग्रह का सर्वेक्षण किया। उसे उन्होंने जीवन की परिस्थितियों के अनुकूल बनाया। उन्होंने वनस्पतियों को तेजी से बढ़ाया। वन-उपवन लगाए। झीलों, तालाबों और नदियों का पानी हर जगह मुहैया कराया। और, फिर अपनी बस्तियां बसा दीं। डिस्क के दृश्य दर्शाते थे कि अब उन दोनों ग्रहों पर उनकी सभ्यता पनप रही थी। दोनों ग्रहों के बीच अंतरिक्ष यानों की आवाजाही दिखाई गई थी। अंतरिक्ष में विशाल स्टेशन भी दिखाए गए थे। इस सबके बावजूद शायद उन्हें लगता था कि वे ब्रह्मांड में निपट अकेले हैं क्योंकि डिस्क में सब कुछ दिखाने के बाद काफी देर तक विशाल ब्रह्मांड के सूने ग्रह-नक्षत्र दिखाए गए। फिर ग्रैफिक एनीमेशन से ग्रह के आकाश में आता हुआ एक धूमकेतु दिखाया गया। फिर….उनके ग्रह से धूमकेतु की ओर छोड़ा गया एक अंतरिक्ष यान दिखाया गया……यान को धूमकेतु की सतह पर एक बेलनाकार पिंड रखते हुए दिखाया गया।

और, अंत में उभरी उनकी अपनी तस्वीर। उस ग्रह के चार प्राणी अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से सामने ताक रहे थे। उन्होंने एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर घेरा बनाया और हल्का-सा सिर झुका कर सामने देखने लगे। शायद वे सहयोग की बात कहना चाहते थे। पृष्ठभूमि में बेलनाकार पिंड को लेकर धूमकेतु अपनी अनजानी राह पर आगे बढ़ रहा था- न जाने किस आकाशगंगा के कौन-से सौरमंडलों के कौन-से नक्षत्रों, ग्रहों और उपग्रहों के पार।

 

और यहां, सूर्य की निकटतम दूरी पर पहुंच कर धूमकेतु धरती के आकाश में जैसे पृथ्वीवासियों से विदा ले रहा था। उसकी वापसी यात्रा शुरू हो गई थी। आकाश में वह अपनी भव्य छवि दिखाते हुए लगातार वापस लौट रहा था- उसी अनजानी दुनिया की ओर, जहां से वह शायद हजारों वर्ष पहले चला था। बेलनाकार धातु-पिंड की गोपनीय जांच में जुटे वैज्ञानिकों ने एक शाम अपनी प्रयोगशाला से बाहर निकल कर गोधूलि की बेला में दूर अंतरिक्ष मे वापस लौट रहे उस धूमकेतु को विदा का हाथ हिलाया और मन ही मन कहा- उस अनजान दुनिया के निवासियों का संदेश यहां तक लाने के लिए हार्दिक आभार दोस्त। अलविदा!

धूमकेतु वापस लौट गया। उस अज्ञात सभ्यता के निवासियों को यह संदेश भेजने का वक्त भी न मिल सका कि उनका संदेश मिल गया है और यह भी पता लग गया है कि इस विशाल ब्रह्मांड में अब हम भी अकेले नहीं हैं। कोई नहीं जानता कि वह धूमकेतु अब कब लौटेगा। हो सकता है सौ साल बाद, पांच सौ साल बाद, पांच हजार साल बाद या पचास हजार साल बाद। ये भी हो सकता है कि वह अब लौटे ही नहीं। धूमकेतु तो यायावर हैं, कब आ जाएं, कौन जाने। लेकिन, यह धूमकेतु इतना संकेत तो दे ही गया कि ग्रहों पर धूमकेतुओं ने जीवन के बीज बोए हैं और वे बीज ब्रह्मांड में अन्यत्र भी पनपे हैं।

मगर, इस बात को अभी कौन जानता है? केवल वैज्ञानिक दल के वे सदस्य जो मिशन धूमकेतु-3 से मिले धातु-पिंड की गोपनीय जांच कर रहे हैं। इस जानकारी को सार्वजनिक बनाने के लिए न केवल खगोल वैज्ञानिक बिरादरी की सहमति लेनी होगी बल्कि इस मिशन में सहयोग दे रहे देशों के राष्ट्राध्यक्षों की स्वीकृति भी जरूरी होगी। गोपनीय जांच की रिपोर्ट को शीध्र ही राष्ट्राध्यक्षों को भेजने का निश्चय किया गया ताकि आगामी धूमकेतु सम्मेलन में मिशन की खोज के परिणामों की घोषणा की जा सके।

    धूमकेतु धरती के आकाश से दूर और दूर होता जा रहा था।

लेखक :

देवेंद्र मेवाड़ी

पताः सी-22, शिव भोले अपार्टमेंट्स

प्लाट नं. 20, सैक्टर-7

द्वारका फेज-1

नई दिल्ली- 110075

फोनः 9818346064

Email: dmewari@yahoo.com

अपोलो चंद्रयात्रा षडयंत्र (कांसपिरेसी) थ्योरी

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चंद्रयात्री बज आल्ड्रीन तथा नील आर्मस्ट्रांग नासा के प्रशिक्षण केंद्र मे चंद्रमा और लैंडर माड्युल के माडेल के साथ

चंद्रयात्री बज आल्ड्रीन तथा नील आर्मस्ट्रांग नासा के प्रशिक्षण केंद्र में लूनर लैंडर माड्युल के मॉडल के साथ[

वर्तमान मे कांसपिरेसी थ्योरियाँ एक बहुत बड़ा बाजार है और इस बाजार में कई तरह की कांसपिरेसी थ्योरी प्रचलित है जिनमे से एक है अपोलो चंद्रयात्रा षडयंत्र (कांसपिरेसी थ्योरी)। इस थ्योरी में ऐसे बहुत से लोग है जो यह मानते हैं कि मानव कभी चंद्रमा पर गया ही नहीं था।

अपोलो चंद्रयात्रा षडयंत्र (Moon Landing Conspiracy Theories) के अनुसार अपोलो अभियान का कुछ भाग या संपूर्ण अभियान ही झूठा था, इसे नासा ने कुछ अन्य संस्थाओ की सहायता से किसी फ़िल्म स्टूडियो में फ़िल्माया था। सबसे महत्वपूर्ण दावा यह है कि 1969 से 1972 के मध्य में सम्पन्न हुए छह चंद्रयानो के द्वारा 12 चंद्रयात्री चंद्रमा पर कभी गये ही नही थे। बहुत से समूह और व्यक्ति इस तरह के दावे 1970 के दशक के मध्य से कर रहे है कि नासा और अन्य संस्थाये आम जनता को गुमराह कर रहे है तथा वे गलत सबूतो को जनता के सामने दे रहे है। वे यह भी कहते है कि नासा फोटोग्राफ़िक प्रमाणो, टेलीमेट्री टेप्स, रेडीयो तथा टीवी प्रसारण रिकार्डींग, चंद्रमा की चट्टानो के नमूनो को नष्ट कर रहा है, तथा मुख्य गवाहों की हत्या कर रहा है, जिससे नासा का कथित झूठ पकड़ा ना जा सके।

चंद्रमा पर मानव के अवतरण के कई तृतीय पक्ष के प्रमाण भी उपलब्ध है, जिनका नासा से कोई संबंध नही है। इन कांसपिरेसी थ्योरी के दावो का कई बार , बहुत से समूहो/व्यक्तियों द्वारा विस्तृत रूप से खंडन किया जा चुका है। 2000 के बाद से नासा के अतिरिक्त कई अन्य अंतरिक्ष संस्थानो द्वारा चंद्रमा के उस क्षेत्र के जहां इन अभियानों के रॉकेट उतरे वहाँ के अत्याधिक उच्च गुणवत्ता(High Definition) वाले चित्र लिये जा चुके है जो आम जनता के लिये उपलब्ध है। इनमे अपोलो 11 के अतिरिक्त सभी चंद्र अभियानो द्वारा गाड़े गये अमरीकी झंडे अभी भी वहाँ मौजूद है, अपोलो 11 वाला अमरीकी ध्वज , चंद्रयात्रा से वापसी के समय वाले राकेट प्रज्वलन से उखड़ गया था।

कांसपिरेसी थ्योरी एक बड़ा व्यवसाय बन चुका है, इन थ्योरी पर आधारित पुस्तके लिखी जाती है, उनकी बिक्री होती है। टीवी पर डाक्युमेंट्री दिखाई जाती है और उसके विज्ञापनो से कमाई होती है। इंटरनेट के जमाने मे ऐसी कांसपिरेसी थ्योरी की बदौलत वेबसाईट चलती है, विज्ञापन से आय होती है। युट्युब जैसे विडियो चैनल पर अधिक लोगो को आकर्षित करने मे इस तरह की कांसपिरेसी थ्योरी बड़ा आकर्षण होती है।

कांसपिरेसी थ्योरी एक बड़ा व्यवसाय बन चुका है, इन थ्योरी पर आधारित पुस्तकें लिखी जाती है, उनकी बिक्री होती है। टीवी पर डाक्युमेंट्री दिखाई जाती है और उसके विज्ञापनो से कमाई होती है। इंटरनेट के जमाने मे ऐसी कांसपिरेसी थ्योरी की बदौलत वेबसाईट चलती है, विज्ञापन से आय होती है। युट्युब जैसे विडियो चैनल पर अधिक लोगो को आकर्षित करने मे इस तरह की थ्योरियों का बड़ा हाथ होता है

कांसपिरेसी थ्योरी वाले व्यक्तियों/समूहो के अपने पूर्वनिर्धारित लक्ष्य होते है जिनमे पुस्तको/विडियो/डाकुमेंट्री की बिक्री, युट्युब/इंटरनेट/टीवी पर विज्ञापनो से होने वाली आय प्रमुख है, स्पष्ट और तृतिय पक्ष वाले प्रमाणो के होने के बावजूद ये लोग इस मुद्दे को 40 वर्षो से अधिक जीवित रखे हुये है। इनमे कुछ लोकप्रिय टीवी चैनल भी है जिसमे फ़ाक्स टीवी(Fox TV) प्रमुख है और उसने 2001 मे एक बहुप्रसिद्ध वृत्तचित्र (Conspiracy Theory: Did We Land on the Moon?) प्रसारित किया था , जिसमे यह दावा किया गया था कि नासा ने रूस से अंतरिक्ष दौड जीतने के लिये 1969 मे अपोलो 11 अभियान का नाटक किया था।

कांसपिरेसी थ्योरी की शुरुवात

1976 मे अमरीकी नौसेना के अफ़सर बिल कायसींग(Bill Kaysing) ने अपने प्र्काशन से एक पुस्तक प्रकाशित की थी जिसका नाम था “Never Went to the Moon: America’s Thirty Billion Dollar Swindle“। बिल कायसींग अंग्रेजी विषय से कला क्षेत्र (Bachelor of Arts in English) से स्नातक थे जिन्हें राकेट की कार्यप्रणाली के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, इसके बावजूद 1956 मे सैटर्न V राकेट मे प्रयुक्त होने वाले F-1 इंजन बनाने वाली कंपनी राकेटडाईन(Rocketdyne) ने उन्हें तकनीकी लेखक(Technical Writer) की नौकरी दी थी। इस नौकरी मे उन्हे इंजीनियरो की सहायता से भिन्न प्रयोग, उपकरण की कार्य विधि का तकनीकी लेखन करना होता था। उन्होने 1963 तक इस कंपनी के तकनीकी प्रकाशन विभाग का नेतृत्व किया। उन्होने अपनी इस पुस्तक मे नासा पर कई आरोप लगाये और उन्होने दावा किया कि अपोलो अभियान ने चंद्रमा पर अवतरण किया ही नही। उनके अनुसार चंद्रमा पर सफ़ल मानव अभियान की संभावना केवल 0.0017% ही थी। उनके अनुसार सोवियत संघ (USSR) की कड़ी निगरानी के बावजूद नासा के चंद्रमा पर जाने की बजाय उसका नाटक करना अधिक आसान था।

1980 मे धरती को चपटी मानने वालो का समूह फ़्लैट अर्थ सोसायटी(Flat Earth Society) ने नासा पर चंद्रमा पर मानव अवतरण की अफ़वाह फ़ैलाने का आरोप लगाया। उन्होने कहा कि यह सारा अभियान वाल्ट डिजनी के फ़िल्म स्टूडीयो मे फ़िल्माया गया था, जिसकी सारी स्क्रिप्ट विज्ञान फ़तांशी लेखक आर्थर सी क्लार्के(Aurther C Clarke) ने लिखी थी और निर्देशन स्टेनली कुब्रिक (Stanley Kubrick) ने किया था। एक अन्य कांस्पिरेसी लेखिका लिंडा देघ ने कहा कि नासा का अपोलो अभियान लेखक निर्देशक पीटर ह्यम्स(Peter Hyams) की फ़िल्म कैप्रीकोर्न वन(Capricorn One) से मिलता है,जिसमे अंतरिक्ष यान से मंगल की यात्रा दिखाई गई है जोकि अपोलो यान से मिलता जुलता है।

इसके बाद ऐसे दर्जनो कांसपिरेसी थ्योरी लेखक सामने आये और ढेर सारी किताबे लिखी गई, कुछ वृत्तचित्र(Documentary) भी बने।

षडयंत्र थ्योरी के अनुसार नासा तथा अमरीका का उद्देश्य

इस कांसपिरेसी थ्योरी को मानने वालो के अनुसार नासा और अमरीका के पास इस ड्रामा को करने के लिये कई उद्देश्य थे। इनमे ये तीन उद्देश्य प्रमुख है।

अंतरिक्ष दौड़

सं रा अमरीका के लिये सबसे बड़ी चुनौती सोवियत संघ और उसके साथ चल रहा शीत युद्ध था। चंद्रमा पर मानव अवतरण अमरीका को विश्व व्यापक राष्ट्रीय तथा तकनीकी सफ़लता दिलाता और उन्हे सबसे आगे दिखाता। लेकिन चंद्रमा पर जाना खतरनाक और महंगा अभियान था, जैसा जान एफ़ केनेडी द्वारा 1962 मे दिये गये भाषण मे भी कहा गया था कि हमने चंद्रमा पर जाना चुना क्योंकि यह कठिन था।

इस कांसपिरेसी थ्योरी के विरोधी फ़िल प्लेट अपनी पुस्तक बैड आस्ट्रोनामी मे लिखते है कि सोवियत संघ के पास अपना प्रतिस्पर्धी चंद्र अभियान था, उनके पास एक बहुत बड़ा इंटेलीजेंस नेटवर्क था, तथा उनके पास नासा के आंकड़ों का विश्लेषण करने के लिये सक्षम वैज्ञानिको की फ़ौज थी। यदि नासा ने इस चंद्रमा पर मानव अभियान का ड्रामा रचा होता तो सोवियत संघ उसे झूठा प्रमाणित करने मे सक्षम था और उसने भंडाफ़ोड़ करने मे देर नही लगाई होती। वह भी उस स्थिति मे जब सोवियत संघ का अपना अभियान असफ़ल रहा था।

बार्ट सिबरेल(Bart Sibrel) जब बज आल्ड्रीन को परेशान कर बाइबल पर हाथ रख कर कसम खाने कह रहे थे, तब आल्ड्रीन ने उन्हे एक घूंसा मारा था। इस मामले मे अदालत ने माना था कि गलती बार्ट सीब्रेल की थी और वे आल्ड्रीन को नाहक परेशान कर रहे थे।

बार्ट सिबरेल(Bart Sibrel) जब बज आल्ड्रीन को परेशान कर बाइबल पर हाथ रख कर कसम खाने कह रहे थे, तब आल्ड्रीन ने उन्हे एक घूंसा मारा था। इस मामले मे अदालत ने माना था कि गलती बार्ट सीब्रेल की थी और वे आल्ड्रीन को नाहक ही परेशान कर रहे थे।

कांसपिरेसी थ्योरिस्ट बार्ट सिबरेल(Bart Sibrel) ने जवाब दिया कि सोवियत संघ के पास 1972 तक गहन अंतरिक्ष मे अंतरिक्षयान को ट्रेक करने की क्षमता नही थी। जैसे ही उनके पास यह क्षमता आई बचे तीन अपोलो अभियान रद्द कर दिये गये। बार्ट सिबरेल का यह जवाब एक सफ़ेद झूठ था। सोवियत संघ चंद्रमा तक मानवरहित अभियान 1959 से भेज रहा था तथा गहन अंतरिक्ष मे अंतरिक्षयानो को ट्रेक करने की क्षमता उनके पास 1962 से IP-15 तथा IP-16 के रूप मे क्रमश उस्सुर्जिस्क(Ussurjisk) तथा आईपटोर्जा(Eypatorja) उपग्रहो मे थी। सोवियत संघ ने अपोलो अभियान के यानो को स्पेस ट्रांसमिशन कार्प्स से ट्रेक किया था जोकि इस तरह के अभियानो पर नजर रखने के लिये पूरी तरह से उपकरणो और तकनीक से पूरी तरह लैस था। वैसीली मिशिन(Vasily Mishin) ने यह संपूर्ण विवरण एक लेख “The Moon Programme That Faltered” मे दिया है, यह लेख बताता है कि नासा द्वारा चंद्रमा पर सफ़ल मानव अवतरण के बाद सोवियत संघ का चंद्रमा अभियान कैसे बिखर गया।

अपोलो अभियान के अंतिम तीन अभियानों के रद्द होने की घोषणा दो वर्ष पहले 1970 मे ही खर्च पर कटौती के मद्देनजर कर दी गई थी।

नासा बजट और प्रतिष्ठा

कांसपिरेसी थ्योरी समर्थको के अनुसार नासा ने चंद्रमा पर मानव भेजने का ड्रामा अपनी बेइज्जती से बचने और बजट की आपूर्ति जारी रखने के लिये किया था। नासा को चंद्रमा अभियान के लिये 30 अरब डालर मिले थे, बिल कायसिंग ने अपनी पुस्तक मे लिखा था कि इन पैसो का प्रयोग बहुत से लोगो के मुंह बंद रखने के लिये किया गया था। अधिकतर कांसपिरेसी थ्योरी समर्थक मानते है कि उस समय की तकनीक से चंद्रयात्रा असंभव थी और जान एफ़ केनेडी द्वारा 1961 मे दशक के अंत तक चंद्रमा से मानव के सकुशल लौट कर आने के लक्ष्य को पूरा करने के लिये इस ड्रामा को पूरा करना आवश्यक था। तथ्य यह है कि 1973 मे नासा द्वारा अमरीकी कांग्रेस मे दिये गये खातो के अनुसार इस अभियान मे कुल 25.4 अरब डालर खर्च हुये थे।

मेरी बेन्नेट(Maru Bennet) तथा डेवीड पर्सी(David Percy) ने अपनी किताब “डार्क मून: अपोलो एन्ड द व्हिशल ब्लोवर्स(Dark Moon: Apollo and the Whistle-Blowers)” मे लिखा है कि सभी ज्ञात और अज्ञात खतरो को जानते हुये नासा अंतरिक्ष यात्रीयों के टीवी पर सीधे प्रसारण पर बीमार होने या मृत्यु होते दिखाने का खतरा कभी नही उठाती। लेकिन इसके विरोध मे यह भी एक तथ्य है कि नासा को इससे बड़ी शर्मिंदगी उस समय उठानी पड़ी थी जब उसके तीन अंतरिक्ष यात्री ज़मीन पर ही अपोलो 1 की जांच के दौरान जलकर मर गये थे। इस दुर्घटना के बाद नासा के सभी वरिष्ठ अधिकारीयों को सिनेट तथा संसद की कमेटी के समक्ष पेश होना पड़ा था। साथ ही तकनीकी सीमाओं के कारण उस समय यानो की उड़ान और अवतरण के दौरान सीधे प्रसारण की सुविधा उपलब्ध नही थी।

वियतनाम युद्ध

2009 मे अमेरीकन पैट्रिआट फ़्रेंड्स नेटवर्क ने दावा किया था कि चंद्र अभियानों ने जनता का ध्यान अलोकप्रिय वियतनाम युद्ध से हटाने मे मदद की और वियतनाम युद्ध की समाप्ति के साथ ही भविष्य के चंद्र अभियानों को रद्द कर दिया गया। जबकि यह सच नही है, अभियानों को समाप्त करने की योजना दो वर्ष पहले ही बन गई थी। अमेरिकी युद्ध बजट नासा के बजट का प्रतिस्पर्धी था। नासा को सबसे अधिक बजट 1966 मे आवंटित हुआ था जबकि 1972 मे वह 42.3% कम हो गया था। यह एक कारण था कि ना केवल अपोलो 18,19 तथा 20 के अभियान रद्द हुये थे बल्कि स्थाई अंतरिक्ष स्टेशन(permanent space station) की योजना, मानव मंगल अभियान भी रद्द हो गये थे।

चंद्र अभियान षडयंत्र के समर्थन के (कु) तर्क और उनका खंडन

कुछ वैज्ञानिक जैसे आर्गोने राष्ट्रीय प्रयोगशाला(Argonne National Laboratory ) के विंस काल्डर(Vince Calder) तथा एंड्र्यु जानसन ने इन कांसपिरेसी थ्योरी के समर्थको के कुतर्को का उत्तर दिया है। इसके अनुसार नासा द्वारा इस अभियान की जानकारी पूर्णत सत्य है और इस कांसपिरेसी थ्योरी के समर्थको द्वारा उठाये गये मुद्दे विज्ञान की मूलभूत समझ ना होने से उपजी गलतफ़हमीयाँ है।

कुछ वैज्ञानिक जैसे आर्गोने राष्ट्रीय प्रयोगशाला(Argonne National Laboratory ) के विंस काल्डर(Vince Calder) तथा एंड्र्यु जानसन ने इन कांसपिरेसी थ्योरी के समर्थको के कुतर्को का उत्तर दिया है। इसके अनुसार नासा द्वारा इस अभियान की जानकारी पूर्णत सत्य है और इस कांसपिरेसी थ्योरी के समर्थको द्वारा उठाये गये मुद्दे विज्ञान की मूलभूत समझ ना होने से उपजी गलतफ़हमीयाँ है।

चंद्र अभियान को नाटक दिखाने वाली कई कांसपिरेसी थ्योरी बनाई गई है जिसके अनुसार या तो चंद्रमा पर अवतरण नही हुआ और नासा ने झूठ बोला या चंद्रमा पर लैंडीग हुई लेकिन उस तरह से नही जिस तरह से बताया गया है। ये लोग इन अभियानों के तथ्यो के मध्य सुराख खोजने का प्रयास करते है। इसमे सबसे लोकप्रिय आईडीया इस अभियान के आरंभ से अंत तक का झूठा होना है। इनमे से कुछ दावो के अनुसार उस समय की तकनीक मानव को चंद्रमा तक भेजने मे अक्षम थी और पृथ्वी तथा चंद्रमा के मध्य की वान एलन बेल्ट विकिरण पट्टी(Van Allen radiation belts), सौर ज्वाला(solar flares), सौर वायु(solar wind), कोरोनल मास इजेक्शन(coronal mass ejections) और ब्रह्मांडीय विकिरण(cosmic rays) इस तरह की यात्राओ को असंभव बनाती है।

कुछ वैज्ञानिक जैसे आर्गोने राष्ट्रीय प्रयोगशाला(Argonne National Laboratory ) के विंस काल्डर(Vince Calder) तथा एंड्र्यु जानसन ने इन कांसपिरेसी थ्योरी के समर्थको के कुतर्को का उत्तर दिया है। इसके अनुसार नासा द्वारा इस अभियान की जानकारी पूर्णत सत्य है और इस कांसपिरेसी थ्योरी के समर्थको द्वारा उठाये गये मुद्दे विज्ञान की मूलभूत समझ ना होने से उपजी गलतफ़हमीयाँ है।

अब हम चर्चा करते है कांसपिरेसी थ्योरी के समर्थको द्वारा उठाये गये मुद्दो की और उनका एक के बाद एक विश्लेषण करते है।

षडयंत्रकारीयों की संख्या

परड्यु विश्वविद्यालय(Purdue Universi ty) के वैमानिकी अभियांत्रीकी प्रोफ़ेसर जेम्स लांगस्की(James Longuski)के अनुसार इस पैमाने पर कोई भी षडयंत्र अपने आकार और जटिलताओं के कारण सफ़ल नही हो सकता है।

एक छोटे षडयंत्र वाटरगेट स्कैंडल को गुप्त नही रखा जा सका था जिसमे गिनती के लोगो का समावेश था जबकि इसमे तो इतने अधिक लोग जुड़े हुये है कि कोई ना कोई बाहर निकल कर अब तक पूरा भंडाफ़ोड़ कर देता।

एक छोटे षडयंत्र वाटरगेट स्कैंडल को गुप्त नही रखा जा सका था जिसमे गिनती के लोगो का समावेश था जबकि इसमे तो इतने अधिक लोग जुड़े हुये है कि कोई ना कोई बाहर निकल कर अब तक पूरा भंडाफ़ोड़ कर देता।

अपोलो अभियान मे दस वर्ष के दौरान 400,000 से अधिक व्यक्तियों ने कार्य किया था। इस अभियान मे अपोलो 11,12,14,15,16  तथा 17 द्वारा हुई उड़ानों में कुल 18 व्यक्ति धरती से चाँद की ओर गए, इनमें से 12 व्यक्तियों ने चंद्रमा पर कदम रखे, 6 व्यक्ति उन के साथ चंद्रमा की कक्षा मे कमांड माड्युल के पायलट के रूप मे गये थे, कमांड मॉड्यूल के ये छह यात्री चंद्रमा की परिक्रमा कर वापस आये थे। अपोलो १३ के यात्री यान में आई तकनीकी खराबी के कारण चंद्रमा पर अवतरण नही कर पाये और चंद्रमा की परिक्रमा कर वापस आ गये। लाखो लोगो द्वारा जिसमे अंतरिक्ष यात्री, वैज्ञानिक, इंजीनियर, तकनीकीशियन और कुशल श्रमजीवी द्वारा इस अभियान को गुप्त रखना होगा। इस तरह के विशाल षडयंत्र को गुप्त रखने की बजाय चंद्रमा पर यान भेजकर उन्हे सकुशल वापस लाना अधिक आसान है। आज तक अमरीकी सरकार या नासा मे से एक व्यक्ति ने भी इस अभियान को षडयंत्र नही कहा है।

2005 मे प्रसिद्ध टीवी कार्यक्रम पेन एन्ड टेलर: बुलशीट!(Penn & Teller: Bullshit) के एक एपिसोड मे पेन जिलेट ने कहा था कि एक छोटे षडयंत्र वाटरगेट स्कैंडल को गुप्त नही रखा जा सका था जिसमे गिनती के लोगो का समावेश था जबकि इसमे तो इतने अधिक लोग जुड़े हुये है कि कोई ना कोई बाहर निकल कर अब तक पूरा भंडाफ़ोड़ कर देता।

इस अभियान के फोटोग्राफ़ो का विश्लेषण

कांसपिरेसी थ्योरीस्ट नासा के द्वारा प्रकाशित चित्रो के पीछे लगे रहते है और चंद्रमा पर लिये गये फोटो मे विसंगतियाँ खोजते रहते है। फ़ोटोग्राफ़ी विशेषज्ञ जिनमे नासा से असंबधित विशेषज्ञ भी शामिल है इन विसंगतियों के बारे मे कहते है कि यह वह विसंगतियाँ है जो वास्तविक चंद्र अभियान मे ही पाई जा सकती है, इस तरह की विसंगतियाँ किसी स्टुडियो मे ली गई फोटो मे नही आ सकती। कांसपिरेसी थ्योरीस्ट के उठाये गये मुख्य मुद्दे और उनका निराकरण नीचे है

1. क्रासहेयर कुछ चित्रो मे क्रासहेयर वस्तुओं के पिछे दिखाई दे रहा है। इस अभियान के कैमरो के लेंस के सामने एक कांच लगा था जिसपर क्रास हेयर बना हुआ होता है। इस तरह के कैमरो से लिये चित्रो मे क्रासहेयर वस्तुओं के सामने दिखना चाहीये। यह दर्शाता है कि ये वस्तुये उन चित्रो मे उपर से चिपकाई गई है।

निराकरण : यह विसंगति केवल पुन:मुद्रित तथा स्कैन के चित्रो मे ही है, वास्तविक चित्रो मे नही है। यह विसंगति ओवरएक्सपोजर से आती है जिसमे चमकीला सफ़ेद हिस्सा पतले काले क्रासहेयर को दबा देता है जोकि 0.1 मीमी चौड़े ही होते है। इसके अतिरिक्त बहुत से चित्र ऐसे है जिनमे क्रासहेयर का मध्य वाला हिस्सा ही धुल गया है जबकि बाकी हिस्सा ज्यों का त्यों है। कुछ चित्रो मे यह क्रासहेयर अमरीकी ध्वज के लाल रंग वाले हिस्से मे दिख रहा है जबकि सफ़ेद रंग वाले हिस्से मे दब गया है। अब केवल सफ़ेद पट्टियों वाले हिस्से को चिपकाने का तो कोई तुक नही बनता है।

चित्र 5-2004 के अधिक गुणवत्ता वाले चित्र का स्कैन जिसमे क्रासहेयर तथा लाल पट्टी स्पष्ट है।

1998 के कम गुणवत्ता वाले चित्र का स्कैन जिसमे क्रासहेयर तथा लाल पट्टी दब गई है।

1998 के कम गुणवत्ता वाले चित्र का स्कैन जिसमे क्रासहेयर तथा लाल पट्टी दब गई है।

2004 के अधिक गुणवत्ता वाले चित्र का स्कैन जिसमे क्रासहेयर तथा लाल पट्टी स्पष्ट है।

2004 के अधिक गुणवत्ता वाले चित्र का स्कैन जिसमे क्रासहेयर तथा लाल पट्टी स्पष्ट है।

अपोलो 15 के चंद्रयात्री डेवीड स्काट अमरीकी ध्वज को सैल्युट करते हुये। इस चित्र मे क्रासहेयर ध्वज की सफ़ेद पट्टी पर स्पष्ट नही है।

अपोलो 15 के चंद्रयात्री डेवीड स्काट अमरीकी ध्वज को सैल्युट करते हुये। इस चित्र मे क्रासहेयर ध्वज की सफ़ेद पट्टी पर स्पष्ट नही है।

ध्वज का आवर्धित चित्र जिसमे सफ़ेद भाग पर क्रास हेयर दब गया है।

ध्वज का आवर्धित चित्र जिसमे सफ़ेद भाग पर क्रास हेयर दब गया है।

2. घुमे हुये क्रास हेयर कुछ चित्रो मे क्रासहेयर घुमे हुये है या गलत जगह पर है।
निराकरण : यह कुछ लोकप्रिय चित्रो को काटने(crop) तथा सुंदरता के लिये घूमा कर प्रस्तुत करने की वजह से है।

 

3.चित्रो की गुणवत्ता उम्मीद से अधिक अच्छी है।

निराकरण : अपोलो अभियान के बहुत सी खराब गुणवत्ता वाले चित्र भी है। लेकिन नासा द्वारा सर्वोत्तम चित्रो को ही प्रकाशित किया है और यह स्वाभाविक भी है कि आप अपने बेहतरीन चित्रो को ही प्रकाशित करेंगे। साथ मे अपोलो अभियान मे अंतरिक्षयात्रीयों ने अधिक रिजाल्युशन वाले हैसलब्लेड 500 EL कैमरो का प्रयोग किया था जिसमे सर्वोत्तम गुणवत्ता वाले कार्ल जियस ओप्टिक्स तथा 70 मीमी की फ़िल्म का प्र्योग किया था।

4: चित्रो मे तारे : अभियान के चित्रो मे तारे नही दिखाई दे रहे है। अपोलो 11 के यात्रीयों ने संवाददाता सम्मेलन मे तारो के दिखाई देने की बात याद ना होने का कहा था।

निराकरण :

  • सभी कैमरे दिन की रोशनी मे चित्र लेने के लिये सेट किये गये थे, दिन की रोशनी मे चित्र लेने के लिये फ़िल्म एक्सपोजर का समय कम रखा जाता है। कम एक्स्पोजर समय मे धूंधली रोशनी वाले पिंड जैसे तारे चित्र मे नही आयेंगे।

    सभी कैमरे दिन की रोशनी मे चित्र लेने के लिये सेट किये गये थे, दिन की रोशनी मे चित्र लेने के लिये फ़िल्म एक्सपोजर का समय कम रखा जाता है। कम एक्स्पोजर समय मे धूंधली रोशनी वाले पिंड जैसे तारे चित्र मे नही आयेंगे।

    अंतरिक्ष यात्री चंद्रमा पर दिन के समय नंगी आंखो से तारे नही दिखाई देने की बात कर रहे है। लेकिन उन्हे यान मे लगे नेविगेशन उपकरणों के द्वारा लगातार तारे दिखाई देते रहे थे।

  • सभी मानव चंद्र अभियान चंद्रमा पर दिन के समय ही आयोजित किये गये थे। इस दौरान तारे सूर्य की रोशनी तथा चंद्रमा की सतह पर सूर्य की रोशनी के परावर्तन से दब गये थे। चंद्रयात्रीयों की आंखे सूर्यप्रकाश से प्रकाशित चंद्रभूमी की अभ्यस्त हो गई थी और उन्हे तुलनात्मक रूप से धुंधले तारे दिखाई नही दे रहे थे। उसी तरह से सभी कैमरे दिन की रोशनी मे चित्र लेने के लिये सेट किये गये थे, दिन की रोशनी मे चित्र लेने के लिये फ़िल्म एक्सपोजर का समय कम रखा जाता है। कम एक्स्पोजर समय मे धूंधली रोशनी वाले पिंड जैसे तारे चित्र मे नही आयेंगे।
  • अपोलो 16 अभियान मे एक विशेष पराबैंगनी किरणो(far ultraviolet camera) वाला कैमरा प्रयोग किया गया था। इस विशेष कैमरे(Far Ultraviolet Camera/Spectrograph ) का प्रयोग अपोलो लूनर माड्युल(Apollo Lunar Module (LM). ) की छाया मे किया गया था। इस कैमरे ने चंद्रमा से पृथ्वी के साथ कई तारों का चित्र लिया था, इन तारो मे बहुत से तारे ऐसे है जो साधारण प्रकाश मे धूंधले है लेकिन पराबैंगनी प्रकाश मे चमकीले नजर आ रहे है। इन निरीक्षणो को बाद मे पृथ्वी की कक्षा मे उपस्थित दूरबीनो के पराबैंगनी कैमरो के चित्रो से मिलाया गया और वे मेल खा रहे थे।
  • कमांड माड्युल पायलट(Command Module Pilot) एल वार्डन(Al Worden) द्वारा अपोलो 15 के कमांड माड्युल से सौर कोरोना तथा बुध ग्रह का चित्र लिया गया था जिसमे पृष्ठभूमी मे कुछ तारे दिखाई दे रहे है।
  • एलन शेफ़र्ड ने अपोलो 14 अभियान मे चंद्रमा की सतह से शुक्र ग्रह का चित्र लिया था जोकि किसी भी तारे से अधिक चमकीला नजर आता है।
फ़रवरी 2008 मे अंतरिक्ष स्पेस शटल द्वारा अंतराष्टीय अंतरिक्ष केंद्र का चित्र जिसमे तारे दिखाई नही दे रहे है।

फ़रवरी 2008 मे अंतरिक्ष स्पेस शटल द्वारा अंतराष्ट्रीय अंतरिक्ष केंद्र का चित्र जिसमे तारे दिखाई नही दे रहे है।

 

जुन 1995 पृथ्वी और मीर, तारे दिखाई नही दे रहे है।

जुन 1995 पृथ्वी और मीर का चित्र जिसमे तारे दिखाई नही दे रहे है।

अपोलो 16 अभियान मे एक विशेष पराबैंगनी किरणो(far ultraviolet camera) से लिया चित्र जिसमे पृथ्वी और तारे दिखाई दे रहे है।

अपोलो 16 अभियान मे एक विशेष पराबैंगनी किरणो(far ultraviolet camera) से लिया चित्र जिसमे पृथ्वी और तारे दिखाई दे रहे है।

स्पेस शटल अटलांटिस द्वारा लिया लंबे एक्सपोजर वाला चित्र(1.6 seconds at f/2.8, ISO 10000)

स्पेस शटल अटलांटिस द्वारा लिया लंबे एक्सपोजर वाला चित्र(1.6 seconds at f/2.8, ISO 10000)

5. छायाओं का कोण और रंग : चंद्रमा पर की चित्रो मे छायाओं का कोण और रंग सही नही है। इससे यह लगता है कि इन चित्रो को किसी स्टुडियो मे लिया गया है जिसमे एक से अधिक प्रकाश स्रोतो क प्रयोग किया गया है।

निराकरण : चंद्रमा की सतह पृथ्वी के जैसे नही है। चंद्रमा की सतह चमकीली है और इस उबड़खाबड़ सतह पर छाया और प्रकाश के परावर्तन से छायाओं के शेड्स एक जैसे नही बनतेहै। छायाओं के रंग पर सतह द्वारा परावर्तित प्रकाश, चौडे कोण वाले कैमरा लेंस(Wide angle lens) द्वारा उत्पन्न विकृति तथा चंद्रमा की धूल का भी प्रभाव पड़ता है। जब ये चित्र लिये गये उस समय एक से अधिक प्रकाश स्रोत भी थे जिसमे सूर्य, पृथ्वी द्वारा परावर्तित सूर्य प्रकाश, चंद्रमा की सतह, अंतरिक्ष यात्रीयों के सूट तथा लुनर माड्युल द्वारा द्वारा परावर्तित प्रकाश का समावेश है। इन सभी स्रोतो द्वारा परावर्तित प्रकाश छाया वाले भागो मे पड़ने से उनके भिन्न भिन्न शेड्स दिखाई देंगे।
छायाओं के कोण और लंबाई मे विसंगतियाँ : चंद्रमा के क्रेटरों तथा पहाड़ीयों पर पड़ने वाली छाया लंबी, छोटी या विकृत प्रतित हो सकती है।
इस कुतर्क का खंडन लोकप्रिय टीवी धारावाहिक MythBusters के एपिसोड “NASA Moon Landing” मे किया गया है।

कांसपिरेसी थ्योरीस्ट कहते है कि अपोलो अभियान के चित्रो मे छाया समांतर नही है।

कांसपिरेसी थ्योरीस्ट कहते है कि अपोलो अभियान के चित्रो मे छाया समांतर क्यों नही है।

नीचे दिया गया चित्र पृथ्वी पर है, इसमे आप देख सकते है कि एक ही प्रकाश स्रोत सूर्य के होने के बावजूद छाया समांतर ना होकर अलग कोण बना रही है। इस तरह का प्रभाव सतह के समतल ना होने से उत्पन्न होता है जिससे टीले, गड्डो के कारण छाया संमातर ना होकर कोण बनाते है।

नीचे दिया गया चित्र पृथ्वी पर है, इसमे आप देख सकते है कि एक ही प्रकाश स्रोत सूर्य के होने के बावजूद छाया समांतर ना होकर अलग कोण बना रही है। इस तरह का प्रभाव सतह के समतल ना होने से उत्पन्न होता है जिससे टीले, गड्डो के कारण छाया संमातर ना होकर कोण बनाते है।

यह चित्र पृथ्वी पर है, इसमे आप देख सकते है कि एक ही प्रकाश स्रोत सूर्य के होने के बावजूद छाया समांतर ना होकर अलग कोण बना रही है। इस तरह का प्रभाव सतह के समतल ना होने से उत्पन्न होता है जिससे टीले, गड्डो के कारण छाया संमातर ना होकर कोण बनाते है।

यह गया चित्र पृथ्वी पर है, इसमे आप देख सकते है कि एक ही प्रकाश स्रोत सूर्य के होने के बावजूद छाया समांतर ना होकर अलग कोण बना रही है। इस तरह का प्रभाव सतह के समतल ना होने से उत्पन्न होता है जिससे टीले, गड्डो के कारण छाया संमातर ना होकर कोण बनाते है।

यह चित्र भी पृथ्वी पर लिया है, इसमे आप देख सकते है कि एक ही प्रकाश स्रोत सूर्य के होने के बावजूद छाया समांतर ना होकर अलग कोण बना रही है। इस तरह का प्रभाव सतह के समतल ना होने से उत्पन्न होता है जिससे टीले, गड्डो के कारण छाया संमातर ना होकर अलग कोण बना रही है।

6. चित्रो की पृष्ठभूमी : बहुत से चित्रो मे एक जैसी ही पृष्ठभूमी है लेकिन चित्र विवरण के अनुसार वे कई मील के दूरी पर है। यह दर्शाता है कि इन चित्रो को किसी स्टूडियो मे किसी पेंट किये हुये पोस्टर के सामने लिया गया है।

निराकरण : इन चित्रो की पृष्ठभूमी एक जैसी नही है बल्कि एक जैसी दिखाई दे रही है। इसमे समीप की पहाड़ीयाँ दिखाई दे रही है वे वास्तविकता मे कई मील दूर पर स्थित पर्वत है। पृथ्वी पर दूर की वस्तुये धूंधली और अस्पष्ट दिखाई देती है लेकिन चंद्रमा पर वातावरण या कोहरा नही है जिससे वे दूरी पर भी उतनी ही साफ़ स्पष्ट दिखाई देती है। इसके अतिरिक्त चंद्रमा पर दूरी के अनुमान की तुलना के लिये वस्तुये जैसे पेड़ नही है, जिससे चित्रो से यह पता नही चलता कि वे पास मे है या दूरी पर स्थित है।

7. चित्रो की अत्यधिक संख्या : लिये गये चित्रो की संख्या बहुत अधिक है। इतने अधिक चित्रो को लेने के लिये हर पचास सेकंड मे एक चित्र लिया जाना चाहिये।

निराकरण : चंद्रमा की सतह पर चित्र लेने के लिये कैमरे बहुत सरल थे और वे एक सेकंड मे दो चित्र ले सकते थे। हर पचास सेकंड मे एक चित्र लेने वाली गणना एक चंद्रयात्री को ध्यान मे रख कर की गई है लेकिन वास्तविकता मे दो चंद्रयात्री थे।

8. ’C’ मार्क की हुई चट्टान : एक मे एक चट्टान पर और उसके समीप के स्थल पर ’C’ लिखा हुआ है जो दर्शाता है कि किसी स्टूडियो मे यह सेट-अप किया गया था और वे लेबल ’C’ हटाना भूल गये।

निराकरण : “C” लेबल वाला चित्र मुद्रण की गलती है, यह वास्तविक फ़िल्म मे नही है। पूरी संभावना है कि चित्र मुद्रित होते समय मानव केश चित्र पर चिपक गया था।

वास्तविक AS16-107-17445 चित्र

वास्तविक AS16-107-17445 चित्र

वास्तविक AS16-107-17446 चित्र

वास्तविक AS16-107-17446 चित्र

AS16-107-17446 पुणमुद्रण वाला चित्र जिसमे मानव केश के कारण ’C’ दिख रहा है।

9. हाट स्पाटस(Hot spots)”: कुछ चित्रो मे स्टुडीयो के जैसे “हाट स्पाटस(Hot spots)” दिख रहे है जो दर्शाते है कि एक विशाल स्पाट्लाईट का प्रयोग किया गया होगा।

निराकरण : 1.चंद्रमा की सतह के गड्ढे किसी यातायात चिन्ह पर लगे कांच की गोलाकार सतह या ओस की बुंद या गीली घास के जैसे ही फ़ोकस बनाते है। इस प्रभाव से चित्र खींचने वाले की छाया के आसपास एक प्रभामंडल बनता है जो चित्र मे दिख रहा है।
2. यदि चंद्रयात्री सूर्यप्रकाश मे खड़ा होकर छायावाले हिस्से मे स्थित वस्तु का चित्र ले रहा हो तो चंद्रयात्री के सूट से परावर्तित प्रकाश स्पाटलाईट जैसे प्रभाव दिखायेगा।
3. अपोलो अभियान के कुछ प्रकाशित चित्र उच्च कांट्रास्ट(High Contrast) वाले मुद्रित चित्र है। वास्तविक चित्रो अधिक स्पष्ट है।

अपोलो 11 अभियान मे बज आल्ड्रीन का वास्तविक चित्र

अपोलो 11 अभियान मे बज आल्ड्रीन का वास्तविक चित्र

अपोलो 11 अभियान मे बज आल्ड्रीन का अधिक प्रचलित संपादित चित्र जिसमे स्पाटलाईट प्रभाव दिख रहा है।

अपोलो 11 अभियान मे बज आल्ड्रीन का अधिक प्रचलित संपादित चित्र जिसमे स्पाटलाईट प्रभाव दिख रहा है।

10.नील आर्मस्ट्रांग की चंद्रमा पर उतरते हुये चित्र :फोटो मे/विडियो मे नील आर्मस्ट्रांग की चंद्रमा पर उतरते हुये चित्र किसने लिया ?
निराकरण : यह चित्र लुनर माड्युल ने ही लिये। नील आर्मस्ट्रांग ने चंद्रमा की सतह पर उतरने से पहले ही लुनर माड्युल की एक बाजु से फोटो लेने वाले कैमरे तथा टीवी कैमरे वाले एक उपकरण को नीचे किया था। नील आर्मस्ट्रांग के चंद्रमा पर उतरने से पहले ही इस कैमरे ने चित्र लेना और पृथ्वी तक सीधे प्रसारण के लिये टीवी फ़ीड भेजना आरंभ कर दिया था।

वातावरण

1 . वान एलन विकिरण बेल्ट (Van Allen radiation belt) चंद्रयात्रीयों पृथ्वी से चंद्रमा और वापसी की यात्रा मे बचना संभव नही है क्योंकि मार्ग मे वान एलन विकिरण बेल्ट (Van Allen radiation belt) नामका घातक क्षेत्र है।

वान एलेन बेल्ट

वान एलेन बेल्ट

निराकरण : दो मुख्य वान एलन विकिरण पट्टे है, आंतरिक पट्टा और बाह्य पट्टा और एक तीसरा संक्रमण पट्टा। इनमे से आंतरिक पट्टा अधिक घातक है जिसमे ऊर्जावान प्रोटान होते है, जबकि बाह्य पट्टे मे कम घातक इलेक्ट्रान है। अपोलो यान इस आंतरिक पट्टे को तेजी से कुछ ही मिनटों मे पार कर गये थे, जबकि उन्हे बाह्य पट्टे को पार करने मे आधा घंटा लगा था। अंतरिक्षयात्रीयों के इस घातक आयनाइजींग विकिरण(ionizing radiation) से बचाव के लिये यान के बाह्य भाग मे एल्युमिनियम की पत्री लगी थी। इसके साथ ही यान का पथ इस तरह से बनाया गया था कि यान पर इस विकिरण का न्यूनतम प्रभाव हो। इस पट्टे के शोधकर्ता जेम्स वान एलन ने ही इस यात्रा के अपोलो यान के लिये अत्यधिक घातक होने से इंकार किया था। खगोलशास्त्री फ़िल प्लेट के अनुसार इस यात्रा मे चंद्रयात्री पर पड़ने वाले विकिरण की मात्रा 1 rem (10msv) से कम थी जोकि समुद्री तट पर तीन वर्ष रहने पर पड़ने वाले विकिरण के तुल्य है। इस यात्रा मे चंद्रयात्रीयों द्वारा झेला गया कुल विकिरण किसी परमाणु संयंत्र मे एक वर्ष कार्य करने पर पड़ने वाले सुरक्षित विकिरण के तुल्य है और यह मात्रा किसी अंतरिक्ष शटल के यात्री पर पड़ने वाले विकिरण से ज्यादा अधिक नही है।

अपोलो यात्रीयों पर विकिरण की मात्रा

अपोलो यात्रीयों पर विकिरण की मात्रा

2. इ्न विकिरण से सारी फ़ोटोग्राफ़िक फ़िल्मे एक्सपोज हो जानी चाहिये थी।

निराकरण : फ़िल्मो को इन विकिरण से एक्सपोज होने से बचाने के लिये धातुओं के डीब्बे मे रखा गया था। इसके अलावा रोबोटिक अभियान लुनर ओर्बिटर तथा लुना 3 मे फ़िल्मो को यान मे डेवलप किया जाता था इसलिये उनपर विकिरण से कोई प्रभाव नही पड़ा था।

3. कैमरा फ़िल्म चंद्रमा की सतह दिन के समय इतनी अधिक उष्ण हो जाती है कि कैमरा फ़िल्म पिघल जानी चाहिये।

निराकरण : चंद्रमा पर वातावरण नही है जिससे चंद्रमा की सतह की गर्मी उपकरणो तक संवहन द्वारा नही पहुंचती। चंद्रमा पर ऊष्मा के संचरण का इकलौता माध्यम विकिरण ही है। विकिरण से ऊर्जा के संवहन के भौतिकी को अच्छे से समझा जा चुका है और आप्टीकल कोटींग तथा उचित पेंट का प्रयोग इन कैमरा फ़िल्म को सही तापमान मे रखने और अत्याधिक उष्मा से बचाने के लिये पर्याप्त था। चंद्रयान का तापमान भी इसी तरह से नियंत्रण मे रखा गया था, उसे विकिरण उष्मा से बचाने के लिये सुनहरे रंग से पोता गया था।

इसके अतिरिक्त चंद्र अभियान सूर्योदय के समय पर ही रखे गये थे। ध्यान रहे कि चंद्रमा का एक दिन पृथ्वी के 29½ दिन के तुल्य होता है, जिसका अर्थ है कि चंद्रमा पर सूर्योदय से सूर्यास्त के मध्य लगभग पंद्रह दिन होते है। चंद्रमा पर लंबे अभियानों मे चंद्रयात्रियों ने उनके सूट की शीतलन प्रणाली पर अतिरिक्त दबाव महसूस किया था क्योंकि सूर्य और सतह का तापमान बड़ रहा था, लेकिन इस प्रभाव को वातावकूलन प्रणाली ने आसानी से नियंत्रण मे कर लिया था। जबकि कैमरा और उसकी फ़िल्मे सीधे सूर्य प्रकाश मे नही थी जिससे वह इतनी अधिक गर्म नही हुई कि उन्हे कोई नुकसान होता।

4.सौर ज्वाला :अपोलो 16 के यात्री अपने चंद्रमा की यात्रा के मार्ग एक विशाल सौर ज्वाला से बच नही सकते थे।

निराकरण : अपोलो 16 अभियान के दौरान कोई सौर ज्वाला  उत्पन्न नही हुई थी। अगस्त 1972 मे एक विशाल सौर ज्वाला उत्पन्न हुई थी लेकिन अपोलो 16 पृथ्वी तक लौट चुका था और अपोलो 17 रवाना नही हुआ था।

5. ध्वज कैसे लहरा रहा है ? चंद्रमा पर वायु नही है लेकिन चंद्रमा पर गाड़ा गया अमरीकी ध्वज कैसे लहरा रहा था ? यह दर्शाता है कि इसे पृथ्वी पर फ़िल्माया गया है और हवा के झोंके से ध्वज लहरा रहा है।

निराकरण : ध्वज को एक सीधे डंडे मे नही एक Г- आकार के डंडे मे लगाया गया था, इसके कारण ध्वज नीचे नही हुआ था। ध्वज उसी समय लहराता दिख रहा है जब चंद्रयात्री उसे डंडे को घुमा घुमा कर चंद्रमा पर गाड़ रहे थे। ध्वज पर उसके भंडारण की वजह से सिलवटे थी। ये दोनो कारक  स्थिर चित्र मे ध्वज लहराने का प्रभाव दिखा रहे है। यदि इस दौरान के वीडियो को देखे तो ध्वज के गाड़ देने के बाद सैल्युट करने दौरान वह स्थिर हो जाता है। इसे भी लोकप्रिय टीवी धारावाहिक मिथबस्टर(Mythbuster) के एपिसोड मे भी देखा जा सकता है।

बज आल्ड्रीन का अमरीकी ध्वज को सैलयुट करते हुये चित्र

बज आल्ड्रीन का अमरीकी ध्वज को सैलयुट करते हुये चित्र

कुछ सेकंड बाद बज आल्ड्रीन का अमरीकी ध्वज को सैलयुट करते हुये चित्र

कुछ सेकंड बाद बज आल्ड्रीन का अमरीकी ध्वज को सैलयुट करते हुये चित्र

ध्यान दे: ध्वज मे कोई गतिविधि नही है! बज आल्ड्रीन का अमरीकी ध्वज को सैलयुट करते हुये चित्र का एनिमेशन

ध्यान दे: ध्वज मे कोई गतिविधि नही है! बज आल्ड्रीन का अमरीकी ध्वज को सैलयुट करते हुये चित्र का एनिमेशन

6. चंद्रयात्रीयों के पदचिह्न :चंद्रमा की धुल पर नमी नही है लेकिन चंद्रयात्रीयों के पदचिह्न बहुत अच्छे से छपे है।

निराकरण : चंद्रमा की धूल पर पृथ्वी के जैसे मौसम का प्रभाव नही है, वह रेत के जैसे खूरदूरी सतह, नुकीले कोणो वाले नही है। उसके धूलकण आपस मे आसानी से चिपककर एक आकार मे ढल जाते है। चंद्रयात्रीयों ने चंद्रमा की धुल को टैलकम पाउडर या गीली रेत सदृश कहा है।
इसे भी लोकप्रिय टीवी धारावाहिक मिथबस्टर के एपिसोड मे देखा जा सकता है।

बज आल्ड्रीन द्वारा लिया चित्र

बज आल्ड्रीन द्वारा लिया चित्र

7. साउंड स्टेज/हार्नेस का प्रयोग: चंद्रमा पर अवतरण को किसी स्टेज पर या किसी दूरस्थ रेगिस्तान मे फ़िल्माया गया है जहाँ चंद्रयात्री या तो हार्नेस की सहायता से उछल उछल कर चले है या स्लो-मोशन फ़ोटोग्राफ़ी की सहायता से चंद्रमा पर होने का भ्रम उत्पन्न किया गया है।

निराकरण : 1. HBO के वृत्तचित्र “फ़्रोम द अर्थ टू द मून” तथा फ़िल्म अपोलो 13 मे स्टेज तथा हार्नेस का प्रयोग किया गया है। इन फ़िल्मो से स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि जब धूल उड़ती है तब वह जल्दी बैठती नही है, कुछ धूल एक बादल जैसा बनाती हौ। लेकिन अपोलो अभियान के विडियो फ़ुटेज मे चंद्रयात्रीयों के जूतो से तथा चंद्रबग्गी के पहियो से उड़ने वाली धूल चंद्रमा के कम गुरुत्व के कारण सतह से अधिक उंचाई तक उठती है तथा जल्दी ही एक पैराबिलिक पथ बनाते हुये सतह पर गिर जाती है क्योंकि चंद्रमा पर वायुमंडल भी नही है। यदि इसका फ़िल्मांकन पृथ्वी पर हुआ होता तो धूल उतनी उंचाई तक नही उठ सकती थी ना ही धूलकण पैराबोलिक पथ पर उतनी तेजी से सतह पर गिरेगें।
2. अपोलो 15 अभियान मे डेविड स्काट ने एक हथौडे और एक चील के पंख को समान उंचाई से एक साथ गिराया था। दोनो एक ही गति से नीचे गिरे थे और सतह पर एक ही समय मे पहुंचे थे, यह दर्शाता है कि वे निर्वात मे थे।

  1. यदि चंद्रमा पर अवतरण को रेगिस्तान मे फ़िल्माया गया होता तो वीडियो मे ताप लहर(heat wave) स्पष्ट रूप से दिखाई देती।

यांत्रिकी समस्याये

1. ब्लास्ट क्रेटर: लुनर माड्युल द्वारा कोई गड्डा(Blast Crater) नही बना ना ही धूल उड़ाई!

निराकरण : लुनर माड्युल द्वारा किसी गड्डे के बनने की कोई संभावना ही नही थी। लुनर माड्युल के उतरते समय ही 10,000 पौंड के प्रणोद शक्ति वाले राकॆट इंजन को बहुत कम प्रणोद उत्पन्न करना पड़ा था। इसकी गति बहुत धीमी कम हो रही थी, उसे उतरते समय केवल अपने भार को ही सम्हालना था और चंद्रमा के कम गुरुत्व ने काम आसान कर दिया था। अवतरण के समय प्रणोद नोजल के पास केवल 10 किलोपास्कल या 1.5 PSI ही था।नोजल से निकलने के बाद उत्सर्जन फ़ैलता है और दबाव बहुत तेजी से कम हो जाता है। राकेट द्वारा उत्सर्जित गैस इंजन के नोजल से निकलने के बाद निर्वात मे पृथ्वी के वातावरण की तुलना मे अधिक तेजी से फ़ैलती है। राकेट की ज्वाला के वातावरण मे प्रभाव को पृथ्वी से राकेट के प्रक्षेपण के समय आसानी से देखा जा सकता है। जैसे ही राकेट घने वातावरण से उठकर पतले वातावरण मे पहुंचता है राकेट से उत्सर्जित ज्वाला अधिक फ़ैलती है। इस प्रभाव को कम करने के लिये राकेट के पतले वातावरण या निर्वात वाले स्टेज की नोजल को अधिक लंबाई वाले शंकु के रूप मे बनाया जाता है लेकिन इससे भी उनके फ़ैलने को पूरी तरह रोका नही जा सकता। इन प्रभाव के फ़लस्वरूप लुनर माड्युल से निकलने वाली गैस लैंडीग स्थल पर दूर तक तेजी से चौड़ाई मे फ़ैली। अवतरण इंजनो ने चंद्रमा की महीन धूल को उतरते समय उड़ाया इसे फ़िल्मो मे देखा भी जा सकता है लेकिन बहुत कम मात्रा मे। चंद्रमा पर उतरते समय लैंडर सीधे नीचे ना उतर कर धीमे धीमे क्षैतिज रूप से गति कर रहे थे और नीचे आ रहे थे, चित्रो मे लैंडर द्वारा उड़ाई गई धुल से इस पथ को भी देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त धूल की सतह के नीचे चंद्रमा की सतह बह्त कठोर है जिससे क्रेटर बनने की संभावना नही थी। अपोलो 11 के अवतरण स्थल पर बने ब्लास्ट क्रेटर की गहराई मापने पर पता चला था कि इंजन ने नोजल शंकु के नीचे केवल 4-6 इंच की ही धूल हटाई थी

अपोलो 11 के लुनर लैंडर के नीचे का चित्र

अपोलो 11 के लूनर लैंडर के नीचे का चित्र

2. राकेट की अदृश्य ज्वाला प्रक्षेपण राकेट के द्वितिय चरण तथा लूनर माड्युल के राकेट की ज्वाला दृश्य नही थी।

निराकरण : लूनर माड्युल ने एअरोजीन 50 तथा डाईनाइट्रोजन टेट्रोक्साइड(आक्सीकारक) ईंधन का प्रयोग किया था। इन ईंधनो का चयन उनकी सरलता और भरोसेमंद होने के कारण किया गया था, इनके प्रज्ववलन के लिये चिंगारी की भी आवश्यकता नही है, दोनो एक दूसरे के संपर्क मे आते ही जल उठते है और पारदर्शी ज्वाला बनाते है। इसी ईंधन का प्रयोग टाईटन II राकेट मे हुआ था। इस ईंधन की ज्वाला के पारदर्शी होने की पुष्टि अन्य कई राकेट प्रक्षेपण चित्रो से की जा सकती है। निर्वात मे ईंधन की ज्वाला नोजल से निकलने के बाद तेजी से फ़ैलती है, जिससे उनका दिखाई देना और भी कठीन हो जाता है। अंतमे पृथ्वी के वातावरण मे राकेट ईंधन का कुछ भाग नोजल से निकलने के बाद वातावरण की आक्सीजन के साथ जलता है और ज्वाला दिखती है जोकि निर्वात मे संभव नही होता है।

इस चित्र मे दर्शाये अनुसार राकेट से निकलने वाली ज्वाला अंतरिक्ष मे हमेशा दृश्य नही होती है। इन चित्र मे नीचे मध्य मे राकेट इंजन गहरे रंग की संरचना के रूप मे है।

इस चित्र मे दर्शाये अनुसार राकेट से निकलने वाली ज्वाला अंतरिक्ष मे हमेशा दृश्य नही होती है। इन चित्र मे नीचे मध्य मे राकेट इंजन गहरे रंग की संरचना के रूप मे है।

टाईटन II राकेट का प्रक्षेपण जिसका इंधन hypergolic Aerozine-50/N2O4 है और इससे 1.9 MN प्रणोद उत्पन्न हो रहा है। ध्यान दिजिये की राकेट से निकलने वाली ज्वाला लगभग पारदर्शी है।

टाईटन II राकेट का प्रक्षेपण जिसका ईंधन hypergolic Aerozine-50/N2O4 है और इससे 1.9 MN प्रणोद उत्पन्न हो रहा है। ध्यान दीजिये की राकेट से निकलने वाली ज्वाला लगभग पारदर्शी है।

3 लुनर माडयुल के फ़ुटप्रिंट क्यों नही बने ?. लुनर माडयुल का भार 17 टन था लेकिन उसने चंद्रमा पर कोई निशान नही छोड़ा लेकिन उसके बाजू मे मानव पदचिह्न देखे जा सकते है।

निराकरण : पृथ्वी की सतह पर अपोलो 11 मे ईंधन भरा हुआ था, यात्रीयों के साथ इगल लुनर माड्युल का भार  लगभग17 टन (15,300 किग्रा) था। लेकिन चंद्रमा की सतह पर अवतरण के बाद ईंधन जलाने के पश्चात उसका भार केवल 1224 किग्रा बचा था। चंद्रयात्रीयो का भार लुनर माड्युल की तुलना मे कम था लेकिन उनके बूट लुनर माड्युल के फ़ूटपैड (91 सेमी) की तुलना मे बहुत छोटे थे। अर्थात चंद्रयात्रीयों के पैर कम क्षेत्रफ़ल मे अधिक दबाव डाल रहे थे और जिससे उनके बूट के निशान स्पष्ट बने थे। लुनरमाड्युल के फ़ूटपैड के निशान भी बने और जो अन्य चित्रो मे दिख जाते है लेकिन वे उतने स्पष्ट नही है क्योंकि वे अधिक क्षेत्र मे दबाव डाल रहे थे।

अपोलो 14 लुनर माड्युल

अपोलो 14 लुनर माड्युल

4. चंद्रयात्रीयों के सूट की वातावनुकूलन प्रणाली: निर्वात की परिस्थितियों मे कार्य नही कर सकती है।

निराकरण : चंद्रयात्रीयों के सूट की वातावनुकूलन प्रणाली केवल निर्वात मे ही कार्य कर सकती है। इस प्रणाली मे सूट के बैकपैक मे से पानी सूट की सतह वाली सबलिमिटर परत पर बने नन्हे छिद्रो से बाहर आता है  और अंतरिक्ष मे बास्पीकृत हो जाता है। उष्मा की इस क्षति से शेष जल शीतल होकर बर्फ़ बन जाता था जोकि इस सबलिमिटर परत पर बर्फ़ की एक परत बना देता था। यह बर्फ़  सूट से उष्मा लेकर सबलिमिट होकर सीधे भाप मे बदल जाती थे। इसके अतिरिक्त एक अन्य पानी की ट्युब अंतरिक्षयात्रीयों के जल द्वारा शीतलीकृत कपड़ो(LCG (Liquid Cooling Garment) ) से बहती थी जोकि यात्री की चयापचय क्रिया से उत्पन्न गर्मी हो बाह्य सबलिमटर प्लेट तक लेजाकर शीतल कर वापस आती थी। यात्रीयो के स्पेससूट मे 5.4 किग्रा जल से आठ घंटो का शीतलन प्राप्त होता था। यात्रीयों की यान बाह्य गतिविधियों के अधिक अंतराल के लिये यह एक बड़ी कठीनाई थी।

प्रसारण

1 संचार मे विलंब: पृथ्वी और चंद्रमा के मध्य 400,000 किमी दूरी के कारण संचार मे दो सेकंड से अधिक का विलंब होना चाहीये।

निराकरण : पृथ्वी से चंद्रमा और चंद्रमा से पृथ्वी के मध्य संचार मे दो सेकंड से अधिक का विलंब सभी वास्तविक ध्वनि रिकार्डींग मे स्पष्ट है। लेकिन कुछ वृत्तचित्रो मे समय के बचाव तथा स्पष्टता के लिये इस विलंब को संपादन के दौरान हटा दिया गया है।

2. संचार मे विलंब केवल 0.5 सेकंड का था।
निराकरण : यदि हम वास्तविक ध्वनि रिकार्डींग को देखे तो स्पष्ट है संचार मे विलंब केवल 0.5 सेकंड के होने की बात पूर्णत : असत्य है। इसके अतिरिक्त यह विलंब हमेशा दोनो ओर एक जैसा नही है क्योंकि रिकार्डींग पृथ्वी के नियंत्रण कक्ष मे हो रही थी। नियंत्रण कक्ष द्वारा दिये गये उत्तर मे कोई विलंब नही है क्योंकि उनकी रिकार्डींग तत्काल हो रही है। चंद्रयात्रीयों द्वारा दिये गये उत्तरो मे विलंब स्पष्ट है।

3. आस्ट्रेलिया से प्रसारण योजना थी कि प्रथम चंद्रमा पर अवतरण का संचार आस्ट्रेलिया की पार्क्स वेधशाला(Parkes Observatory in Australia) से समस्त विश्व को रीले किये जायेंगे। लेकिन इस योजना को प्रथम चंद्रमा अवतरण से पांच घंटे पहले रद्द कर दिया गया।

निराकरण : चंद्रमा पर प्रथम कदम का समय चंद्रमा पर लुनर माड्युल के उतरने के बाद मे बदला गया था। यह विलंब इतना था कि पार्क्स वेधशाला इस संचार का रिले पूरे समय तक करने मे सक्षम नही थी।

4. पार्कस वेधशाला के विडियो संकेत : पार्कस वेधशाला के पास चंद्रमा से सबसे स्पष्ट वीडियो संकेत उपल्बध होना चाहिये थे लेकिन आस्ट्रेलियन मीडिया समेत सभी मीडिया स्रोतो ने अमरीका से लाईव फ़ीड प्रसारित किया।

निराकरण : वास्तविक योजना और आधिकारीक पालीसी के अनुसार आस्ट्रेलियन ब्राडकास्टींग कार्पोरेशन(ABC) ने संकेत पार्क्स वेधशाला तथा हनीस्क्ल क्रीक रेडीयो टेलिस्कोप (Honeysuckle Creek radio telescopes.)से सीधे लिये थे। इन संकेतो को NTSC टीवी संकेतो मे पैडींगटब सीडनी मे बदला गया था। इसका अर्थ यह भी है कि आस्ट्रेलियन दर्शको ने बाकी विश्व की तुलना मे चंद्रमा पर मानव अवतरण को कुछ सेकंड पहले देखा।

तकनीक

कांसपिरेसी थ्योरिस्ट बार्ट सिब्रेल के अनुसार यदि सोवियत संघ और अमरीका की अंतरिक्ष तकनीक क्षमताओं को देखें तो उस समय अमरीका के पास इस यात्रा के लिये आवश्यक तकनीक नही थी। अंतरिक्ष की इस दौड मे सोवियत संघ अमरीका से कोसों आगे था, इसके बावजूद सोवियत संघ चंद्रमा पर मानव उतारना तो दूर उसकी कक्षा मे भी कभी मानव नही भेज पाया। वे तर्क देते है कि जब सोवियत संघ बेहतर तकनीक होने के बावजूद चंद्रमा पर मानव नही भेज पाया तो अमरीका भी चंद्रमा पर मानव भेजने मे समर्थ नही होना चाहिये था।

उदाहरण के लिये वे कहते है कि अपोलो अभियान के दौरान तक सोवियत संघ के अंतरिक्ष यात्रीयो द्वारा अंतरिक्ष मे बिताया समय अमरीका की तुलना मे पांच गुना अधिक था। इसके अतिरिक्त सोवियत संघ अंतरिक्ष दौड मे बहुत से मील के पत्थरो मे प्रथम था जैसे पृथ्वी की कक्षा मे प्रथम मानव निर्मित उपग्रह(आक्टोबर 1957 स्पूतनिक), अंतरिक्ष मे प्रथम प्राणी( नवंवर 1957 स्पूतनिक 2 मे लाईका नामक कुतिया), अंतरिक्ष मे प्रथम मानव( अप्रैल 1961 वोस्तोक 1 मे युरी गागारीन), अंतरिक्ष मे प्रथम महिला (जुन 1963 वोस्तोक 6 मे वेलेंटीना टेरेश्कोवा), प्रथम अंतरिक्ष मे चहलकदमी/यान बाह्य गतिविधी (मार्च 1965 वोस्खोद 2 द्वारा अलेक्सेई लेनोव)।

लेकिन इस सभी सोवियत प्रथमो की बराबरी अमरीका ने एक वर्ष के अंदर ही कर ली थी, कुछ मामलो मे तो कुछ ही सप्ताहों के भीतर। 1965 मे तो अमरीका कुछ अंतरिक्ष गतिविधियों मे प्रथम हो गया था जैसे की पहला सफ़ल अंतरिक्ष यानो का जुड़ाव जो कि चंद्रमा तक अंतरिक्ष यात्रा मे अत्यावश्यक था। इसके अतिरिक्त नासा तथा अन्य एजेंसीयों के अनुसार सोवियत संघ द्वारा किये गये ये सभी प्रथम उतने अधिक प्रभावी नही थे जितने वे दिखाई देते है। इनमे से अधिकतर प्रथम तकनीकी रूप से बेहतर होने की बजाय स्टंट अधिक थे जैसे अंतरिक्ष मे प्रथम महिला। तथ्य यह है कि अपोलो अभियान की प्रथम मानव उड़ान अपोलो 7 तक सोवियत संघ ने केवल नौ मानव उड़ाने की थी जिसमे सात मे एक एक यात्री, एक मे दो यात्री और एक मे तीन यात्री थे, इस समय तक अमरीका ने 16 मानव उड़ाने भर ली थी। अंतरिक्ष मे बिताये समय के पैमाने पर सोवियत संघ ने अंतरिक्ष मे 460 घंटे बिताये थे जबकि अमरीका ने 1024 घंटे। यदि इसे मानव घंटो मे गिना जाये तो सोवियत संघ के 534 मानव अंतरिक्ष उड़ान घंटे थे, अमरीका के 1992 मानव अंतरिक्ष उड़ान घंटे। अपोलो 11 के आते तक अमरीका सोवियत संघ से बहुत आगे हो गया था।

इसके अतिरिक्त उस समय सोवियत संघ के पास मानव चंद्र अभियान के लायक शक्तिशाली राकेट नही था। 1969 से 1972 मे मध्य सोवियत संघ का राकेट N1 चार बार असफ़ल हुआ। 1970-1971 के मध्य सोवियत चंद्रयान LK की जांच उड़ान पृथ्वी की निम्न कक्षा मे तीन बार हुई थी।

चंद्रमा पर अवतरण के तृतिय पक्ष के प्रमाण

अवतरण स्थलो के चित्र

लुनर रिकॉनिसैंस ओर्बीटर(Lunar Reconnaissance Orbiter) द्वारा अपोलो 17 की लैंडींग साईट के लिये चित्र

लुनर रिकॉनिसैंस ओर्बीटर(Lunar Reconnaissance Orbiter) द्वारा अपोलो 17 की लैंडिंग साईट के लिये चित्र

कांस्पिरेसी थ्योरिस्ट मानते है कि जमीनी वेधशाला तथा हब्बल टेलिस्कोप से अवतरण स्थलो के चित्र लेना संभव होना चाहिये। इसका अर्थ यह भी है कि इन लैंडीग जगहो के चित्र ना लेकर ये वेधशालाये और हब्बल टेलीस्कोप भी षडयंत्र मे सहभागी है। चंद्रमा पर अवतरण स्थलो के चित्र हब्बल टेलिस्कोप ने लिये है लेकिन हब्बल टेलिस्कोप के चित्रो का रिजाल्युशन इतना कम है कि उसमे चंद्रमा 55-69 मीटर से कम चौड़ी वस्तुओ को पहचाना नही जा सकता है।

अप्रैल 2001 मे लिओनार्ड डेवीड ने space.com पर एक लेख मे एक क्लेमेंटाईन अभियान(Clementine mission) द्वारा लिया गया एक चित्र दिखाया था जो कि नासा के अनुसार अपोलो 15 का लैंडर था। इस चित्र को ब्राउन विश्वविद्यालय(Brown University) के भूगर्भ शास्त्र विभाग(Department of Geological Sciences) की मिशा क्रेस्लावस्की(Misha Kreslavsky) तथा खार्कीव खगोल वेधशाला युक्रेन(Kharkiv Astronomical Observatory in Ukraine.) की युरी श्कुरावतोव(Yuri Shkuratov) ने पहचाना था। युरोपियन अंतरिक्ष संस्थान (European Space Agency’s )के स्मार्ट 1(SMART-1 ) मानवरहित शोधयान ने लैंडिंग साईट के चित्र लिये थे।

2002 मे हवाई विश्वविद्यालय(University of Hawaii ) के अलेक्स आर ब्लैक्वेल चंद्रमा की कक्षा मे रहते हुये अपोलो अंतरिक्ष यात्रीयों के द्वारा लिये गये चित्रो मे अपोलो लैंडीग साईट को पहचाना था।

14 सितंबर 2007 ko जापान अंतरिक्ष संस्थान(The Japan Aerospace Exploration Agency) (JAXA) ) ने सेलेन चंद्रयान(SELENE Moon orbiter) प्रक्षेपित किया था। यह चंद्रयान चंद्रमा की सतह से 100 किमी उंचाई पर परिक्रमा कर रहा था। मई 2008 मे इस संस्थान से लिये गये चित्रो मे अपोलो 15 के इंजन एक्सहास्ट को देखा।

17 जुलाई 2009 मे नासा ने लुनर रिकॉनिसैंस ओर्बीटर(Lunar Reconnaissance Orbiter) द्वारा अपोलो 11,14,15,16,17 की लैंडींग साईटो के लिये चित्र प्रकाशित किये। इन चित्रो मे चंद्र्मा की सतह पर सभी अभियानो के लुनर लैंडर के अवतरण इंजनो को देखा जा सकता है। इन चित्रो मे अपोलो 14 के यात्रीयो द्वारा किये गये एक प्रयोग ALSEP के दौरान बनाये गये पदचिह्नो के ट्रेक को भी देखा जा सकता है। नासा ने 3सितंबर 2009 को अपोलो 12 के अवतरण स्थल के चित्रो को प्रकाशित किया, इन चित्रो मे सर्वेयर 3 यान, ALSEP प्रयोग के उपकरण और चंद्रयात्रीयों के पद चिह्न स्पष्ट रूप से दिखाई देते है। इन चित्रो से वैज्ञानिक समुदाय तो उत्साहित हुआ लेकिन कांसपिरेसी थ्योरीस्ट पर कोई प्रभाव नही पड़ा।

1 सितंबर 2009 को भारत के चंद्र अभियान चंद्रयान 1 (Chandrayaan-1)ने अपोलो 15 के अवतरण स्थल और चंद्रवाहन(Lunar Rover) के ट्रेक के चित्र लिये। भारतीय अंतरिक्ष संस्थान(Indian Space Research Organisation ) ने यह अभियान सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से 8 सितंबर 2008 को प्रक्षेपित किया था। इन चित्रो को चंद्रयान के हायपरस्पेक्ट्रल कैमरे(hyperspectral camera) ने लिया था।

2010 मे प्रक्षेपित चीन के दूसरे चंद्रयान अभियान चांग 2 (Chang’e 2) की क्षमता 1.3 मिटर रिजाल्युशन की है। उसने भी अपोलो लैंडीग स्थलो के चित्र लिये और लैंडरो द्वारा छोड़े चिह्नो को पहचाना।

चंद्रमा से लाई गई चट्टाने

चंद्रमा से लाई जिनेसीस चट्टान

चंद्रमा से लाई जिनेसीस चट्टान

समूचे अपोलो कार्यक्रम के दौरान छह मानव अभियान से चंद्रमा से 380 किलोग्राम चट्टानी टूकड़े लाये गये। समस्त विश्व के वैज्ञानिको द्वारा इन चट्टानो का अध्ययन किया गया, समस्त वैज्ञानिक मानते है कि ये चट्टाने चंद्रमा से आई है, अब तक किसी भी जनरल मे एक भी ऐसा शोधपत्र प्रकाशित नही हुआ है जो इस दावे पर प्रश्न उठाता हो। अपोलो कार्यक्रम द्वारा लाई गई चट्टाने उल्काओं तथा पृथ्वी की चट्टानो से संरचना मे भिन्न है। इन चट्टानो मे पृथ्वी की चट्टानो के जैसे जल का असर नही है। इन चट्टानो मे निर्वात मे होने वाली टक्करो का प्रभाव स्पष्ट है, साथ मे यह चट्टाने पृथ्वी की चट्टानो से 20 करोड़ वर्ष पुरानी है। ये चट्टाने सोवियत संघ द्वारा लाई गई चट्टानो के जैसे ही है।

कांसपिरेसी थ्योरीस्ट कहते है कि अपोलो 11 अभियान से दो वर्ष पहले 1967 मे मार्शल स्पेस फ़्लाईट सेंटर के निदेशक वेर्नेर वान बरुन (that Marshall Space Flight Center Director Wernher von Braun’s )अंटार्कटिका गये थे, उन्होने चंद्रमा से पृथ्वी पर आई उल्काये जमा की थी जिन्हे अपोलो अभियान द्वारा चंद्रमा से लाई गई चट्टानो के रूप मे दिखाया गया। वान बरुन नाजी अफ़सर थे, इसलिये कांसपिरेसी थ्योरिस्ट कहते है कि उन्हे अपने भूतकाल के कर्मो की सजा से बचने के लिये इस षडयंत्र का भाग बनने के लिये मजबूर किया गया। नासा के अनुसार वान बरुन का अभियान भविष्य के अंतरिक्ष अभियानो के लिये वातावरण और तार्किक कारको की खोज करने के लिये था। नासा अब भी अपनी टीमो को अन्य ग्रहों की परिस्थिति से मिलती जुलती परिस्थितियों की तैयारीयों के लिये अंटार्कटीका भेजता है।

अब वैज्ञानिक समुदाय इस बात पर एकमत है कि मंगल और चंद्रमा पर क्षुद्रग्रहों के टकराव से अंतरिक्ष मे उछलने वाला मलबा उल्काओं के रूप मे पृथ्वी पर गिरता है। लेकिन इस तरह की सबसे पहली चंद्र-उल्का 1979 मे पाई गई थी तथा उसके वास्तविक स्रोत की पहचान 1982 तक नही हुई थी। इसके अतिरिक्त चंद्र उल्काये इतनी दुर्लभ है कि किसी भी हालत मे समस्त पृथ्वी से 1969-72 के मध्य तक 380 किलो चंद्र उल्काये जमा नही की जा सकती है। निजी उल्का जमाकर्ताओ, सरकारी एजेंसीयों की 20 वर्ष की मेहनत के बाद भी अब तक समस्त विश्व मे केवल 30 किलो चंद्र उल्काये पाई गई है।

अपोलो अंतरिक्ष अभियानो ने 380 किलो चंद्र चट्टाने जमा की, जबकि सोवियत रोबोटिक अभियान लुना 16, लुना 20 तथा लुना 24 ने कुल मिलाकर  मात्र 326 ग्राम चंद्र उल्का जमा कर ला पाये जोकि अमरीकी अभियान के हजारवे भाग से भी कम है।

अपोलो अंतरिक्ष अभियानो ने 380 किलो चंद्र चट्टाने जमा की, जबकि सोवियत रोबोटिक अभियान लुना 16, लुना 20 तथा लुना 24 ने कुल मिलाकर  मात्र 326 ग्राम चंद्र उल्का जमा कर ला पाये जोकि अमरीकी अभियान के हजारवे भाग से भी कम है।

अपोलो अंतरिक्ष अभियानो ने 380 किलो चंद्र चट्टाने जमा की, जबकि सोवियत रोबोटिक अभियान लुना 16, लुना 20 तथा लुना 24 ने कुल मिलाकर  मात्र 326 ग्राम चंद्र उल्का जमा कर ला पाये जोकि अमरीकी अभियान के हजारवे भाग से भी कम है। वर्तमान की योजनाओं के अनुसार मंगल से चट्टान जमा कर पृथ्वी पर तक लाने का अभियान का लक्ष्य केवल 500 ग्राम का है, दूसरी ओर प्रस्तावित साउथपोल ऐटकेन बेसीन रोबोटीक(South Pole-Aitken basin) अभियान चंद्रमा से केवल 1 किलो चट्टान जमा कर पायेगा। यदि नासा ने रोबोटिक अभियानो के प्रयोग से इतनी मात्रा मे चंद्र चट्टाने जमा कर लाई होती थो उसे 300-2000 अभियान भेजने पड़े होते।

चंद्रमा की चट्टानो की संरचना पर कांसपिरेसी थ्योरीस्ट कायसिंग पुछते है कि “चंद्रमा की चट्टानो सोना, चांदी, हीरे या अन्य बहुमुल्य धातुओं की चर्चा क्यों नही होती है ? क्या यह महत्वपूर्ण नही है ? इन बातो की चर्चा किसी प्रेस कांफ़्रेस मे किसी चंद्रयात्री ने क्यों नही की ?” भूगर्भशास्त्री मानते है कि पृथ्वी के गर्भ मे स्वर्ण और चांदी के भंडार भूगर्भीय उष्मा के द्वारा पिघल कर कुछ विशेष स्थानो पर जमा हुये है। इसतरह के भंडारो का निर्माण चंद्रमा पर मिलना कठिन है और मिल भी जाये तो उन्हे पृथ्वी तक लाना अत्यधिक महंगा पड़ेगा।

स्वतंत्र पक्षो द्वारा इन अभियानो का निरिक्षण

नासा के अतिरिक्त बहुत से समूहो और व्यक्तियों ने अपोलो अभियान पर कड़ी नजर रखी थी। बाद के अभियानो मे नासा ने समय समय पर इन यानो के दिखाई देने के समय और स्थान की पूर्व सूचना दी थी। कई समूहो ने इन यानो के उड़ान पथ पर राडारो से नजर रखी थी, दूरबीनो से चित्र लिये थे। इसके अतिरिक्त पृथ्वी के नियंत्रण कक्ष से यानो मे मध्य के रेडीयो संवादो को स्वतंत्र रूप से रिकार्ड किया था।

रेट्रोरिफ़्लेक्टर

अपोलो 11 का रेट्रोरिफ़्लेक्टर

अपोलो 11 का रेट्रोरिफ़्लेक्टर

अपोलो अभियान चंद्रमा पर कुछ विशेष लेजर परावर्तक(रेट्रोरिफ़्लेक्टर) छोड़ कर आये है। इन रिफ़्लेक्टरो पर पृथ्वी से लेजर किरणे भेज कर उन्हे वापिस पृथ्वी पर ग्रहण किया जा सकता है। लिक वेधशाला(Lick Observatory ) ने यह प्रयोग अपोलो 11 के समय पर किया था जब नील आर्मस्ट्रांग और बज आल्ड्रीन चंद्रमा की सतह पर ही थे लेकिन उन्हे सफ़लता 1 अगस्त 1969 को ही मिल पाई थी। अपोलो 14 ने 5 फ़रवरी 1971 को चंद्रमा पर रिफ़्लेक्टर छोडे थे जिन्हे मैकडोनाल्ड वेधशाला(McDonald Observatory) ने उसी दिन जांचा था। अपोलो 15 के रिफ़्लेक्टर 31 जुलाई 1971 को स्थापित हुये थे जिसे मैकडोनाल्ड वेधशाला ने अगले कुछ दिनो मे खोज लिया था। इसके अलावा कुछ छोटे रिफ़्लेक्टर सोवियत रोबोटिक अभियान लुनोखोद 1(Lunokhod 1) तथा 2 (Lunokhod 2) ने भी स्थापित किये है।

अपोलो अभियान के बाद मानव चन्द्रमा पर क्यों नही गया?

रोबोटिक अभियान सस्ते, सुरक्षित और बेहतर होते है। मानव अभियानो मे मानव को भेजने के अतिरिक्त उनके खाने, पीने, जीवित रहने का इंतजाम तो करना ही होता है। इसके साथ ही उन्हे वापस लाने का भी इंतजाम करना होता है। हर कदम पर यात्रीयों की जान का खतरा भी बना होता है। रोबोटिक अभियान एक तरफ़ा होते है उन्हे वापस लाने का इंतजाम नही करना होता है।

दूसरा यह है रोबोटिक अभियान को वापस लाने की बाध्यता ना होने से वे लंबे समय तक कार्य करते रह सकते है।

अब आते है अन्य तथ्यो पर

 

सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अपोलो अभियान वैज्ञानिक अभियान कभी था ही नही!

सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अपोलो अभियान वैज्ञानिक अभियान कभी था ही नही!

सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अपोलो अभियान वैज्ञानिक अभियान कभी था ही नही!

कुल एक दर्जन चन्द्रयात्रियों में से केवल एक वैज्ञानिक चन्द्रमा पर गया था, वह भी अंतिम चन्द्र अभियान में, बाकी सभी सैन्य अधिकारी थे।

वैज्ञानिक इतनी निरीह प्रजाति है कि उनके हाथों में यह अधिकार कभी नही रहा जिससे वे चयन कर पाए कि शोध की दिशा क्या हो! इन शोध के लिए पैसों का निर्णय राजनेता लेते है, वे ही दिशा देते है। राजनेताओं की प्राथमिकता विज्ञान नही अगले चुनाव होते है।

यह अभियान एक सैन्य राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई थी, नाक की लड़ाई थी। एक राजनेता द्वारा दशक के अंत तक चन्द्रमा पर मानव भेजने की सनक का परिणाम था। अपोलो यान सुरक्षित नही थे, तीन यात्रियों की मौत प्रयोग के दौरान एक दुर्घटना में जल कर हुई थी, तीन अंतरिक्ष यात्री अपोलो 13 में मरते मरते बचे थे।

सोवियत संघ अंतरिक्ष मे उपग्रह भेजने में, प्राणी भेजने में, मानव भेजने में, तकनीक में अमरीका से आगे और बेहतर था। तकनीक में अब भी बेहतर है। (नासा के कई तरह के यान, शटल रिटायर हो गए, सोयुज अब भी सुरक्षित माना जाता है।)

ऐसे में अमरीकी मानसिकता असुरक्षित महसूस कर रही थी, राजनेता अलोकप्रिय हो रहे थे। केनेडी ने इसमें राजनीतिक सम्भावनाएं देखी इसको चुनौती की तरह पेश कर चाँद यात्रा की घोषणा कर दी जिसके फलस्वरूप अपोलो अभियान सामने आया। आखिर मानव ने चन्द्रमा पर अपने कदम रख दिये। आगे ? आगे कुछ नही क्योंकि मानव अभियान से अधिक हासिल कर पाने की हालत में मानव ना तब था ना अब है। जब नेताओ ने देखा कि जनता का ध्यान अपोलो, चन्द्रमा से हट गया है, बाकी के अभियानों के लिए नासा की फंडिंग बन्द कर दी गयी फलस्वरूप अपोलो 18,19,20 कचरे के डिब्बे में डाल दिये गए। अपोलो 18 तो पूरी तरह से तैयार था।

अंतरखगोलीय मानव अभियान लम्बे हो भी नही हो सकते, खाने पीने रहने, सुरक्षित जाने आने की तैयारी चुनौती मुश्किल होती है। इसलिए अब अभियान केवल रोबोटिक होते है। मार्स रोवरों जैसी वैज्ञानिक सफ़लता मानव अभियान अब भी हासिल नही कर सकते।

एक बार पिछड़ने के बाद सोवियत संघ ने चन्द्रमा पर मानव भेजने का प्रयास कभी नही किया, बाद में पता चला कि मानव अभियान उनकी प्राथमिकता में था ही नही। वे सेल्यूट और उसके बाद मीर में ही खुश थे।

इस विषय पर खगोल वैज्ञानिक निल डिग्रेस टायसन को सुनिए

सारांश

यह एक तथ्य है कि अपोलो 11 अभियान द्वारा मानव ने चंद्रमा पर कदम रखे थे। लेकिन कांसपिरेसी थ्योरिस्ट इसपर भरोसा नही करंगे, चाहे उनके सामने कितने भी प्रमाण रख दिये जाये। आम लोगो को यह समझने की आवश्यकता है कि कांसपिरेसी थ्योरी एक बड़ा व्यवसाय बन चुका है, इन थ्योरी पर आधारित पुस्तके लिखी जाती है, उनकी बिक्री होती है। टीवी पर डाक्युमेंट्री दिखाई जाती है और उसके विज्ञापनो से कमाई होती है। इंटरनेट के जमाने मे ऐसी कांसपिरेसी थ्योरी की बदौलत वेबसाईट चलती है, विज्ञापन से आय होती है। युट्युब जैसे विडियो चैनल पर अधिक से अधिक लोगो को आकर्षित करने मे इस तरह की कांसपिरेसी थ्योरी बड़ा आकर्षण होती है।

अंत मे हम यही कहेंगे कि इंटरनेट, टीवी पर आंख मूंदकर भरोसा मत कीजिये, तर्को और तथ्यो को प्रमाणो की कसौटी पर जांच कर ही भरोसा करें।

इस विषय पर कुछ अन्य वेबसाईट/डाक्युमेंटरी

  1. खगोलशास्त्री फ़िल प्लेट का बैड आस्ट्रोनामी : http://www.badastronomy.com/bad/tv/foxapollo.html
  2. इस कांसपिरेसी थ्योरी का खंडन करने समर्पित साईट :http://www.clavius.org/
  3. टीवी धारावाहिक मिथबस्टर का इस विषय पर पूरा एपिसोड :https://www.dailymotion.com/video/x2m7k1z
  4. इस थ्योरी की धज्जीयाँ उड़ाता रैशनलविकी का लेख https://rationalwiki.org/wiki/Moon_landing_hoax
  5. विकिपिडीया पर लेख : https://en.wikipedia.org/wiki/Moon_landing_conspiracy_theories
  6. http://earthsky.org/space/apollo-and-the-moon-landing-hoax
  7. https://www.space.com/12814-top-10-apollo-moon-landing-hoax-theories.html
  8. https://www.washingtonpost.com/news/speaking-of-science/wp/2018/07/20/why-do-people-believe-the-moon-landing-hoax-or-other-conspiracy-theories/?noredirect=on&utm_term=.ff2ba1973115

परग्रही जीवन भाग 4 :बोरान आधारित जीवन

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सिलिकान के पश्चात बोरान अकेला तत्व है जोकि कार्बन को चुनौती दे सकता है। यह तत्व आवर्तसारणी मे कार्बन के बांए स्थित है, जबकि सिलिकान कार्बन के नीचे है। जैव रसायनशास्त्रीयों की बोरान मे दिलचस्पी का कारण इसके द्वारा प्रदर्शित बहुआयामी तथा अत्याधिक असामान्य रासायनिक व्यवहार है। यह सिलिकान के जैसे उच्च तापमान पर बहुत से यौगिक का निर्माण कर सकता है। बोरान रसायन का अध्ययन समुचित तरिके से नही हुआ है लेकिन जैवरसायन मे इस तत्व की बहुत सी ज्ञात कमीयाँ है।
सर्वप्रथम बोरान हायड्रोकार्बन के समरूप या सरल शृंखला रूपी आधार अणुओं का निर्माण नही कर पाता है जोकि जटिल जैव अणु के लिये रीढ़ होते है।

द्वितिय समस्या है कि बोरान प्रकृति मे आसानी से पाया नही जाता है। पृथ्वी पर भूपर्पटी मे सिलिकान की तुलना मे यह एक लाख गुणा कम तथा कार्बन की तुलना मे 100 गुणा कम है। कुल मिला कर निष्कर्ष निकलता है कि यदि बोरान उपलब्ध है तो कार्बन भी उप्लब्ध होगा, इसलिये यदि बोरान आधारित जीवन पनपता है जो कार्बन आधारित जीवन पनपने की संभावना अधिक होगी, साथ ही सिलिकान आधारित जीवन होने की संभावना बोरान आधारित जीवन से अधिक होगी।
तृतीय बोरान आक्साईड (BO)ठोस होता है जोकि बोरान आधारित जैव प्रक्रियाओं का उत्पाद होगा, इसके उत्सर्जन मे भी कठिनाई होगी। यह समस्या हमने सिलिकान आधारित जीवन मे सिलिकान डाय आक्साईड के रूप मे भी देखी थी।

विशेष परिस्थिति : बोरान नाइट्रोजन रसायन

बोरान के साथ उपरोक्त समस्याओं के चलते एक और विकल्प पर विचार किया गया। बोरान और नाइट्रोजन परमाणूओं की एक के बाद एक शृंखला का। बोरान आवर्तसारणी मे कार्बन के बायें तथा नाइट्रोजन कें दायें है, इससे बोरान और नाइट्रोजन परमाणु युग्म कार्बन परमाणु युग्म के जैसे व्यवहार करते है। इस बोरान-नाइट्रोजन युग्म को कभी कभी छद्म-कार्बन भी कहा जाता है और इस युग्म मे कई कार्बनिक पदार्थो के समरूपो का निर्माण होता है। उदाहरण के लिये बेंजीन का बोरान-नाइट्रोजन समरूप बोराजीन(Borazine) है। इसके अलावा हीरे, ग्रेफ़ाइट और कार्बन नैनोट्युब के समरूप भी उपलब्ध है।

इन सब आशा निर्माण करने वाली संभावना के बावजूद बोरान-नाइट्रोजन रसायन वैकल्पिक जैवरसायन के लिये एक कमजोर उम्मीदवार है।

  • सर्वप्रथम ये यौगिक प्रकृति मे दुर्लभ है, इससे इनके प्राकृतिक रूप से प्राथमिक जीवन निर्माण करने वाली मात्रा मे उपलब्धता पर प्रश्न चिह्न लग जाता है।
  • द्वितीय, इन यौगिको मे से अधिकांश अपने कार्बनिक समरूपो की तुलना मे तापीय रूप से स्थाई नही है।
  • तृतीय, इन यौगिको मे कार्बनिक पदार्थो के एक छोटे से भाग के समरूप ही है और इनमे जैव रसायन के लिये आवश्यक विविधता तथा लचीलापन नही है।
  • चतुर्थ, ये यौगिक कार्बनिक समरूप पदार्थो की तुलना मे अधिक क्रियाशील है, इससे बना जीवन कम तापमान मे ही रह पायेगा।
  • पांचवा, इनमे अधिकतर यौगिक जल मे विलेय है, जिसमे उपर बताये बोराजीन का भी समावेश है, इसलिये इसपर आधारित जीवन जल का आंतरिक विलायक के रूप मे प्रयोग नही कर पायेगा।

इन सब परेशानीयों की रोशनी मे बोरान-नाइट्रोजन रसायन से जीवन की संभावना नगण्य प्रतीत होती है।

कार्बन आधारित जीवन का कोई विकल्प नजर नही आता है।

खगोलजैव शास्त्री अकार्बनिक जीवन की संभावना खोजने मे जी जान से लगे हुये है। ये सभी आईडीये चमत्कृत अवश्य करते है लेकिन सभी मे गंभीर कमिया और खामीयाँ है। इन्ही कारणो से पृथ्वी के बाहर जीवन की खोज करते समय केवल कार्बन आधारित जीवन की खोज पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। अब तक अकार्बन आधारित जीवन के विकल्प के रूप मे एक भी विस्तृत अवधारणा सामने नही आ पाई है। इस स्तिथी मे निकट भविष्य मे भी किसी परिवर्तन होने की संभावना नगण्य है।

अगले लेखों मे हम जीवन की “जल बीन जीवन” की संभावना पर विचार करेंगे।

Wow! सिगनल

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15 अगस्त 1977 को सेटी मे कार्यरत डॉ जेरी एहमन(Jerry Ehman) ने ओहीयो स्टेट विश्वविद्यालय(Ohio State University) के बीग इयर रेडीयो दूरबीन(Big Ear Radio Telescope) पर एक रहस्यमयी संदेश प्राप्त किया। इस संदेश ने परग्रही जीवन से संपर्क की आशा मे नवजीवन का संचार कर दिया था।

यह संदेश 72 सेकंड तक प्राप्त हुआ लेकिन उसके बाद यह दूबारा प्राप्त नही हुआ जबकि उस क्षेत्र को कई बार स्कैन किया गया लेकिन यह संकेत गायब हो चुका था। इस रहस्यमय संदेश मे अंग्रेजी अक्षरो और अंको की एक श्रंखला थी जो कि अनियमित सी थी और किसी बुद्धिमान सभ्यता द्वारा भेजे गये संदेश के जैसे थी।

डॉ जेरी एहमन इस संदेश के परग्रही सभ्यता के संदेश के अनुमानित गुणो से समानता देख कर हैरान रह गये और उन्होने कम्प्युटर के प्रिंट आउट के हाशिये पर “Wow!” लिख दिया जो इस संदेश का नाम बन गया। खगोल वैज्ञानिक जेरी एहमन ने इस संकेत मे “6EQUJ5” को लाल रंग से घेरा बनाया था जोकि विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम मे एक कृत्रिम विचलन को दर्शाता रहा था।

माना गया यह संकेत 200 प्रकाश वर्ष दूर धनु तारामंडल के समीप के तारा समूह चाई सगीट्टारी(Chi Sagittarii) के तारे टाऊ सगीट्टारी(Tau Sagittarii) से आया था। इसके बाद इस संदेश के श्रोत की खोज के ढेरो प्रयासो के बाद भी यह दूबारा प्राप्त नही हुआ। इतना तय है कि यह संदेश पृथ्वी से उत्पन्न नही था और अंतरिक्ष से ही आया था। लेकिन कुछ विज्ञानी जिन्होने ’Wow’ संदेश देखा था इस निष्कर्ष से सहमत नही थे। इस संकेत की व्याख्या के लिये कई अवधारणाये प्रस्तुत की गई लेकिन कोई भी वैध तर्क नही दे सके। यह संकेत केवल एक ही बार मिला और अब तक का यह किसी एलियन सभ्यता द्वारा भेजे गये संकेत का सबसे बेहतरीन उम्मीदवार माना गया।

Wow! संदेश 15 अगस्त 1977 को सेटी मे कार्यरत डा जेरी एहमन ने ओहीयो विश्वविद्यालय के बीग इयर रेडीयो दूरबीन पर एक रहस्यमयी संदेश प्राप्त किया। इस संदेश ने परग्रही जीवन से संपर्क की आशा मे नवजीवन का संचार कर दिया था। यह संदेश 72 सेकंड तक प्राप्त हुआ लेकिन उसके बाद यह दूबारा प्राप्त नही हुआ। इस रहस्यमय संदेश मे अंग्रेजी अक्षरो और अंको की एक श्रंखला थी जो कि अनियमित सी थी और किसी बुद्धिमान सभ्यता द्वारा भेजे गये संदेश के जैसे थी। डा एहमन इस संदेश के परग्रही सभ्यता के संदेश के अनुमानित गुणो से समानता देख कर हैरान रह गये और उन्होने कम्प्युटर के प्रिंट आउट पर “Wow!” लिख दिया जो इस संदेश का नाम बन गया।

Wow! संदेश 15 अगस्त 1977 को सेटी मे कार्यरत डा जेरी एहमन ने ओहीयो विश्वविद्यालय के बीग इयर रेडीयो दूरबीन पर एक रहस्यमयी संदेश प्राप्त किया। इस संदेश ने परग्रही जीवन से संपर्क की आशा मे नवजीवन का संचार कर दिया था। यह संदेश 72 सेकंड तक प्राप्त हुआ लेकिन उसके बाद यह दूबारा प्राप्त नही हुआ। इस रहस्यमय संदेश मे अंग्रेजी अक्षरो और अंको की एक श्रंखला थी जो कि अनियमित सी थी और किसी बुद्धिमान सभ्यता द्वारा भेजे गये संदेश के जैसे थी। डा एहमन इस संदेश के परग्रही सभ्यता के संदेश के अनुमानित गुणो से समानता देख कर हैरान रह गये और उन्होने कम्प्युटर के प्रिंट आउट पर “Wow!” लिख दिया जो इस संदेश का नाम बन गया।

अभी हाल ही में शोधकर्ताओं की एक टीम ने CPS(Center of Planetary Science) के साथ मिलकर wow! संकेत के रहस्यों को हल कर दिया है। शोधकर्ताओं के प्रमुख एंटोनियो पेरिस(Antonio Paris) ने अपने सिद्धांतों का वर्णन वाशिंगटन एकेडमी ऑफ साइंस के जर्नल में प्रकाशित पेपर में किया है। उनका रिपोर्ट यह बताता है कि यह संकेत एक धूमकेतु से आया था। wow! संकेत की आवृत्ति 1420 MHz दर्ज की गई थी जो कि साधारण हायड्रोजन गैस की उत्सर्जन आवृत्ति के समान ही है। इसका प्रत्यक्ष स्पष्टीकरण पिछले साल तब सामने आया जब CPS के शोधकर्ताओं की टीम ने एक सुझाव दिया कि धूमकेतु पर मौजूद हायड्रोजन के बादल भी इसी तरह के संकेत प्रसारित करते है। Wow! संकेत हमे दुबारा इसलिए नही मिल सका क्योंकि धूमकेतु तेज गति से गतिशील रहते है। जिस दिन बिग इयर को यह संकेत मिला था ठीक उस दिन दो धूमकेतु आसमान के उसी हिस्से में मौजूद थे। यह धूमकेतु 266P/Christensen और 335P/Gibbs को तब खोजा नही गया था। शोधकर्ताओं को अपनी विचार का परीक्षण करने जा मौका तब मिला जब नवंबर 2016 से फरवरी 2017 तक आकाश में दोनों धूमकेतु सामने आये। इस टीम ने परीक्षण किया और अपनी शोधपत्र में कहा 266P/Christensen से मिले रेडियो संकेत को हमने Wow! संकेत से मिलान किया। 40 साल पहले प्राप्त संकेत से मिलान के लिए हमने अन्य तीन धूमकेतु के रेडियो संकेतो को मिलाया है। उन्हें सभी धूमकेतु से लगभग इसी तरह के रेडियो संकेत के परिणाम प्राप्त हुये है। शोधकर्ताओं ने कहा वे निश्चित रूप से यह तो नही कह सकते कि Wow! संकेत धूमकेतु 266P/Christensen द्वारा ही उत्तपन्न हुआ था लेकिन वे सापेक्ष आश्वस्त रूप से कह सकते है कि यह संकेत धूमकेतु द्वारा ही उत्तपन्न किया गया था जो एक प्राकृतिक घटना है।

2016 में, CPS(The Center for Planetary Science) ने अपनी शोधपत्र में बताया कि धूमकेतु में उपस्थित हायड्रोजन बादल ठीक Wow! संकेत जैसा ही सिग्नल देते है। शोधकर्ताओं ने इसकी पुष्टि के लिए लगभग 200 शोध आंकड़ों को रखा जिसमे धूमकेतु से प्राप्त रेडियो संकेत, रेडियो वर्णक्रम, उनकी खगोलीय स्थिति और धूमकेतुओं का वेग भी शामिल था। जाँच में पाया गया कि 266P/Christensen धूमकेतु 1420.25 MHz की रेडियो संकेत का उत्सर्जन कर रहा है। यह धूमकेतु जब खगोलीय निर्देशांक(Celestial Coordinates) 1°(60 arcminutes) के भीतर मौजूद थे तब वे 1420.00 MHz की आवृत्ति प्रसारित कर रहे थे जो कि लगभग Wow! सिग्नल की भी आवृत्ति है। जब रेडियो टेलीस्कोप को घुमाकर 15° निर्देशांक पर रखा गया तो यह रेडियो संकेत गायब हो गया। वापस जब 10 मीटर रेडियो टेलीस्कोप को घुमाकर खगोलीय निर्देशांक 1°(60 arcminutes) पर लाया गया तब फिर से रेडियो संकेत मिला जिसकी आवृत्ति 1420.25 MHz की थी। इसके अलावा भी यह निर्धारित करने के लिए की अन्य धूमकेतु 1420 MHz के रेडियो संकेत उत्सर्जित करते है। इस टीम ने P/2013 EW90 (Tenagra), P/2016 J1-A (PANSTARRS) और 237P/LINEAR इन धूमकेतुओं का चयन किया और शोध में पाया कि ये धूमकेतु भी 1420 MHz का रेडियो संकेत उत्सर्जित करते है। इस खोज से यह परिणाम भी सामने आया कि 1420 MHz की आवृत्ति धूमकेतु स्पेक्ट्रा है इससे नये धूमकेतु की खोज में काफी मदद मिल सकती है। इस प्रकार खगोल विज्ञानियों को यह पता चला कि Wow! संकेत एक प्राकृतिक घटना ही है यह संकेत किसी परग्रही सभ्यता के नही।

Credit: The Center for Planetary Science(CPS)
Big Ear Radio Observatory and North American AstroPhysical Observatory (NAAPO)

परग्रही जीवन भाग 5 : जीवन अमृत –जल एक महान विलायक

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जल

जल

अब तक हमारी चर्चा का केंद्र जीवित प्राणीयों की जैवरासायनिक संरचनाओं पर रहा है। यह सब बहुत महत्वपूर्ण था लेकिन हम इस तथ्य को नजर अंदाज नही कर सकते कि ये जैव अणु निर्वात मे कार्य नही करते है। पृथ्वी पर सभी जैव जैव कोशीकाओं के अंदर सभी जैव रासायनिक प्रक्रियायें द्रव जल की उपस्थिति मे ही होती है। पृथ्वी पर जीवन संरचना मे मुख्य भूमिका कार्बन की है लेकिन इसकी पृष्ठभूमी और मंच द्रव जल ने तैयार की है।

जीवन के लिये किसी द्रव माध्यम की भूमिका सरसरी तौर पर महत्वपूर्ण नही लगती है लेकिन यह जैविक संरचना के लिये जिम्मेदार तत्वो की भूमिका से अधिक महत्वपूर्ण है। सर्वप्रथम किसी द्रव का चयन ही निर्धारण करेगा कि किस तरह कि जैव रसायन प्रक्रियायें संभव है। उदाहरण के लिये सिलेन रसायन जल और अमोनिया मे संभव नही है। द्वितीय , किसी तय दबाव पर यौगिक द्रव अवस्था ने एक विशिष्ट तापमान सीमाओं के मध्य ही रहते है, जिसका अर्थ है कि किसी ग्रह पर किसी भी पदार्थ की द्रव अवस्था उस ग्रह के तापमान और दबाव पर निर्भर करेगी। उदाहरण के लिये , जल आधारित जीवन के लिये जीवन योग्य ग्रह गोल्डीलाक क्षेत्र मे पाये जाते है, यह तारे के पास वह क्षेत्र होता है जहाँ जल ग्रह की सतह पर द्रव अवस्था मे पाये जाने की संभावना होती है। किसी भी तरह के जीवन के लिये ये सभी शर्ते अनिवार्य है, चाहे वह कार्बन आधारित जीवन हो या किसी अन्य तरह का विचित्र जीवन।

विलायक द्रव ही क्यों चाहिये?

आदर्श विलायक

आदर्श विलायक

किसी भी कोशिका मे होने वाली जैव रासायनिक प्रक्रिया के लिये जल ही उपयुक्त परिस्थितियाँ प्रदान करता है। इसके पहले कि हम ब्रह्मांड मे अन्य स्थानो पर जीवन के लिये आवश्यक जल की इस भूमिका के विकल्पों पर विचार करें , पहले यह देखतें है कि क्या द्रव की जगह कोई अन्य अवस्था जैव रासायनिक प्रक्रिया के लिये उपयुक्त परिस्थिति उपलब्ध करा सकती है। वैज्ञानिको ने जैव रासायनिक प्रक्रिया के वातावरण के लिये द्रव के स्थान पर गैस या ठोस की भूमिका की संभावनाओं पर गंभीर विचार किया है लेकिन उन्होने गैस या ठोस को इस के लिये प्रभावी नही पाया है।

द्रव एक साझा पर्यावरण प्रदान करता है। द्रव एक ऐसा विलायक होता है जो ठोस (प्रोटीन, DNA इत्यादि), द्रव तथा गैस(आक्सीजन, कार्बन डाई आक्साईड इत्यादि) का विलय कर(घोल कर) एक ऐसा पर्यावरण प्रदान कर देता है कि वे आपस मे प्रतिक्रिया कर सकें। जबकि ठोस और गैस अवस्था वाले पदार्थों के पास इस तरह की क्षमता सीमित होती है कि वे अन्य दो अवस्थाओं इस तरह का पर्यावरण निर्मित कर सकें। ना तो ठोस ना ही गैस अन्य दो अवस्थाओं के पदार्थ को द्रव के जैसे घोल सकते है।

द्रव संघटको को पूर्ण गति स्वतंत्रता प्रदान करता है। किसी भी प्रभावशाली जैवरासायनिक प्रक्रिया के लिये आवश्यक होता है कि प्रतिक्रिया करबे वाले घटक कोशीकाओं के अंदर पूरी स्वतंत्रता से विचरण कर सकें। कोशीकाओं के लिये आवश्यक होता है कि पोषक तत्व आसानी से लाये का सकें तथा अपशिष्ट का निस्पादन आसानी से हो सके। यह प्रक्रिया ठोस माध्यम मे होना कठीन है क्योंकि ठोस पदार्थ मे पदार्थ का विसरण अत्यंत धीमी गति से होता है। इस तरह की प्रक्रिया के लिये द्रव और गैस आदर्श अवस्थायें हैं।

द्रव एक प्रावरण(encapsulation) प्रदान करते है। जैव रसायन के लिये आवश्यक होता है कि सभी आवश्यक मुख्य पदार्थ एक दूसरे के समीप रहें जिससे वह प्रक्रिया कर सके, उनका बिखरी अवस्था मे रहना प्रक्रिया धीमी कर देता है। जैविक प्रक्रियाओं के लिये आवश्यक होता है कि एक ऐसी सीमा हो जो बाह्य परिस्थितियों से अप्रभावित रहे और उसमे किसी मिलावट की संभावना नगण्य हो। एक ऐसी सीमा जो मुख्य जैविक घटको को बांधे रख सके जो जैविक प्रक्रियाओं के घटित होने मे सहायक हो। दूसरी ओर यह सीमा अर्ध-पारगम्य हो जो पोषक तत्वों को अंदर आने दे तथा अपशिष्ट पदार्थ को बाहर जाने दे। गैसीय पदार्थों से ऐसी सीमा नही बनाई जा सकती है लेकिन यह सीमा द्रव या ठोस पदार्थो मे बनाई जा सकती है।

द्रव पदार्थ मे रासायनिक प्रक्रियायें तेजी से घटित होती है।  द्रव जैविक विलायक के लिये ठोस या गैस अवस्था से बेहतर होने के लिये एक महत्वपूर्ण कारक यह है कि द्रव माध्यम मे गैस या ठोस अवस्था की तुलना मे रासायनिक प्रक्रियायें तेजी से घटित होती है। ठोस अवस्था मे प्रक्रिया करने वाले घटको की सीमीत गति से रासायनिक प्रक्रिया धीमी होती है, जबकि गैस अवस्था मे प्रक्रिया करने वाले घटको के घनत्व के कम होने से प्रक्रियायें धीमी हो जाती है। द्रव माध्यम मे इन दोनो अवस्थाओं मे एक संतुलन होने से प्रक्रिया तेज होती है। इसके अतिरिक्त द्रव विलायको मे अधिकतर लवण और यौगिको के घुलने के बाद वे आयन बनाते है जोकि तेज गति से रासायनिक प्रक्रिया करते है जोकि उनके साधारण आण्विक रूप से तेज होती है।

इन सभी तथ्यो को ध्यान मे रखते हुते वैज्ञानिक मानते है कि जैव रसायन के लिये द्रव माध्यम ही उचित है और यह विचित्र जीवन के लिये भी लागु होता है। ठोस और गैस जैवरासायनिक प्रक्रियाओं के लिये अक्षम उम्मीदवार है।

आदर्श जैव विलायक के गुणधर्म

ठोस और गैस विलायको को गंभीर उम्मीदवार के रूप मे खारिज करने के बाद भी हमारे पास ढेर सारे द्रव उम्मीदवार बचे हुये है। हमे द्रव विलायको पर चर्चा करते हुये यह भी ध्यान रखना है कि हम केवल ऐसे द्रवों की चर्चा ना करें जो कि पृथ्वी के तापमान और परिस्थितियों मे ही द्रव हो। अन्य ग्रह और उनके चंद्रमाओं का तापमान और वातावरन पृथ्वी से भिन्न है जिससे वैकल्पिक द्रव विलायक उपलब्ध हो सकते है। उदाहरण के लिये मिथेन(CH4) जो पृथ्वी मे गैस के रूप मे पायी जाती है अत्यधिक शीतल परिस्थिति मे द्रव होती है जैसे शनि के चंद्रमा टाईटन पर द्रव मिथेन की झीले है।

हमारे पास ढेर सारे संभावित जैव विलायकों के उम्मीदवार है, इनमे से अक्षम उम्मीदवार को अलग करने के लिये हम आदर्श जैव विलायक के गुणधर्मो की चर्चा करते है।

प्राकृतिक रूप से उपलब्धता : रसायनशास्त्री प्रयोगशाला मे बहुत से प्रकार के विलायक बना सकते है लेकिन प्राकृतिक रूप से जीवन के निर्माण के लिये इन विलायको का प्राकृतिक रूप से निर्मित होकर उपलब्ध होना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त विलायक की मात्रा भी समुचित मात्रा मे होना चाहिये|

आदर्श विलायक: एक प्रभावी विलायक का सबसे बड़ा गुण है कि वह बहुत सारे विभिन्न पदार्थो का विलयन बना सके जिसमे कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थो का समावेश है। साथ मे इन विलायक मे विलेय पदार्थ की मात्रा भी समुचित हो। एक महत्वपूर्ण गुण बृहद अणुओं को घोल सकने की क्षमता भी है, यह महत्वपूर्ण इसलिये है कि पृथ्वी के वातावरण मे जीवन का आधार अणुओं मे से एक एक प्रोटीन के अणु मे हजारो परमाणु होते है।

एक बृहद तापमान सीमा मे द्रव अवस्था: यह  गुणधर्म विलायक के द्रव अवस्था मे रहने के लिये न्यूनतम और अधिकतम तापमान को दर्शाता है। यह तापांतर उस विलायक के द्रवीकरण बिंदु तथा बाष्पीकरण बिंदु के मध्य होता है। यह तापांतर जितना अधिक होगा वह उसपर आधारित जीवन के लिये मौसमी तापमान परिवर्तन से जैव विलायक को जमने या उबलने से होने वाले खतरों को कम करेगा। विलायक का जमना या उबलना उसपर आधारित जीवन के लिये घातक हो सकता है। द्रव अवस्था के लिये तापांतर को ध्यान मे रखते हुये यह भी देखना है कि अशुद्धियों की  उपस्तिथि भी द्रवीकरण बिंदु को कम कर सकती है और इस तापांतर को बढ़ा सकती है। इसका एक उदाहरण कार के रेडियेटर मे जल को शीतकाल मे जमने से बचाने के लिये कुछ रासायनो की सहायता से उसके द्रवीकरण बिंदु को कम करना है। दूसरा कारक बाह्य दबाव है, दबाव के बढ़ने पर बाष्पीकरण बिंदु बढ़ता है। गहरे समुद्र मे उष्मीय जलधारा के पास अत्याधिक तापमान पर जल का उत्सर्जन होता है लेकिन दबाव के कारण वह द्रव रूप मे ही रहता है क्योंकि सागर तलहटी मे वायुमंडलीय दबाव अत्याधिक होता है।

 प्रावरण(encapsulation)निर्मित करने की क्षमता: द्रव मे सीमा निर्माण करने एक साधारण प्रक्रिया जलावरोधी प्रभाव(hydrophobic effect) कहलाती है। इसका अर्थ है कि तैलीय द्रव(हायड्रोकार्बन तथा अध्रुविय(non-polar)अणु ) किसी ध्रुविय(polar) विलायक जैसे जल या अमोनिया मे एक दूसरे से पृथक ही रहेंगे। कुछ विशेष तरह मे वसा अणु(Fat Molecule) जिन्हे लिपिड(lipid) कहा जाता है जल मे अपने आप ही एक कोशीका मेम्ब्रेन बना लेते है जोकि किसी भी कोशिका की बाह्य सीमा के रूप मे कार्य करती है। इस तरह की संरचना किसी कोशीका के अंदर भी कक्षो निर्माण मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

विशाल पारद्युतिक स्थिरांक(Large dielectric constant): किसी द्रव का पारद्युतिक स्थिरांक उसमे आयन निर्माण की क्षमता का निर्धारण करता है। एक विशाल पारद्युतिक स्थिरांक कई कारणो से महत्वपूर्ण है। प्रथम, यह लवणो के विलेय होने मे मदद करता है(वे अपने घटक आयन मे अलग हो जाते है। द्वितिय, यह बड़ी मात्रा मे आयनो की उपस्तिथि सुनिश्चित करता है, उदाहरण के लिये सोडियम(Na+) तथा पोटेशियम (K+) आयन तंत्रिका संदेश वहन(nerve message conduction) मे महत्वपूर्ण होते है। तृतिय, इससे प्रभावी अम्ल-क्षार(acid-base) आधारित रासायनिक प्रक्रिया होती है जिनमे H+ तथा OH- के जैसे आयनो की भूमिका होती है। चतुर्थ, विशाल पारद्युतिक स्थिरांक वाले विद्युत रूप से आवेशित केंद्रक वाले बृहद अणु को भी विलेय कर लेते है। सामान्य रूप से अणु के आकार के बढ़ने के साथ उनकी विलायकता कम होती जाती है लेकिन विशाल पारद्युतिक स्थिरांक इस समस्या को हल करता है।

उत्तम उष्मीय नियंत्रक(Good thermal moderator): सभी जीवो को अपने वातावरण मे तापमान मे परिवर्तन तथा उनकी अपनी आंतरिक जैवरसायन प्रक्रिया से उत्पन्न उष्मा के साथ तालमेल करना होता है।  किसी भी विलायक का उष्मीय गुणधर्म ऐसा होना चाहिये कि वे इन उष्मीय परिवर्तनो से जीवन को संरक्षित रखे और जीवन को हिमित(Freez) होने से या अधिक उष्ण होने से बचाकर रखे। इस लेख मे हम ऐसे तीन गुणधर्मो पर चर्चा करेंगे। सबसे पहले उष्मा धारिता(Heat Capacity), किसी पदार्थ के द्रव्यमान का ताप एक डिग्री सेल्सियस बढ़ाने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा को उस पदार्थ की ऊष्मा धारिता (Heat capacity) कहते हैं। इस भौतिक राशि का एस आई मात्रक जूल प्रति केल्विन (J/K) है। किसी विलायक की अधिक उष्मा धारिता से उष्णता मे कमी या बढोतरी से विलायक के तापमान मे अधिक परिवर्तन नही होंगे। दूसरा महत्वपूर्ण कारक है द्रवण की गुप्त उष्मा(heat of fusion), यह ऊर्जा की वह मात्रा है जो द्रव के इकाई मात्रा को ठोस में बदलने के लिये द्रव से निकालनी होती है। अधिक द्रवण की गुप्त उष्मा होने से द्रव से कुछ मात्रा मे ही उष्मा मुक्त होने पर वह ठोस नही होगा। तीसरा कारक है वाष्पन की गुप्त ऊष्मा(heat of vaporization), यह ऊर्जा की वह मात्रा है जो द्रव के इकाई मात्रा को गैस में बदलने के लिये आवश्यक होती है। अधिक बाष्पन की गुप्त उष्मा होने पर द्रव का बाष्पन कम उष्मा देने पर नही होगा और यह गुणधर्म जीवन को अपने आप को शीतल होने मे मदद करता है। ये तीनो गुण मिलकर किसी अच्छे विलायक द्वारा तापमान मे परिवर्तन से समायोजन को परिभाषित करते है।

श्यानता

श्यानता

न्यून श्यानता : श्यानता (Viscosity): किसी तरल का वह गुण है जिसके कारण वह किसी बाहरी प्रतिबल (स्ट्रेस) या अपरूपक प्रतिबल (शीयर स्ट्रेस) के कारण अपने को विकृत (deform) करने का विरोध करता है। सामान्य शब्दों में, यह उस तरल के गाढे़पन या उसके बहने का प्रतिरोध करने की क्षमता का परिचायक है। उदाहरण के लिये, पानी पतला होता है एवं उसकी श्यानता वनस्पति तेल की अपेक्षा कम होती है जो कि गाढा़ होता है।

जैव विलायक के लिये न्यून श्यानता आवश्यक है जो उसे प्रवाहित होने मे अधिक स्वतंत्रता देगा और जैव अणु आपस मे प्रभावशाली तरिके से प्रतिक्रिया कर पायेंगे। उदाहरण के लिये कोशीका के एन्जाइम आवश्यक होने पर आसानी से अपने लक्ष्य तक पहुंच पायेंगे।

पृष्ठ तनाव

पृष्ठ तनाव

पृष्ठ तनाव : अधिक पृष्ठ तनाव अधिशोषण प्रक्रिया के लिये अत्यावश्यक है, यह वह प्रक्रिया है जिसमे कुछ विशिष्ट घुले हुये पदार्थ विलायक मे स्वतंत्र रूप से विचरण करने की बजाय सतह पर चिपके रहते है। यह उन पदार्थो के साथ होता है जो अपने विलायक के पृष्ठ तनाव को कम कर देते है जिससे वह वे अपने विलायक के मध्य पर रहने की बजाय सतह पर अधिक ऊर्जा के साथ उपस्थित रहते है। अधिकतर प्रोटीन तथा उससे मिलते जुलते अणु इस तरह की पृष्ठ तनाव कम करने का गुणधर्म रखते है, जिससे वे कोशीका की दिवारो(membrane) पर जमा होते है। यह प्रक्रिया कोशीका की दिवारो को को विशिष्ट आकार देने के लिये आवश्यक है। अधिक पृष्ठ तनाव एक विशिष्ट जैव प्रक्रिया केशिका क्रिया (Capillary action) के लिये आवश्यक है। इस प्रक्रिया का अर्थ है कि द्रव बहुत ही संकरे स्थान से बिना किसी बाह्यबल के पार हो जायेगा। पृथ्वी पर केशिका क्रिया से जमीन अपने आप मे नमी बरकरार रखती है और पेड पौधो मे केशिका क्रिया जड़ो से पत्तो तक जैव द्रव्य के संचार मे मदद करता है।

इन आठ गुणधर्मो मे पहले तीन गुण जीवन के लिये अत्यावश्यक है, शेष पांच कम महत्वपूर्ण है।

अगले लेख मे जल की विशेषता और कमीयों पर चर्चा करेंगे

लेख शृंखला

परग्रही जीवन भाग 1 : क्या जीवन के लिये कार्बन और जल आवश्यक है ?

परग्रही जीवन भाग 4 :बोरान आधारित जीवन

उत्तरायण और दक्षिणायन समान क्यों नही

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उत्तरायण : 21 मार्च से 23 सितम्बर – 186 दिन
दक्षिणायन: 23 सितम्बर – 21 मार्च -179 दिन

प्रश्न : दोनो अयन की अवधि समान क्यो नही ?

उत्तर : उत्तर जानने से पहले हम कुछ आधारभूत जानकारी देखते है।


सबसे पहले पृथ्वी की सूर्य परिक्रमा कक्षा वृत्ताकार नही है, यह दीर्घवृत्ताकार है। जो कि केप्लर के पहले नियम के अनुसार है।

उत्तरायण और दक्षिणायण

उत्तरायण और दक्षिणायण

केप्लर का पहला नियम : सभी ग्रहों की कक्षा की कक्षा दीर्घवृत्ताकार होती है तथा सूर्य इस कक्षा के दो नाभिक मे से एक नाभिक (focus) पर होता है।

अब पृथ्वी की कक्षा मे गति भी समान नही होती है, यह गति सूर्य के समीप होने पर बढ़ जाती है और दूर रहने पर कम होती है। यह केप्लर के द्वितिय और तृतिय नियम के अनुसार है।

केप्लर का द्वितीय नियम: ग्रह को सूर्य से जोड़ने वाली रेखा समान समयान्तराल में समान क्षेत्रफल तय करती है।

केप्लर का तृतीय नियम : ग्रह द्वारा सूर्य की परिक्रमा के कक्षीय अवधि का वर्ग, अर्ध-दीर्घ-अक्ष (semi-major axis) के घन के समानुपाती होता है। दूसरा चित्र देखे। इसके अनुसार A1 और A2 दूरी को तय करने मे लगने वाला समय समान है।

चित्र १: केप्लेर के तीनो नियमों का दो ग्रहीय कक्षाओं के माध्यम से प्रदर्शन (1) कक्षाएँ दीर्घवृत्ताकार हैं एवं उनकी नाभियाँ पहले ग्रह के लिये (focal points) ƒ1 and ƒ2 पर हैं तथा दूसरे ग्रह के लिये ƒ1 and ƒ3 पर हैं। सूर्य नाभिक बिन्दु ƒ1 पर स्थित है। (2) ग्रह (१) के लिये दोनो छायांकित (shaded) सेक्टर A1 and A2 का क्षेत्रफल समान है तथा ग्रह (१) के लिये सेगमेन्ट A1 को पार करने में लगा समय उतना ही है जितना सेगमेन्ट A2 को पार करने में लगता है। (3) ग्रह (१) एवं ग्रह (२) को अपनी-अपनी कक्षा की परिक्रमा करने में लगे कुल समय a13/2 : a23/2 के अनुपात में हैं।

केप्लेर के तीनो नियमों का दो ग्रहीय कक्षाओं के माध्यम से प्रदर्शन (1) कक्षाएँ दीर्घवृत्ताकार हैं एवं उनकी नाभियाँ पहले ग्रह के लिये (focal points) ƒ1 and ƒ2 पर हैं तथा दूसरे ग्रह के लिये ƒ1 and ƒ3 पर हैं। सूर्य नाभिक बिन्दु ƒ1 पर स्थित है। (2) ग्रह (१) के लिये दोनो छायांकित (shaded) सेक्टर A1 and A2 का क्षेत्रफल समान है तथा ग्रह (१) के लिये सेगमेन्ट A1 को पार करने में लगा समय उतना ही है जितना सेगमेन्ट A2 को पार करने में लगता है। (3) ग्रह (१) एवं ग्रह (२) को अपनी-अपनी कक्षा की परिक्रमा करने में लगे कुल समय a13/2 : a23/2 के अनुपात में हैं।

पृथ्वी सूर्य के समीप की स्थिति वाली कक्षा मे 23 सितम्बर – 21 मार्च के मध्य रहती है और 3 जनवरी को सूर्य के सबसे निकट रहती है। इस अवधि मे पृथ्वी कक्षा की छोटी तो है ही साथ ही परिक्रमा गति भी अधिक है। इस दूरी को पृथ्वी केवल 179 दिन मे पूरी कर लेती है।

पृथ्वी सूर्य के अधिक दूरी वाली स्थिति मे 21 मार्च से 23 सितम्बर के मध्य रहती है और 3 जुलाई को सबसे अधिक दूरी पर होती है। इस अवधि मे पृथ्वी कक्षा की लंबी तो है ही साथ ही परिक्रमा गति भी कम है। इस दूरी को पृथ्वी 186 दिन मे पूरी कर लेती है।

वायेजर 2 ने रचा इतिहास: सौर मंडल के बाहर द्वितिय मानव निर्मित यान

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वायेजर 2 से प्राप्त संकेत बता रहे हैं कि नासा का यह अंतरिक्ष यान सौर मंडल की सीमा पर है। वह सौर मंडल के विशाल बुलबुले के अंतिम छोर पर पहुंच चुका है;जिसे हेलिओस्फीयर कहते है। वायेजर 2 जल्दी ही हमारे सौर मंडल से बाहर चला जायेगा

वायेजर 2 और उसके जुड़वां यान वायेजर 1 को 1977 मे प्रक्षेपित किया गया था। 2012 मे वायेजर 1 सौर मंडल की इस सीमा को पार कर चुका है।

वायेजर 2 ने अपने आसपास कास्मिक किरणो की उपस्थिति मे बढ़ोत्तरी देखी है, ये कास्मिक किरणे सौर मंडल के बाहर अंतरतारकीय(interstellar) माध्यम मे पाई जाती है। नासा के अनुसार यह संकेत है कि 41 वर्ष पहले प्रक्षेपित अंतरिक्ष यान वायेजर 2 अब सौर मंडल के बाहर जाने के लिये तैयार है।

सौर मंडल के बाहर जाने के बाद वायेजर 1 के बाद यह दूसरी मानव निर्मित वस्तु होगी जो सौर मंडल की सीमाओ को पार कर चुकी होगी। वायेजर 1 ने इसी तरह की स्थिति का सामना 2012 मे किया था जब उसने कास्मिक किरणो मे इसी तरह की बढोत्तरी देखी थी। वर्तमान मे वायेजर 2 पृथ्वी से 2.8 अरब किमी दूरी पर है।

वायेजर 1 पृथ्वी से 5 सितंबर 1977 को अपने साथी यान वायेजर 2(20 अगस्त 1977) से कुछ दिनो बाद अपनी इस अंतहीन यात्रा पर रवाना हुआ था। इस यान का प्राथमिक उद्देश्य गुरु, शनि, युरेनस और नेपच्युन का अध्यन था जो उसने 1989 मे ही पूरा कर लिया था। उसके पश्चात उसने गहन अंतरिक्ष मे छलांग लगाई थी।

1977 मे जब इन दोनो वायेजर को छोड़ा गया था तब उनका उद्देश्य बृहस्पति, शनि, युरेनस और नेप्चयुन की यात्रा मात्र था। उस समय मानव के पास कुल 20 वर्ष अंतरिक्ष अनुभव था, कोई उम्मीद नहीं थी कि यह अभियान 40 वर्ष से अधिक तक चलेगा, वह भी अपने मूल अभियान को पूरा करने के पश्चात। लेकिन इस अभियान के अभियंताओ को कोई आश्चर्य नहीं हुआ, उन्होंने इसे आवश्यकता से अधिक ही बनाया था।

वायेजर यानो का पथ

वायेजर यानो का पथ

परिभाषायें

  • सौर वायु (Solar Wind): सूर्य की सतह से उत्सर्जित आवेशीत कणो की धारा
  • हेलिओस्फीयर(Heliosphere): समस्त सौर मंडल को समाहित करने वाला सौर वायु से निर्मित बुलबुला।
  • टर्मीनेशन शाक (Termination Shock): वह क्षेत्र जहाँ पर सूर्य द्वारा उत्सर्जित कणों की गति धीमी पडने लगती और अंतरिक्ष के कणो से टकराव प्रारंभ होता है।
  • हीलीयोसीथ(Heliosheth) : वह क्षेत्र जहाँ पर सौर वायु खगोलीय पदार्थ से टकराकर एक तुफान जैसी स्थिती उत्पन्न करती है।
  • हीलीयोपाज(Heliopause) : सौर वायु और खगोलीय माध्यम के मध्य की सीमा जहाँ पर दोनो पदार्थो का दबाव समान होता है।

संबधित पोष्ट

 


वह महान वैज्ञानिक जिसने भारत को बैलगाड़ी युग से निकालकर नाभिकीय युग मे पहुंचा दिया

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भारत की स्वतंत्रता और उसके नए संविधान के लागू होने के साथ ही देश की प्रगति की नींव रखी गई। स्वतंत्रता के तुरंत बाद हमारे देश का नेतृत्व आधुनिक भारत के निर्माता पं. जवाहरलाल नेहरू को सौंपा गया। नेहरू जी का यह यह मानना था कि भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का एक ही रास्ता है- विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को विकास से जोड़ा जाए। नेहरू जी  ने मुख्यत: दो क्षेत्रों मे अपना ध्यान केन्द्रित किया – परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम का विकास और इसके माध्यम से अंतरिक्ष विज्ञान का विकास और वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अंतर्गत देश में एक के बाद एक कई वैज्ञानिक संस्थाओं और प्रयोगशालाओं की स्थापना। भारत मे नाभिकीय ऊर्जा के व्यवहार्य और दूरदर्शी कार्यक्रम की स्थापना होमी जहाँगीर भाभा और नेहरू जी के संयुक्त दृष्टिकोणों के परिणामस्वरूप हुई। आइए, भारत को नाभिकीय युग मे प्रवेश दिलाने मे भाभा की भूमिका के बारे मे चर्चा करते हैं।

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भाभा के साथ पं. नेहरू

होमी भाभा का जन्म 30 अक्तूबर, 1909 को मुंबई मे एक सम्पन्न पारसी परिवार मे हुआ था। स्कूली शिक्षा मे शानदार अकादमिक प्रदर्शन के बाद भाभा ने मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए कैंब्रिज विश्वविद्यालय मे प्रवेश लिया। भौतिकी मे उनकी व्यापक दिलचस्पी थी, इसलिए उन्होने नाभिकीय भौतिकी को अपना अनुसंधान क्षेत्र चुना। कैंब्रिज विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के बाद वहीं उन्हें प्राध्यापक के रूप मे नियुक्ति मिली। भाभा ने भौतिकी के चोटी के वैज्ञानिकों, रदरफोर्ड, डिराक, चैडविक, बोर, आइंस्टाइन, पौली आदि के साथ कार्य किया। भाभा का शोधकार्य मुख्यत:  कॉस्मिक किरणों पर केंद्रित था। कॉस्मिक किरणें अत्यधिक ऊर्जा वाले वे कण होते हैं जो बाहरी अंतरिक्ष मे पैदा होते हैं और छिटक कर पृथ्वी पर आ जाते हैं। भाभा ने वर्ष 1937 मे वाल्टर हाइटलर के साथ मिलकर कॉस्मिक किरणों पर एक सैद्धांतिक शोधपत्र प्रकाशित करवाया। उनके कॉस्मिक किरणों पर किये गए शोध कार्य को वैश्विक स्तर पर व्यापक मान्यता प्राप्त हुई। तब तक भाभा एक प्रतिष्ठित भौतिक विज्ञानी बन चुके थे।

द्वितीय विश्व युद्ध की भारत को देन

यह एक संयोग ही कहा जा सकता है कि वर्ष 1939 मे भाभा कैंब्रिज से कुछ दिनों की छुट्टी लेकर भारत आए। और इसी बीच यूरोप मे अचानक द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया। इसलिए उन्होने विश्व युद्ध के ख़त्म होने तक भारत मे ही रहने का निर्णय किया। और उन्होने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइन्स, बैंगलोर मे चंद्रशेखर वेंकट रामन के आमंत्रण पर रीडर के पद पर नियुक्ति प्राप्त की। इससे भाभा के जीवन में एक बड़ा मोड़ा तो आया ही साथ मे भारत के वैज्ञानिक विकास को भी एक नई दिशा मिली।

प्रारम्भ मे भाभा का अनुसंधान कार्य कॉस्मिक किरणों पर ही केंद्रित था, मगर नाभिकीय भौतिकी के क्षेत्र मे विकास को देखते हुए भाभा को यह विश्वास हो गया कि इस क्षेत्र के अनुसन्धानों से भारत निकट भविष्य में लाभ उठा सकेगा। वर्ष 1944 में भाभा ने टाटा ट्रस्ट के अध्यक्ष दोराब जी टाटा को संबोधित करते हुए एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होने नाभिकीय भौतिकी के क्षेत्र में मौलिक अनुसंधान हेतु एक संस्थान के निर्माण का प्रस्ताव रखा तथा नाभिकीय विद्युत की उपयोगिता पर प्रकाश डाला। टाटा ट्रस्ट के अनुदान से वर्ष 1945 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामैंटल रिसर्च (टीआईएफ़आर) की डॉ. होमी भाभा के नेतृत्व में स्थापना हुई। टीआईएफ़आर ने भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को संगठित करने के लिए आधारभूत ढांचा उपलब्ध करवाया।

दो महान विभूतियों के बीच अद्भुत बौद्धिक संबंध

भारत मे परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम संबंधी वैज्ञानिक गतिविधियों को बढ़ावा देने का श्रेय भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू और होमी भाभा की दूरदर्शिता को जाता है। भाभा की प्रतिभा के नेहरू जी कायल थे तथा दोनों के बीच काफी मधुर संबंध थे। वर्ष 1948 में भाभा की अध्यक्षता में परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना की गई। यह भाभा की दूरदृष्टि ही थी कि नाभिकीय विखंडन की खोज के बाद जब सारी दुनिया नाभिकीय ऊर्जा के विध्वंसनात्मक रूप परमाणु बम के निर्माण मे लगी हुई थी तब भाभा ने भारत की ऊर्जा जरूरतों को ध्यान मे रखते हुए विद्युत उत्पादन के लिए परमाणु शक्ति के उपयोग की पहल की। भाभा के नेतृत्व में भारत में प्राथमिक रूप से विद्युत शक्ति पैदा करने तथा कृषि, उद्योग, चिकित्सा, खाद्य उत्पादन और अन्य क्षेत्रों में अनुसंधान के लिए नाभिकीय अनुप्रयोगों के विकास की रूपरेखा तैयार की गई। इस दौरान भाभा को नेहरू जी की निरंतर सहायता और प्रोत्साहन मिलती रही, जिससे भारत दुनिया भर के उन मुट्ठी भर देशों में शामिल हो सका जिनको सम्पूर्ण नाभिकीय चक्र पर स्वदेशी क्षमता हासिल था।homi-bhabha-1

त्रिस्तरीय नाभिकीय ऊर्जा कार्यक्रम

डॉ. भाभा ने देश में उपलब्ध यूरेनियम और थोरियम के विपुल भंडारों को देखते हुए परमाणु विद्युत उत्पादन की तीन स्तरीय योजना बनाई थी, जिसमें क्रमश: यूरेनियम आधारित नाभिकीय रिएक्टर स्थापित करना, प्लूटोनियम को ईंधन के रूप मे उपयोग करना तथा थोरियम चक्र पर आधारित रिएक्टरों की स्थापना करना शामिल था। इस त्रिस्तरीय योजना का दो हिस्सा भारत पूरा कर चुका है। इस प्रकार भाभा ने परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में भारत को स्वावलंबी बनाकर उन लोगों के दाँतो तले ऊंगली दबा दिया जो परमाणु ऊर्जा के विध्वंसनात्मक उपयोग के पक्षधर थे।

परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के पक्षधर

परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग से संबंधित भाभा का विजन सम्पूर्ण मानवता के लिए युगांतरकारी सिद्ध हुआ। उन्होने यह बता दिया कि परमाणु का उपयोग सार्वभौमिक हित और कल्याण के लिए करते हैं, तो इसमें असीम संभावनाएं छिपी हुई है। वर्ष 1955 में भारत के प्रथम नाभिकीय रिएक्टर ‘अप्सरा’ की स्थापना परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग की दिशा में पहला सफल कदम था। इसके बाद भाभा के नेतृत्व में साइरस, जरलीना आदि रिएक्टर अस्तित्व में आए। हालांकि डॉ. भाभा शांतिपूर्ण कार्यों के लिए परमाणु ऊर्जा के उपयोग के पक्षधर रहे, लेकिन 1962 के भारत-चीन युद्ध मे भारत की हार ने उन्हें अपनी सोच बदलने को विवश कर दिया। इसके बाद वे कहने लगे कि ‘शक्ति का न होना हमारे लिए सबसे महंगी बात है’। अक्तूबर 1965 में डॉ. भाभा ने ऑल इंडिया रेडियों से घोषणा कि अगर उन्हें मौका मिले तो भारत 18 महीनों में परमाणु बम बनाकर दिखा सकता है। उनके इस वक्तव्य ने सारी दुनिया में सनसनी पैदा कर दी। हालांकि इसके बाद भी वे विकास कार्यों में परमाणु ऊर्जा के उपयोग की वकालत करते रहे तथा ‘शक्ति संतुलन’ हेतु भारत को परमाणु शक्ति सम्पन्न बनना आवश्यक बताया।

विमान दुर्घटना और असामयिक मृत्यु

24 जनवरी, 1966 को अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा आयोग की बैठक मे भाग लेने के लिए विएना जाते हुए एक विमान दुर्घटना में मात्र 57 वर्ष की आयु में डॉ. भाभा का निधन हो गया। इस प्रकार भारत ने एक उत्कृष्ट वैज्ञानिक, प्रशासक और कला एवं संगीत प्रेमी को खो दिया। डॉ. भाभा द्वारा प्रायोजित भारतीय परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम आज भी देश के बहुआयामी विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा रहा है।

-प्रदीप   (pk110043@gmail.com) 

 

 

 

 

 

अलविदा केप्लर : 9 साल तक ग्रहों की खोज के बाद नासा की केपलर अंतरिक्ष वेधशाला का अभियान समाप्त

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अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का ग्रहों की खोज करने वाला केपलर अंतरिक्ष वेधशाला का अभियान समाप्त हो गया है। यह दूरबीन 9 साल की सेवा के बाद सेवा निवृत्त होने वाला है। वैज्ञानिकों ने बताया है कि 2,600 ग्रहों की खोज में मदद करने वाले केपलर दूरबीन का ईंधन खत्म हो गया है इसलिए उसे रिटायर किया जा रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि 2009 में स्थापित इस दूरबीन ने हजारो छुपे हुए ग्रहों से हमें अवगत कराया और ब्रह्मांड की हमारी समझ को बेहतर बनाया।

नासा की ओर से जारी बयान के अनुसार, केपलर ने दिखाया कि रात में आकाश में दिखने वाले 20 से 50 प्रतिशत तारों के सौरमंडल में पृथ्वी के आकार के ग्रह हैं और वे अपने तारों के रहने योग्य क्षेत्र के भीतर स्थित हैं। इसका मतलब है कि वे अपने तारों से इतनी दूरी पर स्थित हैं, जहां इन ग्रहों पर जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण पानी के होने की संभावना है।

नासा के एस्ट्रोफिजिक्स विभाग के निदेशक पॉल हर्ट्ज का कहना है कि केपलर का जाना कोई अनपेक्षित नहीं था। केपलर का ईंधन खत्म होने के संकेत करीब दो सप्ताह पहले ही मिले थे। उसका ईंधन पूरी तरह से खत्म होने से पहले ही वैज्ञानिक उसके पास मौजूद सारा डेटा एकत्र करने में सफल रहे। नासा का कहना है कि फिलहाल केपलर धरती से दूर सुरक्षित कक्षा में है। नासा केपलर के ट्विटर हैंडल से इसके बारे में विस्तृत जानकारी देते हुए ट्वीट भी किया गया।

इसके मुताबिक यह वेधशाला 9.6 साल अंतरिक्ष में रही। 5,30,506 तारों का अवलोकन किया। इसमें से 2,663 ग्रहों की पुष्टि की गई।

केप्लर अंतरिक्ष वेधशाला :सौर मंडल के बाहर जीवन की खोज को समर्पित वेधशाला

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केप्लर अंतरिक्ष वेधशाला

केप्लर अंतरिक्ष वेधशाला नासा का सौर मंडल से बाहर पृथ्वी सदृश ग्रहों को खोजने का अबतक का सबसे सफ़ल अभियान रहा है। इस अभियान का नाम महान खगोल शास्त्री योहानस केप्लर को समर्पित था। इसे 7 मार्च 2009 को अंतरिक्ष मे भेजा गया था और अपने 9 वर्षो के अभियान के पश्चात इसे 30 अक्टूबर 2018 को सेवानिवृत्त कर दिया गया।

इस अभियान को हमारी आकाशगंगा मंदाकिनी(Milky Way) के एक विशिष्ट भाग का निरीक्षण कर उसमे पृथ्वी के आकार के तथा मातृतारे के जीवन योग्य क्षेत्र मे ग्रहों की खोज के लिये बनाया गया था। इसके एक उद्देश्य मे हमारी आकाशगंगा मे पृथ्वी सदृश ग्रहों की संख्या का अनुमान लगाना भी था। केप्लर अंतरिक्ष वेधशाला मे मुख्य उपकरण एक फोटोमीटर था जोकि लगभग 15,000 मुख्य अनुक्रम के तारे (Main Sequence Star) की रोशनी का निरीक्षण कर उसमे आने वाली निश्चित आवृत्ति (नियमित अंतराल)मे कमी/बढोत्तरी के आंकड़ो को पृथ्वी पर विश्लेषण के लिये भेजता था। किसी तारे के प्रकाश मे एक निश्चित अंतराल मे प्रकाश मे होने वाली कमी उस तारे के सामने से किसी ग्रह के गुजरने से होती है, यह कमी उस तारे की परिक्रमा करते ग्रह का एक संकेत होती है।


यह अभियान नौ वर्षो तक सक्रिय रहा, 30 अक्टूबर 2018 को इंधन की समाप्ति तक इस वेधशाला ने 530,506 तारों का निरीक्षण किया और इन तारों की परिक्रमा करते हुये 2,662 ग्रहों की खोज की।

अभियान की समयरेखा

इस अंतरिक्ष वेधशाला का प्रक्षेपण जनवरी 2006 मे तय हुआ था लेकिन नासा के बजट कट और अन्य समस्याओं के कारण इसे आठ महीने पोस्टपोन किया गया। बाद मे अन्य तकनीकी और बजट की वजहो से इस प्रोजेक्ट मे देरी होते रही। अंत मे 7 मार्च 2009 को केप केनावेरल अंतरिक्ष केंद्र फ़्लोरीडा से डेल्टा III राकेट से इसे अंतरिक्ष मे प्रक्षेपित कर दिया गया।

केप्लर द्वारा निरीक्षण किया जानेवाला क्षेत्र

केप्लर द्वारा निरीक्षण किया जानेवाला क्षेत्र

7 अप्रैल 2009 को इस अंतरिक्ष दूरबीन का ढक्कन हटाया गया और 8 अप्रैल को इसने प्रथम चित्र लिये। इस अंतरिक्ष वेधशाला ने सौर मंडल के बाहर अन्य तारो के पास पृथ्वी सदृश ग्रहों को खोजने का अपना अभियान 13 मई 2009 को प्रारंभ किया।
सौर मंडल बाह्य ग्रहो की खोज मे केप्लर ने सबसे पहले आंकड़े 19 जुन 2009 को भेजे।

केप्लर अंतरिक्ष वेधशाला ने ग्रहों की खोज आकाश मे एक स्थिर क्षेत्र मे ही की है। साथ मे दिये गये चित्र मे इस क्षेत्र के खगोलीय निर्देशांक दिये है। केप्लर आकाश मे 115 वर्ग डीग्री के क्षेत्र मे ग्रहो की खोज मे लगा था, जो कि आकाश का केवल 0.25% है। समस्त आकाश के निरीक्षण के लिये हमे 400 केप्लर दूरबीन चाहीये होंगी। केप्लर दूरबीन के खोज वाले क्षेत्र मे हंस(सिग्नस), विणा(लायरा) और शिशुमार( ड्रेको) तारामंडलो का कुछ भाग का भी समावेश है।

केप्लर अभियान के लक्ष्य

केप्लर अभियान का वैज्ञानिक उद्देश्य ग्रहीय प्रणालीयो की संरचना और विविधता का अध्ययन था। यह वेधशाला विभिन्न तारों का निरीक्षण निम्नलिखित लक्ष्यो को ध्यान मे रख कर कर रही थी।

  1. विभिन्न वर्णक्रम वाले तारो के जीवनयोग्य क्षेत्र मे (गोल्डीलाक ज़ोन) मे या निकट मे पृथ्वी के आकार के और बड़े ग्रहों की संख्या का निर्धारण
  2. इन ग्रहो के आकार और कक्षा की प्रकृति मे विविधता का अध्ययन
  3. एकाधिक तारा प्रणाली मे ग्रहों की संख्या का अनुमान लगाना
  4. कम कक्षीय अवधी वाले महाकाय ग्रहो की कक्षा के आकार, दीप्ति, आकार , द्रव्यमान तथा घनत्व का अध्ययन
  5. हर खोजी गई ग्रहीय प्रणाली के अन्य सदस्यो की खोज
  6. जीवन योग्य ग्रहो के तारो के गुणधर्मो का अध्ययन

 

केप्लर अभियान से पहले अन्य सभी अभियानो मे पाये गये अधिकतर ग्रह बृहस्पति सदृश महाकाय ग्रह थे। केप्लर को इस तरह से बनाया गया था कि वह बृहस्पति से 30 से 600 गुणा कम द्रव्यमान वाले पृथ्वी के जैसे द्रव्यमान के ग्रह की खोज कर। बृहस्पति पृथ्वी से 318 गुणा अधिक द्रव्यमान रखता है।

केप्लर वेधशाला ग्रहों की खोज के लिये संक्रमण विधि का प्रयोग करती है।

संक्रमण विधि(Transit Photometry)

ग्रहो की खोज की संक्रमण विधी

ग्रहो की खोज की संक्रमण विधी

जब कोई अपने मातृ तारे के सामने से गुजरता है तो वह अपने मातृ तारे के प्रकाश को किंचित रूप से मंद करता है। तारे तथा पृथ्वी के मध्य से ग्रह के गुजरने को संक्रमण(Transit) कहा जाता है। तारे के प्रकाश मे यदि एक नियत अंतराल पर कमी आती है तो यह किसी ग्रह के द्वारा नियत अंतराल पर तारे के सामने से गुजरने का संकेत होता है। प्रकाश मे आने वाली कमी की मात्रा से ग्रह के आकार का भी पता लगाया जा सकता है, एक छोटा ग्रह तारे के प्रकाश मे किसी बड़े ग्रह की तुलना मे अपेक्षाकृत रूप से कम मंदी लाता है।

गुण

किसी सौर बाह्य ग्रह की खोज की सबसे संवेदनशील विधि; विशेषत: केप्लर अंतरिक्ष वेधशाला जैसे उपकरणो के लिये यह सर्वोत्तम विधि है। इस वेधशाला ने अबतक इस विधि से हजारो सौर बाह्य ग्रह खोजे है। इस विधि के द्वारा सौर बाह्य ग्रह के वातावरण मे विभिन्न गैसो की उपस्थिति और मात्रा को भी ज्ञात किया जा सकता है। सैकड़ो प्रकाशवर्ष की दूरी पर तारों के ग्रहों की खोज के लिये बेहतरीन विधि है।

कठिनाईयाँ

इस विधि से ग्रह की खोज मे निरीक्षण काल मे संक्रमण होना चाहिये। दो संक्रमणो के मध्य अंतराल उस ग्रह के अपनी कक्षा मे परिक्रमा काल के अनुसार महिनो से लेकर वर्षो तक हो सकता है तथा संक्रमण कुछ घंटो से लेकर कुछ दिनो तक का हो सकता है। इस विधि मे खगोल वैज्ञानिको को एक नही, एकाधिक संक्रमण का एक नियमित अंतराल मे निरीक्षण करना होता है।

ग्रहों की खोज प्रक्रिया

केप्लर वेधशाला तथा पृथ्वी पर आंकड़ो के विश्लेषण करने वाली टीम ग्रहों की खोज और पुष्टी के लिये एक जटिल बहुचरणीय प्रक्रिया का प्रयोग करती है। इस प्रक्रिया मे दो चरण होते है।

1 ग्रह के उम्मीदवारो की खोज

इस चरण मे केप्लर द्वारा भेजे गये आंकड़ो का विभिन्न साफ़्टवेयरो द्वारा विश्लेषण होता है। इस विश्लेषण मे ग्रह द्वारा तारे के प्रकाश मे नियमित अंतराल मे संक्रमण के द्वारा कमी को देखा जाता है। इस प्रक्रिया मे विभिन्न जांचो द्वारा सफ़ल होने वाली घटनाओ को केप्लर अभिरुची पिंड(Keplar Object of Interest) कहा जाता है। इसके बाद इन उम्मीदवारो को एक विशिष्ट प्रक्रिया विस्थापन(Dispositioning) गुजारा जाता है। इस जांच मे सफ़ल उम्मीद्वारों को केप्लर ग्रह उम्मीदवार कहा जाता है।

2 ग्रह उम्मीदवार की पुष्टि

इन केप्लर ग्रह उम्मीदवारो का पुन: निरीक्षण किया जाता है। इस पुन: निरीक्षण के आंकड़ो के विश्लेषण से ग्रह होने की पुष्टि होती है।

किसी अन्य विधि द्वारा ग्रह होने की पुष्टि

कुछ विशिष्ट ग्रह उम्मीदवारों के लिये ग्रह खोजने की अन्य तकनीको जैसे कोणिय गति(Radial Velocity), गुरुत्विय माइक्रोलेंसींग(Gravitational Microlensing), आस्ट्रोमेटरी(Astrometry)या कक्षीय दीप्ति(Orbital Brightness) के प्रयोग से ग्रह होने की पुष्टि की जाती है।

आंकड़ो की जांच
यदि ग्रह उम्मीदवार की किसी अन्य विधि से पुष्टि संभव नही होती है तो केप्लर के द्वारा प्राप्त आंकड़ो की पुनः जांच की जाती है कि जिससे गलती की किसी संभावना को दूर किया जा सके।

केप्लर अंतरिक्ष वेधशाला का डिजाईन

केप्लर अंतरिक्ष वेधशाला का द्रव्यमान 1,039 किग्रा है और इसमे एक स्कमिट कैमरा(Schmidt Camera)लगा हुआ है। इस कैमरे मे 0.95 मिटर का लेंस तथा 1.4 मिटर व्यास का प्राथमिक दर्पण है।

कैमरा

इस कैमरे का फ़ोकल प्रतल 50 × 25 mm (2 × 1 in) CCD के 42 टुकड़ो से बना है, हर टूकड़ा 2200 x 1024 पिक्सेल का है जोकि इस कैमरे को 94.6 मेगापिक्सेल का बनाता है। इस फ़ोकस प्रतल के शीतलन के लिये बाह्य रेडीयेटर से जुड़े उष्मा पाइप लगे हुये है। इन CCD के आंकड़ो को हर 6.5 सेकंड मे पढ़ा जाता है और कम चमक वाले तारों के लिये निरिक्षण को 58,89 सेकंड तक जारी रखा जाता है जबकि अधिक चमक वाले तारों के लिये इसे 1765.5 सेकंड तक निरीक्षण किया जाता है। इसके पश्चात इन आंकड़ो को संकुचित(compress) कर यान मे 16 GB के सोलिड स्टेट रिकार्डर मे रखा जाता है। इस रिकार्डर से आंकड़ो को पृथ्वी पर भेजा जाता है।

मुख्य दर्पण

केप्लर का प्राथमिक दर्पन 1.4 मीटर व्यास का है और उसे विख्यात कांच के निर्माता कार्निंग(Corning) ने अत्यंत कम विस्तार होने वाले कांच( ultra-low expansion (ULE) glass)से बनाया है। इस दर्पण का द्रव्यमान साधारण कांच से बने समान आकार के दर्पण की तुलना मे केवल 14% ही है।

कक्षा और दिशा

केप्लर की कक्षा नीला-पृथ्वी, गुलाबी -केप्लर, पीला-सूर्य

केप्लर सूर्य की परिक्रमा करता है जो कि पृथ्वी की कक्षा के उपग्रहो पर पड़्ने वाले प्रभाव जैसे किसी भी तरह के ग्रहण, आवारा प्रकाश तथा गुरुत्विय प्रभाव से मुक्त है। नासा के अनुसार केप्लर की कक्षा पृथ्वी से पिछड़ती कक्षा है। केप्लर सूर्य की परिक्रमा 372.5 दिन मे करता है, हर वर्ष केप्लर पृथ्वी से दूर होते जा रहा है। मई 2018 मे केप्लर की पृथ्वी से दूरी 0.917 AU(13.7 करोड़ किमी) थी।

इस वेधशाला की दिशा ऐसी है कि इसमे कभी भी सूर्यप्रकाश का प्रवेश नही होता है। यह हंस(सिग्नस), विणा(लायरा) और शिशुमार( ड्रेको) तारामंडल की ओर निरीक्षण कर रहा है। यह दिशा सौर मंडल के आकाशगंगा केंद्र की परिक्रमा की दिशा भी है तथा आकाशगंगा के प्रतल मे ही है। केप्लर द्वारा निरीक्षित तारो की आकाशगंगा के तारो की दूरी भी सौरमंडल और आकाशगंगा के केंद्र की दूरी के समान ही है।

संचालन

केप्लर द्वारा निरीक्षण किया जानेवाला क्षेत्र

केप्लर द्वारा निरीक्षण किया जानेवाला क्षेत्र

केप्लर वेधशाला का संचालन लेबोरेटरी फ़ार एटमासफ़ियर और स्पेस फ़िजिक्स(Laboratory for Atmospheric and Space Physics (LASP)) द्वारा बोल्डर, कोलोरोडो (Boulder, Colorado)से किया जा रहा है। यान के नियत्रण और संचालन के लिये संचार X बैंड पर किया आता है, यह सप्ताह मे दो बार होता है। यान से निरीक्षण के आंकड़े महिने मे एक बार Ka बैंड से 55kB/s की दर से होता है। केप्लर अंतरिक्ष यान आंकड़ो का आंशिक विश्लेषण यान मे ही कर लेता है बैंडविड्थ बचाने के लिये संसाधित आंकड़े ही पृथ्वी पर भेजता है।

केप्लर द्वारा की गई महत्वपूर्ण खोजें

केप्लर वेधशाला 2009 से 2018 तक 9.6 साल अंतरिक्ष में सक्रीय रही। इसने 5,30,506 तारों का अवलोकन किया। इसमें से 2,663 ग्रहों की पुष्टि की गई है। इस अंतरिक्ष वेधशाला से सबसे पहले परिणाम 4 जनवरी 2010 को घोषित किये गये थे।

2009

6 अगस्त 2009 को नासा की प्रेस कांफ़्रेंस मे पहले से खोजे गये ग्रह HAT-P-7b की केप्लर अंतरिक्ष वेधशाला के आंकड़ो से पुष्टि की घोषणा की गई। इसमे यह भी घोषणा हुई कि केप्लर पृथ्वी सदृश ग्रहो की खोज संभव है।
इस वेधशाला से प्राप्त पहले छः सप्ताह के आंकड़ो से तारे के अत्यंत समीप परिक्रमा करने वाले पांच नये ग्रहों की खोज हुई, इसमे सबसे महत्वपूर्ण यह था कि खोजे गये नये ग्रहों मे एक अधिक घनत्व था। अन्य महत्वपूर्ण खोजो मे दो कम द्रव्यमान के श्वेत वामन तारे तथा एक नया ग्रह केप्लर 16b है जो युग्म तारों की परिक्रमा कर रहा है।

2010

4 जुन 2010 को 15,600 लक्षित तारो मे से 400 तारो को छोड सभी के निरीक्षण के आंकड़े सार्वजनिक किये गये। इनमे से 706 तारों के पास पृथ्वी से लेकर बृहस्पति तक के आकार के ग्रहों की उपस्थिति के प्रमाण थे। इन 706 तारों मे से 306 तारों की पहचान सार्वजनिक की गई थी। इनमे से पांच तारों के पास एकाधिक ग्रह थे। यह आंकड़े केवल 33.5 दिनो के निरीक्षण के थे। नासा ने 400 तारो के निरीक्षण के आंकड़ो को पूर्ण विश्लेषण ना हो पाने के कारण रोक रखा था।
2010 मे प्रकाशित आंकड़ो से पता चला कि अधिकतर ग्रह उम्मीदवार का व्यास बृहस्पति से आधा है। इन परिणामो से यह भी पता चला कि छोटे उम्मीदवार ग्रहो की परिक्रमा अवधि 30 दिन से कम होना बड़े ग्रह की परिक्रमा अवधि के 30 दिनो से कम होने से भी अधिक सामान्य है।

केप्लर से प्राप्त आंकड़ो से अनुमान लगाया गया कि हमारी आकाशगंगा मे कम से कम 10 करोड़ ग्रह जीवन के लिये अनुकुल परिस्थिति लिये हुए होंगे।

2011

2 फ़रवरी 2011 को केप्लर टीम ने 2 मई और 16 सितंबर 2009 के मध्य प्राप्त आंकड़ो के विश्लेषण से प्राप्त परिणामो को प्रकाशित किया। उन्होने 997 मातृ तारों की परिक्रमा करते 1235 ग्रहों की खोज की घोषणा की। इनमे से 68 पृथ्वी तुल्य आकार के, 288 महापृथ्वी आकार, 662 नेपच्युन आकार, 165 बृहस्पति के आकार तथा 19 बृहस्पति से दोगुने आकार के ग्रह थे। इससे पहले के प्राप्त आंकड़ो के विपरीत 74% से अधिक ग्रह नेपच्युन से छोटे पाये गये।

यह भी पाया गया कि 1235 मे से 54 ग्रह अपने मातृ तारे के जीवन योग्य क्षेत्र मे परिक्रमा कर रहे थे जिसमे से 5 पृथ्वी के दोगुने आकार से छोटे ग्रह थे। इससे पहले केवल दो ग्रह जीवनयोग्य क्षेत्र मे पाये गये थे। यह एक उत्साह वर्धक खोज थी।

5 दिसंबर 2011 तक केप्लर टीम ने बताया कि उन्होने 2,326 ग्रह उम्मीदवार खोजे है, जिसमे 207 पृथ्वी सदृश, 680 महापृथ्वी आकार, 1181 नेपच्युन आकार के, 203 बृहस्पति आकार के तथा 55 ग्रह बृहस्पति से बड़े पाये गये।

20 दिसंबर 2011 को केप्लर टीम ने पहले पृथ्वी के आकार के ग्रह केप्लर 20e तथा 20f पाए जाने की घोषणा की जोकि सूर्य के जैसे तारे केप्लर 20 की परिक्रमा कर रहे है।

केप्लर से प्राप्त इन आंकड़ो से उत्साहित होकर सेठ शोस्टक ने अनुमान लगाया कि पृथ्वी से हजार प्रकाशवर्ष दूरी के अंदर ही कम से कम 30,000 जीवन योग्य ग्रह होंगे।

2012

जनवरी 2012 मे खगोल वैज्ञानिको ने अनुमान लगाया कि हमारी आकाशगंगा मंदाकिनी मे औसत रूप से प्रतितारा 1,6 ग्रह है जिसके अनुसार हमारी आकाशगंगा मे कम से कम 160 अरब ग्रह होना चाहिये।

वर्ष के अंत तक कुल 2,321 ग्रह के उम्मीदवार थे जिनमे 207 पृथ्वी सदृश, 680 महापृथ्वी आकार, 1181 नेपच्युन आकार के, 203 बृहस्पति आकार के तथा 55 ग्रह बृहस्पति से बड़े पाये गये। इनमे से 48 ग्रह जीवन योग्य क्षेत्र मे थे।

2013

जनवरी 2013 मे काल्टेक के खगोलशास्त्रीयों ने अनुमान लगाया कि हमारी आकाशगंगा मे 100-400 अरब ग्रह होना चाहीये, यह अनुमान केप्लर 32 तारे के निरीक्षण के आधार पर था। 7 जनवरी को ही 461 नये ग्रह उम्मीदवारो की घोषणा हुई।

7 जनवरी को केप्लर 69c की घोषणा हुई जो कि सूर्य जैसे तारे के जीवन योग्य क्षेत्र मे परिक्रमा कर रहा है।

अप्रैल 2013 मे अपने मातृ तारे के जीवन योग्य क्षेत्र मे तीन पृथ्वी के आकार के ग्रहो केप्लर62e केप्लर62f तथा केप्लर69c की खोज की घोषणा हुई जो अपने क्रमश: केप्लर62 तथा केप्लर69 की परिक्रमा कर रहे है। इन ग्रहों मे द्रव जल की उपस्थिति की संभावना अधिक है।

2013 मे पता चला कि केप्लर के तीन रीएक्शन व्हील मे से दूसरा रीएक्शन व्हील भी काम नही कर रहा है, एक व्हील ने पहले ही काम करना बंद कर दिया था। ये व्हील केप्लर को सही दिशा मे रखने का कार्य करते है। इससे नई खोज होने की संभावना पर आघात लगा लेकिन बाद मे वैज्ञानिको ने बताया कि वे क्षतिग्रस्त व्हील के बावजूद केप्लर का उपयोग कर पायेंगे।

2014

13 फ़रवरी को अतिरिक्त 503 ग्रह उम्मीदवारों की घोषणा हुई। इनमे से बहुत से पृथ्वी के आकार के और जीवनयोग्य क्षेत्र मे है। जुन 2014 मे इस आंकड़े मे 400 की वृद्धी हुई।

26 फ़रवरी को केप्लर टीम ने 715 ग्रहो की पुष्टी की। इसमे से चार ग्रह जिसमे केप्लर 296f का समावेश है पृथ्वी के ढाई गुणे से कम के आकार के है और जीवन योग्य क्षेत्र मे है। इन पर द्रव जल और जीवन की संभावना है।

17 अप्रैल को केप्लर टीम ने केप्लर186f की खोज की घोषणा की जो पृथ्वी के आकार का जीवन योग्य क्षेत्र मे पहला खोजा ग्रह था यह ग्रह एक लाल वामन तारे की कक्षा मे है।

2015

जनवरी 2015 मे पुष्टी हो चुके ग्रहों की संख्या 1000 पार हो गई। इनमे से कम से कम दो केप्लर438b तथा केप्लर 442b चट्टानी ग्रह है और जीवनयोग्य क्षेत्र मे है। इसी समय नासा ने घोषणा की कि पांच पुष्टि हो चुके ग्रह शुक्र ग्रह के आकार के है और 11.2 अरब वर्ष उम्र के तारे केप्लर 444 की परिक्रमा कर रहे है। यह इस तारा प्रणाली को ब्रह्माण्ड की आयु का 80% उम्र का बनाता है।

24 जुलाई को नासा ने केप्लर 452b ने पृथ्वी के आकार के ग्रह की पुष्टी जो सूर्य के जैसे तारे के जीवन योग्य क्षेत्र मे परिक्रमा कर रहा है।

14 2015 को खगोलशास्त्री ने एक विचित्र तारे KIC 8462852 के प्रकाश मे असामान्य प्रकाश मंदी की घोषणा की। इसके लिये कई परिकप्लनाये प्रस्तुत की गई है जिनमे धुमकेतुओं के झुंड, क्षुद्रग्रहो तथा विकसित एलियन सभ्यता का समावेश है।

2016

मई 10 तक केप्लर अभियान ने 1,284 नये ग्रहों की पुष्टि की है जिसमे आकार के आधार पर 550 ग्रह चट्टानी होना चाहीये, जिसमे से नौ अपने मातृ तारे के जीवन योग्य क्षेत्र मे है।

ये है केप्लर-560b, केप्लर-705b,केप्लर-1229b, केप्लर-1410b, केप्लर-1455b, केप्लर-1544b, केप्लर-1593b, केप्लर-1606b, केप्लर-1638b

अभियान का अंत

अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का ग्रहों की खोज करने वाला केपलर अंतरिक्ष वेधशाला का अभियान समाप्त हो गया है। यह दूरबीन 9 साल की सेवा के बाद सेवा निवृत्त होने वाला है। वैज्ञानिकों ने बताया है कि 2,600 ग्रहों की खोज में मदद करने वाले केपलर दूरबीन का ईंधन खत्म हो गया है इसलिए उसे रिटायर किया जा रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि 2009 में स्थापित इस दूरबीन ने हजारो छुपे हुए ग्रहों से हमें अवगत कराया और ब्रह्मांड की हमारी समझ को बेहतर बनाया।

नासा की ओर से जारी बयान के अनुसार, केपलर ने दिखाया कि रात में आकाश में दिखने वाले 20 से 50 प्रतिशत तारों के सौरमंडल में पृथ्वी के आकार के ग्रह हैं और वे अपने तारों के रहने योग्य क्षेत्र के भीतर स्थित हैं। इसका मतलब है कि वे अपने तारों से इतनी दूरी पर स्थित हैं, जहां इन ग्रहों पर जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण पानी के होने की संभावना है।

नासा के एस्ट्रोफिजिक्स विभाग के निदेशक पॉल हर्ट्ज का कहना है कि केपलर का जाना कोई अनपेक्षित नहीं था। केपलर का ईंधन खत्म होने के संकेत करीब दो सप्ताह पहले ही मिले थे। उसका ईंधन पूरी तरह से खत्म होने से पहले ही वैज्ञानिक उसके पास मौजूद सारा डेटा एकत्र करने में सफल रहे। नासा का कहना है कि फिलहाल केपलर धरती से दूर सुरक्षित कक्षा में है। नासा केपलर के ट्विटर हैंडल से इसके बारे में विस्तृत जानकारी देते हुए ट्वीट भी किया गया।

इसके मुताबिक यह वेधशाला 9.6 साल अंतरिक्ष में रही। 5,30,506 तारों का अवलोकन किया। इसमें से 2,663 ग्रहों की पुष्टि की गई।

नासा का मंगलयान ’इनसाइट ’ मंगल पर उतरा

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इंटीरियर एक्सप्लोरेशन यूजिंग सिस्मिक इन्वेस्टिगेशंस

इंटीरियर एक्सप्लोरेशन यूजिंग सिस्मिक इन्वेस्टिगेशंस

नासा का रोबोटिक मंगलयान (मार्स लैंडर) “इंटीरियर एक्सप्लोरेशन यूजिंग सिस्मिक इन्वेस्टिगेशंस” 26 नवंबर 2018 सोमवार रात 1:24 बजे मंगल ग्रह पर सफलता पूर्वक उतर गया। नासा के अनुसार पहली बार प्रायोगिक उपग्रहो ने किसी अंतरिक्ष यान का पीछा करते हुए उस पर नजर रखी। इस पूरे अभियान पर 99.3 करोड़ डॉलर (करीब 7044 करोड़ रुपए) का खर्च आया। ये दोनों उपग्रह मंगल पर पहुंच रहे अंतरिक्ष यान से छह हजार मील पीछे चल रहे थे। नासा ने इसी साल 5 मई को कैलिफोर्निया के वंडेनबर्ग एयरफोर्स स्टेशन से एटलस वी रॉकेट के जरिए मार्स लैंडर लॉन्च किया था।

इनसाइट (InSight या Interior Exploration using Seismic Investigations, Geodesy and Heat Transport) एक रोबोट मंगल ग्रह लैंडर है। जो मूल रूप से मार्च 2016 में प्रक्षेपण के लिए योजना बनाई थी। इसके उपकरण की विफलता के कारण लांच करने से पहले दिसंबर 2015 में नासा ने मिशन स्थगित की घोषणा की। और मार्च 2016 में, लांच 5 मई 2018 के लिए पुनर्निर्धारित किया गया।

मंगल के बारे में विस्तृत अध्ययन के लिए नासा ने क़रीब सात महीने पहले (इसी साल पांच मई को) इस खोजी अभियान को धरती से रवाना किया था।

30 करोड़ मील यानी 45.8 करोड़ किलोमीटर की दूरी तय कर इनसाइट ने सोमवार को मंगल की ज़मीन पर एलिसियम प्लानिशिया नामक एक सपाट मैदान में लैंडिंग की। ये जगह इस लाल ग्रह की भूमध्य रेखा के नज़दीक है और लावा से बनी चादर के जैसी है।

इनसाइट का उद्देश्य मंगल की ज़मीन के भीतर छिपे राज़ की पड़ताल कर अधिक जानकारी जुटाना है।

मंगल ग्रह से इनसाइट ने धरती पर संकेत भेजा है कि वो काम शुरु करने के लिए तैयार है। उसने सूरज की रोशनी पाने के लिए अपने सोलर पैनल फैला लिए हैं और ख़ुद को चार्ज कर रहा है।

नासा के इनसाइट प्रोजेक्ट मैनेजर टॉम हॉफ़मैन ने कहा है,

“अब इनसाइट आराम से काम कर सकता है, वो अपनी बैटरी रीचार्ज कर रहा है।”

संक्षेप मे

  1. छह महीने पहले लॉन्च किया गया था इनसाइट अंतरिक्ष यान
  2. 7044 करोड़ रुपए अभियान की लागत, इसमेमं 10 देशों के वैज्ञानिक शामिल
  3. इनसाइट अंतरिक्ष यान पता लगाएगा कि 4.5 अरब साल पहले मंगल, धरती और चंद्रमा जैसे पथरीले ग्रह कैसे बने

अभियान

इनसाइट InSight

इनसाइट
InSight

इनसाइट के लिए लैंडिंग में लगने वाला छह से सात मिनट का समय बेहद महत्वपूर्ण रहा। इस दौरान इसका पीछा कर रहे दोनों सैटेलाइट्स के जरिए दुनियाभर के वैज्ञानिकों की नजरें इनसाइट पर रहीं। डिज़्नी के किरदारों के नाम वाले ये सैटेलाइट्स ‘वॉल-ई’ और ‘ईव’ ने आठ मिनट में इनसाइट के मंगल पर उतरने की जानकारी धरती तक पहुंचा दी। नासा ने इस पूरे अभियान का सीधा प्रसारण किया।

यह ग्रह की सतह पर उतरने के दौरान 19,800 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से छह मिनट के भीतर शून्य की रफ्तार पर आ गया। इसके बाद यह पैराशूट से बाहर आया और अपने तीन पैरों पर लैंड किया। नासा ने इस यान को मंगल ग्रह के निर्माण की प्रक्रिया को समझने के लिए और इस ग्रह से जुड़े नए तथ्यों का पता लगाने के लिए तैयार किया है। नासा का यह यान सिस्मोमीटर की मदद से मंगल की आंतरिक परिस्थितियों का अध्ययन करेगा। नासा के इस यान में 1 बिलियन डॉलर यानी 70 अरब रुपए का खर्च आया है। सौर ऊर्जा और बैटरी से ऊर्जा पाने वाले लैंडर को 26 महीने तक संचालित होने के लिए डिजाइन किया गया है। हालांकि नासा को उम्मीद है कि यह इससे अधिक समय तक चलेगा।

पांच मई को लांच किया गया मार्स ‘इंटीरियर एक्सप्लोरेशन यूजिंग सीस्मिक इंवेस्टिगेशंस, जियोडेसी एंड हीट ट्रांसपोर्ट’ (इनसाइट) लेंडर 2012 में ‘क्यूरियोसिटी रोवर’ के बाद मंगल पर उतरने वाला नासा का पहला अंतरिक्ष यान है।

दो साल का मिशन

यान के मंगल की धरती पर उतरते ही दो वर्षीय मिशन शुरू हो जाएगा। इसके साथ ही इनसाइट पहला अंतरिक्ष यान हो जाएगा जो मंगल की गहरी आंतरिक संरचना का अध्ययन करेगा। इससे वैज्ञानिकों को हमारी अपनी पृथ्वी सहित पत्थर से बने सभी ग्रहों के निर्माण को समझने में मदद मिलेगी।

इनसाईट मंगल ग्रह के बारे में ऐसी जानकारियां दे सकता है, जो अरबों सालों से नहीं मिली हैं।

अपने अभियान के दौरान यह यान मंगल पर एक साइज़्मोमीटर रखेगा जो इसके अंदर की हलचलें रिकॉर्ड कर सकेगा। यह पता लगाएगा कि मंगल के अंदर कोई भूकंप जैसी हलचल होती भी है या नहीं।

यह पहला यान है जो मंगल की खुदाई करके उसकी रहस्यमय जानकारियां जुटाएगा। साथ ही एक जर्मन उपकरण भी मंगल की ज़मीन के पांच मीटर नीचे जाकर उसके तापमान का पता लगाएगा।

ग्रह के इस तापमान से यह पता चल सकेगा कि मंगल ग्रह अभी भी कितना सक्रिय है।

इसके तीसरे प्रयोग में रेडियो ट्रांसमिशन का इस्तेमाल होगा जिससे यह बता चलेगा कि यह ग्रह अपनी धुरी पर डगमगाते हुए कैसे घूमता है।

इस अभियान से जुड़ी एक वैज्ञानिक सुज़ैन स्म्रेकर कहती हैं,

“आप एक कच्चा अंडा लें और एक पक्का अंडा, दोनों को घुमाने पर वह अलग-अलग तरीक़े से घूमेगा क्योंकि उसके अंदर तरल पदार्थ अलग-अलग है। आज हम यह नहीं जानते हैं कि मंगल के अंदर तरल चीज़ है या ठोस चीज़। साथ ही इसका भीतरी भाग कितना बड़ा है यह नहीं मालूम। इनसाईट हमें इसकी जानकारियां देगा।”

इनसाइट से जुड़ी खास बातें

  1. इनसाइट द्वारा लिया प्रथम चित्र

    इनसाइट द्वारा लिया प्रथम चित्र

    358 किलो के इनसाइट का पूरा नाम ‘इंटीरियर एक्सप्लोरेशन यूजिंग सिस्मिक इन्वेस्टिगेशंस’ है। सौर ऊर्जा और बैटरी से चलने वाला यह यान 26 महीने तक काम करने के लिए डिजाइन किया गया है।

  2. 7000 करोड़ के इस अभियान में यूएस, जर्मनी, फ्रांस और यूरोप समेत 10 से ज्यादा देशों के वैज्ञानिक शामिल हैं।
  3. इनसाइट प्रोजेक्ट के प्रमुख वैज्ञानिक ब्रूस बैनर्ट ने कहा कि यह एक टाइम मशीन है, जो यह पता लगाएगी कि 4.5 अरब साल पहले मंगल, धरती और चंद्रमा जैसे पथरीले ग्रह कैसे बने।
  4. इसका मुख्य उपकरण सिस्मोमीटर (भूकंपमापी) है, जिसे फ्रांसीसी अंतरिक्ष एजेंसी ने बनाया है। लैंडिंग के बाद ‘रोबोटिक आर्म’ सतह पर सेस्मोमीटर लगाएगा। दूसरा मुख्य टूल ‘सेल्फ हैमरिंग’ है जो ग्रह की सतह में ऊष्मा के प्रवाह को दर्ज करेगा।
  5. नासा ने इनसाइट को लैंड कराने के लिए इलीशियम प्लैनिशिया नाम की लैंडिंग साइट चुनी। इस जगह सतह सपाट थी। इससे सीस्मोमीटर लगाने और सतह को ड्रिल करना आसान हुआ।
  6. इनसाइट की मंगल के वातावरण में प्रवेश के दौरान अनुमानित गति 12 हजार 300 मील प्रति घंटा रही।
  7. भूकंप से पैदा होने वाली सिस्मिक वेव से बनाया जाएगा मंगल का आंतरिक नक्शा
  8. मंगल पर भूकंप से पैदा होने वाली सिस्मिक वेव से मंगल के आंतरिक नक्शे बनेंगे। पहले भेजे गए क्यूरोसिटी अंतरिक्ष यान का लक्ष्य पानी पर था, लेकिन यह यान मंगल की संरचना का अध्ययन करेगा।
  9. मंगल ग्रह कई मामलों में पृथ्वी के समान है। दोनों ग्रहों पर पहाड़ हैं। हालांकि, पृथ्वी की तुलना में इसकी चौड़ाई आधी, भार एक तिहाई और घनत्व 30% से कम है।

मंगल ग्रह के बारे में 10 तथ्य

1- सौर मंडल  मंगल सूरज से 227,900,000 कि.मी. की दूरी पर है। सौर मंडल में धरती तीसरे क्रमांक पर है जिसके बाद चौथे क्रमांक पर मंगल है। धरती सूरज से 149,600,000 कि.मी. की दूरी पर है।

2- धरती की तुलना में मंगल ग्रह लगभग इसका आधा है। जहां धरती का व्यास 12,742 कि.मी. है, मंगल का व्यास 6,779 कि.मी. है। लेकिन वजन की बात की जाए को मंगल धरती के दसवें हिस्से के बराबर है।

3- मंगल सूरज का पूरा चक्कर 687 दिनों में लगाता है। इस आधार पर धरती की तुलना में मंगल सूरज का चक्कर लगाने में दोगुना वक़्त लेता है और यहां एक साल 687 दिनों का होता है।

4- मंगल पर एक दिन (जिसे सौर दिवस कहा जाता है) 24 घंटे 37 मिनट का होता है।

5- कँपकँपा देने वाली ठंड, धूल भरी आँधी का ग़ुबार और फिर बवंडर-पृथ्वी के मुक़ाबले ये सब मंगल पर कहीं ज़्यादा है। माना जाता है कि जीवन के लिए मंगल की भौगोलिक स्थिति काफ़ी अच्छी है।

गर्मियों में यहाँ सबसे ज़्यादा तापमान होता है 30 डिग्री सेल्सियस और जाड़े में यह शून्य से घटकर 140 डिग्री सेल्सियस तक चला जाता है।

6- धरती की तरह मंगल में भी साल में चार मौसम आते हैं- पतझड़, ग्रीष्म, शरद और शीत। धरती की तुलना में मंगल में हर मौसम लगभग दोगुना वक्त तक रहता है।

7- धरती और मंगल पर गुरुत्वाकर्षण शक्ति अलग होने के कारण धरती पर 100 किग्रा वज़न वाला व्यक्ति मंगल पर 38 किग्रा वज़न का होगा।

8- मंगल के पास दो चांद हैं- फ़ोबोस जिसका व्यास 23 कि. मी. है और डेमियोस जिसका व्यास 12 कि.मी. है।

9- मंगल और धरती दोनों ही चार परतों से बने हैं। पहली पर्पटी यानी क्रस्ट जो लौह वाले बसाल्टिक पत्थरों से बना है। दूसरा मैंटल जो सिलिकेट पत्थरों से बना है।

तीसरे और चौथे हैं बाहरी कोर और आंतरिक कोर। माना जाता है कि ये धरती के कोर की तरह लोहे और निकल से बने हो सकते हैं। लेकिन ये कोर ठोस धातु की शक्ल में है या फिर ये तरल पदार्थ से भरा है अभी इसके बारे में पुख़्ता जानकारी मौजूद नहीं है।

10- मंगल के वातारण में 96 प्रतिशत कार्बन डाई ऑक्साइड है, 1.93 प्रतिशत आर्गन, 0.14 प्रतिशत ऑक्सीजन और 2 प्रतिशत नाइट्रोजन है।

साथ ही यहां के वातावरण में कार्बन मोनोऑक्साइड के निशान भी पाए गए हैं।

परग्रही जीवन भाग 6 : जल –जीवन का विलायक

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जल

जल

वर्तमान मे जीवन के विलायक के रूप मे केवल जल ही ज्ञात है। अब हम देखते है जल की ऐसी कौनसी विशेषताये है जो उसे जीवन का विलायक बनाये हुये है, कैसे वह आदर्श जैव विलायक के रूप मे सभी आवश्यक शर्तो को पूरा करता है। यह हमे अन्य विलायको के आदर्श जीवन के विलायक के रूप मे  तुलना करने के लिये बेंचमार्क का कार्य भी करेगा।

सर्वत्र व्याप्त जल : जल समस्त ब्रह्मांड मे सबसे अधिक उपलब्ध अणु है। इसकी उपलब्धता इतनी है कि अधिकतर ग्रहो मे यह बड़ी मात्रा मे पाया जाना चाहिये, विरोधाभाष यह है कि यह द्रव रूप मे दुर्लभ है। पृथ्वी पर अकाबनिक द्रवो मे केवल जल ही प्राकृतिक रूप से द्रव अवस्था मे  प्रचुर मात्रा मे उपलब्ध है।

जल एक सार्वत्रिक विलायक : जल सबसे अधिक प्रभावी विलायक है। इसे इसी गुण के कारण सार्वत्रिक विलायक ही कहते है। एक विलायक के रूप मे इसकी सफ़लता का कारण इसके अणु का अत्याधिक द्विध्रुवी(polarized) होना है, जिससे इसमे अन्य ध्रुविकृत अणु तथा लवण (Salt)भी घुल जाते है। अध्रुविकृत  कार्बनिक अणु जैसे तैलीय अणु ऐसे विशिष्ट वर्ह के अणु है जो साधारणत: जल मे नही घुलते है। लेकिन जल की इस सीमा के भी लाभ है जोकि हायड्रोफ़ोबिक प्रभाव उत्पन्न करता है। इस गूण की चर्चा हम आगे करेंगे।

जल एक सार्वत्रिक विलायक

जल एक सार्वत्रिक विलायक

एक बड़ी सीमा मे द्रव अवस्था : साधारण अवस्थाओं मे शुद्ध जल एक बड़ी सीमा मे द्रव अवस्था मे होता है 0-100°C/32-212°F। यदि इसमे साधारण लवण मिला दे तो उसका हिंमांक बिंदु कम होकर -23°C/-10°F तक पहुंच जाता है। यदि हम दबाव को वायुमंडलीय दबाव का 215 गुणा कर दे तो इसका बाष्पीकरण बिंदु 374°C/706°F पहुंच जाता है। इसका अर्थ है कि जल के द्रव अवस्था मे रहने की संभवत तापमान सीमा 397°C/716°F है।

जल का सबसे अधिक जलविरोधी(hydrophobic) प्रभाव है: जल का सबसे अधिक जलविरोधी प्रभाव होने से वह पृथ्वी पर जीवन मे एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, यह प्रभाव कोशीकाओं के मजबूत मेम्ब्रेन के निर्माण और रखरखाव के लिये अत्यावश्यक है। इस प्रभाव की भूमिका प्रोटीन की तहों के निर्माण के भी आवश्यक है, इन तहो के निर्माण से प्रोटीन त्रीआयामी आकार बना पाता है जिससे प्रोटीन एक निश्चित आकार मे रहकर अपने कार्य ठीक तरह से कर पाता है। प्रोटीन के तैलीय अमिनो अम्ल पानी से बचाव के लिये प्राकृतिक रूप से मध्य से मुड़ जाते है जबकि अन्य अमिनो अम्ल बाहर की ओर मुड़ते है।

जल के अन्य बहुत से विशिष्ट गुणधर्म है : जल के सबसे महत्वपूर्ण गुणो मे से एक यह है कि उससे कई विशिष्ट गुण साधारण सीमा से इस तरह बाहर है कि वे जीवन के लिये लाभदायी हो जाते है। जल का पारद्युतिक स्थिरांक(dielectric constant) अत्याधिक उच्च है जो कि जीवन के लिये उपयुक्त विलायको के लिये अत्याधिक महत्वपूर्ण होता है; इसके अतिरिक्त बहुत कम विलायक ही जल की उष्मीय गुणो के आसपास पहुंच पाते है, ये  गुण तापमान और उष्मा के प्रभाव को नियंत्रित करते है। जल की अत्याधिक उच्च उष्माधारिता(Hear Capacity),  द्रवण की गुप्त उष्मा(heat of fusion) , वाष्पन की गुप्त ऊष्मा(heat of vaporization) तथा उष्मा संवहन क्षमता  है। साथ ही कुछ अन्य महत्वपूर्ण गुणो मे अत्याधिक पृष्ठ तनाव, कम श्यानता तथा उच्च विसरण है।

जल कार्बनिक रसायन के लिये आदर्श है। हम देख चुके है कि कार्बन अकेला तत्व है जो जैव रसायन के लिये आदर्श है। कार्बनिक रसायन प्रक्रियाओं के लिये जल सबसे अधिक उपयुक्त विलायक है। यह दो महत्वपूर्ण कारणो से होता है, कार्बन  जल के दोनो तरह के परमाणुओं आक्सीजन और हायड्रोजन दोनो से मजबूत रासायनिक बंधन बनाता है। कार्बन और हायड्रोजन के मध्य का बंधन साधारण पदार्थो मे पाया जाने  वाला सबसे अधिक मजबूत बंधन है। दूसरा साधारण दबाव मे जल के द्रव अवस्था मे रहने वाली तापमान सीमा ( (0-100°C or 32-212°F)इतनी है कि कार्बन रसायन प्रक्रियाये आसानी से हो जाती है। कार्बन प्रक्रियाये इससे कम तापमान मे अन्य विलायको मे भी संभव है लेकिन वे धीमी होती है और उससे जैविक विकास बहुत धीमा हो जायेगा। इसके विपरीत उच्च तापमान पर यह प्रक्रिया संभव नही होंगी क्योंकि कार्बनिक यौगिक 200°C/392°F तापमान पर टूटने लगते है। जल के द्रव अवस्था मे रहने वाली सीमा कार्बनिक रसायन के लिये आदर्श है।

 

सारांश मे जल विलक्षण द्रव है। विलायक के रूप मे उसकी बराबरी मे कोई नही है। एक तरह से यह मानकर चल सकते हैं कि जल जीवन के लिये ही बना है।

 

अब तक हमने देखा है कि जल के गुणधर्म किस तरह जीवन के लिये आवश्यक है। लेकिन यह गुण ही जीवन के लिये महत्वपूर्ण नही है। जल की भूमिका समस्त ग्रह के पर्यावरण नियंत्रण मे भी महत्वपूर्ण भूमिका है जिससे जीवन संभव होता है। इसमे से कुछ महत्वपूर्ण गुण है

  1. झील, नदीयों और ध्रुविय क्षेत्रो को हीमीकृत होने से बचाना
  2. वैश्विक तापमान का नियंत्रण तथा तीव्र मौसमी बदलाव से बचाव
  3. भूगर्भीय संरचनाओं मे भूकटाव, नदी, घाटी निर्माण और मिट्टी के स्थानांतरण मे सहायता
  4. लवण और खनीजो के वैश्विक स्थानांतरण मे सहायता
  5. भूप्लेटो के स्थानांतरण मे सहायता
  6. जलीय जीवन को सहायता
  7. प्राणी और मानव के शारीरीक तापमान पसीने के द्वारा शीतलन और नियंत्रण

यह सभी कारक महत्वपूर्ण है क्योंकि सभी जीवित प्राणी अपने वातावरण पर अत्याधिक निर्भर होते है। इसके स्थानापन्न विलायक पर चर्चा की जा सकती है, उसकी तुलना जल से करनी होगी। पृथ्वी पर जीवन के लिये जल की भूमिका चंहुओर है जिसमे जीवन के लिये अनुकुल वातावरण, मौसम का निर्माण और नियंत्रण का भी समावेश होता है। अन्य कोई द्रव इन गुणो मे जल के आसपास भी नही पहुंचता है।

 

जल की कमीयाँ

जल एक आदर्श विलायक है और उसमे कई अद्भुत गुण है लेकिन कुछ वैज्ञानिको के अनुसार वह पृथ्वी पर भी हर परिस्थिति मे आदर्श नही है। अब हम जल की इन कमीयों की चर्चा करेंगे।

  • जल हिमीकृत होने पर कोशीकाओं को नुकसान पहुंचा सकता है। जल का एक विचित्र गुण है, जब वह हिमीकृत होता है तो वह फ़ैलता है। यह झीलो, नदीयो तथा आर्कटीक सागर को हिमीकृत होने पर ठोस होने से बचाता है लेकिन इसका अर्थ यह भी है कि जल कोशिका के अंदर हिमीकृत होने पर कोशीकाओं की मेम्ब्रेन को तोड़ देता है और कोशिका मृत हो जाती है। यह अन्य विलायकों पर आधारित जीवन पर लागु नही होगा क्योंकि वे हिमीकृत होने पर संकुचित होते है, जल के जैसे फ़ैलते नही है। सामान्यत: जल के हिमीकरण से होने वाली हानि अधिक नही होती है क्योंकि बहुत से पौधो और प्राणीयों ने जल के हिमीकरण के दौरान होनेवाले फ़ैलाव से बचने के उपाय खोज लिये है। उदाहरण के कुछ प्राणी प्राकृतिक हिमीकरण रोधी रसायन उत्पन्न करते है जो तापमान के जल के हिमीकरण बिंदु से नीचे जाने के बावजूद उनके शरीर के अंदर जल के हिमीकरण को रोक देते है।
  • जल प्रतिक्रियाशील है और मुख्य जैव अणुओं को क्षति पहुंचा सकता है। सामान्यत: जल को अक्रियाशील माना जाता है और उसे घरो मे, व्यवसायिक तथा औद्योगिक स्थानो मे धड़्ल्ले से प्रयोग किया जाता है। अपेक्षाकृत रूप से जल उदासीन है लेकिन कुछ साधारण सामान्य पदार्थो जैसे तैलिय हाइड्रोकार्बन के साथ वह अधिक क्रियाशील है। इसी वजह से कार्बनिक रसायनज्ञ अपने 80 प्रतिशत से अधिक कार्यो मे  जल की बजाय अन्य विलायको का प्रयोग करते है जिससे कि जल के अन्य प्रक्रियाओं को प्रभावित करने से बच सके। सबसे प्रमुख मुद्दा जल के द्वारा कुछ मुख्य जैविक अणु जैसे डी एन ए का धीमे धीमे क्षरण है, इससे बचाव के लिये डी एन ए के पास एक जटिल क्षतिपूर्ती प्रक्रिया की आवश्यकता होती है। लेकिन यह पूरी कहानी नही है। पानी के पूर्णत उदासीन नही होने के कुछ लाभ भी है क्योंकि उसकी कुछ महत्वपूर्ण जैवरासायनिक प्रक्रियाओं मे आवश्यकता होती है।
  • जल कार्बनडाय आक्साईड के साथ संगत नही है। कार्बन डाई आक्साईड  पौधो मे प्रकाश संशलेषण के लिये एक प्रमुख घटक है। पृथ्वी पर पौधे वर्ष मे लगभग 258  अरब टन CO2 की खपत करते है। गैस के रूप मे समस्त वातावरण मे आसानी से समांगी रूप से फ़ैल जाती है जिससे वह समस्त जमीनी पौधो के लिये आसानी से उपलब्ध होती है। लेकिन जल मे CO2 आसानी से घुलनशील नही है, उसकी बजाय वह CO2 से प्रतिक्रिया कर घूलनशील बायोकार्बोनेट (HCO3) आयन बनाती है। यह जलीय वातावरण जैसे झीलो और सागरो मे जलीय वनस्पति के लिये CO2 की उपलब्धता के लिये अत्यावश्यक है। लेकिन गोरखधंधा यह है कि बायोकार्बोनेट (HCO3) आयन अधिक प्रक्रियाशील नही है लेकिन घुलनशील है, CO2 प्रक्रियाशील है लेकिन घुलनशील नही है। इस समस्या के कारण जलीय और स्थलीय पौधो के सामने एक चुनौति उत्पन्न होती है। पौधो के पास इस समस्या से निपटने का एक उपाय बायोटीन (biotin)एन्जाईम है। बायोटीन चयापचय प्रक्रिया के लिये अधिक ऊर्जा लेता है साथ ही CO2 की अधिक मात्रा प्रयोग नही कर पाता है। अधिकतर कार्बन यौगिकीकरण  एक दूसरे एंजाईम रुबिस्को(rubisco ribulose-1,5-bisphosphate carboxylase oxygenase) से किया जाता है। लेकिन रुबिस्को की छवि अपव्ययी तथा अक्षम एंजाईम होने ही है। यह जिन प्रक्रियाओं के लिये उत्प्रेरक का काम करता है वह धीमी तो होती है और वह O2 और CO2 मे अंतर नही कर पाता है। जब वह आक्सीजन को लेता है तब बहुत से अवांछित यौगिक बनते है जिसका अर्थ और अधिक मात्रा मे रुबिस्को की आवश्यकता होती है।  लेकिन यह समस्या जल या रुबिस्को की कमी ना होकर CO2 तथा O2 की आंतरिक रसायनिक समानता के कारण है।

 

सारांश यह है कि जल मे कुछ कमीयाँ है लेकिन वह उसके लाभो के सामने कुछ नही है। जल का निर्माण ही जीवन के लिये हुआ है। जीवन के लिये जल की तुलना मे कोई भी अन्य विलायक आदर्श ना होने से नासा जीवन की खोज के लिये अंतरिक्ष मे ग्रहों के पास द्रव जल की खोज करता है। लेकिन सभी खगोल जैव वैज्ञानिक ऐसा नही मानते है कि केवल जल ही जीवन के लिये आवश्यक संभव विलायक है, वे अमोनिया और उसके जैसे कुछ अन्य द्रवों  को जीवन के लिये संभव विलायक होने की संभावना पर विचार कर रहे है।

अगले लेख मे हम चर्चा करेंगे जल के विकल्पो की

लेख शृंखला

परग्रही जीवन भाग 1 : क्या जीवन के लिये कार्बन और जल आवश्यक है ?

परग्रही जीवन भाग 4 :बोरान आधारित जीवन

परग्रही जीवन भाग 5 : जीवन अमृत – जल एक महान विलायक

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