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नकली चाँद की चाँदनी से रौशन होगा चीन!

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धरती-चांद की सृष्टि होने के समय से ही सूरज की प्रचंड किरणों को सोखकर चांद उसे शीतलता में बदलकर दूधिया चांदनी पूरी धरती पर बिखेरता रहा है। रात के टिमटिमाते तारों भरे अनंत आकाश में चाद से सुंदर कुछ नहीं होता। इसलिए चांद सभ्यता के उदय काल से ही मानव की कल्पना को हमेशा से रोमांचित करता रहा है। दुनिया के लगभग सभी भाषाओं के कवियों ने चंद्रमा की पूर्णिमा की चांदनी वाले मनोहरी रूप पर अपनी-अपनी तरह से काव्य-सृष्टि की है। तब भला आम आदमी चांद और उसकी चांदनी का मुरीद क्यों न हो ! मगर नकली चांद, यह तो हैरान करने वाली बात है। भले यह बात अजीब लग रही हो, मगर सच है। अगर चीन की आर्टिफिशियल मून यानी मानव निर्मित कृत्रिम चांद बनाने की योजना सफल हो जाती है तो चीन के आसमान में 2020 तक अपना चांद चमकने लगेगा। यह नकली चांद चीन के चेंगडू शहर के सड़कों पर अपनी रोशनी फैलाएगा और तब वहां स्ट्रीटलैंप की जरूरत नहीं होगी।


चीन अपने इस अभिनव अंतरिक्ष योजना के जरिये अंतरिक्ष विज्ञान में एक बड़ी छलांग की तैयारी में जुटा हुआ है। उसकी इस प्रोजेक्ट को 2020 तक लांच करने का कार्यक्रम निर्धारित है। इस प्रोजेक्ट पर चेंगडू एयरोस्पेस साइंस एंड टेक्नोलॉजी माइक्रो इलेक्ट्रॉनिक्स सिस्टम रिसर्च इंस्टीट्यूट कारपोरेशन नामक निजी संस्थान कुछ वर्षों से काम कर रहा है। चीन के अखबार पीपुल्स डेली के अनुसार, यह प्रोजेक्ट अपने अंतिम चरण में है। चाइना डेली अखबार ने चेंगड़ू एयरोस्पेस कार्पोरेशन के निदेशक वु चेन्फुंग के हवाले से लिखा है कि सड़कों और गलियों में रोशनी करने पर होने वाले वर्तमान बिजली-खर्च को चीन घटाना चाहता है। नकली चांद से 50 वर्ग किलोमीटर के इलाके में रोशनी होगी, जिससे हर साल बिजली में आने वाला 17.3 करोड़ डॉलर का खर्च बचाया जा सकता है। आर्टिफिशियल मून आपदा या संकट से जूझ रहे इलाकों में ब्लैक आउट की स्थिति में भी बड़ा सहायक होगा।

चीन अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम में अमेरिका और रूस की बराबरी करना चाहता है। इसके लिए उसने कई महत्वाकांक्षी परियोजनाएं बनाई हैं। हालांकि चीन नकली चांद बनाने की कोशिश में पूरी गंभीरता से जुटा हुआ है, मगर नकली चांद को स्थापित करने की राह इतनी आसान नहीं है। पृथ्वी के आकाश के एक ख़ास हिस्से में रोशनी करने के लिए मानव निर्मित चांद को बिलकुल निश्चित जगह पर बनाए रखना काफी कठिन काम है। नब्बे के दशक में रूस और अमेरिका भी कृत्रिम चांद बनाने की असफल कोशिश कर चुके हैं। चीन के इस प्रोजेक्ट पर पर्यावरणविदों ने सवाल भी उठाना शुरू कर दिया है। उनका कहना है कि इस प्रोजेक्ट से पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। दिन को सूरज और फिर रात में भी अधिक रोशनी फैलाने वाले कृत्रिम चांद के कारण वन्यप्राणियों का जीना दूभर हो जाएगा। उनका अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। पेड़-पौधों पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। इसके अलावा प्रकाश-प्रदूषण भी बढ़ेगा।

अगर चीन का पहला प्रोजेक्ट सफल हुआ तो साल 2022 तक चीन ऐसे तीन चांद अपने आकाश में स्थापित कर सकता है। सवाल है कि नकली चांद काम कैसे करेगा? चेंगडू एयरोस्पेस के अधिकारियों के मुताबिक, नकली चांद एक शीशे की तरह काम करेगा, जो सूर्य की रोशनी को परावर्तित कर पृथ्वी पर भेजेगा। यह कृत्रिम चांद हू-ब-हू पूर्णिमा के चांद जैसा ही होगा, मगर इसकी रोशनी असली प्राकृतिक चांद से आठ गुना अधिक होगी। नकली चाद की रोशनी को नियंत्रित भी किया जा सकेगा। यह पृथ्वी से महज 500 किलोमीटर की दूरी पर आकाश में स्थपित होगा। जबकि असली चांद तो पृथ्वी से तीन लाख 80 हजार किलोमीटर दूर है। भविष्य के कवियों को भी ऐसे चांद से परेशानी हो सकती है, जो प्रेयसी के मुखमंडल की तुलना हजारों सालों से शीतल चांदनी वाले चौदहवीं के चांद से करते आए हैं। तब पाठकों-दर्शकों का मन इस बात से आशंकित बना रहेगा और सवाल यह भी उठेगा कि असली चांद की जगह कहीं नकली से तो तुलना नहीं की जा रही है! (pk110043@gmail.com)


पृथ्वी के उपग्रह और उनकी कक्षायें(Earth Satellite Orbits)

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पृथ्वी की निम्न कक्षा मे अंतराष्ट्रीय अंतरिक्ष केंद्र

पृथ्वी की निम्न कक्षा मे अंतराष्ट्रीय अंतरिक्ष केंद्र

जब भी अंतरिक्ष और उपग्रहो की चर्चा होती है तब बहुत सी कक्षाओं की भी चर्चा होती है जैसे भूस्थानिक कक्षा, ध्रुविय कक्षा। क्या होती है ये कक्षायें ? इनकी आवश्यकता क्या है ?

जब आप किसी थियेटर मे को ड्रामा देखने जाते है तो अलग अलग सीट से आपको एक ही मंचन के अलग अलग पहलू दिखायी देते है, उसी तरह से पृथ्वी की विभिन्न कक्षायें उपग्रह को पृथ्वी को अलग अलग परिप्रेक्ष्य से निरीक्षण का अवसर देते है। हर कक्षा का अलग अलग कारण से अपना महत्व होता है। कुछ कक्षाओं मे उपग्रह पृथ्वी के किसी एक बिंदु पर टिका हुआ दिखाई देता है, कुछ अन्य कक्षाओं मे उपग्रह पृथ्वी के कई स्थानो के उपर से सतत यात्रा करता रहता है।

मूल रूप से पृथ्वी पर उपग्रहों की तीन कक्षायें है, उच्च पृथ्वी कक्षा, मध्यम पृथ्वी कक्षा तथा निम्न पृथ्वी कक्षा। अधिकतर मौसम उपग्रह और कुछ संचार उपग्रह उच्च पृथ्वी कक्षा मे रहते है, अर्थात पृथ्वी की सतह से अधिक दूरी पर। मध्य पृथ्वी कक्षा मे रहने वाले उपग्रह नेविगेशन तथा जासूसी उपग्रह होते है जो किसी एक विशेष क्षेत्र पर नजर रखने के लिये बनाये गये होते है। वैज्ञानिक उपग्रह पृथ्वी की निम्न कक्षा मे होते है जिसमे अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन, नासा के पृथ्वी के निरीक्षण उपग्रहों के बेड़े का समावेश है।

 

कक्षाओं के वर्गीकरण का एक उपाय उंचाई है। निम्न पृथ्वी कक्षा वातावरण के ठीक उपर से आरंभ होती है, जबकि उच्च पृथ्वी कक्षा पृथ्वी से चंद्रमा की दूरी के दंसवे भाग के समीप होती है।

कक्षाओं के वर्गीकरण का एक उपाय उंचाई है। निम्न पृथ्वी कक्षा वातावरण के ठीक उपर से आरंभ होती है, जबकि उच्च पृथ्वी कक्षा पृथ्वी से चंद्रमा की दूरी के दंसवे भाग के समीप होती है।

किसी भी कक्षा की उंचाई या पृथ्वी की सतह से उपग्रह की दूरी से उपग्रह की गति निर्धारित होती है। पृथ्वी की परिक्रमा करते उपग्रह की गति का नियंत्रण मुख्य रूप से पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल करता है। जब उपग्रह पृथ्वी के समीप होता है, गुरुत्वाकर्षण बल का खिंचाव अधिक होता है और जिससे उपग्रह की गति अधिक होती है। नासा का एक्वा उपग्रह पृथ्वी की सतह से 705 किमी उंचाई पर है और वह पृथ्वी की एक परिक्रमा 99मिनट मे कर लेता है, जबकी एक मौसमी उपग्रह 36,000 किमी की उंचाई से पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिये 23 घंटे 56 मिनट और 4 सेकंड लेता है। पृथ्वी के केंद्र से 384,403 किमी की दूरी पर से चंद्रमा को पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिये 28 दिन लगते है।

किसी भी उपग्रह की उंचाई मे परिवर्तन करने पर उसकी कक्षीय गति मे भी परिवर्तन होता है। इससे एक विचित्र विरोधाभाष का भी निर्माण होता हओ। मान लिजिये कि किसी उपग्रह के संचालक को उपग्रह की कक्षीय गति बढ़ानी है, वह उपग्रह के प्रणोदक को जलाकर उपग्रह की गति नही बढ़ा सकता है। यदि वह ऐसा करता है तो उपग्रह की उंचाई बढ़ जायेगी और उससे उपग्रह की कक्षीय गति कम हो जायेगी। उपग्रह की गति बढ़ाने के लिये उपग्रह के प्रणोदक राकेट को उपग्रह की गति की उल्टी दिशा मे चलाना होगा, इसे हम पृथ्वी के सतह पर ब्रेक लगाना कह सकते है। इससे उपग्रह अपनी कक्षा मे पृथ्वी के निकट आयेगा और उसकी गति बढ़ जायेगी।

 किसी कक्षा की विकेंद्रता(eccentricity (e))उस कक्षा की परिपूर्ण वृत्त से विचलन दर्शाती है। वृत्ताकार कक्षा की विकेंद्रता शून्य होती है। जबकि अत्याधिक विक्रेंद्रता 1 के समीप लेकिन हमेशा 1 से कम होती है। विकेंद्रित कक्षा मे उपग्रह दिर्घवृत्त के फ़ोकल बिंदुओं के संदर्भ मे गति करता है।


किसी कक्षा की विकेंद्रता(eccentricity (e))उस कक्षा की परिपूर्ण वृत्त से विचलन दर्शाती है। वृत्ताकार कक्षा की विकेंद्रता शून्य होती है। जबकि अत्याधिक विक्रेंद्रता 1 के समीप लेकिन हमेशा 1 से कम होती है। विकेंद्रित कक्षा मे उपग्रह दिर्घवृत्त के फ़ोकल बिंदुओं के संदर्भ मे गति करता है।

उंचाई के अतिरिक्त विकेन्द्रता(eccentricity) और कक्षीय झुकाव(inclination) भी उपग्रह की कक्षा को आकार देते है। विकेन्द्रता से कक्षा का आकार निर्धारित होता है। कम विकेन्द्रता वाला उपग्रह वृत्त के जैसी कक्षा रखता है। अधिक विकेन्द्रता वाला उपग्रह दिर्घवृत्त के जैसी कक्षा मे पृथ्वी की परिक्रमा करता है, इस कक्षा मे पृथ्वी से उपग्रह की दूरी निरंतर परिवर्तित होते रहती है।

कक्षीय झुकाव उपग्रह की कक्षा और पृथ्वी के विषुवत के मध्य के कोण को कहते है। विषुवत के ठीक उपर गति करने वाले उपग्रह का कक्षीय झुकाव शून्य होता है। यदि कोई उपग्रह पृथ्वी के भौगोलिक उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव की कक्षा मे गति करता है तो उसका कक्षीय झुकाव 90 डीग्री होगा।

कक्षीय झुकाव उपग्रह की कक्षा के प्रतल और विषुवत के मध्य का कोण होता है। 0° कक्षीय झुकाव का उपग्रह का पथ विषुवत के ठीक उपर जबकि 90° कक्षीय झुकाव का उपग्रह का पथ ध्रुव के ठीक उपर तथा 180° कक्षीय झुकाव का उपग्रह का पथ विषुवत के ठीक उपर लेकिन पृथ्वी की घूर्णन दिशा के विपरीत मे होता है।

कक्षीय झुकाव उपग्रह की कक्षा के प्रतल और विषुवत के मध्य का कोण होता है। 0° कक्षीय झुकाव का उपग्रह का पथ विषुवत के ठीक उपर जबकि 90° कक्षीय झुकाव का उपग्रह का पथ ध्रुव के ठीक उपर तथा 180° कक्षीय झुकाव का उपग्रह का पथ विषुवत के ठीक उपर लेकिन पृथ्वी की घूर्णन दिशा के विपरीत मे होता है।

उपग्रह की उंचाई, विक्रेंद्रता और झुकाव किसी उपग्रह के पथ और पृथ्वी के दृश्य भाग को परिभाषित करते है।

उपग्रह कक्षा के तीन वर्ग

उच्च पृथ्वी कक्षा (High Earth Orbit)

जब उपग्रह पृथ्वी के केंद्र से 42,164 किमी (सतह से 36,000 किमी) की उंचाई पर पहुंचता है तो वह एक ऐसे बिंदु पर होता है जिसमे उसकी कक्षीय गति और पृथ्वी की घूर्णन(rotation) गति एक समान होती है। अब उपग्रह की गति और पृथ्वी की घूर्णन गति समान होने से, उपग्रह पृथ्वी के उपर एक ही देशांतर रेखा(longitude) पर स्थिर प्रतित होता है। यह संभव है कि उपग्रह की स्तिथि मे उत्तर दक्षिण दिशा मे विचलन हो। इस विशेष कक्षा को भूसमकालिक(geosynchronous) कक्षा कहते है।

वृत्ताकार भूसमकालिक(geosynchronous) कक्षा यदि विषुवत के उपर हो अर्थात उसकी विकेंद्रता शून्य तथा कक्षीय झुकाव शून्य हो तो उसे भूस्थानिक(geostationary) कक्षा कहते है क्योंकि इस कक्षा मे वह पृथ्वी के किसी बिंदु के सापेक्ष स्थिर रहेगा। वह हमेशा पृथ्वी के सतह के एक बिंदु के उपर ही रहेगा।

भूस्थानिक(geostationary) कक्षा मौसम उपग्रहों के लिये अत्याधिक महत्वपूर्ण होती है क्योंकि इस कक्षा मे उपग्रह पृथ्वी के एक भाग पर लगातार निरीक्षण कर सकता है। जब भी आप मौसम की जानकारी देनेवाली किसी वेबसाइट पर अपने शहर के मौसम की जानकारी देनेवाली पृथ्वी का चित्र देखते है तब वह चित्र भूस्थानिक कक्षा के किसी उपग्रह द्वारा लिया गया चित्र होता है। हर कुछ मिनट मे भारत के INSAT शृंखला के उपग्रह के जैसे मौसम उपग्रह बादलो, जल बाष्प, वायु दिशा जैसी जानकारी पृथ्वी के मौसम केंद्र तक भेजती है, इस जानकारी के विश्लेषण के द्वारा मौसम का अनुमान लगाया जाता है।

भूस्तैथिक कक्षा मे उपग्रह पृथ्वी के साथ विषुवत के उपर परिक्रमा करते है, वे एक स्थल पर स्थिर प्रतीत होते है। यह स्तिथि उन्हे मौसम और अन्य वायुमंडलीय कारको के निरीक्षण मे उपयोगी होती है।

भूस्तैथिक कक्षा मे उपग्रह पृथ्वी के साथ विषुवत के उपर परिक्रमा करते है, वे एक स्थल पर स्थिर प्रतीत होते है। यह स्तिथि उन्हे मौसम और अन्य वायुमंडलीय कारको के निरीक्षण मे उपयोगी होती है।

भूस्थानिक उपग्रह हमेशा एक ही स्थान के उपर रहते है जिससे वे संचार माध्यम(फोन, टीवी और रेडीयो) के लिये प्रयोग किये जाते है। नासा द्वारा बनाये गये और अमरीकी नेशनल ओशेनिक एन्ड एटमासफ़ियिरीक एडमिनिस्ट्रेशन (National Oceanic and Atmospheric Administration (NOAA)) द्वारा संचालित जिओस्टेशनरी आपरेशनल एन्विरोन्मेंटल सेटेलाइट( Geostationary Operational Environmental Satellite (GOES)) जहाज और विमानो की आपदा स्तिथि मे खोज, राहत और बचाव मे मदद करते है।

बहुत से उच्च पृथ्वी कक्षा वाले उपग्रह सौर गतिविधियों की भी निगरानी भी करते है। GOES उपग्रहों के पास अंतरिक्ष मौसम की निगरानी के लिये उपकरण है जो सूर्य के चित्र लेते है और अपने आसपास चुंबकीय क्षेत्र और सौर वायु की जांच करते रहते है।

उच्च पृथ्वी कक्षा से आगे कुछ और महत्वपूर्ण बिंदु है जिन्हे लाग्रांज(Lagrange)बिंदु कहते है। इन बिंदुओं पर सूर्य तथा पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण समान होता है। इन बिंदुओ पर स्थित कोई भी वस्तु या पिंड पृथ्वी के साथ सूर्य की परिक्रमा करता है क्योंकि वह पृथ्वी और सूर्य दोनो द्वारा समान रूप से बंधा होता है।

लांग्राज बिंदु ऐसे विशेष स्थान होते है जिसमे उपग्रह पृथ्वी के साथ सूर्य की परिक्रमा करते हुये हमेशा पृथ्वी के सापेक्ष स्थिर होता है । L1 तथा L2 दोनो क्रमश: पृथ्वी के दिन और रात भाग की ओर होते है। L3 सूर्य की दूसरी ओर पृथ्वी की विपरीत दिशा मे होता है। L4 तथा L5 दोनो क्रमश: पृथ्वी की कक्षा मे 60° आगे और पीछे होते है।

लांग्राज बिंदु ऐसे विशेष स्थान होते है जिसमे उपग्रह पृथ्वी के साथ सूर्य की परिक्रमा करते हुये हमेशा पृथ्वी के सापेक्ष स्थिर होता है । L1 तथा L2 दोनो क्रमश: पृथ्वी के दिन और रात भाग की ओर होते है। L3 सूर्य की दूसरी ओर पृथ्वी की विपरीत दिशा मे होता है। L4 तथा L5 दोनो क्रमश: पृथ्वी की कक्षा मे 60° आगे और पीछे होते है।

कुल पांच लाग्रांज बिंदु है जिनमे से दो L4 और L5 बिंदु ही संतुलित या स्थाई है। अन्य तीन बिंदुओं पर उपग्रह किसी पहाड़ की चोटी पर गेंद के जैसे है, इन बिंदुओं पर हल्के से क्षोभ से उपग्रह अपने स्थान से पहाड़ी से लुढकती गेंद के जैसे हट जाता है। इन तीनो बिंदुओ पर उपग्रह को स्थिर, संतुलित रहने के लिये लगातार समायोजन करते रहना होता है। अंतिम दो बिंदुओ पर स्थित उपग्रह किसी कटोरे मे गेंद की तरह होते है, किसी वजह से इन बिंदुओ से हटजाने पर भी वापिस अपनी वास्तविक स्थिति पर आ जाते है।

प्रथम लाग्रांज बिंदु पृथ्वी और सूर्य के बीच मे स्तिथ है जिससे इस बिंदु से सूर्य पर लगातार नजर रखी जा सकती है। नासा और यूरोपियन अंतरिक्ष संस्थान (ESA) की सोलर एन्ड हिलिओस्फेरिक ओब्जर्वेटरी(Solar and Heliospheric Observatory (SOHO)) पृथ्वी से 15 लाख किमी दूर इसी बिंदु पर स्थित है।

द्वितिय लाग्रांज बिंदु पृथ्वी से इतनी ही दूरी पर है लेकिन पृथ्वी के पीछे है, पृथ्वी हमेशा सूर्य और द्वितिय लाग्रांज बिंदु के मध्य होती है। इस स्तिथि मे पृथ्वी, सूर्य और उपग्रह एक ही रेखा मे होते है, जिससे इस बिंदु पर स्तिथ उपग्रहो को सूर्य और पृथ्वी की उष्मा से बचने के लिये केवल एक ही ओर उष्मा शील्ड चाहीये होती है। यह अंतरिक्ष दूरबीनो के लिये सर्वोत्तम जगह है जिसमे भविष्य की जेम्स वेब दूरबीन तथा वर्तमान विल्किंसन माइक्रोवेव अनिसोट्रोपी प्रोब( Wilkinson Microwave Anisotropy Probe-WMAP) शामिल है जिसका प्रयोग ब्रह्मांड की प्रकृति को समझने के लिये माइक्रोवेव विकिरण के अध्ययन के लिये हो रहा है।

पृथ्वी के समीप के लांग्राज बिंदु की दूरी पृथ्वी से चंद्रमा की दूरी से 5 गुणा है। L1 पृथ्वी और सूर्य के बीच तथा हमेशा पृथ्वी के दिन वाले भाग की ओर होता है, जबकि L2 सूर्य के विपरीत ओर हमेशा रात्रि वाले भाग मे होता है।

पृथ्वी के समीप के लांग्राज बिंदु की दूरी पृथ्वी से चंद्रमा की दूरी से 5 गुणा है। L1 पृथ्वी और सूर्य के बीच तथा हमेशा पृथ्वी के दिन वाले भाग की ओर होता है, जबकि L2 सूर्य के विपरीत ओर हमेशा रात्रि वाले भाग मे होता है।

तृतिय लाग्रांज बिंदु पृथ्वी के विपरीत सूर्य की दूसरी ओर इस तरह से है कि सूर्य हमेशा इस बिंदु और पृथ्वी के मध्य होता है। इस स्तिथि मे उपग्रह पृथ्वी से कभी संपर्क नही कर पाता है। अत्याधिक रूप से स्थिर लाग्रांज बिंदु L4 तथा L5 है जो की पृथ्वी की सूर्य की परिक्रमा कक्षा मे पृथ्वी के सामने और पीछे 60 डीग्री दूरी पर है। इन बिंदुओ पर जुड़वा सोलर टेरेस्टेरीयल रीलेशनस ओब्सरवेटरी (Solar Terrestrial Relations Observatory (STEREO)) परिक्रमा कर रहे है और सूर्य का त्रिआयामी चित्र बना रहे है।

मध्यम पृथ्वी कक्षा

पृथ्वी के समीप मध्यम पृथ्वी कक्षा मे उपग्रह तेजी से गति करते है। इनमे से दो कक्षाये विशिष्ट है, अर्ध-समकालिक(semi-synchronous) तथा मोलनिया कक्षा(Molniya)।

अर्ध-समकालिक(semi-synchronous) कक्षा लगभग वृत्ताकार अर्थात कम विकेन्द्रता लिये हुये होती है और पृथ्वी केंद्र से 25,560 किमी(सतह से 20,200 किमी) उंचाई पर है। इस स्तिथि मे पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिये उपग्रह को 12 घंटे लगते है। जैसे ही उपग्रह गति करता है, पृथ्वी भी नीचे घूर्णन करती है। 24 घंटो मे उपग्रह एक स्थान पर से दो बार गुजरता है। यह कक्षा सुसंगत और स्थिर होती है, जिससे यह कक्षा नेविगेशन उपग्रहो, ग्लोबल पोजिशनिगं सीस्टम के उपग्रहो के लिये उपयुक्त होती है।

मध्यम पृथ्वी कक्षा मे दूसरी महत्वपूर्ण कक्षा मोलनिया कक्षा है। यह कक्षा रूसी वैज्ञानिको ने खोजी थी। यह कक्षा उच्च अक्षांशो के लिये प्रयुक्त होती है। भूस्थानिक कक्षा के उपग्रहों से पृथ्वी का स्थिर परिदृश्य मिलता है लेकिन ये उपग्रह विषुवत रेखा पर होते है और इस स्तिथि मे वे उत्तरी ध्रुव या दक्षिणी ध्रुव के निकट के स्थलो के निरीक्षण के लिये अनुपयुक्त होते है क्योंकि वे इन उपग्रहो की परिदृश्य की सीमा पर होते है। इस स्तिथि मे मोलनिया कक्षा एक अच्छा विकल्प होती है।

मोलनिया कक्षा अत्याधिक विकेन्द्रित होती है। उपग्रह अत्याधिक दिर्घवृत्ताकार कक्षा मे गति करता है जिसके एक भाग मे पृथ्वी निकट होती है। पृथ्वी की निकटतम स्तिथि मे उपग्रह की गति सर्वाधिक होती है क्योंकि पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण उसे गति देता है। जैसे ही वह पृथ्वी से दूर जाता है उसकी गति कम होते जाती है और वह कक्षा मे अधिकतम समय उपर पृथ्वी से दूर व्यतित करता है। मोलनिया कक्षा मे उपग्रह 12 घंटे मे पृथ्वी की परिक्रमा पूरी करता है लेकिन इसका दो तिहाई समय वह केवल एक ही गोलार्ध के उपर रहता है। अर्धसमकालिक कक्षा के जैसे यह भी 24 घंटे मे एक स्थान पर दो बार पहुंचता है। यह कक्षा उत्तरी या दक्षिणी ध्रुव के निकट के स्थलो पर संचार के लिये उपयुक्त होती है।

मोलनिया कक्षा मे कक्षीय झुकाव अधिक (63.4°) तथा विकेंद्रता (0.722) होती है जिससे उच्च अक्षांशो का अधिक समय तक निरीक्षण किया जा सकता है। इस कक्षा मे उपग्रह परिक्रमा करने मे 12 घंटे लेता है, जिसमे धीमी उंचाई वाली स्थिति हर दिन उसी स्थान पर हर दिन और रात रहती है। रूस के संचार उपग्रह और सिरियस रेडीयो उपग्रह इस तरह की कक्षा का प्रयोग करते है।

मोलनिया कक्षा मे कक्षीय झुकाव अधिक (63.4°) तथा विकेंद्रता (0.722) होती है जिससे उच्च अक्षांशो का अधिक समय तक निरीक्षण किया जा सकता है। इस कक्षा मे उपग्रह परिक्रमा करने मे 12 घंटे लेता है, जिसमे धीमी उंचाई वाली स्थिति हर दिन उसी स्थान पर हर दिन और रात रहती है। रूस के संचार उपग्रह और सिरियस रेडीयो उपग्रह इस तरह की कक्षा का प्रयोग करते है।

निम्न पृथ्वी कक्षा (Low Earth Orbit)

अधिकतर वैज्ञानिक उपग्रह और मौसमी उपग्रह लगभग वृत्ताकार निम्न पृथ्वी कक्षा मे होते है। उपग्रह का झुकाव उसके प्रयोग पर निर्भर करता है। ट्रापीकल रेनफ़ाल मेजरींग मिशन(Tropical Rainfall Measuring Mission (TRMM)) उपग्रह उष्णकटिबंध प्रदेश मे वर्षा के मापन के लिये है। इसलिये इस उपग्रह का झुकाव कम अर्थात 35 डीग्री है जिससे वह उष्णकटिबंध प्रदेश के उपर अधिकतर समय रहे।

TRMM का कक्षीय झुकाव विषुवत से केवल 35°है जिससे उसके उपकरण उष्णकटीबंधीय क्षेत्र(Tropics) पर केंद्रित होते है। इस चित्र मे TRMM द्वारा आधे दिन मे किये गये निरीक्षणो को दर्शाया गया है।

TRMM का कक्षीय झुकाव विषुवत से केवल 35°है जिससे उसके उपकरण उष्णकटीबंधीय क्षेत्र(Tropics) पर केंद्रित होते है। इस चित्र मे TRMM द्वारा आधे दिन मे किये गये निरीक्षणो को दर्शाया गया है।

नासा और इसरो के अधिकतर उपग्रह ध्रुविय कक्षा मे है। इस अत्याधिक झुकाव वाली कक्षा मे उपग्रह ध्रुव से ध्रुव गति करते है और एक परिक्रमा पूरी करने मे 99 मिनट लेते है। एक परिक्रमा मे उपग्रह आधे समय दिन वाले भाग मे और आधे समय रात वाले भाग मे होता है। उपग्रह दिनवाले भाग से रात वाले भाग मे प्रवेश ध्रुव के उपर से करता है।

जब उपग्रह अपनी कक्षा मे गति करता है नीचे पृथ्वी भी घूर्णन करती है। जैसे ही उपग्रह दिन वाले भाग मे दोबारा आता है वह पिछली कक्षा वाले स्थान से बाजु वाले स्थान से गुजरता है। 24 घंटे मे ध्रुविय उपग्रह हर स्थान से दोबारा गुजरता है, एक बार दिन वाले समय मे दूसरी बार रात वाले समय मे।

भूसमकालिक उपग्रहों द्वारा जिस तरह से विषुवत के उपर रह कर पृथ्वी के एक स्थान की निगरानी की जा सकती है उसी तरह से ध्रुविय उपग्रहो द्वारा एक स्थान पर स्थिर समय पर नजर रखी जा सकती है। इस कक्षा को सूर्यसमकालिक (Sun-synchronous)कहते है, इसका अर्थ यह है कि जब भी उपग्रह विषुवत रेखा को पार करेगा, पृथ्वी पर उस स्थल का स्थानिक समय हमेशा समान रहेगा। उदाहरण के लिये टेरा(Terra) उपग्रह सुबह 10:30 बजे ब्राजील के उपर से जब विषुवत रेखा को पार करता है, 99 मिनट बाद अपनी अगली परिक्रमा मे वह जब इक्वाडोर या कोलंबीया के उपर से विषुवत को पार करता है तब इक्वाडोर या कोलंबीया मे स्थानिय समय 10:30 सुबह होता है।

सूर्यसमकालिक कक्षा मे उपग्रह विषुवत पर से हर दिन (रात) समान स्थानिय समय पर गुजरता है। यह कक्षा वैज्ञानिक निरीक्षणो के लिये सूर्य और पृथ्वी के मध्य के कोण को लगभग स्थिर रखने मे सहायक होती है। इस चित्र मे इस उपग्रह की लगातार तीन परिक्रमाये दिखायी गई है, जिसमे सबसे नई परिक्रमा गहरे लाल रंग मे और पुरानी परिक्रमाये हल्के लाल रंग मे है।

सूर्यसमकालिक कक्षा मे उपग्रह विषुवत पर से हर दिन (रात) समान स्थानिय समय पर गुजरता है। यह कक्षा वैज्ञानिक निरीक्षणो के लिये सूर्य और पृथ्वी के मध्य के कोण को लगभग स्थिर रखने मे सहायक होती है। इस चित्र मे इस उपग्रह की लगातार तीन परिक्रमाये दिखायी गई है, जिसमे सबसे नई परिक्रमा गहरे लाल रंग मे और पुरानी परिक्रमाये हल्के लाल रंग मे है।

विज्ञान मे सूर्य समकालिक कक्षाये महत्वपूर्ण होती है क्योंकि इन कक्षाओं मे पृथ्वी की सतह पर सूर्य किरणो का कोण हमेशा समान रखने का प्रयास होता है।(हालांकि सूर्य की किरणो का कोण पृथ्वी की सतह पर मौसम के अनुसार बदलते रहता है।) इससे यह होता है कि वैज्ञानिक एक ही मौसम की भिन्न वर्षो मे ली गई तस्वीरो की सूर्य के कोण, प्रकाश और छाया की चिंता किये बगैर तुलना कर सकते है। सूर्य समकालिक कक्षा के बिना इस तरह की तुलना कष्टसाध्य होगी। मौसमी बदलाव या क्लाईमेट चेंज का अध्ययन इस तरह की तुलना के बगैर असंभव होगा।

सूर्य समकालिक कक्षा मे उपग्रह का पथ काफ़ी संकरा होता है। यदि उपग्रह की उंचाई 100 किमी है तो सूर्य समकालिक कक्षा मे बने रहने उसका कक्षीय झुकाव 96 डीग्री होना चाहिये। इन दोनो मे कोई भी बदलाव उस उपग्रह को सूर्य समकालिक कक्षा से बाहर कर देगा। वातावरण द्वारा घर्षण से उत्पन्न खिंचाव और सूर्य, चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण इन उपग्रहो की कक्षा मे बदलाव करते है, जिससे इन उपग्रहो को सूर्यसमकालिक कक्षा मे बने रहने के लिये लगातार समायोजन करते रहना होता है।

उपग्रह द्वारा कक्षा प्राप्त करना और उसमे बने रहना

प्रक्षेपण

किसी उपग्रह के प्रक्षेपण मे लगने वाली ऊर्जा प्रक्षेपण स्थल, कक्षा की उंचाई और कक्षीय झुकाव पर निर्भर करती है। उच्च पृथ्वी कक्षा मे पहुंचने उपग्रहों को सर्वाधिक ऊर्जा चाहिये होती है। अत्याधिक कक्षिय झुकाव जैसे ध्रुविय कक्षा के लिये लगने वाली ऊर्जा कम अक्षीय झुकाव वाले उपग्रह जैसे विषुवत के उपर गति करने वाले उपग्रह से अधिक होती है। कम अक्षिय झुकाव वाला उपग्रह पृथ्वी के घूर्णन का प्रयोग कर अपनी कक्षा मे पहुंच सकता है। अंतराष्ट्रीय अंतरिक्ष केंद्र 51.6397 डीग्री के झुकाव वाली कक्षा मे है जिससे नासा के स्पेस शटल और रूसी सोयुज द्वारा उस तक पहुंचना आसान है। जबकि ध्रुव की परिक्रमा करने वाले उपग्रह को पृथ्वी के संवेग से कोई मदद नही मिलने से उसी उंचाई तक पहुंचने मे अधिक ऊर्जा चाहिये होती है।

कम कक्षीय झुकाव वाली कक्षाओं मे उपग्रह को स्थापित करने के लिये पृथ्वी की घूर्णन गति की सहायता ली जाती है, इसके लिये उन्हे विषुवत के समीप से प्रक्षेपित किया जाता है। युरोपियन अंतरिक्ष संस्थान अपने भूस्तैथिक उपग्रहो का प्रक्षेपण फ़्रेंच गुयाना से करता है(बायें)। जबकि उच्च कक्षीय झुकाव वाले उपग्रहों को विषुवत के पास के प्रक्षेपण स्थलो से मदद नही मिलती है। 49° उत्तर अक्षांश स्तिथ बैकानुर अंतरिक्ष केंद्र से ध्रुविय तथा मोलनिया कक्षाओं मे उपग्रह स्थापित करने तथा अंतरराष्ट्रीय केंद्र मे यात्री और रसद भेजने के लिये प्रक्षेपण होते है।

कम कक्षीय झुकाव वाली कक्षाओं मे उपग्रह को स्थापित करने के लिये पृथ्वी की घूर्णन गति की सहायता ली जाती है, इसके लिये उन्हे विषुवत के समीप से प्रक्षेपित किया जाता है। युरोपियन अंतरिक्ष संस्थान अपने भूस्तैथिक उपग्रहो का प्रक्षेपण फ़्रेंच गुयाना से करता है(बायें)। जबकि उच्च कक्षीय झुकाव वाले उपग्रहों को विषुवत के पास के प्रक्षेपण स्थलो से मदद नही मिलती है। 49° उत्तर अक्षांश स्तिथ बैकानुर अंतरिक्ष केंद्र से ध्रुविय तथा मोलनिया कक्षाओं मे उपग्रह स्थापित करने तथा अंतरराष्ट्रीय केंद्र मे यात्री और रसद भेजने के लिये प्रक्षेपण होते है।

कक्षा मे स्थिर रहना

एक बार उपग्रह अपनी कक्षा मे पहुंच गया तब भी उसे अपनी कक्षा मे बने रहने कुछ कार्य करते रहना होता है। पृथ्वी पूर्ण रूप से गोल नही है, उसका गुरुत्वाकर्षण कुछ जगह पर अन्य स्थानो की तुलना मे अधिक है। गुरुत्वाकर्षण मे यह अनियमितता और सूर्य, चंद्रमा , बृहस्पति के गुरुत्वाकर्षण से उत्पन्न खिंचाव से मिलकर उपग्रह के कक्षीय झुकाव मे परिवर्तन आ जाता है। अपने जीवनकाल मे GOES उपग्रहो को अपनी कक्षा मे बने रहने तीन से चार बार बदलाव करने होते है। नासा के निम्न पृथ्वी कक्षा के उपग्रह सूर्यसमकालिक कक्षा मे बने रहने अपने कक्षीय झुकाव मे वर्ष मे एक बार या दो वर्ष मे एक बार बदलाव करते है।

निम्न पृथ्वी कक्षा के उपग्रह पृथ्वी के वातावरण के घर्षण से उत्पन्न खिंचाव से अपनी कक्षा से हट जाते है। ये उपग्रह पृथ्वी के वातावरण की उपरी पतली तह से गुजरते है लेकिन उस उंचाई पर वायु का प्रतिरोध फ़िर भी इतना होता है कि वह उन उपग्रहो को खींच कर पृथ्वी की ओर ले आता है। अब पृथ्वी का गुरुत्चाकर्षण उन्हे कम उंचाई पर आने से अधिक गति देता है। अधिक गति अधिक घर्षण। समय के साथ उपग्रह गति बढ़ने और उंचाई कम होने से पृथ्वी के वातावरण मे स्पाईरल पथ मे प्रवेश कर जल सकता है।

वातावरण का यह खिंचाव सौर सक्रियता मे अधिक मजबूत होता है क्योंकि सौर सक्रियता मे सूर्य के द्वारा अतिरिक्त ऊर्जा के देने से वायुमंडल किसी गुब्बारे के जैसे फ़ूलता है। वातावरण की बाह्य पतली परत उपर उठती है और उसकी जगह नीचे से घनी परत ले लेती है। अब उपग्रह वातावरण मे घनी परत से गुजर रहा है जबकि वह सूर्य के सक्रिय ना होने पर अपेक्षाकृत रूप से पतली परत से गुजर रहा था। सौर गतिविधियों के चरम पर उपग्रह अधिक घनी परत से गुजरने से उसे अधिक प्रतिरोध का सामना करना होता है। सूर्य के असक्रिय काल मे निम्न पृथ्वी कक्षा के उपग्रहों को अपनी कक्षा मे परिवर्तन वर्ष मे चार बार करना होता है। लेकिन सौर गतिविधियों के चरम पर उपग्रह को अपनी कक्षा मे बदलाव हर दो तीन सप्ताह मे करना होता है।

उपग्रह की कक्षा मे बदलाव का तीसरा कारण अंतरिक्ष कबाड़ है जोकि उस उपग्रह के पथ मे हो सकता है। 11 फ़रवरी 2009 को अमरीकी उपग्रह कंपनी इरीडीयम का एक संचार उपग्रह रूस के निष्क्रिय उपग्रह से टकरा गया था। दोनो उपग्रह टूट गये और दोनो ने मिलकर 2,500 टूकड़ो का एक अंतरिक्ष मलबा बना दिया। इन 2500 टूकड़ो को पृथ्वी की कक्षा मे गति कर रहे 18,000 मानवनिर्मित पिंडो के डेटाबेस मे जोड़ दिया गया जिन पर अमरीकी अंतरिक्ष निगरानी नेटवर्क (U.S. Space Surveillance Network.)नजर रखता है।

 अंतरिक्ष मे मानव द्वारा निर्मित हजारो पिंड है, जिसमे से 95 % अंतरिक्षीय कबाड़ है और पृथ्वी की निम्न कक्षा मे है। इस चित्र मे हर काला बिंदु या तो कार्यरत उपग्रह है या निष्क्रिय उपग्रह या उपग्रह का मलबा है। चित्र मे पृथ्वी के पास के अंतरिक्ष भीड़ दिखाई दे रही है लेकिन हर बिंदु वास्तविक उपग्रह या कबाड़ से बहुत बड़ा है। वर्तमान मे अंतरिक्ष मे टकराव दुर्लभ है।


अंतरिक्ष मे मानव द्वारा निर्मित हजारो पिंड है, जिसमे से 95 % अंतरिक्षीय कबाड़ है और पृथ्वी की निम्न कक्षा मे है। इस चित्र मे हर काला बिंदु या तो कार्यरत उपग्रह है या निष्क्रिय उपग्रह या उपग्रह का मलबा है। चित्र मे पृथ्वी के पास के अंतरिक्ष भीड़ दिखाई दे रही है लेकिन हर बिंदु वास्तविक उपग्रह या कबाड़ से बहुत बड़ा है। वर्तमान मे अंतरिक्ष मे टकराव दुर्लभ है।

नासा उपग्रह अभियान संचालक अपने उपग्रह मे पथ मे आनेवाली हर वस्तु पर नजर रखते है। हर वर्ष कम से कम चार पांच बार उपग्रहो को रास्ते मे आ रहे इन मलबो से टकराने से बचने के लिये पथ बदलना होता है।

उपग्रह संचालन टीम अंतरिक्ष के इन मलबो तथा अन्य उपग्रहो पर नजर रखती है, और उसके अनुसार इन उपग्रहो के कक्षा मे मार्ग, उंचाई बदलने की योजना बनाती है।

ब्लैक होल्स खोजे तो ‘बिग बैंग’ पर उठा सवाल!

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महान यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने कहा था कि मनुष्य स्वभावतः जिज्ञासु प्राणी  है तथा उसकी सबसे बड़ी इच्छा ब्रह्माण्ड की व्याख्या करना है। ब्रह्माण्ड की कई संकल्पनाओं ने मानव मस्तिष्क को हजारों वर्षों से उलझन में डाल रखा है। वर्तमान में वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड की सूक्ष्मतम एवं विशालतम सीमाओं तक पहुंच चुके हैं। ब्रह्माण्डीय परिकल्पनाओं एवं प्रेक्षणों द्वारा खगोलविदों को ब्रह्माण्ड की विचित्रताओं और रहस्यों के बारे में पता चला है। दिलचस्प बात यह है कि ब्रह्माण्डीय संकल्पनाओं एवं पिंडों के बारे में हमारे ज्ञान में वृद्धि के साथ और अधिक विचित्रताएँ हमारे सामने आती गई हैं। ब्रह्माण्ड की इन्हीं विचित्रताओं में से एक है- ब्लैक होल या कृष्ण विवर। ये अत्यधिक घनत्व तथा द्रव्यमान वाले ऐसें पिंड होते हैं, जो अपने द्रव्यमान की तुलना में आकार में बहुत छोटे होते हैं। इनका गुरुत्वाकर्षण इतना प्रबल होता है कि इनके चंगुल से प्रकाश की किरणों का निकलना भी असंभव होता हैं। चूंकि ब्लैक होल प्रकाश की किरणों को भी अवशोषित कर लेते हैं, इसलिए हमारे लिए ये अदृश्य ही बने रहते हैं।

आजकल ब्लैक होल एक बार फिर चर्चा में हैं क्योंकि हाल ही में जापान, ताइवान और प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के खगोल वैज्ञानिकों ने ब्रह्मांड के सुदूर कोनों में स्थित 83 अतिविशालकाय (सुपरमैसिव) ब्लैक होल्स (ऐसे ब्लैक होल जिनका द्रव्यमान हमारे सूर्य के द्रव्यमान की तुलना में लाखों-करोड़ों गुना अधिक होता है) की खोज की है। इन बेहद विशालकाय ब्लैक होल्स की मौजूदगी के संकेत 83 अत्यधिक चमकीले क्वासर्स (क्वासी स्टेलर रेडियो सोर्सेज) के केंद्र में मिले हैं। ये क्वासर्स पृथ्वी से लगभग 13 अरब प्रकाश वर्ष दूर है। दूसरे शब्दों में, हम उन्हें देख रहे हैं क्योंकि वे 13 अरब वर्ष पहले अस्तित्व में थे। ब्रह्मांड की उत्पत्ति (बिग बैंग) 13.8 अरब वर्ष पहले हुआ था, इसलिए इन क्वासर्स/ब्लैक होल की यह समयावधि लगभग हमारे ब्रह्मांड की उम्र के बराबर है। आधुनिक खगोलीय मानकों के आधार पर इन क्वासर्स और ब्लैक होल्स को प्रारंभिक ब्रह्मांड के निवासी कहें तो कोई अतिश्योक्ति न होगी।

क्वासर : एक चित्रकार की परिकल्पना

क्वासर्स ने भी लंबे समय से खगोल वैज्ञानिकों को उलझन में डाल रखा है। वैसे तो क्वासर्स हमारी आकाशगंगा से करीब पाँच लाख गुना छोटे पिंड हैं, मगर ये 100 से भी अधिक आकाशगंगाओं के बराबर रेडियो तरंगों का उत्सर्जन करते हैं। क्वासर्स की खोज के शुरुवाती दौर से ही कुछ वैज्ञानिक यह अनुमान लगाते आए हैं कि ब्रह्मांड के ये रहस्यमय बाशिंदे ब्रह्मांड की दूरस्थ सीमाओं पर स्थित हो सकते हैं। जापान, ताइवान और प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के खगोलविदों की इस हालिया खोज ने वैज्ञानिकों के इस पूर्वानुमान की पुष्टि की है तथा पहली बार क्वासर्स के केंद्र में अतिविशालकाय ब्लैक होल्स की मौजूदगी के स्पष्ट संकेत मिले हैं। मजेदार बात यह है कि ये सभी ब्लैक होल्स ब्रह्मांड की उत्पत्ति की घटना बिग बैंग के ठीक बाद अस्तित्व में आए! एक अनुमान के मुताबिक उस समय ब्रह्मांड की आयु ब्रह्मांड की वर्तमान आयु से 10 प्रतिशत से भी कम रही होगी।

चूंकि ब्लैक होल हमें दिखाई नहीं देते, इसलिए वैज्ञानिकों ने इन ब्लैक होल्स की खोज 83 क्वासरो की मदद से की है। इन क्वासरो की गैसीय द्रव्यराशि को ब्लैक होल्स अपनी ओर लगातार खींच रहें हैं। ब्लैक होल में क्वासर की द्रव्यराशि लगातार गिरने के कारण उसमें से काफी तेजी से रेडियो तरंगे उत्सर्जित होने लगती है। इन्हीं तीव्र रेडियो तरंगो के उद्गम के निरीक्षण से वैज्ञानिकों ने इन 83 प्राचीन ब्लैक होल्स की खोज को अंजाम दिया है। यह खोज एहिम यूनिवर्सिटी, जापान के खगोल वैज्ञानिक योशिकी मत्सुओका के निर्देशन में की गई है और इसके परिणाम द एस्ट्रोफिजिकल जर्नल लेटर्स में प्रकाशित हुए हैं। इस खोज में नेशनल एस्ट्रोनॉमिकल ऑब्जर्वेटरी के सुबारू टेलीस्कोप में लगे अत्याधुनिक उपकरण ‘हाइपर सुपरटाइम-कैम’ (एचएससी) के आंकड़ों के अलावा ला-पाल्मा द्वीप स्थित दूरबीन ग्रैन टेलीस्कोपियो कैनेरिया और चिली स्थित जेमिनी साउथ टेलीस्कोप की सहायता ली गई।

यह खोज ब्रह्मांड विज्ञानियों के लिए एक बड़ा रहस्य बनकर सामने आया है क्योंकि इन सभी ब्लैक होल्स का निर्माण  बिग बैंग के ठीक बाद हुआ था, जबकि वर्तमान खगोलीय सिद्धांतों के अनुसार उस समय तो आकाशगंगाओं और तारों को जन्म देने वाली निहारिकाओं का भी निर्माण शुरू नहीं हुआ था। इस संदर्भ में प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के खगोल वैज्ञानिक और इस खोजी अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले माइकल स्ट्रॉस का कहना है कि “यह उल्लेखनीय है कि बिग बैंग के तुरंत बाद इतनी विशाल घनी वस्तुएं बनने में सक्षम थीं। ब्लैक होल्स प्रारंभिक ब्रह्मांड में कैसे बन सकते हैं और इनकी मौजूदगी कितनी सामान्य हैं, यह ब्रह्माण्ड संबंधी हमारे वर्तमान मॉडल के लिए एक चुनौती है।” चुनौती का कारण है कि जब ब्रह्मांड बिलकुल नया रहा होगा, ब्रह्मांड का विस्तार भी ज्यादा नहीं हो पाया होगा अर्थात जब ब्रह्मांड इतने बड़े ब्लैक होल्स को जन्म देने के लिए पर्याप्त ही नहीं रहा होगा, उस समय इन 83 ब्लैक होल्स की उत्पत्ति कई प्रश्न खड़े करती हैं।

गौरतलब है कि जब सूर्य से लगभग 10 गुना अधिक द्रव्यमान वाले तारों का हाइड्रोजन और हीलियम रूपी ईंधन खत्म हो जाता है, तब उन्हें फैलाकर रखने वाली ऊर्जा चुक जाती है और वे अत्यधिक गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़कर अत्यधिक सघन पिंड- ब्लैक होल बन जाते हैं।

नवभारत टाइम्स में पूर्व प्रकाशित

प्रश्न यह उठता है कि जब तारों का ही जन्म नहीं हुआ था तब तारों के अवशेष से 83 अतिविशालकाय ब्लैक होल्स की उत्पत्ति कैसे हुई होगी? क्या यह सम्भव है कि पिता के जन्म से पहले ही पुत्र का जन्म हो जाए? यह नवीनतम खोज बिग बैंग को ब्रह्मांड की उत्पत्ति की सम्पूर्ण तार्किक व्याख्या मानने से इंकार करती है और उसमें संशोधन की मांग करती नजर आ रही है। हमारा अद्भुत ब्रह्माण्ड रहस्यों से भरा पड़ा है।  लेकिन अब हम विज्ञान व गणित की सहायता से धीरे-धीरे इसके रहस्यों को जान पा रहे है। यही विज्ञान है, जो प्रश्नों के जवाब तो देता है किंतु साथ ही सर्वथा नए प्रश्न भी खड़े कर देता है।

लेखक परिचय

प्रदीप

प्रदीप कुमार एक साइंस ब्लॉगर एवं विज्ञान संचारक हैं। ब्रह्मांड विज्ञान, विज्ञान के इतिहास और विज्ञान की सामाजिक भूमिका पर लिखने में आपकी  रूचि है। विज्ञान से संबंधित आपके लेख-आलेख राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं, जिनमे – नवभारत टाइम्स, दिल्ली की सेलफ़ी, सोनमाटी, टेक्निकल टुडे, स्रोत, विज्ञान आपके लिए, समयांतर, इलेक्ट्रॉनिकी आपके लिए, अक्षय्यम, साइंटिफिक वर्ल्ड, विज्ञान विश्व, शैक्षणिक संदर्भ आदि पत्रिकाएँ सम्मिलित हैं। संप्रति : दिल्ली विश्वविद्यालय में स्नातक स्तर के विद्यार्थी हैं। आपसे इस ई-मेल पते पर संपर्क किया जा सकता है : pk110043@gmail.com

ऐतिहासिक उपलब्धि : ब्लैक होल (श्याम विवर) का प्रथम चित्र

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ब्लैक होल की प्रथम तस्वीर - अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने 10 अप्रैल २०१९ को ब्लैकहोल की पहली तस्वीर जारी की। आकाशगंगा एम87 में 53.5 मिलियन प्रकाश-वर्ष दूर मौजूद इस विशालकाय ब्लैक होल की तस्वीर जारी की गई है। वैज्ञानिकों ने ब्रसल्ज, शंघाई, तोक्यो, वॉशिंगटन, सैंटियागो और ताइपे में एकसाथ प्रेस वार्ता की और जिस दौरान इस तस्वीर को जारी किया गया।

ब्लैक होल की प्रथम तस्वीर – अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने 10 अप्रैल २०१९ को ब्लैकहोल की पहली तस्वीर जारी की। आकाशगंगा एम87 में 53.5 मिलियन प्रकाश-वर्ष दूर मौजूद इस विशालकाय ब्लैक होल की तस्वीर जारी की गई है। वैज्ञानिकों ने ब्रसल्ज, शंघाई, तोक्यो, वॉशिंगटन, सैंटियागो और ताइपे में एकसाथ प्रेस वार्ता की और जिस दौरान इस तस्वीर को जारी किया गया।

1979 मे खगोल भौतिक वैज्ञानिक जीन-पियरे ल्यूमिनेट(Jean-Pierre Luminet) के पास सुपरकंप्युटर नही था लेकिन उन्होने विश्व को दिखाया था कि कोई ब्लैक होल किस तरह दिखाई देगा। उनके पास IBM का कंप्युटर IBM 7040 और कुछ पंच्ड कार्ड्स( punch cards) थे जिनसे वे कंप्यूटर को निर्देश और आंकड़े देते थे। वे सैद्धांतिक रूप से जानते थे कि ब्लैक होल प्रकाश का उत्सर्जन नही करते है। लेकिन ब्लैक होल के आसपास अत्याधिक उष्ण गैस और धुल का विशालकाय बवंडर अत्याधिक चमकदार प्रकाश उत्सर्जित करता है। ल्यूमिनेट ने सोचा कि इस पदार्थ से उत्सर्जित प्रकाश ब्लैक होल के आकार की जानकारी दे सकता है और इस प्रकाश से काल-अंतराल(space-time) मे गुरुत्वाकर्षण द्वारा उत्पन्न की गई वक्रता को भी देखा जा सकता है।

1979 मे खगोल भौतिक वैज्ञानिक जीन-पियरे ल्यूमिनेट(Jean-Pierre Luminet) के द्वारा बनाया गया ब्लैक होल का चित्र

1979 मे खगोल भौतिक वैज्ञानिक जीन-पियरे ल्यूमिनेट(Jean-Pierre Luminet) के द्वारा बनाया गया ब्लैक होल का चित्र

किसी रेफ़्रिजरेटर के आकार के IBM 7040 कंप्यूटर से संसाधित आंकड़ो के आधार पर ल्यूमिनेट ने पेन और कागज की सहायता से अपने हाथो से ब्लैक होल का सर्वप्रथम चित्र बनाया था। इस चित्र मे उन्होने ब्लैक होल का घटना क्षितिज(event horizon) दिखाया था जिसके पार जाने पर ब्लैक होल के गुरुत्वाकर्षण से कुछ नही बच सकता है। इसी के साथ उन्होने अक्रिशन डिस्क भी दिखाई थी जो कि ब्लैक होल द्वारा निगले गये तारों के मलबे से बना धुल और गैस का एक विशाल बवंडर होता है। ब्लैक होल के पास एक ही अक्रिशन डिस्क होती है लेकिन गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से इसका स्वरूप विकृत दिखाई देता है। किसी विकृत दर्पण मे बनी छवि के जैसे इस अक्रिशन डिस्क की छवि दो लंबवत डिस्क के जैसे दिखाई देती है। ये दोनो ब्लैक होल के समीप अधिक चमकदार दिखाई देती है।

इस चित्र के बनाये जाने के 4 दशक के पश्चात भी ल्यूमिनेट का पूर्वानुमान अब भी सही माना जाता है। लेकिन उनके द्वारा बनाया गया चित्र और ब्लैक होल के सभी चित्र पेंटींग मात्र है, वास्तविक फोटोग्राफ़ नही है। अब यह बदलने जा रहा है। वैज्ञानिक एक प्रोजेक्ट पर काम कर रहे है जिसे इवेंट होरीजान टेलिस्कोप(Event Horizon Telescope) नाम दिया गया है। 10 अप्रैल 2019 को वे M87 आकाशगंगा के केंद्र का ब्लैक होल का चित्र जारी किया है। मूल योजना के अंतर्गत वे हमारी आकाशगंगा के केंद्र के महाकाय ब्लैक होल सेजीटेरीयस A( Sagittarius A , उच्चारण ए स्टार) ब्लैक होल का वास्तविक चित्र भी जारी करने वाले थे लेकिन तकनीकी वजहो से नही कर पाये है। वैकल्पिक रूप से उन्होने  M87 आकाशगंगा मे स्थित एक अन्य ब्लैक होल के आंकड़े जमा किये थे, जिसका चित्र जारी किया गया है। इस चित्र से ब्रह्माण्ड के सबसे रहस्यमय पिंड के रहस्य का आवरण हटाने मे मदद मिलेगी। साथ ही आकाशगंगाओ की निर्माण प्रक्रिया, विकास और आकार के बारे मे भी जानकारी मिलेगी।

इवेंट होरीजान टेलिस्कोप एक अकेली दूरबीन नही है, यह आठ रेडीयो दूरबीनो का नेटवर्क है जोकि हवाई, अरिजोना, स्पेन, मेक्सीको, चीली और अंटार्कटीका मे स्तिथ है।

इवेंट होरीजान टेलिस्कोप एक अकेली दूरबीन नही है, यह आठ रेडीयो दूरबीनो का नेटवर्क है जोकि हवाई, अरिजोना, स्पेन, मेक्सीको, चीली और अंटार्कटीका मे स्तिथ है।

इवेंट होरीजान टेलिस्कोप एक अकेली दूरबीन नही है, यह आठ रेडीयो दूरबीनो का नेटवर्क है जोकि हवाई, अरिजोना, स्पेन, मेक्सीको, चीली और अंटार्कटीका मे स्तिथ है। खगोल वैज्ञानिक इन आठ दूरबीनो का प्रयोग एक समय मे एक ही पिंड के निरीक्षण के लिये करते है। उसके पश्चात वे इन सभी दूरबीनो से प्राप्त आंकड़ो को मिलाकर एक चित्र बनाते है। इन आठ दूरबीनो से इस तरह से एक साथ मे कार्य करने की प्रक्रिया को आप पृथ्वी के आकार की एक दूरबीन के तुल्य मान सकते है।

इस तकनीक को “वेरी लांग बेसलाईन इंटरफ़ेरोमेट्री (very long baseline interferometry, VLBI)” कहते है। इस तकनीक की सफ़लता के लिये आवश्यक है सभी दूरबीनो मे समय मापन के लिये समान और सटीक समय दर्शाने वाली घड़ीयों की उपस्थिति। उन्होने इस कार्य के लिये परमाणु घड़ीयों का प्रयोग किया है।

सब सभी दूरबीने सेजीटेरीयस A* का निरीक्षण करती है तब उनके निरीक्षण के आंकड़ो के साथ परमाणु घड़ी का समय जोड़ देते है। अब जब वैज्ञानिक सभी दूरबीनो के आंकड़ो का मिलान करते है तब वे उन आंकड़ो को परमाणु घड़ी के समय के अनुसार मिलाते है, उदाहरण के लिये किसी एक दूरबीन के 5:13 p.m. GMT के आंकड़ो को अन्य दूरबीनो के 5:13 p.m. GMT के आंकड़ो के साथ ही मिलाया जायेगा।

आठ दूरबीन के आंकड़ो को एक ही स्थान पर मिलाया जाता है। सामान्यत: वैज्ञानिक इन आंकड़ो को इंटरनेट से एक दूसरे से साझा करते है लेकिन चित्र के लिये आंकड़ो के मिलान के लिये सारे आंकड़ो की आवश्यकता होती है और इन आंकड़ो की मात्रा पेटाबाईट मे होती है जोकि इंटरनेट से भेजा नही जा सकता है। इस समस्या को पार पाने के लिये आंकड़ो की हार्ड डिस्क को विमान से भेजा जाता है। वैज्ञानिको ने आंकड़ो को इस तरह भेजे जाने को स्निकरनेट(sneakernet) नाम दिया है।

अप्रैल 2017 मे वैज्ञानिको ने इस प्रयोग मे सबसे पहला निरीक्षण चीली की अटाकामा लार्ज मिलीमिटर-सबमिलीमिटर दूरबीन(ALMA) से किया था। यह उपकरण इतना शक्तिशाली है कि उससे EHT द्वार काल-अंतराल मे एक नन्हे से छिद्र के द्वारा देखा जा सकता है। लेकिन इसकी तैयारीयाँ इतनी आसान नही थी। वैज्ञानिको को इसके लिये ALMA की 66 डीश से प्राप्त आंकड़ो को जमा करना पड़ा था। उसके बाद उन आंकड़ो को अन्य आठ दूरबीनो के आंकड़ो से जोड़ा गया।

इसके बाद भी ALMA के द्वारा सभी आंकड़ो के विश्लेषण के लिये एक साल से से अधिक समय के लेने के बाद भी चित्र नही बन पाया। इसके लिये उन्हे अंटार्कटीका और उस पर स्थित दक्षिणी ध्रुव दूरबीन से आंकड़ो वाली हार्ड डिस्क के विमान से आने के लिये अगले वसंत तक इंतजार करना पड़ा। क्योंकि वर्ष मे केवल वसंत और गर्मीयों मे ही दक्षिणी ध्रुव से विमान उड़ान भर सकते है। यह आंकड़े MIT की हेस्टेक वेधशाला(Haystack Observatory) मे दिसंबर 2017 मे पहुंच पाये थे।

फ्रांस के ग्रीनोबल शहर स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ मिलीमेट्रिक रेडियो एस्ट्रोनॉमी के खगोलविद माइकल ब्रिमर ने कहा,

‘हमने कोई विशाल टेलीस्कोप इसलिए नहीं बनाया क्योंकि वह अपने वजन के चलते ही टूट सकता है। हमने कई सारे रेडियो टेलीस्कोप से ली गई तस्वीरों को इस तरह जोड़ा है जैसे वह किसी बड़े से शीशे का टुकड़ा हो।’

ब्लैक होल के एक चित्र के लिये इतनी सारी कवायद की क्या आवश्यकता है ? वैज्ञानिको के अनुसार

“यही तो विज्ञान की विचित्रता है। ब्लैक होल ब्रह्माण्ड के सबसे अधिक रहस्यमय पिंड है। इनसे अधिक रहस्यमय केवल जीवन ही है।”

और जीवन, कमसे कम वह जीवन जिसे हम जानते है, वह नही जानता कि ब्लैक होल कैसे दिखता है, उनके अंदर क्या होता है, ब्लैक होल की आकाशगंगा और उनके विकास मे क्या भूमिका है , ब्लैकहोल के जन्म और उसके विकास मे हमारे जीवन की उत्पत्ति मे क्या भूमिका निभाई है ? जीवन के लिये यह जानना महत्वपूर्ण है।

EHT के निदेशक शेप डोलमेन ( Shep Doeleman) के अनुसार

” ऐसे बहुत कम विषय है जहाँ हम कह सकते है कि हम नही जानते है ब्रह्मांड के इस बिंदु पर क्या हो रहा है ? इनमे से एक है चेतना और दूसरा है ब्लैक होल!” (“There are very few topics where we say we just really have no idea what happens at that point in the universe,” says Doeleman. “One of those may be consciousness. And another one is the black hole.”)

M87 आकाशगंगा के केंद्र का यह ब्लैक होल

आकाशगंगा M87 के केंद्र के ब्लैक होल के चित्र अद्भूत है। मानव ने पहली बार किसी ब्लैक होल के इवेंट हारीजोइन को देखा है। और यह महादानवाकार है।

इसका द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान का 6.5 अरब गुणा है और इसका व्यास 38 अरब किमी है। पहले चित्र मे इसके आकार की तुलना दिखाई गई है। आप चित्र मे इस दानवाकार ब्लैक होल के इवेंट हारीजोइन की तुलना अब तक के ज्ञात सबसे विशाल तारे (VY कैनीस मेजोरीस, बीटलगुज) के आकार तथा नेपच्युन की कक्षा के आकार के साथ देख सकते है।

M87 आकाशगंगा के केंद्र के ब्लैक होल के आकार की सौर मंडल, महाकाय तारे VY कैनीस मेजोरीस और लाल महादानव तारे बीटलगुज से तुलना

यह महाकाय ब्लैक होल इतना विशाल है कि यदि इसे पृथ्वी से एक प्रकाशवर्ष की दूरी पर रखे तो आकाश मे इसका इवेंट हारीजोइन चंद्रमा के आकार का आधा दिखेगा। जानकारी के लिये बता दें कि एक प्रकाशवर्ष की दूरी पर सूर्य एक नन्हे बिंदु या सूई की नोक के आकार का दिखेगा।

यदि इसे पृथ्वी से एक प्रकाशवर्ष की दूरी पर रखे तो आकाश मे इसका इवेंट हारीजोइन चंद्रमा के आकार का आधा दिखेगा।

 

आखिर ब्लैकहोल क्या है ?

श्याम विवर (Black Hole) एक अत्याधिक घनत्व वाला पिंड है जिसके गुरुत्वाकर्षण से प्रकाश किरणो का भी बच पाना असंभव है। श्याम विवर मे अत्याधिक कम क्षेत्र मे इतना ज्यादा द्रव्यमान होता है कि उससे उत्पन्न गुरुत्वाकर्षण किसी भी अन्य बल से शक्तिशाली हो जाता है और उसके प्रभाव से प्रकाश भी नही बच पाता है।

श्याम विवर की उपस्थिति का प्रस्ताव 18 वी शताब्दी मे उस समय ज्ञात गुरुत्वाकर्षण के नियमो के आधार पर किया गया था। इसके अनुसार किसी पिंड का जितना ज्यादा द्रव्यमान होगा या उसका आकार जितना छोटा होगा, उस पिंड की सतह पर उतना ही ज्यादा गुरुत्वाकर्षण बल महसूस होगा। जान मीशेल तथा पीयरे सायमन लाप्लास दोनो ने स्वतंत्र रूप से कहा था कि अत्याधिक द्रव्यमान या अत्याधिक लघु पिंड के गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से किसी का भी बचना असंभव है, प्रकाश भी इससे बच नही पायेगा।

इन पिंडो को ’श्याम विवर(Black Hole)’ नाम जान व्हीलर ने 1967 मे दिया था। भौतिक विज्ञानीयों तथा गणितज्ञों ने यह पाया है कि श्याम विवर के पास काल और अंतराल(Space and Time) के विचित्र गुणधर्म होते हैं। इन विचित्र गुणधर्मो की वजह से श्याम विवर विज्ञान फतांसी लेखको का पसंदीदा रहा है। लेकिन श्याम विवर फतांसी नही है। श्याम विवर का आस्तित्व है और जब भी एक महाकाय तारे की मृत्यु होती है एक श्याम विवर का जन्म होता है। यह महाकाय तारे अपनी मृत्यु के पश्चात श्याम विवर बन जाते है। हम श्याम विवर को नही देख सकते है लेकिन उसमे गुरुत्वाकर्षण के फलस्वरूप उसमे गिरते द्रव्यमान को देख सकते है। इस विधि से खगोल वैज्ञानिको ने अब तक ब्रह्माण्ड का निरीक्षण कर सैकड़ो श्याम विवरो की खोज की है। अब हम जानते है कि हमारा ब्रह्माण्ड श्याम विवरो से भरा पड़ा है और उन्होने ब्रह्माण्ड को आकार देने मे एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

सिंगुलरैटी : ब्लैक होल का केंद्र जिस स्थान पर पदार्थ संपिड़ित होकर अत्याधिक(अनंत) घनत्व मे होता है।

रिलेटीविस्टीक जेट : जब कोई ब्लैक होल किसी तारे को निगल लेता है जब परमाण्विक कणो और विकिरण की एक तेज धारा(jet)प्रकाशगति की गति के समीप वाली गति(लेकिन कम) से निकलती है।

फोटान गोला (Photon Sphere) : ब्लैक होल के निकट के उष्ण प्लाज्मा से उत्सर्जित फोटान जो गुरुत्वाकर्षण से मुड़कर एक चमकीला वलय बनाते है।

घटना क्षितिज(Event Horizon) :सिंगुलरैटी के पास की वह सीमा जिसे पार करने के बाद पदार्थ और ऊर्जा ब्लैक होल के गुरुत्वाकर्षण से बच नही सकते। वह बिंदु जिससे वापसी संभव नही।

अक्रिशन डिस्क(Accretion Disc) : ब्लैक होल के पास अत्याधिक उष्ण गैस और धुल की तश्तरी जो अत्याधिक गति से घूर्णन करती है और विद्युत चुंबकीय विकिरण(X रे) उत्पन्न करती है।

ब्लैक होल(श्याम विवर)

ब्लैक होल(श्याम विवर)

ब्लैक होल के बारे मे विस्तार से :

https://vigyanvishwa.in/2011/06/27/black-hole/
https://vigyanvishwa.in/2011/07/04/blackhole1/
https://vigyanvishwa.in/2011/07/11/bithofblackhole/
https://vigyanvishwa.in/2015/10/26/wierdbh/
https://vigyanvishwa.in/2016/11/14/bh/

खगोलीय दूरी मापन : खगोलीय इकाई(AU), प्रकाशवर्ष(Ly) और पारसेक(Parsec)

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लेखक : ऋषभ

मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ लेख शृंखला मे यह चतुर्थ लेख है, और अब हम ब्रह्मांड को विस्तार से जानने के लिये तैयार है। विज्ञान की हर शाखा मे मापन की अपनी इकाईयाँ होती है। दूरी मापन की इकाईयाँ, विज्ञान की हर शाखा मे आवश्यकतानुसार प्रयोग की जाती है। उदाहरण के लिये एक पदार्थ वैज्ञानिक(material scientist ) अधिकतर माइक्रान (10-6m)मे मापन करेगा, वहीं आण्विक भौतिक वैज्ञानिक (atomic physicist) अन्गस्ट्राम (10-10 m) मे, वहीं एक नाभिकिय वैज्ञानिक(nuclear physicist ) फ़र्मी(10-15 m) मे मापन करेगा। हम जानते है कि दूरी मे मापन के लिये मानक SI इकाई मीटर(m) है लेकिन यह इकाई विज्ञान की हर शाखा मे प्रयोग होने के लिये सुविधाजनक नही है। किसी परमाणु के व्यास को मीटर या किलोमीटर मे मापना भद्दा होगा। इस लिये अध्ययन और उपयोग के अनुसार इकाईयों का चयन आवश्यक होता है। तो खगोलशास्त्र मे दूरी मापन के लिये किस इकाई का प्रयोग हो ? इस लेख मे हम खगोलीय इकाई(astronomical unit – AU), प्रकाशवर्ष(light year- ly) और पारसेक(parsec) के बारे मे जानेंगे।

आप इस शृंखला के सारे लेख यहाँ पढ़ सकते है

दूरी मापन और इकाईयाँ

क्वांटम प्रणालीयों कि विपरीत ब्रह्माण्ड अत्यधिक विशाल है। इतना विशाल कि किलोमीटर बहुत छॊटी इकाई है। इसलिये खगोलशास्त्रीयों ने दूरी के मापन के लिये एक नई इकाई प्रणाली बनाई। इस लेख मे हम इस प्रणाली की तीन मुख्य इकाईयों की चर्चा करेंगे जोकि आपको अधिकतर खगोलशास्त्र के लेखों और किताबों मे मिलेंगी। ये तीन इकाईयाँ है, प्रकाश वर्ष , पारसेक और खगोलीय इकाई(Astronomical Unit (AU))। इनका प्रयोग दूरी के मूल्य के अनुसार होता है। सौर मंडल के अंदर ग्रहों के मध्य की दूरी के लिये खगोलीय इकाई का प्रयोग होता है। समीप के तारों की दूरी की चर्चा के लिये प्रकाशवर्ष तथा पारसेक का प्रयोग होता है, जबकि आकाशगंगाओं के मध्य की दूरी के लिये किलोपारसेक और मेगापारसेक का प्रयोग किया जाता है।

खगोलीय इकाई : Astronomical Unit (AU)

खगोलीय इकाई सूर्य और पृथ्वी के मध्य की औसत दूरी को कहते है। इसका मूल्य 149,597,870,700 metres या 15 करोड़ किमी (9.3 करोड़ मील) है।

हम जानते है कि पृथ्वी( या किसी अन्य ग्रह) की सूर्य परिक्रमा की कक्षा पूर्ण वृत्ताकार नही है। यह दिर्घवृत्ताकार(elliptical) है। इसलिये पृथ्वी की सूर्य से दूरी वर्ष भर बदलते रहती है। आरंभ मे खगोलीय इकाई की परिभाषा पृथ्वी की कक्षा की उपप्रधान अक्ष(semi-major axis) के तुल्य मानी गई थी। लेकिन 1976 मे अंतराष्ट्रीय खगोल संस्थान(International Astronomical Union (IAU)) अधिक शुद्धता तथा सुनिश्चतता के लुए इसे परिवर्तित किया। अब खगोलीय इकाई की परिभाषा एक द्रव्यमान रहित(शून्य द्रव्यमान) कण की ऐसी वृताकार कक्षा की त्रिज्या है जिसमे परिक्रमा के लिये लगने वाला समय 365.2568983 दिन या एक गासीयन वर्ष (Gaussian year) हो।

अधिक अचूकता के लिये एक खगोलीय इकाई(AU) वह दूरी है जिसपर हिलियोसेंट्रीक गुरुत्वाकर्षण स्थिरांक (G*M☉) का मूल्य (0.017 202 093 95)² AU³/d² हो। M☉ = सूर्य का द्रव्यमान ।

खगोलीय इकाई (AU) का महत्व

यह ध्यान मे रखा जाना चाहिये कि गुरुत्वाकर्षण स्थिरांक (G) तथा सूर्य का द्रव्यमान (M☉) का मूल्य अत्याधिक सटीक रूप से ज्ञात नही है। लेकिन इन दोनो का गुणनफ़ल अधिक सटिकता से ज्ञात है। इसलिये ग्रहीय गति की सारी गणना मुख्य रूप से खगोलीय इकाई और सौर द्रव्यमान (M☉) के प्रयोग से की जाती है। इस तरह से सारे परिणाम गुरुत्वाकर्षण स्थिरांक पर निर्भर हो जाते है। इन स्थिरांको को मानक SI इकाईयों मे नही बदला जाता है क्योंकि इस परिवर्तन से अशुध्दता आ सकती है।

प्रकाशवर्ष (ly)

जुलियन वर्ष (365.25 दिन) और प्रकाशगति (299,792,458 m/s) के गुणनफ़ल को प्रकाशवर्ष कहा जाता है। यह समय और गति का गुणनफ़ल है, इसलिये यह वह दूरी है जिसे प्रकाश एक जुलियन वर्ष मे तय करता है। प्रकाशवर्ष का मूल्य 9.46 ट्रिलियन किमी या 63,241.077है। प्रकाशवर्ष यह कुछ अन्य इकाई प्रकाश सेकंड, प्रकाश मिनट या प्रकाशघंटा जैसी इकाईयों की मातृ इकाई है। जब हम कहते है कि कोई पिंड “प्रकाश-x” दूरी पर है, उसका अर्थ है कि वह दूरी जिसे तय करने मे प्रकाश x इकाई समय लेगा।

प्रकाश इकाई मे मापन

प्रकाश इकाई मे मापन

प्रकाशवर्ष का महत्व

प्रकाशवर्ष का खगोलशास्त्र मे अत्याधिक प्रओग होता है। इसका सबसे बड़ा लाभ यह भी है कि जब हम कहते है कि यह पिंड इतने प्रकाशवर्ष दूर है तब हम यह भी जानते है कि हम उस पिंड की कितनी पुरानी छवि देख रहे है। यदि कोई पिंड 4 प्रकाशवर्ष की दूरी पर है, तो इसका अर्थ है कि उस पिंड से उत्सर्जित प्रकाश को हम तक पहुंचने मे 4 वर्ष लगे है। अर्थात हम उसकी 4 वर्ष पुरानी छवि देख रहे है। इसी तरह से सूर्य हमसे 500 प्रकाशसेकंड की दूरी पर है, यदि किसी कारण से सूर्य गायब हो जाये तो हमे 500 सेकंड बाद ही पता चलेगा।

पारसेक -Parsec (pc)

एक पारसेक का मूल्य 3.26 प्रकाशवर्ष है। अब आप सोच रहे होंगे कि प्रकाशवर्ष और पारसेक मे इतना कम अंतर है तो एक अतिरिक्त इकाई की क्या आवश्यकता ? चलिये देखते है।

खगोलशास्त्र मे किसी तारे की दूरी मापन की सबसे प्राचिन विधियों मे से एक पेरेलक्स (parallax) विधि है। इस विधि मे किसी तारे की आकाश मे स्तिथि के दो मापन के मध्य के कोण को मापा मापा जाता है। इसमे पहला मापन पृथ्वी के सूर्य के एक ओर होने पर है दूसरा छः माह बाद पृथ्वी के सूर्य के दूसरी ओर होने पर किया जाता है। इन दो मापनो के मध्य मे पृथ्वी की दोनो स्तिथियों के मध्य दूरी पृथ्वी और सूर्य के मध्य की दूरी का दोगुणा होती है। अब इन दोनो मापनो के मध्य के कोणो का अंतर पेरेलक्स कोण का दोगुणा होता है जोकि सूर्य तथा पृथ्वी से उस तारे तक बनने वाली रेखाओं के मध्य बनता है।

तारे की स्थिति का पृथ्वी की कक्षा मे सूर्य के दो ओर से मापन(पेरेलक्स विधि)

तारे की स्थिति का पृथ्वी की कक्षा मे सूर्य के दो ओर से मापन(पेरेलक्स विधि)

पेरेलक्स का मूल्य उस तारे द्वारा आकाश मे आभासीय गति की कोणीय दूरी का आधा होता है। इस चित्र मे तारे की स्तिथि D से, सूर्य की S से तथा पृथ्वी की स्तिथि E से दिखाई गई है और ये तीनो पिंड समकोण त्रिभूज बना रहे है। इसमे तारे की स्तिथि पृथ्वी की कक्षा के उपप्रधान अक्ष के सम्मुख कोण मे है।

अब हम कोण SDE तथा रेखा SE की दूरी का मूल्य(1 AU) जानते है। इस जानकारी के प्रयोग से त्रिकोणमिती का प्रयोग करते हुये, SD या ED का मूल्य जान सकते है। यदि सम्मुख कोण का मुल्य 1 आर्क सेकंड(arc second) होतो तारे की दूरी 1 पारसेक होगी। अब हम 1 पारसेक को परिभाषित करने की स्तिथि मे है। एक पारसेक अर्थात वह दूरी जिसपर 1 AU का सम्मुख कोण(subtends) 1 आर्कसेकंड हो।

पारसेक(parsec) का महत्व

खगोलभौतिकी मे पारसेक विधि दूरी के निर्धारण मे सबसे बुनियादी कैलीब्रेशन का महत्वपूर्ण चरण रही है। पृथ्वी पर आधारित दूरबीनो द्वारा पेरेलक्स मापन की सीमा 0.01 आर्कसेकंड है, जिससे 100 पारसेक से अधिक दूरी के तारों की दूरी का सटिक मापन इस विधि से संभव नही है। यह सीमा पृथ्वी के वातावरण के तारे की बनने वाली छवि मे आने वाले धुंधलेपन के कारण होती है। लेकिन अंतरिक्ष स्तिथ दूरबीनो के सामने यह सीमा नही होती है। अंतरिक्ष मे अत्याधिक दूरी के पिंडॊ की दूरी के मापन के लिये पारसेक, किलोपारसेक तथा मेगापारसेक का प्रयोग होता है।

इस शृंखला मे इससे पहले : दूरबीनो की कार्यप्रणाली का परिचय

लेखक का संदेश

मुझे आशा है कि मूलभूत खगोलभौतिकी लेख शृंखका के चौथे लेख ने आपको खगोलशास्त्र मे दूरी मापन की इकाईयों खगोलीय इकाई, प्रकाशवर्ष तथा पारसेक की के बारे मे आवश्यक जानकारी दे दी होगी। यह खगोलशास्त्र के अध्ययन मे एक बुनियादी लेख है। आने वाले लेखों मे हम इन इकाईयों का धड़ल्ले से प्रयोग करेंगे। इसलिये इस लेख का महत्व स्पष्ट हो जाता है। आशा है कि आप इन लेखों का आनंद ले रहे होंगे। इस विषय पर यदि आप कोई पुस्तक पढ़ना चाहते है तो हम बैद्यनाथ बसु(Baiydanaath Basu) की पुस्तक “Basics of Astrophysics” की सलाह देंगे जोकि अमेजन पर उपलब्ध है। यह सरल भाषा मे इस विषय की बुनियादी जानकारी को समेटे हुये लिखी पुस्तक है। आप इस पुस्तक का भरपूर आनंद उठायेंगे।

मूल लेख : THE CONCEPT OF ASTRONOMICAL UNIT, LIGHT YEAR AND PARSEC

लेखक परिचय

लेखक : ऋषभ

Rishabh Nakra

Rishabh Nakra

लेखक The Secrets of the Universe (https://secretsofuniverse.in/) के संस्थापक तथा व्यवस्थापक है। वे भौतिकी मे परास्नातक के छात्र है। उनकी रूची खगोलभौतिकी, सापेक्षतावाद, क्वांटम यांत्रिकी तथा विद्युतगतिकी मे है।

Admin and Founder of The Secrets of the Universe, He is a science student pursuing Master’s in Physics from India. He loves to study and write about Stellar Astrophysics, Relativity, Quantum Mechanics and Electrodynamics.

 

लालविचलन(Redshift) के तीन प्रकार और उनका खगोलभौतिकी मे महत्व

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लेखक : ऋषभ

इस शृंखला के दूसरे लेख मे हमने देखा कि किस तरह से किसी खगोलभौतिक वैज्ञानिक के लिये विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम(Electromagnetic Spectrum) ब्रह्माण्ड के रहस्यो को समझने के लिये एक महत्वपूर्ण और उपयोगी उपकरण है। किसी भी खगोलीय पिंड के वर्णक्रम से हम बहुत सी बहुतसी महत्वपूर्ण जानकारी निकाल सकते है। उदाहरण के लिये यदि हम किसी तारे के वर्णक्रम का अध्ययन कर हम उसके तापमान, सतह पर गुरुत्वाकर्षण, तत्वों की उपलब्धता, घनत्व, विकास का चरण और इस जैसी अनेक जानकारी प्राप्त कर सकते है। स्पेक्ट्रोस्कोपी तकनीक हमे उस पिंड के आकाशगंगा मे विचरण के बारे मे भी जानकारी देती है। मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’  शृंखला के पांचवे लेख मे हम तीन तरह के लाल विचलन(Redshifts) और उनके खगोल विज्ञान मे महत्व को समझेंगे।

इस शृंखला के सभी लेखों को आप इस लिंक पर पढ़ सकते है।

तरंगदैर्ध्य और आवृत्ति (Wavelength And Frequency)

हम विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम को देख चुके है उसे भलीभांति समझते है। किसी प्रकाश के स्रोत को लिजिये। वह सूर्य हो सकता है या आपके टेबललैंप का बल्ब। इस प्रकाश का एक विशिष्ट रंग है। प्रकाश के हर रंग के साथ तीन चीजे जुड़ी है, तरंगदैर्ध्य, आवृत्ति तथा ऊर्जा।

सबसे पहले हम तरंगदैर्ध्य तथा आवृत्ति को समझते है। प्रकाश को नीचे दिये गये चित्र से समझीये:

तरंगदैर्ध्य और आवृत्ति (Wavelength And Frequency)

तरंगदैर्ध्य और आवृत्ति (Wavelength And Frequency)

लाल रेखा के उपर का भाग शीर्ष (crests)तथा नीचे का भाग गर्त (troughs) कहलाता है। किसी तरंग के दो लगातार शीर्ष के मध्य की क्षैतिज दूरी तरंगदैर्ध्य (Wavelength) कहलाती है। किसी शीर्ष या गर्त की अधिकतम लंब दूरी तरंग का आयाम(amplitude ) कहलाती है। एक शिर्ष तथा उससे लगा हुआ गर्त मिलकर एक तरंग चक्र(wave-cycle) बनाते है। किसी तरंग की आवृत्ति एक सेकंड मे बनने वाली तरंग (wave-cycle) की संख्या को कहते है। उदाहरण के लिये यदि हम चित्र मे दिखाई गई तीन भिन्न तरंग (एक उपर और उसके नीचे की दो तरंग) को देखे तो हम कह सकते है कि

  1. पहली तरंग का तरंगदैर्ध्य सबसे अधिक है क्योंकि उसके दो लगातार शीर्ष या गर्त के मध्य अधिकतम क्षैतिज दूरी है।
  2. तीसरी तरंग की आवृत्ति सर्वाधिक है क्योंकि एक सेकंड मे सर्वाधिक तरंगचक्र बन रहे है।
  3. तरंगदैर्ध्य जितनी अधिक होगी आवृत्ति उतनी कम होगी। तरंगदैर्ध्य तथा आवृत्ति विलोमानुपात (inverse) मे होते है।

 

हम विद्युतचुंबकीय वर्णक्रम के दृश्य भाग को देखते है। दृश्य प्रकाश का तरंगदैर्ध्य 400 nm (1 nm = 10-9 m) से 800 nm के मध्य होता है। 400 nm पर बैंगनी रंग तथा 800 nm पर लाल रंग होता है।

लाल विचलन क्या है (What Is Redshift)?

मान लिजिये की स्रोत किसी मोनोक्रोमेटीक स्रोत के जैसे एक विशिष्ट रंग के प्रकाश का एक विशिष्ट आवृत्ति पर उत्सर्जन करता है। इसका अर्थ यह नही है कि निरीक्षण की गई तरंगदैर्ध्य उत्सर्जित की गई तरंगदैर्ध्य के समान हो। यदि निरीक्षण की गई तरंगदैर्ध्य अधिक हो तो उसे लाल विचलन कहते है, यदि वह कम हो तो वह नीला विचलन(Blueshift) कहलाता है।

मध्य वाले वर्णक्रम मे कोई विचलन नही है। जबकि उपर वाले वर्णक्रम मे गहरी अवशोषण रेखाये लाल रंग की ओर विचलित हुई है और निचले वर्णक्रम मे नीले रंग की ओर

मध्य वाले वर्णक्रम मे कोई विचलन नही है। जबकि उपर वाले वर्णक्रम मे गहरी अवशोषण रेखाये लाल रंग की ओर विचलित हुई है और निचले वर्णक्रम मे नीले रंग की ओर

उपर दिये गये चित्र मे मध्य का वर्णक्रम प्रकाश स्रोत द्वारा वास्तविक रूप से उत्सर्जित है। यदि हम उपर के वर्णक्रम मे गहरी अवशोषण रेखाओं (dark absorption lines) को देखें तो हम पायेगे कि इनसे संबधित रेखाये लाल रंग की ओर विचलीत हो गई है। जबकि नीचले वर्णक्रम मे वह नीले रंग की ओर विचलीत हुई है। यह प्रभाव भले ही दृश्यप्रकाश से संबधित ना हो, तरंगदैर्ध्य मे बढोत्तरी/कमी हमेशा लाल/निला विचलन कहलाती है। लाल/नीला विचलन कई खगोलभौतिकीय प्रक्रियाओं से उत्पन्न होता है। खगोल भौतिकी मे लाल विचलन को z से दर्शाया जाता है। इसका साधारण समीकरण : 1+z = निरीक्षित तरंगदैर्ध्य /वास्तविक तरंगदैर्ध्य । z का धनात्मक मूल्य लालविचलन और ऋणात्मक मूल्य नीला विचलन दर्शाता है।

लाल विचलन की व्याख्या

आप सोच रहे होंगे कि इस विचलन मे मानक संदर्भ(standard reference) क्या है ? हम लाल विचलन को ज्ञात करने के लिये किस संदर्भ वर्णक्रम से तुलना कर रहे है ? यह एक अच्छा और महत्वपूर्ण प्रश्न है। हर तत्व का अपना हस्ताक्षर वर्णक्रम होता है। ब्रह्मांड मे सर्वाधिक पाया जाने वाला तत्व हायड्रोजन है। इसलिये यदि हम किसी दूरस्थ आकाशगंगा के हायड्रोजन वर्णक्रम को देखते है और यदि उस वर्णक्रम की रेखाये हमारी प्रयोगशाला के वर्णक्रम से मेल खाती है तो इसका अर्थ है कि लाल विचलन नही हओ। लेकिन यदि ये रेखाये लाल रंग की ओर एक निश्चित दूरी पर है तब उसमे लालविचलन है और वह स्रोत हमसे दूर जा रहा है।

लाल विचलन

लाल विचलन

अब हम तीन प्रकार के लाल विचलन को देखते है और उसके खगोलभौतिकी मे महत्व को समझते है।

लालविचलन के प्रकार (Types of Redshifts)

1. सापेक्षीय लाल विचलन (Relativistic Redshift) या डाप्लर प्रभाव (Doppler Effect)

हम सभी ध्वनि तरंगो मे डाप्लर प्रभाव से परिचित है। यदि ध्वनि स्रोत हमारी ओर आ रहा है तो उसकी आवृत्ति बढ़ती है, जबकी दूर जाने पर वह घटती है। खगोलभौतिकी मे भी डाप्लर प्रभाव समान है लेकिन यह प्रकाश से संबधित है। ब्रहांड मे हर पिंड सापेक्षिय गति कर रहा है। तारे और आकाशगंगाये एक दुसरे के सापेक्ष गतिमान है। यदि किसी तारे/आकाशगंगा के वर्णक्रम मे लाल विचलन है, इसका अर्थ है कि वह हम से दूर जा रहा है। सापेक्षिय डाप्लर प्रभाव के सूत्र से हम उस तारे या आकाशगंगा के हमसे दूर जाने की गति की गणना कर सकते है। जब हमने अपनी पड़ोसी आकाशगंगा देव्यानी(एंड्रोमीडा) के वर्णक्रम को देखा तो पाया कि उसमे नीलाविचलन है। यह आकाशगंगा हमारी आकाशगंगा मंदाकीनी(milky way) की ओर 140 किमी/घंटा की गति से आ रही है। अगले पांच अरब वर्ष पश्चात ये दोनो आकाशगंगा एक दूसरे मे विलिन होकर एक बड़ी आकाशगंगा बनायेंगी।

2. गुरुत्विय लाल विचलन (Gravitational Redshift)

इसतरह का लाल विचलन साधारण सापेक्षतावाद का परिणाम है। गुरुत्विय लाल विचलन के अनुसार जब फ़ोटान कम गुरुत्विय विभव वाले क्षेत्र से उच्च विभव वाले क्षेत्र मे यात्रा करता है तो उसकी ऊर्जा मे कमी होती है। यदि कोई तारा अपनी सतह एक विशिष्ट तरंगदैर्ध्य वाले प्रकाश का उत्सर्जन करता है और हम उस तारे के वर्णक्रम का उसकी सतह से दूर अध्ययन करते है तो उसमे लाल विचलन मिलेगा। उस तारे के गुरुत्वाकर्षण से बच निकलने के प्रयास मे उस फोटान की ऊर्जा कम हुई है जिसका अर्थ है तरंगदैर्ध्य मे बढ़ोत्तरी। समझ मे नही आया ? इसे किसी बच्चे द्वारा सीढीयों को चढ़ने से थकने के जैसा मान लिजिये। ध्यान दिजिये कि फ़ोटान की ऊर्जा कम हो रही है, उसकी आवृत्ति भी कम होगी लेकिन तरंगदैर्ध्य बढ़ेगी।

गुरुत्विय लाल विचलन की मात्रा, उस पिंड के घनत्व पर निर्भर है। घने पिंड जैसे श्वेत वामन(white dwarfs) तथा न्युट्रान तारों मे सामान्य तारों जैसे सूर्य की तुलना मे अधिक लाल विचलन होता है। ब्लैक होल(श्याम विवर) का गुरुत्विय लाल विचलन अनंत(infinite) होता है। इस तरह का लालविचलन दर्शाता है कि फोटान का द्रव्यमान होता है जोकि स्थिर द्रव्यमान (rest mass) नही है, बल्कि गुरुत्विय द्रव्यमान(gravitational mass)। यह आइंस्टाइन के साधारण सापेक्षतावाद सिद्धांत(Einstein’s General Relativity)का एक शास्त्रीय प्रायोगिक प्रमाण है।

गुरुत्विय लाल विचलन (Gravitational Redshift)

गुरुत्विय लाल विचलन (Gravitational Redshift)

3. ब्रह्मांडीय लाल विचलन( Cosmological Redshift)

ब्रह्मांडीय लाल विचलन वास्तविकता मे अंतरिक्ष के सतत विस्तार का परिणाम है। 1920 एडवीन हब्बल ने पाया था कि जो आकाशगंगा सूदूर अंतरिक्ष मे हमसे जितनी दूर है उतनी तेजी से हम से दूर जा रही है। इसे हब्बल का नियम कहते है। यह एक निरीक्षण किया हुआ नियम है और ब्रह्मांड के सतत विस्तार को प्रमाणित करता है। अंतरिक्ष अपने आप मे अपना विस्तार कर रहा है। यह एक तथ्य है कि दूरस्थ आकाशगंगाओं के वर्णक्रम ने ही हमे ब्रह्मांड के सतत विस्तार का प्रमाण दिया है, इस वर्णक्रम मे अत्याधिक लाल विचलन पाया गया है।

लेकिन हमे यह ध्यान रखना चाहिये कि स्थानीय डाप्लर लाल विचलन और ब्रह्मांडीय लाल विचलन मे अंतर है। दो आकाशगंगाओ मे मध्य सापेक्ष गति से ब्रह्मांडीय लाल विचलन उत्पन्न नही होगा। फोटान मे लाल विचलन उनके द्वारा सतत विस्तार कर रहे खगोलीय काल-अंतराल मे यात्रा से उत्पन्न हो रहा है। इस सतत विस्तार से दो एक दूसरे से दूर जा रही आकाशगंगाये प्रकाशगति से भी तेज एक दूसरे से दूर हो सकती है। लेकिन इसका अर्थ यह नही है कि वे विशेष सापेक्षतावाद(special relativity) का उल्लंघन कर रही है।

संक्षेप मे

लाल विचलन के तीन प्रकार

लाल विचलन के तीन प्रकार

इस शृंखला मे पहले : खगोलीय दूरी मापन : खगोलीय इकाई(AU), प्रकाशवर्ष(Ly) और पारसेक(Parsec)

लेखक का संदेश

आशा है कि इस लेख ने तीन तरह के लाल विचलन के मध्य अंतर स्पष्ट कर दिया होगा। सभी खगोलभौतिक वैज्ञानिक बनने वाले के लिये मेरा एक संदेश है, खगोलभौतिकी फ़ैंसी विज्ञान जैसे समय यात्रा, श्वेत विवर(white holes), वर्महोल या ब्लैक होल से यात्रा जैसा ही नही है। वास्तविक चित्र काफ़ी भिन्न है। खगोलभौतिकी एक ऐसा विषय है जिसमे आप ब्रह्मांड की किसी विशेष गतिविधि/प्रक्रिया को समझने के लिये भौतिकी के नियमो का प्रयोग करते है। यदि आप एक खगोल वैज्ञानिक बनना चाहते है तो सबसे पहले आप भौतिकी और गणित पर ध्यान केंद्रित किजिये। इस क्षेत्र मे सफ़लता के लिये स्पेक्ट्रोस्कोपी(Spectroscopy), विद्युतगतिकी(Electrodynamics), सांख्यकिय यांत्रिकी( Statistical Mechanics), सापेक्षतावाद(Theory of Relativity), प्रकाशिकी(Optics) तथा क्वांटम यात्रीकी (Quantum Mechanics) महत्वपूर्ण है। गगनचुंबी इमारत की नींव मजबूत होनी चाहीये।

मूल लेख : THREE TYPES OF REDSHIFTS & THEIR IMPORTANCE IN ASTROPHYSICS.

लेखक परिचय

लेखक : ऋषभ

Rishabh Nakra

Rishabh Nakra

लेखक The Secrets of the Universe (https://secretsofuniverse.in/) के संस्थापक तथा व्यवस्थापक है। वे भौतिकी मे परास्नातक के छात्र है। उनकी रूची खगोलभौतिकी, सापेक्षतावाद, क्वांटम यांत्रिकी तथा विद्युतगतिकी मे है।

Admin and Founder of The Secrets of the Universe, He is a science student pursuing Master’s in Physics from India. He loves to study and write about Stellar Astrophysics, Relativity, Quantum Mechanics and Electrodynamics.

 

ब्लैक होल का चित्र मानव इतिहास की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक क्यों है?

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लेखक : डॉ मेहेर वान

ब्लैक होल की प्रथम तस्वीर - अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने 10 अप्रैल २०१९ को ब्लैकहोल की पहली तस्वीर जारी की। आकाशगंगा एम87 में 53.5 मिलियन प्रकाश-वर्ष दूर मौजूद इस विशालकाय ब्लैक होल की तस्वीर जारी की गई है। वैज्ञानिकों ने ब्रसल्ज, शंघाई, तोक्यो, वॉशिंगटन, सैंटियागो और ताइपे में एकसाथ प्रेस वार्ता की और जिस दौरान इस तस्वीर को जारी किया गया।

ब्लैक होल की प्रथम तस्वीर – अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने 10 अप्रैल २०१९ को ब्लैकहोल की पहली तस्वीर जारी की। आकाशगंगा एम87 में 53.5 मिलियन प्रकाश-वर्ष दूर मौजूद इस विशालकाय ब्लैक होल की तस्वीर जारी की गई है। वैज्ञानिकों ने ब्रसल्ज, शंघाई, तोक्यो, वॉशिंगटन, सैंटियागो और ताइपे में एकसाथ प्रेस वार्ता की और जिस दौरान इस तस्वीर को जारी किया गया।

10 अप्रैल 2019 को जब “इवेंट होराइजन टेलेस्कोप” की टीम ने पहली बार ब्लैक होल का सच्चा चित्र प्रस्तुत किया तो पूरी दुनियाँ वैज्ञानिकों की इस उपलब्धि पर जोश ख़ुशी से झूम उठी। जिन्हें यह मालूम था कि कुछ ही समय में ब्लैक होल की सच्ची छवि दुनियाँ के सामने पेश की जाने वाली है वह बड़ी बेसब्री से वैज्ञानिकों की प्रेस कोंफ्रेंस का इंतज़ार कर रहे थे। ब्लैक होल की यह छवि कई कारणों से महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण थी। इस प्रयोग में आइन्स्टीन की “जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी” दांव पर लगी थी, साथ ही वह वैज्ञानिक ज्ञान भी दांव पर लगा था जो पिछले कई दशकों में ब्लैक होल से बारे में अर्जित किया गया था। ब्लैक होल की यह छवि जनता के सामने लाने से पहले वैज्ञानिकों ने लम्बे समय तक यह सुनिश्चित किया था कि उनके प्रयोगों और प्रक्रिया में कोई कमी तो नहीं रह गई। इस प्रक्रिया में पूरी दुनियां के वैज्ञानिक कई दशकों से लगे हुए थे। अतः जब वैज्ञानिक अपने प्रयोग और प्रक्रिया की सत्यता और त्रुटिहीनता के बारे सुनिश्चित हो गए तब यह छवि छः स्थानों पर प्रेस कोंफ्रेंस करके पूरी दुनिया के समक्ष प्रस्तुत की गई, ताकि प्रक्रिया में शामिल सभी वैज्ञानिकों और देशों को सफलता का पूरा क्रेडिट मिले। पूरी दुनियां की मीडिया ने इस घटना को प्रमुख खबर बनाया, क्योंकि यह मानव इतिहास की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक है।

लेकिन भारतीय मीडिया वैज्ञानिकों की इस महान उपलब्धि को समझ नहीं पाया। हाल ही में एक खबर सत्याग्रह/स्क्रोल  (दिनांक- 21 अप्रैल, 2019) की वेबसाईट पर (विज्ञान कहता है कि ब्लैक होल का कोई फोटो नहीं लिया जा सकता, तो फिर यह क्या है?)–  पर प्रकाशित की गई जिसमें ब्लैक होल की छवि वाली घटना को इस प्रकार पेश किया गया जैसे कि यह कोई वैज्ञानिक घोटाला हुआ हो। यह न सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि निंदनीय है और भारतीय मीडिया की छवि ख़राब करने वाला है। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि आँखें बंद करके ‘रात हो गई-रात हो गई’ चिल्लाने से सूरज की रौशनी ख़त्म नहीं हो जाती, लेकिन बेवकूफी ज़रूर जगजाहिर होती है।

यह मानव इतिहास की महानतम घटना क्यों है?

सन 1784 में अंग्रेज खगोलविद ‘जॉन मिशेल’ ने एक ऐसे तारे की परिकल्पना की जो कि इतना भारी और अधिक घनत्व वाला था कि अगर प्रकाश भी उसके करीब जाए तो वह इस तारे के चंगुल से बाहर नहीं आ सकता। यहाँ प्रकाश का उदाहरण इसलिए दिया जाता है कि प्रकाश का स्थायित्व में द्रव्यमान शून्य और गतिमान अवस्था में अत्यधिक सूक्ष्म होता है। प्रकाश से हल्की वस्तु की कल्पना नहीं की जा सकती। इसके बाद आइन्स्टीन ने 1915 में “जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी” की स्थापना की जिसका इस्तेमाल आज खगोलशास्त्र से लेकर अंतरिक्ष विज्ञान तक के तमाम विषयों को समझने में और उनका विश्लेषण करने में होता है। अनगिनत प्रयोगों और गणनाओं में आइन्स्टीन की “जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी” अब तक सही और सटीक साबित होती रही है। “जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी” आने के कुछ हो महीनों बाद वैज्ञानिक कार्ल स्वार्जचाइल्ड ने आइन्स्टीन के समीकरणों को हल करके कुछ नए निष्कर्ष निकाले। इन्हीं निष्कर्षों में ब्लैक होल के केंद्र से एक ऐसी दूरी का मान निकलता है जिसके अन्दर आइन्स्टीन के समीकरण काम नहीं करते। इसे वैज्ञानिक भाषा में सिंगुलारटी कहते हैं। बाद में इस दूरी को ‘स्वार्जचाइल्ड त्रिज्या’ कहा गया और इससे जो वृत्त बना उसे “इवेंट होराइजन” कहा गया। ऐसी गणनाएं की गईं कि ब्लैक होल ‘स्वार्जचाइल्ड त्रिज्या’ के तीन गुना दूरी से पदार्थ को और ‘स्वार्जचाइल्ड त्रिज्या’ की डेढ़ गुना दूरी से प्रकाश को अपनी और खींचकर निगल जाता है। इसके बाद पिछली सदी में सैद्धांतिक स्तर पर ब्लैक होल के बारे में बहुत साड़ी गणनाए की गईं जिनका मूल आधार आइन्स्टीन के समीकरण थे। चूँकि आइन्स्टीन से वह समीकरण खगोलविज्ञान और अन्तरिक्ष विज्ञान से लेकर विज्ञान की अन्य शाखों में इस्तेमाल हो रहे थे और सटीक साबित हो रहे थे इसलिए वैज्ञानिकों में उत्सुकता थी कि अगर उन्हें ‘इवेंट होराइजन’ नहीं दिखा तो आइन्स्टीन की “जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी” असफल हो जायेगी और पूरी भौतिकी में भूचाल आएगा। यह सब अब तक गणनाओं के स्तर पर ही था, इसलिए यहाँ एक सधे हुए सटीक प्रयोग की आवश्यकता थी जिसमें कुछ ठोस प्रमाण मिलें।

इस समस्या से निबटने के लिए विश्व भर के वैज्ञानिकों ने एक संगठन बनाया और एक साथ काम करने का निर्णय लिया।

इस वैज्ञानिक समस्या का विशालकाय होना

ब्लैक होल की छवि लेना की वैज्ञानिक समस्या कोई साधारण समस्या नहीं थी। इसमें कई ऊंचे स्तर की रुकावटें थीं, जिन्हें बिन्दुवार समझना चाहिए-

  1. ब्लैक होल की प्रकृति:

    वैज्ञानिक “इवेंट होराजन” देखना चाह रहे थे। इवेंट होराइजन वह जगह है जहां तक ब्लैक होल के आसपास प्रकाश पहुँच सकता है और ब्लैक होल द्वारा खींच नहीं लिया जाता। इस प्रकार यह प्रकाश ब्लैक होल को बाहर से एक तरह से ऐसे ढँक लेता है जैसे ब्लैक होल ने प्रकाश के कपडे पहन लिए हों। हालांकि ब्लैक होल को नहीं देखा जा सकता मगर इसके चारों और फैले प्रकाश की उन किरणों को देखा जा सकता है जो बस इवेंट होराइजन को छूकर निकल जाती हैं। अतः यह तय था कि ब्लैक होल को देखना संभव नहीं है मगर इवेंट होराइजन में प्रकाश से लिपटे हुए ब्लैक होल को देखना संभव है। इवेंट होराइजन के साथ ब्लैक होल की फोटो लेने का काम आसान नहीं था। इवेंट होराइजन में लिपटी प्रकाश किरणों को भी अपने टेलेस्कोप्स में समेट पाना आसान नहीं होता जिसे हम आगे समझेंगे।

  2.  ब्लैक होल की आकाश में स्थिति:

    सबसे पहले तो यह तय कर पाना आसान नहीं है कि ब्लैक होल कहाँ है? चूँकि यह प्रकाश को दबोच लेता है और हम किसी भी चीज को तब देख पाते हैं जब वह वस्तु प्रकाश को या तो उत्सर्जित करती है या परावर्तित करती है। ब्लैक होल की स्थिति जानने में ही वैज्ञानिकों को कई दशक लगे। अनेकों विशालकाय टेलेस्कोपों की सहायता से अनगिनत वैज्ञानिक पूरे आकाश की निगरानी रखते हैं। कई वर्षों तक एक गैलेक्सी में कई तारों का अध्ययन करने के बाद उन्हें पता चला कि वे तमाम तारे किसी ख़ास केंद्र बिंदु के चारों और चक्कर लगा रहे हैं जो कि चमकीला नहीं है। यह गैलेक्सी M87 थी। इसके तारे विशालकाय हैं। इतने भारी तारे खुद से कई गुना भारी पिंड के चारों और ही चक्कर लगा सकते हैं और वैज्ञानिकों ने गणना की कि यह ब्लैक होल होना चाहिए। इस तरह लम्बी और थकाऊ गणनाओं के बाद ब्लैक होल की संभव स्थिति पता चली।

  3. पृथ्वी से दूरी:

    गणनाओं और प्रयोगों के आधार पर यह पाया गया कि यह ब्लैक होल पृथ्वी से 5.5 करोड़ प्रकाशवर्ष दूर है। इस बात का मतलब यह है कि यह ब्लैक होल M87 गैलेक्सी में धरती से इतना दूर है कि प्रकाश को इससे धरती तक आने में 5.5 करोड़ वर्ष लग जाते हैं। इसका एक मतलब यह भी है हमने जिस प्रकाश के साथ इसकी छवि खींची है वह प्रकाश इस ब्लैकहोल से 5.5 करोड़ साल पहले चला था। मतलब जो छवि हमारे पास है वह इस ब्लैक होल की 5.5 करोड़ साल पुरानी फोटो है। यह तो हम सब जानते हैं कि दूर होते जाने पर वस्तुएं छोटी दिखाई देने लगती हैं। इसी प्रकार से यह ब्लैक होल भी पृथ्वी से बहुत दूर होने के कारण बहुत छोटा दिखाई दे रहा था। वैज्ञानिकों ने गणना की कि धरती से यह इतना छोटा दिखाई देता कि इसे देखने के लिए घरती के आकार के बराबर के दूरदर्शी की ज़रुरत पड़ती। धरती के आकार के बराबर का दूरदर्शी बना पाना मानव के हाथ से बाहर की बला है। वैज्ञानिक कई सालों तक यह सोचकर परेशान रहे की कि कैसे इस कठिनाई से पार पाया जाए। फिर वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यह बात सही है कि हम पृथ्वी के आकार का दूरदर्शी नहीं बना सकते लेकिन पूरी पृथ्वी पर जगह जगह लगे टेलेस्कोपों को एकजुट करके पृथ्वी के आकार का एक आभासी टेलेस्कोप बनाया जा सकता है। खगोल विज्ञान में यह तकनीक नयी नहीं है। भारत में ही गैलेक्सियों को देखने के लिए लगा GMRT यानी जाइंट मीटरवेव रेडियो टेलेस्कोप पूना के पास लगभग 25 किमी में फैला है, जिसमे छोटे छोटे कई टेलेस्कोप लगे हैं और उन सब टेलेस्कोपों को मिलाकर एक विशालकाय 25 किमी लम्बा टेलेस्कोप बनता है जो अन्तरिक्ष में दूरदूर तक फैले छोटे छोटे दिखने वाले पिंडों की फोटो खींचने में मदद करता है। इसमें कई टेलेस्कोपों से ली गई छवियों को एकसाथ मिलकर एक फोटो बनाई जाती है। यह एक पुरानी और पूरी तरह से स्थापित तकनीक है। हालांकि धरती जितने आभासी टेलेस्कोप के लिए कुछ अन्य तकनीकी कठिनाइयां थी जिन्हें दूर किया गया।

  4. टेलेस्कोप का डिजाइन:

    दुनिया के तमाम देशों के वैज्ञानिकों ने मिलकर दुनिया भर में फैले कई टेलेस्कोपों का एक समूह बनाया और उन्हें एक साथ सिंक्रोनाइज़ किया। एक और समस्या यह थी कि पृथ्वी तेज रफ़्तार से अपनी अक्ष पर घूमती है इसलिए छवियों में इस घूर्णन का प्रभाव भी ख़त्म करना था। इसके लिए वैज्ञानिकों ने कुछ दशक तक गणनाएं कीं ताकि प्रयोगों से त्रुटियों को हटाया जा सके। ख़ास समयों पर दुनियां भर के कई टेलेस्कोपों ने उस ख़ास बिंदु की फ़ोटोज़ लीं जहाँ ब्लैक होल होने की गणनाएं हुई थी। इस तरह कई हज़ार टेराबाईट का डेटा उत्पन्न हुआ। अब इस भारीभरकम डेटा को एक साथ मिलाकर देखने की बारी थी। इस डेटा को मिलाने का काम मैसच्यूसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी की कंप्यूटर साइंस की पीएचडी की छात्रा केटी बौमन ने किया। इसके लिए उन्हें एक अल्गोरिदम बनानी पड़ी। इस प्रक्रिया में वैज्ञानिकों में बहुत ख़ास ख्याल रखा कि वह कुछ ऐसी चीज़ न देख लें जो वह देखना चाह रहे थे बल्कि वह देखें जो कि वहां उपस्थित था। लम्बे संघर्ष के बाद जब वैज्ञानिक इस बात को लेकर तय हो गए कि सारे टेलेस्कोपों की मदद से ब्लैक होल रिंग ही बन सकती है तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा।

 

इसके अलावा तमाम तकनीकी और वैगानिक चुनैतिया वैज्ञानिको के समक्ष थीं जिन्हें आम जनता को समझाना बहुत मुश्किल है।

इस फोटो में एक प्रकाशिक अंगूठीनुमा आकार में काला केंद्र छुपा हुआ है। यह ठीक वैसे ही है जिसकी गणनाये वैज्ञानिक एक सदी से भी अधिक समय से कर रहे थे। इस छवि में साफ़ देखा जा सकता है कि प्रकाशिक इवेंट होराइजन में अंधकारमय ब्लैक होल छुपा हुआ है। हालांकि इस प्रक्रिया में तमाम बड़ी वैज्ञानिक रुकावटें थीं और ब्लैक होल की छवि उतारना असंभव माना जाता रहा लेकिन वैज्ञानिकों ने चतुराई से यह कर दिखाया। दुनिया भरके विद्वान इसे मानव जाति की सर्वकालिक सबसे बड़ी उपलब्धियों में गिन रहे हैं। विज्ञान का सर्वकालिक काम असंभव लगने वाली बात को संभव बनाना ही तो है। और चुनौती जितनी बड़ी हो जीत उतनी ही बड़ी मानी जाती है। अंततः: यह ब्लैक होल की पहली छवि है समय आने पर बेहतर छवियाँ भी हम मानव खींच पायेंगे ऐसा विश्वास है।

मूल लेख : https://a-timetraveller.blogspot.com/2012/12/2012_4579.html

लेखक का परिचय

डाक्टर मेहर वान IIT खड़गपुर के एडवांशड टेक्नालाजी सेंटर मे कार्यरत है।

वेबसाईट : https://meherwan.com/

 

खगोलीय निर्देशांक प्रणाली(CELESTIAL COORDINATE SYSTEMS)

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लेखिका:  सिमरनप्रीत (Simranpreet Buttar)

यदि आप कहीं जा रहे हों तो वहाँ पहुंचने के लिये आपके लिये क्या जानना सबसे महत्वपूर्ण क्या होगा ? उस स्थल का पता! खगोलभौतिकी मे हमे किसी भी पिंड की जानकारी ज्ञात करने के लिये, उस पिंड पर अपने उपकरणो को फ़ोकस करने के लिये हमे उस पिंड की स्थिति की जानकारी चाहीये। पृथ्वी पर किसी भी जगह की स्थिति जानने के निये हमे दो भौगोलिक निर्देशांक चाहीये होते है, जिन्हे हम अक्षांश(latitude) और देशांतर (longitude) निर्देशांक (coordinates)कहते है। अक्षांश(latitude) और देशांतर (longitude) निर्देशांक से हम पृथ्वी की सतह पर के किसी भी स्थल तक पहुंच सकते है। लेकिन यदि हमे गहन अंतरिक्ष मे किसी पिंड की स्तिथी जाननी हो तो ? इसके लिये हमे खगोलिय निर्देशांक प्रणाली(celestial coordinate) चाहीये।

इस शृंखला के सभी लेखों को आप इस लिंक पर पढ़ सकते है।

पृथ्वी पर हम अक्षांश और देशांतर से हम शहर, कस्बा और पर्वत जैसे स्थलो को खोज लेते है। इसी तरह से अंतरिक्ष मे किसी पिंड को खोजने के लिये खगोलिय निर्देशांक प्रणाली प्रयुक्त होती है। खगोलीय निर्देशांक प्रणाली खगोलशास्त्र और खगोलभौतिकी मे कई स्थानो पर प्रयोग की जाती है। ’मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला के सांतवे लेख मे हम भिन्न खगोलीय निर्देशांक प्रणालीयों के बारे मे जानेंगे।

खगोलीय गोला(Celestial Sphere) क्या है ?

खगोलीय निर्देशांक प्रणाली को समझने से पहले हमे खगोलीय गोला(Celestial Sphere) समझना होगा। जब भी हम उपर अंतरिक्ष मे देखते है तो सारे खगोलीय पिंड किसी विशालकाय काल्पनिक गोले की आंतरिक सतह पर दिखाई देते है, इस काल्पनिक गोले के केंद्र मे हम होते है। यह किसी प्लेनेटेरियम के डोम की छत पर चिपके कृत्रिम तारों के जैसे ही दिखाई देता है। यह विशाल काल्पनिक गोला ही खगोलीय गोला है।

खगोलीय गोला(Celestial Sphere)

खगोलीय गोला(Celestial Sphere)

अब आप निरीक्षक के उपर और नीचे की दिशा मे एक सीधी रेखा खींचे। यह रेखा इस खगोलीय गोले से दो बिंदुओं पर मिलेगी। निरीक्षक के सर के उपर वाला बिंदु शिरोबिंदु(Zenith) तथा नीचे वाला बिंदु अधोबिंदु(Nadir) कहलाता है। शिरोबिंदु और अधोबिंदु को जोड़ने वाली रेखा पर लंबवत प्रतल खगोलीय गोले को एक वृत्त के रूप मे काटता है, यह महाकाय वृत्त खगोलीय क्षितिज( Celestial horizon)कहलाता है)

विस्तृत खगोलीय गोला(Celestial Sphere)

विस्तृत खगोलीय गोला(Celestial Sphere)

अब निरीक्षक को पार करती हुई पृथ्वी के घूर्णन अक्ष(rotational axis) के समांतर एक रेखा खींचीये, यह रेखा भी खगोलीय गोले से दो बिंदुओं पर मिलेगी। क्षितिज के उपर वाला कटाव बिंदु उत्तरी खगोलीय बिंदु(North Celestial point) तथा नीचे वाला दक्षिणी खगोलीय बिंदु कहलाता है। दोनो बिंदुओ को अपने ध्रुव पर समाविष्ट करने वला महा वृत्त खगोलीय विषुवत(celestial equator) कहलाता है। पृथ्वी के विषुवत का प्रतल(plane) तथा खगोलीय विषुवत का प्रतल समान है। शिरोबिंदु, अधोबिंदु तथा खगोलीय ध्रुवों से गुजरने वाला महाकाय वृत्त मध्याह्न(Meridian) वृत्त कहलाता है।

संपूर्ण वर्ष मे सूर्य के आभासी पथ के द्वारा बनने वाला महाकाय वृत्त क्रांतिवृत्त(ecliptic) कहलाता है। क्रांतिवृत्त विषुवत को दो बिंदुओ पर काटता है जिसे विषुव बिंदु(equinoctial) कहते है। जब सूर्य उत्तर से दक्षिण की ओर जाते हुये विषुवत को जिस बिंदु पर काटता है उसे मेष की प्रथम बिंदु(First Point of Aries) कहते है। विषुवत को काटने वाला दूसर बिंदु तुला का प्रथम बिंदु (First point of Libra)कहते है।

तीन भिन्न खगोलीय निर्देशांक प्रणालीयाँ

अब हम तीन भिन्न निर्देशांक प्रणाली समझने की स्थिति मे हैं।

क्षैतिज निर्देशांक प्रणाली(उन्नतांश तथा दिगंश (Altitude and Azimuth))

मान लिजिये शिरोबिंदु Z है तथा A किसी तारे की स्तिथि है। अब यदि हम एक वृत्त ZAX बनाये तब खगोलीय गोले मे इस तारे की स्थिति को हम चाप(arc) NX, चाप ZA या चाप ZA तथा कोण NZA से परिभाषित कर सकते है। महा वृत्त ZAX का चाप AX उस तारे की क्षितिज से कोणीय दूरी(angular distance) दिखा रहा है जिसे हम उन्नतांश((Altitude) कहते है। चाप ZA उस तारे की शिरोबिंदु दूरी (Zenith distance) है। चाप NX जो उत्तरी बिंदु और तारे को समाये हुये महावृत के नीचे है, या कोण NZA जो कि मध्याह्न(Meridian) तथा मह वृत्त के मध्य है, तारे का दिगंश(Azimuth) कहलाता है। इसे उत्तरी बिंदु से पूर्व की ओर या पश्चिम की ओर मापा जाता है।

क्षैतिज निर्देशांक प्रणाली(उन्नतांश तथा दिगंश (Altitude and Azimuth))

क्षैतिज निर्देशांक प्रणाली(उन्नतांश तथा दिगंश (Altitude and Azimuth))

विषुवतीय प्रणाली(दायाँ आरोहण तथा दिक्पात (Right Ascension and Declination))

यदि हम तारे को पार करते हुये एक महावृत्त PAM बनाये तो उस तारे की स्तिथि को हम चाप PA, कोण QPA या चाप QM या कोण QPA से परिभाषित कर सकते है। चाप PA को तारे का उत्तरी ध्रुव दूरी कहते है, साथ मे चाप AM से उस तारे की विषुवत से कोणीय दूरी मिलती है जिसे उस तारे का दिक्पात(Declination) कहते है।

दिक्पात(Declination) का मूल्य धनात्मक या ऋणात्मक हो सकता है जो कि क्रमश: उस तारे विषुवत के उत्तर या दक्षिण पर होने पर निर्भर है। महावृत्त PAM उस तारे का दिक्पात(Declination) वृत्त कहलाता है। उस तारे का दायाँ आरोहण(R.A.) विषुवत चाप YM है जोकि मेष के प्रथम बिंदु तथा दिक्पात वृत्त के अधोबिंदु पर है।
मेष का प्रथम बिंदु की दैनिक गति और तारे की दैनिक गति समान होती है, इसलिये दैनिक गति मे तारे का RA और दिक्पात परिवर्तित नही होता है।

विषुवतीय प्रणाली(दायाँ आरोहण तथा दिक्पात (Right Ascension and Declination))

विषुवतीय प्रणाली(दायाँ आरोहण तथा दिक्पात (Right Ascension and Declination))

क्रांतिवृत्त प्रणाली (खगोलीय अक्षांश(latitude) और देशांतर (longitude) निर्देशांक)

यदि क्रांतिवृत्त के ध्रुव और तारे के द्वारा महावृत्त बनाया जाये तो उस तारे की क्रांतिवृत्त से इस महावृत्त के साथ मापी जाने वाली कोणीय दूरी उस तारे का खगोलीय अक्षांश होगी। क्रांतिवृत्त पर मेष के प्रथम बिंदु और महावृत्त के अधोबिंदु के मध्य के चाप को खगोलीय देशांतर (longitude) निर्देशांक कहते है। दैनिक गति के दौरान किसी तारे का खगोलीय अक्षांश(latitude) और देशांतर (longitude) परिवर्तित नही होता है। किसी तारे का खगोलीय अक्षांश तारे की विषुवत के उत्तर मे या दक्षिण मे होने के आधार पर धनात्मक या ऋणात्मक हो सकता है। जबकि देशांतर शून्य से 360 डीग्री के मध्य हो सकता है, यह मापन पूर्व की ओर होता है।

क्रांतिवृत्त प्रणाली (खगोलीय अक्षांश(latitude) और देशांतर (longitude) निर्देशांक

क्रांतिवृत्त प्रणाली (खगोलीय अक्षांश(latitude) और देशांतर (longitude) निर्देशांक

लेखिका का संदेश

आशा है कि इस लेख ने खगोलीय निर्देशांक के बारे मे मूलभूत जानकारी उपलब्ध कराई होगी। यह लेख समझने मे थोड़ा कठीन हो सकता है लेकिन खगोलशास्त्र के लिये अत्यावश्यक है।

मूल लेख : THE THREE TYPES OF CELESTIAL COORDINATE SYSTEMS.

इस शृंखला मे इससे पहले : स्टीफ़न का नियम और उसका खगोलभौतिकी मे महत्व

लेखक परिचय

सिमरनप्रीत (Simranpreet Buttar)
संपादक और लेखक : द सिक्रेट्स आफ़ युनिवर्स(‘The secrets of the universe’)

लेखिका भौतिकी मे परास्नातक कर रही है। उनकी रुचि ब्रह्मांड विज्ञान, कंडेस्ड मैटर भौतिकी तथा क्वांटम मेकेनिक्स मे है।

Editor at The Secrets of the Universe, She is a science student pursuing Master’s in Physics from India. Her interests include Cosmology, Condensed Matter Physics and Quantum Mechanics


खगोलभौतिकी मे परिमाण (MAGNITUDE) की अवधारणा

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लेखक : ऋषभ

जब हम आकाश मे देखते है तो हम भिन्न आकाशीय पिंडो को देखते है। इनमे से कुछ(सूर्य और चंद्रमा) अत्याधिक चमकदार है जबकि कुछ अन्य(धुंधले तारे, निहारिका) नग्न आंखो से मुश्किल से ही दिखाई देते है। किसी पिंड की चमक बहुत से कारको पर निर्भर होती है। किसी पिंड से दूरी निश्चय ही एक महत्वपूर्ण कारक है, लेकिन किसी पिंड की चमक मे उस के द्वारा उत्सर्जित ऊर्जा की मात्रा का सबसे बड़ा योगदान होता है। इसका अर्थ यह है कि पिंडो को उनकी चमक के आधार पर वर्गीकरण की भी कोई अवधारणा अवश्य होगी। ’मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला के आंठवे लेख मे हम परिमाण(MAGNITUDE) की अवधारणा को जानेंगे।

इस शृंखला के सभी लेखों को आप इस लिंक पर पढ़ सकते है।

आगे बढ़ने से पहले हम इस तथ्य पर जोर डालना चाहेंगे कि परिमाण(MAGNITUDE) की अवधारणा महत्वपूर्ण है, यह ना केवल खगोलभौतिक विज्ञानियों के लिये महत्वपूर्ण है, साथ ही यह आकाश मे नजरे गढ़ाये रखने वाले शौकीया खगोलशास्त्रीयों के लिये भी महत्वपूर्ण है। इस लेख मे हम खगोलशास्त्रीयों द्वारा प्रयुक्त परिंमाणो को जानेंगे ?

खगोलभौतिकी मे परिमाण(Magnitude) क्या है?

सामान्यत: परिमाण का अर्थ किसी चीज का संख्यात्मक मूल्य होता है। उदाहरण के लिये यदि हम 40 किमी/घंटा पूर्व की ओर गति की को लेते है। यह एक सदिश मूल्य है, इसमे परिमाण और दिशा दोनो है। गति का परिमाण 40 है और दिशा पूर्व की ओर है। लेकिन खगोलभौतिकी मे परिमाण की अवधारणा गति जैसी सदिश राशीयो से भिन्न है। खगोलभौतिकी मे परिमाण का अर्थ है किसी पिंड द्वारा संपूर्ण विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम मे कुल उत्सर्जित ऊर्जा का मूल्य। सरल शब्दो मे परिमाण का अर्थ किसी पिंड की चमक या दीप्ती होता है।

परिमाण के प्रकार

खगोल भौतिकी मे तीन मुख्य प्रकार के परिमाण होते है। हर प्रकार का अपना प्रयोग और महत्व है।

आभासी परिमाण/सापेक्ष कांतिमान (Apparent Magnitude)

किसी पिंड का सापेक्ष कांतिमान पृथ्वी से किसी पिंड की दिखाई देने वाली चमक/दीप्ती/कांति को परिभाषित करने वाली संख्या है, इसकी कोई इकाई नही है। सापेक्ष कान्तिमान को मापने के लिए यह शर्त होती है कि आकाश में कोई बादल, धूल, वगैरा न हो और वह वस्तु साफ़ देखी जा सके। इस अवधारणा को समझने के लिये हमे इतिहास मे झांकना होगा और इसकी जड़ो को खोजना होगा।

खगोलशास्त्री विलियम हर्शेल( William Herschel)

खगोलशास्त्री विलियम हर्शेल( William Herschel)

ईसा पूर्व दूसरी सदी मे हिप्पारकस(Hipparchus) ने तारों का उनकी चमक के आधार पर वर्गीकरण किया और उन्होने 1000 तारों को छः वर्गो मे बांटा। इसके वर्ग 1 मे सबसे चमकीले तारे थे, वर्ग 2 मे वर्ग एक से कम चमकीले तारे थे, और इस तरह चमक के घटते क्रम मे वर्ग छः मे सबसे धूंधले तारे थे। ईसा के बाद दूसरी सदी मे टालेमी(Ptolemy) मे इसी आधार पर तारों का अपना स्वयं का वर्गीकरण किया। 1830 मे खगोलशास्त्री विलियम हर्शेल( William Herschel) ने पाया कि वर्ग 1 के तारे वर्ग 6 के तारों से 100 गुणा अधिक दीप्ती रखते है। 1856 मे एन आर पोगसन(N R Pogson) ने तारों की दीप्ती को मापने के लिये एक नया पैमाना बनाया जिसमे दो क्रमिक वर्ग के मध्य दीप्ती का अनुपार समान था।

इसका निश्कर्ष यह निकला कि प्रथम परिमाण वाले तारे द्वितिय परिमाण वाले तारों से 2.5 गुणा अधिक चमकदार है और यही अनुपात अगले क्रमिक वर्गो मे है। इस तरह से छठा वर्ग प्रथम वर्ग से 100 गुणा कम चमकदार है। 100 का पांचवा मूल 2.5 है। गणितिय रूप से यदि B(m) तथा B(n) दो तारों की दीप्ती है जिनका परिमाण m तथा n ( n>m ) है तो

B(m)/B(n) = (2.5) n-m

यह समीकरण एक महतपूर्ण तथ्य बताता है। इस समीकरण के अनुसार अधिक चमकदार पिंड का परिमाण उतना ही कम होगा। इसका अर्थ है कि -4 परिमाण वाले पिंड की दीप्ती +2 परिमाण वाले पिंड से अधिक होगी।
उदाहरण

सूर्य का निरपेक्ष कांतिमान(आभासी परिमाण) -26.74 है और रात्रि आकाश मे सबसे अधिक चमकदार तारे का-1.74। अब इस समीकरण के अनुसार सूर्य रात्रि आकाश के सबसे अधिक चमकदार तारे(लुब्धक/सीरीअस) से 10 अरब गुणा अधिक दीप्तीमान है। निम्न चित्र इस अवधारणा को स्पष्ट करती है।

मानव आंखो
से दृष्य
सापेक्ष कांतिमान वेगा( Vega) के सापेक्ष दीप्ती सापेक्ष कांतिमान
से अधिक चमक वाले
तारों की संख्या
हाँ −1.0 251% 1 (Sirius)
0.0 100% 4
1.0 40% 15
2.0 16% 48
3.0 6.3% 171
4.0 2.5% 513
5.0 1.0% 1602
6.0 0.4% 4800
6.5 0.25% 9100[3]
नही 7.0 0.16% 14000
8.0 0.063% 42000
9.0 0.025% 121000
10.0 0.010% 340000

 

निरपेक्ष परिमाण(कांतिमान)/Absolute Magnitude

आभासी परिमाण/सापेक्ष कांतिमान उस पिंड की अपनी चमक या उस पिंड द्वारा प्रतिसेकंड उत्सर्जित कुल ऊर्जा पर निर्भर है। इसके अतिरिक्त यह उस पिंड की दूरी पर भी निर्भर करता है। लेकिन खगोलीय पैमाने पर दूरी मे अत्याधिक परिवर्तन होता है जिससे किसी खगोलीय पिंड का निरपेक्ष परिमाण उस पिंड की वास्तविक चमक या दीप्ती नही दर्शाता है। उदाहरण के लिये सूर्य और लाल महादानव तारे बीटलगुज को लेते है। सूर्य का निरपेक्ष कांतिमान -26.74 है जबकि बीटलगुज का +0.50। इसका अर्थ यह है कि उपरोक्त सूत्र के अनुसार सूर्य को बीटलगुज से 69 अरब गुणा अधिक चमकदार होना चाहीये। जबकि वास्तविकता यह है कि बीटलगुज सूर्य से 100,000 गुणा अधिक चमकदार है। इसलिये दीप्ती मापन के लिये एक नई पद्धिति निरपेक्ष परिमाण/कांतिमान(Absolute Magnitude) की आवश्यता महसूस हुई। निरपेक्ष कांतिमान किसी खगोलीय वस्तु के अपने चमकीलेपन को कहते हैं।

निरपेक्ष कांतिमान की अवधारणा मे हम खगोलीय पिंड की दूरी को एक मानक दूरी पर स्थिर कर देते है। यह चूनी हुई दूरी 10 पारसेक(32.6 प्रकाशवर्ष) है। किसी तारे के निरपेक्ष कांतिमान की बात हो रही हो तो यह देखा जाता है कि यदि देखने वाला उस तारे के ठीक 10 पारसैक की दूरी पर होता तो वह कितना चमकीला लगता। हम भिन्न खगोलीय पिंडो को इस दूरी पर रख कर उनकी दीप्ती के मध्य तुलना करते है।

गणितिय रूप से यदि m किसी पिंड का सापेक्ष कांतिमान है ,M उसका निरपेक्ष कांतिमान है तथा उसकी पृथ्वी से दूरी d हो तो,

m – M = 5 log (d) – 5

अवश्य पढ़े: खगोलीय दूरी मापन : खगोलीय इकाई(AU), प्रकाशवर्ष(Ly) और पारसेक(Parsec)

परिमाण m – M केवल दूरी पर निर्भर करता है इसलिये इसे दूरी माप(distance modulus) माप कहलाता है। यह सूत्र किसी पिंड के निरपेक्ष कांतिमान, सापेक्ष कांतिमान और हम से दूरी के मध्य के संबध को दर्शाता है।

अधिकतर तारों का निरपेक्ष कांतिमान -20 से + 10 के मध्य होता है। सूर्य का निरपेक्ष कांतिमान +4.8 है जो उसे तारों की जनसंख्या मे एक औसत तारा बनाता है।

फोटोग्राफ़िक परिमाण(Photovisual Magnitude)

जब हम तारों को आंखो से देखते है तब उसका परिमाण दृश्य परिमाण होता है। लेकिन हमारी आंखो का दृष्टिपटल विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम के एक बड़े भाग को महसूस नही कर पाता है। लेकिन एक तारे का चित्र हम अलग अलग फ़िल्टर लगा कर ले सकते है और इस तरह से प्राप्त परिमाण को हम फोटोग्राफ़िक परिमाण कहते है।

बोलोमेट्रीक परिमाण(Bolometric Magnitude)

अब तक हमने जितने भी परिमाणो की चर्चा की है वे खगोलीय वर्णक्रम के एक चुनिंदा भाग पर ही निर्भर करते है। किसी पिंड की दीप्ती को यदि विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम के समस्त पट्टे पर मापा जाये तो प्राप्त परिमाण बोलोमेट्रीक परिमाण कहलाता है।

लेकिन हमारे पास कोई ऐसा अकेला उपकरण नही है जो खगोलीय वर्णक्रम के सभी भागो के लिये संवेदी हो जिससे किसी अन्य परिमाण को बोलोमेट्रीक परिमाण मे रूपांतरित करने कुछ सुधार करने होते है। विशेष रूप से बोलोमेट्रीक परिमाण और फोटोग्राफ़िक परिमाण के मध्य का अंतर बोलोमेंट्रीक सुधार (Bolometric correction (BC)) कहलाता है।

सूर्य का बोलोमेट्रिक सुधार -0.11 है (यह हमेशा ऋणात्मक होगा)। इस परिमाण का महत्व इस उदाहरण से स्पष्ट हो जायेगा। ग्वाला तारामंडल(Boötes constellation) मे एक महाकाय नारंगी स्वाति(Arcturus) तारा है। यह तारा सूर्य से 110 गुणा अधिक चमकदार है लेकिन अवरक्त(infrared) वर्णक्रम मे यह सूर्य से 180 गुणा अधिक चमकदार है। इसलिये स्वाति तारे का कुल (बोलोमेट्रीक) ऊर्जा उत्पादन उसके आभासी ऊर्जा उत्पादन से कहीं अधिक है।

लेखक का संदेश

सबसे पहले मै सभी पाठक को इस शृंखला के लिये दीये जा रहे उत्साहजनक प्रतिसाद के लिये धन्यवाद देता हुं। हमारी टीम की मेहनत के प्रतिफ़ल से हम खुश है। अब हम खगोलभौतिकी की अवधारणाओं मे गहरा गोता लगाने जा रहे है। अब तक हम इस क्षेत्र के मूलभूत उपकरणो और अवधारणाओं की जानकारी प्राप्त की है। खगोलभौतीकी मे परिमाण की अवधारणा समझना महत्वपूर्ण है। इसके बाद हम आने वाले लेखो मे तारकीय खगोलभौतिकी (Stellar Astrophysics) की यात्रा आरंभ करेंगे। यह एक खूबसूरत विषय है। अब हम देखेंगे कि तारो का जन्म कैसे होता है, उनका जीवन चक्र क्या होता है, उनकी संरचना कैसी होती है और उनकी मृत्यु किसी श्वेत वामन तारे, न्युट्रान तारे या ब्लैक होल के रूप मे कैसे होती है। इस लेख शृंखला से जुड़े रहीये, इस शृंखला मे बहुत कुछ बाकि है।

इस शृंखला मे इससे पहले : खगोलीय निर्देशांक प्रणाली(CELESTIAL COORDINATE SYSTEMS)
मूल लेख : UNDERSTANDING THE CONCEPT OF MAGNITUDE IN ASTROPHYSICS

लेखक परिचय

लेखक : ऋषभ

Rishabh Nakra

Rishabh Nakra

लेखक The Secrets of the Universe के संस्थापक तथा व्यवस्थापक है। वे भौतिकी मे परास्नातक के छात्र है। उनकी रूची खगोलभौतिकी, सापेक्षतावाद, क्वांटम यांत्रिकी तथा विद्युतगतिकी मे है।

Admin and Founder of The Secrets of the Universe, He is a science student pursuing Master’s in Physics from India. He loves to study and write about Stellar Astrophysics, Relativity, Quantum Mechanics and Electrodynamics.

तारों का वर्णक्रम के आधार पर वर्गीकरण (SPECTRAL CLASSIFICATION)

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लेखक : ऋषभ

यह लेख ’मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला मे नंवा लेख है और अब तक की यात्रा रोचक रही है। हमने एक सरल प्रश्न से आरंभ किया था कि खगोलभौतिकी क्या है? इसके पश्चात हमने इस क्षेत्र मे प्रयुक्त होने आधारभूत उपकरणो और तकनीकी शब्दो, दूरी की इकाईयों, खगोलीय निर्देशांक प्रणाली, परिमाण(magnitud) की अवधारणा, विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम का महत्व तथा लाल विचलन(redshifts) के प्रकारों को समझा। अब हम इस विषय की गहराईयों के गोता लगाने के लिये तैयार है और अब हम समझेंगे कि ब्रह्मांड कैसे कार्य करता है। इस लेख मे हम तारकीय खगोलभौतिकी(Stellar Astrophysics) की यात्रा आरंभ करेंगे जो कि खगोलशास्त्र मे सबसे ज्यादा अध्ययन कीया जाने वाला विषय है। इस नवम लेख मे हम समझेंगे कि ब्रह्मांड के अरबो खरबो तारों को हम केवल सात वर्गो मे समेट लेते है, अर्थात तारों का वर्गीकरण कैसे होता है।

इस शृंखला के सभी लेखों को आप इस लिंक पर पढ़ सकते है।

यूरोपीयन अंतरिक्ष संस्थान (European Space Agency (ESA)) के अनुसार ब्रह्मांड मे लगभग 1 ट्रिलियन ट्रिलियन(1024) तारे है। यह एक ऐसी संख्या है जिसका मानव की तकनीकी क्षमता मे बढ़ोत्तरी और गहन अंतरिक्ष मे अन्वेषण के साथ बढ़ना तय है। लेकिन क्या हमारे पास इन ब्रह्माण्ड के इन तारों के वर्गीकरण की कोई प्रणाली है ? इसका उत्तर है हाँ मे है! मार्गन कीनन वर्ग्रीकरण प्रणाली(The Morgan Keenan Classification System) जो कि पुरानी वर्गीकरण प्रणाली हार्वर्ड प्रणाली(Harvard System) तथा येर्कीस प्रणाली(Yerkes System) का संगम है। इन प्रणालीयों को विस्तार से देखते है।

तारों का वर्णक्रम के आधार पर वर्गीकरण

हार्वर्ड वर्गीकरण प्रणाली(Harvard Classification System)

हार्वर्ड वर्गीकरण प्रणाली एक विमा वाली वर्गीकरण प्रणाली है जिसमे तारों को सात मुख्य वर्गो मे वर्णक्रम के आधार पर रखा जाता है। यह वर्गीकरण तारे की सतह के तापमान पर आधारित है। इसके सात वर्ग सात अल्फ़ाबेट से निर्देशित होते है जो कि उष्ण से शीतलता की ओर है, O, B, A, F, G, K तथा M। O वर्ग का तारा उष्णतम होता है जिसकी सतह का तापमान लगभग 50,000 K होता है जबकि एक M वर्ग का तारा शीतलतम होता है जिसकी सतह का तापमान केवल2,500 K होता है। इन तारो का रंग भी उनके सतह के तापमान के अनुसार होता है जोकि नीचे दिये चित्र मे दर्शाया गया है।

हार्वर्ड वर्गीकरण प्रणाली(Harvard Classification System)

हार्वर्ड वर्गीकरण प्रणाली(Harvard Classification System)

इस वर्गीकरण को याद रखने का सबसे आसान उपाय नीचे दिया गया सूत्र है।

Oh Boy, A Funny Girl Kicked Me.

इस वर्गीकरण मे हर वर्ग से संबधित तापमान सीमाये नीचे दी है।

  • O: ≥ 30,000 K
  • B: 10,000–30,000 K
  • A: 7,500–10,000 K
  • F: 6,000–7,500 K
  • G: 5,200–6,000 K
  • K: 3,700-5200 K
  • M: 2,400–3,700 K

 

वर्ग प्रभावी तापमान औपचारिक रंग आभासी रंग मुख्य अनुक्रम द्रव्यमान
(सौर द्रव्यमान)
मुख्य अनुक्रम्र त्रिज्या(सौर त्रिज्या) मुख्य अनुक्रम दीप्ती(बोलोमेट्रीक) हाइड्रोजन रेखायें मुख्य अनुक्रम का अनुपात]
O ≥ 30,000 K नीला नीला ≥ 16 M ≥ 6.6 R ≥ 30,000 L कमजोर ~0.00003%
B 10,000–30,000 K नीला श्वेत गहरा नीला श्वेत 2.1–16 M 1.8–6.6 R 25–30,000 L मध्यम 0.13%
A 7,500–10,000 K श्वेत नीला श्वेत 1.4–2.1 M 1.4–1.8 R 5–25 L मजबूत 0.6%
F 6,000–7,500 K पीला श्वेत श्वेत 1.04–1.4 M 1.15–1.4 R 1.5–5 L मध्यम 3%
G 5,200–6,000 K पीला पीलापन लिये श्वेत 0.8–1.04 M 0.96–1.15 R 0.6–1.5 L कमजोर 7.6%
K 3,700–5,200 K हल्का संतरा हल्का पीला संतरा 0.45–0.8 M 0.7–0.96 R 0.08–0.6 L बहुत कमजोर 12.1%
M 2,400–3,700 K संतरा लाल हल्का संतरा लाल 0.08–0.45 M ≤ 0.7 R ≤ 0.08 L बहुत कमजोर 76.45%

अब इन मुख्य वर्गो के अंदर दस उपवर्ग है जिन्हे 0-9 से निर्देशित किया जाता है। इसमे भी छोटी संख्या अधिक तापमान को दर्शाती है। इसलिये K0 वर्ग का तारा K7 तारे से उष्ण होता है। खगोलशास्त्र मे औपचारिक रंहो का प्रयोग परम्परागत है और ये रंग A वर्ग के तारों के रंग के सापेक्ष होते है जिसे श्वेत माना जाता है। इन आभासी रंग का निर्धारण का आधार किसी निरीक्षक द्वारा गहरे आकाश मे नंगी आंखो से तारे के निरीक्षण मे दिखाई देने वाले रंग पर है।

येरकिस वर्गीकरण प्रणाली(Yerkes Classification System)

किसी तारे को उसकी सतह के तापमान के आधार पर एक अल्फ़ाबेट वर्ग दे देना काफ़ी नही है। तारे विभिन्न आकारों मे आते है और वे अपने जीवन के विभिन्न चरणो मे होते है। इसमे मुख्य अनुक्रम(Main Sequences) के तारे होते है जो अब भी अपने केंद्रक मे हाईड्रोजन के संलयन से हिलियम का निर्माण कर रहे होते है और दूसरी ओर श्वेत वामन होते है जिनका जीवन समाप्त हो चुका होता है। इसलिये हमे इनके वर्गीकरण के लिये एक और कारक चाहीये होता है, यह कारक है उनकी दीप्ती।

खगोलभौतिकी मे दीप्ती का अर्थ प्रति सेकंड कुल ऊर्जा का उत्पादन होता है। घने तारे जिनकी अधिक सतह पर अधिक गुरुत्वाकर्षण होता है, उनके वर्णक्रम मे की गहरी रेखाये गुरुत्विय दबाव मे अधिक फ़ैली होती है। किसी महाकाय तारे की सतह पर श्वेत वामन तारे की तुलना मे गुरुत्वाकर्षण कम होता है जिससे उत्पन्न दबाव भी कम होता है। ऐसा इसलिये कि समान द्रव्यमान वाले महाकाय(giant) तारे की त्रिज्या वामन(dwarf) तारे से अधिक होती है। इसलिये वर्णक्रम मे अंतर को दीप्ती के प्रभाव को माना जा सकता है और तारे को उसके वर्णक्रम के विश्लेषण के आधार पर एक दीप्ती वर्ग(luminosity class) दिया जा सकता है। दीप्ती वर्ग(luminosity class) और उसका विवरण नीचे दिया है :

  • 0 or Ia(+): अतिमहादानव (hypergiants) या अत्याधिक चमकीले महाकाय तारे(super giants)
  • Ia: दीप्तीमान महादानव(supergiants)
  • Iab: मध्यम आकार वाले दीप्तीमान महादानव(intermediate-size luminous supergiants)
  • Ib: निम्न दीप्तीमान महादानव(less luminous supergiants)
  • II: दीप्तीमान दानव( giants)
  • III: सामान्य दानव( giants)
  • IV: अर्धदानव(subgiants)
  • V: मुख्य अनुक्रम(Main Sequence)
  • sd: अर्धवामन(sub-dwarfs)
  • D: श्वेत वामन

यह वर्गीकरण तारे के वर्णक्रम के आधार पर है। इस शृंखला के दूसरे लेख मे हमने कहा था कि

“किसी खगोलवैज्ञानिक के हाथो मे ब्रह्मांड के रहस्यो को अनावृत्त करने के लिये विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम सबसे महत्वपूर्ण उपकरण है।”

अब आप इस वाक्य को प्रयोग मे देख सकते है ।

मार्गन कीनन वर्णक्रम आधारित वर्गीकरण(Morgan Keenan Spectral Classification of Stars)

यह वर्गीकरण हार्वर्ड प्रणाली और येरेकेस दीप्ती वर्गीकरण प्रणाली का समिश्रण है और मार्गन कीनन वर्णक्रम आधारित वर्गीकरण वर्तमान मे सबसे अधिक प्रयुक्त प्रणाली है। इसमे हर तारे को उसकी सतह के तापमान के आधार पर वर्णक्रम वर्ग (spectral class) तथा उसकी दीप्ती(सतह के गुरुत्वाकर्षण) के आधार पर दीप्ती वर्ग(luminosity class) दिया जाता है। हमारा सूर्य इस वर्गीकरण के आधार G2V वर्ग का है। इसकी सतह का तापमान 5,900 K (G वर्ग) तथा यह वर्तमान मे हायड्रोजन के संलयन से हिलियम बना रहा है अर्थात मुख्य अनुक्रम (V) का तारा है। मार्गन कीनन से ब्रह्माण्ड के सभी तारो को एक ही चित्र मे समेटा जा सकता है जिसे हर्टजस्प्रंग रस्सेल(Hertzsprung Russell) चित्र कहते है।

हर्टजस्प्रंग रस्सेल(Hertzsprung Russell)

हर्टजस्प्रंग रस्सेल(Hertzsprung Russell)

लेखक का संदेश

तारों का वर्णक्रम आधारित वर्गीकरण और हर्टजस्प्रंग रस्सेल(Hertzsprung Russell) चित्र तारकीय खगोलभौतीकी(Stellar Astrophysics) की आधारभूत अवधारणा है। तारों की समस्त कहानी इन्ही दो अवधारणाओं के आसपास घूमती है। यह लेख तारकीय खगोलभौतिकी को समझने मे काफ़ी महत्वपूर्ण है। वर्तमान मे खगोलभौतिकी के नाम पर अधिकतर लोग वर्महोल से यात्रा, ब्लैक होल, श्वेत विवर(white hole), समय यात्रा , श्याम पदार्थ(dark matter) की ही बात करते है। लेकिन वास्तविकता मे, खगोलभौतिकी इन सब विषयो से बहुत अधिक है। इस शृंखला को लिखने का यदि मुख्य उद्देश्य है। हम चाहते है कि आप इस क्षेत्र के इन गहरे विषयों को समझे, उन सिद्धांतो को समझे जिनके बारे मे अधिकतर लोग चर्चा नही करना चाहते है। हम अपने युवा मित्रो को बताते है कि यदि आपको खगोलभौतिक वैज्ञानिक बनना है तो आपको स्पेक्ट्रोस्कोपी(Spectroscopy), विद्युत गतिकी(Electrodynamics), सांख्ययिकीय यांत्रिकी(Statistical Mechanics), क्वांटम यांत्रिकी(Quantum Mechanics), प्रकाशिकी(Optics) और नाभिकिय भौतीकी(Nuclear Physics) मे महारत हासिल करना होगा।

मूल लेख : THE SPECTRAL CLASSIFICATION OF STARS

लेखक परिचय

लेखक : ऋषभ

Rishabh Nakra

Rishabh Nakra

लेखक The Secrets of the Universe के संस्थापक तथा व्यवस्थापक है। वे भौतिकी मे परास्नातक के छात्र है। उनकी रूची खगोलभौतिकी, सापेक्षतावाद, क्वांटम यांत्रिकी तथा विद्युतगतिकी मे है।

Admin and Founder of The Secrets of the Universe, He is a science student pursuing Master’s in Physics from India. He loves to study and write about Stellar Astrophysics, Relativity, Quantum Mechanics and Electrodynamics.

खगोल भौतिकी 10 : मेघनाद साहा का समीकरण और महत्व

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लेखिका याशिका घई(Yashika Ghai)

मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला के इस लेख मे हम आज एक आधारभूत गणितीय उपकरण की चर्चा करेंगे। इस उपकरण को साहा का समीकरण कहा जाता है। इस समीकरण ने खगोलभौतिकी की एक विशिष्ट शाखा की नींव रखी थी और यह प्लाज्मा के अध्ययन मे मील का पत्थर साबीत हुई है। लेखिका प्लाज्मा भौतिक वैज्ञानिक है, और इस लेख मे साहा के समीकरण और उसके इतिहास के बारे मे सहर्ष चर्चा कर रही है। चलीये साहा के समीकरण को समझते है और देखते है कि इस समीकरण ने तारों के वर्णक्रम के अध्ययन मे क्या भूमिका निभाई है।

इस शृंखला के सारे लेखों को पढने के लिये इस लिंक पर क्लिक करें।

संक्षिप्त इतिहास

1814 मे फ़्राउनहोफ़र रेखाओं की खोज ने तारों के वर्णक्रम के अध्ययन को जन्म दिया था। तारों का वर्णक्रम फ़्राउनहोफ़र वर्णक्रम के साधारण गुणधर्मो की व्याख्या करता है। सभी तारकीय(stellar) वर्णक्रम मे कुछ तत्वो की रेखाये अन्य तत्वो की रेखाओं की तुलना मे अधिक गहरी होती है। दिलचस्प रूप से उसी तत्व की रेखा की गहराई भिन्न तारों के वर्णक्रम मे सतत रूप से भिन्नता मे पाई जाती है।

यह भी पढ़े : विद्युत चुंबकीय (EM SPECTRUM) क्या है और वह खगोलभौतिकी (ASTROPHYSICS) मे महत्वपूर्ण उपकरण क्यों है ?

फ़्राउनहोफ़र रेखायें(The Fraunhofer Lines)

फ़्राउनहोफ़र रेखायें(The Fraunhofer Lines)

मेघनाद साहा

जिस समय परमाण्विक तथा विकिरण सिद्धांत अज्ञात था, खगोलभौतिक वैज्ञानिक वर्णक्रम रेखाओं मे भिन्नता को तारों के निर्माण के समय आरंभिक पदार्थ की संरचना मे भिन्नता का परिणाम मानते थे। लेकिन आज हम जानते है कि तारों के वर्णक्रम मे यह भिन्नता तापमान के अंतर के कारण है। इस लेख मे हम इतिहास मे झांखते हुये देखते है कि तारों के वर्णक्रम मे इस विविधता की पहेली को किस तरह एक भारतीय खगोलवैज्ञानिक मेघनाद साहा ने हल किया था।

1920 मे साहा के आयोनाइजेशन सिद्धांत ने बोह्र के परमाण्विक सिद्धांत के एक महत्वपूर्ण अनुप्रयोग की व्याख्या की थी। आयनोनाईजेशन एक ऐसी स्तिथि है जिसमे किसी परमाणु केंद्रक के आसपास मंडराते इलेक्ट्रान इतनी ऊर्जा प्राप्त कर लेते है कि वे केंद्रक से अलग हो जाते है या बहुत ही कमजोर रूप से बंधे रहते है। साहा ने एक गणितिय सूत्र प्रस्तावित किया था जो कि यह दर्शाता था कि किसी तारे के वातावरण मे इलेक्ट्रानो का ऊर्जा प्राप्त करना और परमाणुओं का आयोनाइजेशन वास्तविकता मे तारों की संरचना के अतिरिक्त तापमान और दबाव पर भी निर्भर करता है। साहा के इस समीकरण ने खगोलभौतिकी की एक नई शाखा की नींव रखी थी जिसे तारकीय(stellar) स्पेक्ट्रोस्कोपी कहते है। अब हम साहा के प्रसिद्धा कार्य साहा आयोनाइजेशन समीकरण को देखते है।

साहा के समीकरण का अर्थ

साहा का समीकरण तारों के वर्णक्रम आधारित वर्गीकरण(spectral classification) की व्याख्या करने के लिये क्वांटम यांत्रिकी(quantum mechanics) और सांख्यकिय यांत्रिकी(statistical mechanics) के मिश्रण का प्रभावी परिणाम है। यह समीकरण बताता है कि उष्मीय संतुलन(thermal equilibrium) किसी गैस मे आयोनाइजेशन की दर उस गैस के दबाव और तापमान पर निर्भर करती है।

साहा का समीकरण

साहा का समीकरण

साहा का समीकरण

यह समीकरण दर्शा रहा है कि किसी गैस मे आयोनाईजेशन भिन्न भौतिक कारको पर निर्भर है और ये कारक है :

  • आयोनाइजेशन ऊर्जा(Ionization energy): जब किसी गैस के तापमान मे वृद्धि होती है, आयोनाइजेशन की डीग्री(degree of ionization) तब तक निम्न रहती है जब तक आयोनाइजेशन ऊर्जा के गैस के तापमान से अधिक ना हो जाये।(जो कि घातांकी(exponential ) कारक से स्पष्ट है।)
  • तापमान(Temperature): उष्मीय संतुलन मे किसी गैस की आयोनाइजेशन की डीग्री(degree of ionization) अर्थात आयन के जनघनत्व(number density) तथा उदासीन परमाणु के जनघनत्व का अनुपात तापमान मे वृद्धि के साथ अचानक बढती है। इस के बाद गैस प्लाज्मा अवस्था मे पहुंच जाती है जोकि आयन, इलेक्ट्रान और कुछ उदासीन परमाणूओ से बनी होती है।
  • आयन का जनघनत्व(number density) : जब कोई परमाणु आवेशित होता है, वह किसे इलेक्ट्रान से मिलकर फ़िर से उदासीन हो सकता है। इसलिये जैसे ही इलेक्ट्रान की संख्या बढ़ती है, आयोनाइजेशन अनुपात कम होता है। सबसे सरल हायड्रोजन प्लाज्मा मे इलेक्ट्रान की संख्या और आयन की संख्या समान मानी जाती है। इसलिये जब प्लाज्मा मे आयन का जनघनत्व बढ़ता है, आयन के उदासीन होने की दर भी बढ़ती है। इससे आयोनाइजेशन अनुपात मे कमी होती है।
  • अब इस समीकरण का भौतिक महत्व समझने का प्रयास करते है।

साहा ने निर्देशित किया था कि किसी गैस की आयोनाइजेशन की डीग्री मे दबाव का अत्याधिक प्रभाव रहता है। इस तथ्य को इससे पहले नही माना गया था। उन्होने 1921 मे जब अपना शोधपत्र रायल सोसायटी मे प्रकाशित किया। इस शोधपत्र मे उन्होने इस सिध्दांत की सहायता से तारकीय वर्णक्रम की व्याख्या की थी। उन्ही के शब्दो मे

जब हम किसी तारे को हायड्रोजन, हिलियम या कार्बन तारा कहते है और यह कहने का प्रयास कर रहे होते है कि ये तत्व किसी तारे के मुख्य घटक है तब हम उन तारों के साथ न्याय नही कर रहे होते है। जबकि सही निष्कर्ष यह है कि उस तारे के वातावरण मे उपस्थित उद्दीपन कारको के प्रभाव मे विशिष्ट तत्व या एकाधिक तत्व उत्तेजित अवस्था मे होते है और अपनी गुणधर्म वाली वर्णक्रम रेखा से उपस्थिति दर्शाते है, जबकि अन्य तत्व या तो आयन अवस्था मे होते है या उद्दीपन इतना कम होता है कि उन तत्वो को पहचानने वाली गुणधर्म रेखा नही बन पाती है।
We are not justified in speaking of a star as a hydrogen, helium or carbon star, thereby suggesting that these elements for the chief ingredients in the chemical composition of the star. The proper conclusion would be that under the stimulus prevailing in the star, the particular element or elements are excited by radiation of their characteristic lines, while other elements are either ionized or the stimulus is too weak to excite the lines by which we can detect the element.

साहा का समीकरण यह भी दर्शाता है कि कोई गैस प्लाज्मा अवस्था अत्याधिक तापमान तथा आवेशित कणो के कम जनघनत्व पर प्राप्त करती है। इसी कारण से प्लाज्मा प्राक्रुतिक रूप से खगोलीय पिंडो मे पाई जाती है जिनपर तापमान लाखों डीग्री तथा परमाणुओं का जनघनत्व 1 परमाणु प्रति घन सेमी होता है। अपनी इस प्राकृतिक उपस्थिति के कारण प्लाज्मा को पदार्थ की चतुर्थ अवस्था माना जाता है।

लेखिका का संदेश

लेखिका प्लाज्मा भौतिकी वैज्ञानिक है और वे मानती है कि तारकीय वातावरण मे शोध, खगोलभौतिकी मे लोकप्रिय और सक्रिय विषयो मे से एक है। किसी तारे का वर्णकम वास्तविकता मे अत्याधिक सूचना प्रदान कर देता है जोकि किसी खगोलभौतिक वैज्ञानिक के लिये ब्रह्मांड के रहस्यो को खोलने मे अत्यावश्यक है। इस लेख के साथ हमने इस शृंखला का एक तिहाई भाग देख लिया है। अगले लेख मे हम किसी तारे के वातावरण और खगोलभौतिकी के आयोनाइजेशन सिद्धांतों के महत्व को और विस्तार से देखेंगे। उसके पश्चात हम अपने सबसे समीप के और सर्वाधिक शोध किये गये तारे की आधारभूत संरचना को देखेंगे, यह तारा है : हमारा अपना सूर्य।

मूल लेख : SAHA’S EQUATION AND ITS IMPORTANCE

लेखक परिचय

याशिका घई(Yashika Ghai)

संपादक और लेखक : द सिक्रेट्स आफ़ युनिवर्स(‘The secrets of the universe’)

लेखिका ने गुरुनानक देव विश्वविद्यालय अमृतसर से सैद्धांतिक प्लाज्मा भौतिकी(theoretical plasma physics) मे पी एच डी किया है, जिसके अंतर्गत उहोने अंतरिक्ष तथा खगोलभौतिकीय प्लाज्मा मे तरंग तथा अरैखिक संरचनाओं का अध्ययन किया है। लेखिका विज्ञान तथा शोध मे अपना करीयर बनाना चाहती है।

Yashika is an editor and author at ‘The secrets of the universe’. She did her Ph.D. from Guru Nanak Dev University, Amritsar in the field of theoretical plasma physics where she studied waves and nonlinear structures in space and astrophysical plasmas. She wish to pursue a career in science and research.

खगोल भौतिकी 11 : तारों का वातावरण

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लेखिका याशिका घई(Yashika Ghai)

अब तक आप तारों के वर्णक्रम के आधार पर वर्गीकरण तथा साहा के प्रसिद्ध समीकरण को जान चुके है। मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला के इस लेख मे हम आपको आसमान मे टिमटीमाते खूबसूरत तारों के वातावरण के बारे मे चर्चा करने जा रहे है। आयोनाइजेशन सिद्धांत के अनुसार हम यह जानने का प्रयास करते है कि तारकीय वातावरण मे होता क्या है ?

हम जानते है कि किसी तारे के वातावरण मे किसी विशिष्ट तत्व की उपस्थिति से उस तारे के वर्णक्रम मे कुछ विशिष्ट रेखाये बनकर उभरती है जो उपरोक्त चित्र मे स्पष्ट है। यह उस तारे की संरचना पर ही नही, उसके तारकीय तापमान पर भी निर्भर है। इस लेख मे हम जानने का प्रयास करेंगे कि आयोजाइजेशन सिद्धांत के प्रयोग से किस प्रकार खगोलभौतिकी वैज्ञानिक उस तारे की आंतरिक संरचना केवल उस तारे के वर्णक्रम को ही देखकर जान लेते है। हम यह भी देखेंगे कि तारों का वर्णक्रम आधारित वर्गीकरण(spectral classification) किस तरह से आयोनाइजेशन सिद्धांत पर आधारित है। सबसे पहले यह जानते है कि आयोनाइजेशन ऊर्जा(ionization energy) क्या है ?

आयोनाइजेशन ऊर्जा(ionization energy) क्या है ?

किसी धात्विक गैस के बाह्य इलेक्ट्रानो को परमाणु से हटाने के लिये लगने वाली न्यूनतम ऊर्जा आयोनाइजेशन ऊर्जा कहलाती है। कुछ तत्वो की आयोनाइजेशन ऊर्जा अधिक होती है, जबकी कुछ धातुओं की आयोनाइजेशन ऊर्जा कम होती है। नीचे दिया गया चित्र विभिन्न तत्वो की आयोनाइजेशन ऊर्जा मे विचलन को दर्शा रहा है।

आयोनाइजेशन सिद्धांत ने “कल्पना युग (age of imagination)” से “प्रायोगिक विज्ञान युग (age of experimental science)” की ओर जाने का का मार्ग प्रशस्त किया है। इस सिद्धांत ने ही हार्वर्ड वर्गीकरण के O से M वर्ग के वर्णक्रमों को वास्तविकता मे तापमान आधारित क्रम के रूप सिद्ध किया है। अब तारों की संरचना और तापमान को आयोनाइजेशन सिद्धांत के आधार पर देखते है। सबसे पहले तारो को दो श्रेणीयों मे विभाजित करते है और उनमे आयोनाइजेशन प्रक्रिया को समझते है।

कम तापमान वाले तारे(Low-Temperature Stars)

केवल शीतलतम तारे ही अणुओं(molecules) से संबधित वर्णक्रम पट्टा(spectral bands) बना सकते है। ये अणु हायड्रोकार्बन(CH), सायनोजेन(CN), कार्बन अणु, टाइटेनियन आक्साईड(TiO) इत्यादि हो सकते है। ये अणु केवल शीतलीकृत वातावरण मे ही टूटे बगैर रह सकते है। इसलिये लाल और पीले रंग के तारे जिनकी सतह पर तापमान कम होता है, इन अणुओं वाले वर्णक्रम पट्टे दिखाते है।

धातुओं की आयोनाइजेशन और उद्दीपन(excitation) ऊर्जा कम होती है। शीतल तारो मे इन धात्विक रेखाओं के उद्दीपन के लिये पर्याप्त ऊर्जा होती है। इसलिये कम तापमान वाले तारों के वर्णक्रम मे प्राकृतिक धातुओं को दर्शाने वाली रेखायें होती है।

उच्च तापमान वाले तारे(High-Temperature Stars)

अब हम कम तापमान वाले तारो से उच्च तापमान वाले तारों के वर्णक्रम की ओर जाते है। इनमे उदासीन धात्विक वर्णक्रम रेखाये कमजोर होते जाती है, जबकी आयनीकृत धात्विक रेखाये गहरी होते जाती है। इसके पीछे अधिक तापमान पर धातुओं का आंशिक रूप से आयनीकृत होना है। उदाहरण के लिये कैल्शीयम-I की वर्णक्रम रेखा शीतल M तारों मे दिखाई देती है, जबकि कैल्शीयम II की वर्णक्रम रेखा उष्ण K या G तारों मे पाई जाती है।

हिलियम रेखाओं के संबध मे हिलियम की आयोनाईजेशन ऊर्जा सर्वाधिक है। इसलिये हिलियम की वर्णक्रम रेखायें अत्याधिक तापमान वाले तारों मे ही दिखाई देती है। हिलियम I की रेखाये अत्याधिक उच्च तापमान वाले तारे जैसे वर्ग B के तारों मे ही दिखाई देती है।

उदासीन और आयोनाइज्ड हिलियम, आक्सीजन , कार्बन , नाइट्रोजन और नीआन की विभिन्न आयनोईजेशन अवस्थाओं वाली रेखा केवल O वर्ग के तारों मे दिखाई देती है।

लेखिका का संदेश

इससे पिछले और इस लेख का उद्देश्य तारकीय वातावरण का परिचय था। इसके पिछले वाले लेख मे हमने साहा समीकरण द्वारा ब्रह्माण्ड मे तारे के रहस्यो को तोड़ने मे महत्व को देखा था। तारकीय वातावरण मे शोध यह खगोलभौतिकी मे अधिक कार्य किया जाने वाला विषय है। यह एक विस्तृत विषय है और इसके लिये प्लाज्मा भौतिकी की जानकारी आवश्यक है। इस लेख मे हमने केवल तारे के वातावरण का परिचय देखा है। इस विषय पर चर्चा हम यहीं पर रोकेंगे और शृंखला मे आगे बढ़ेंगे। हम मानते है कि ये दो लेख कठीन और जटिल थे, लेकिन यह खगोलभौतिकी की रीढ़ है।

मूल लेख : THE ATMOSPHERE OF STARS

लेखक परिचय

याशिका घई(Yashika Ghai)

संपादक और लेखक : द सिक्रेट्स आफ़ युनिवर्स(‘The secrets of the universe’)

लेखिका ने गुरुनानक देव विश्वविद्यालय अमृतसर से सैद्धांतिक प्लाज्मा भौतिकी(theoretical plasma physics) मे पी एच डी किया है, जिसके अंतर्गत उहोने अंतरिक्ष तथा खगोलभौतिकीय प्लाज्मा मे तरंग तथा अरैखिक संरचनाओं का अध्ययन किया है। लेखिका विज्ञान तथा शोध मे अपना करीयर बनाना चाहती है।

Yashika is an editor and author at ‘The secrets of the universe’. She did her Ph.D. from Guru Nanak Dev University, Amritsar in the field of theoretical plasma physics where she studied waves and nonlinear structures in space and astrophysical plasmas. She wish to pursue a career in science and research.

खगोल भौतिकी 12 : हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख(THE HERTZSPRUNG RUSSELL DIAGRAM)

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लेखक : ऋषभ

जब आप खगोलभौतिकी का अध्ययन करते है, विशेषत: तारो का तो यह असंभव है कि आपने हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख(THE HERTZSPRUNG RUSSELL DIAGRAM) ना देखा हो। ’मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला के बारहवें लेख मे हम खगोल विज्ञान के सबसे महत्वपूर्ण आरेख HR आरेख के बारे मे जानेंगे। यह सबसे महत्वपूर्ण आरेख क्यों है ? प्रथम आप इसमे ब्रह्मांड के सभी तारों को इस पर चित्रित कर सकते है और द्वितिय इस आरेख मे तारे के संपूर्ण जीवन चक्र को चित्रित किया जा सकता है। अब हम हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख और इसके खगोलभौतिकी मे अनुप्रयोगो को देखते है।

हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख(THE HERTZSPRUNG RUSSELL DIAGRAM)

ब्रह्मांड मे एक अनुमान के आधार पर ट्रिलीयन ट्रिलियन(1024) तारे है। हर तारा अपने आप मे अद्वितिय है, हर तारे का अपना भिन्न द्रव्यमान, सतही तापमान, आकार, घनत्व, सतह पर घनत्व इत्यादि है। जब खगोलवैज्ञानिक तारों का अध्ययन कर रहे थे तो उन्होने इन तारों के मध्य एक विशिष्ट पैटर्न देखा। वे चाहते थे कि एक ऐसा आरेख(graph) बनाया जाये जिसमे ब्रह्मांड के हर तारे को चित्रित किया जा सके। हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख एक ऐसा ही आरेख है। यह उपर दिखाये गये चित्र के अनुसार बिंदु आरेख(scatter graph) है।

हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख के अक्ष(Axes of HR Diagram)

हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख  के अक्ष(Axes of HR Diagram)

हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख के अक्ष(Axes of HR Diagram)

जब भी आप कोई आरेख बनाते है तो सबसे पहले आपको उसके अक्षो को परिभाषित करना होता है। हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख के अक्ष मे Y अक्ष दीप्ती(Luminosity) का प्रतिनिधित्व करता है जो कि Y के मूल्य के साथ बढ़ती जाती है। दीप्ती(Luminosity) किसी तारे का कुल ऊर्जा उत्पादन होता है। इसकी चर्चा हमने इस शृंखला के आंठवे आलेख ’खगोलभौतिकी मे परिमाण (MAGNITUDE) की अवधारणा’ मे की है। वैकल्पिक रूप से दीप्ती को मोटे तौर पर किसी पिंड की चमक के रूप मे भी परिभाषित कर सकते है। खगोलभौतिकी मे हम चमक को परिमाण (magnitude)के रूप मे मापते है। यह एक ऐसी संख्या है जो बताती है कि कोई पिंड कितना चमकदार है। यह संख्या जितनी छोटी होगी, पिंड उतना अधिक चमकदार होगा। इस आरेख मे जैसे हम उपर जाते है(Y मे वृद्धि), परिमाण कम होता है और दीप्ती मे वृद्धि होती है।

तारे के रंग और सतह के तापमान के मध्य संबंध( The relation between a star's color and surface temperature)

तारे के रंग और सतह के तापमान के मध्य संबंध( The relation between a star’s color and surface temperature)

अब हम x अक्ष पर आते है। यह तारे की सतह तापमान का प्रतिनिधित्व करता है। इस शृंखला के नवम लेख ’तारों का वर्णक्रम के आधार पर वर्गीकरण (SPECTRAL CLASSIFICATION)’ मे हमने देखा था कि तारों को उनके सतह के तापमान के आधार पर सात मुख्य वर्गो मे रखा जा सकता है। तारों की सतह के तापमान के घटते क्रम मे यह वर्ग है O,B,A,F,G,K तथा M। अब आप ध्यान मे रखिये कि इस आरेख मे x के मूल्य मे वृद्धि के साथ सतह का तापमान घटता है। चित्र मे नीले तीर पर ध्यान दिजिये। उष्णतम O वर्ग के तारे इस आरेख मे बायें है जबकि शितलतम K तथा M तारे दायें भाग मे है।

आरेख मे तारों का अंकन(Plotting The Stars On The Diagram)

इस आरेख मे अक्षो को समझने के पश्चात हम ब्रह्मांड के किसी भी तारे को लेकर इस आरेख मे अंकित कर सकते है। इस आरेख मे हर बिंदु एक तारे का प्रतिनिधित्व कर रहा है। ध्यान दिजिये कि इस आरेख मे तारे समूहों के रूप मे दिख रहे है। अब हम इन समूहों को देखते है।

समूह (Group) A

सर्वाधिक तारे समूह A मे के भाग प्रतित होते है। इन तारों को मुख्य अनुक्रम के तारे(the Main Sequence stars) कहते है।एक मुख्य अनुक्रम का तारा अपने केंद्रक मे हायड्रोजन के संलयन से हिलियम का निर्माण कर रहा होता है। हमारा सूर्य भी एक मुख्य अनुक्रम का तारा है और समूह A का सदस्य है, इसकी सतह का तापमान लगभग 5,900 K है। इसका अर्थ यह है कि यह G वर्ग का तारा है। सूर्य का निरपेक्ष कांतिमान (absolute magnitude)+4.8 है। हम सूर्य के दोनो कारको को जानते है और उसे आसानी से आरेख मे अंकित कर सकते है। मुख्य अनुक्रम के अन्य तारों मे अल्फ़ा सेंटारी (alpha centuri) और लुब्धक(Sirius) भी है।

समूह (Group) B

अपनी सारी हाइड्रोजन को हिलियम मे जलाने के बाद तारे मुख्य अनुक्रम पट्टे से बाहर चले जाते है। अधिकतर तारे लाल दानव(red giants) बन जाते है और समूह B मे आ जाते है। लाल दानव का अर्थ है तारे की सतह का तापमान कम हो रहा है(वे K या M वर्ग मे है) लेकिन उसकी दीप्ती या ऊर्जा उत्पादन बढ़ रहा है। तो अब तारा आरेख मे कहाँ जायेगा ? यह तारा X अक्ष मे दायें और Y अक्ष मे उपर की ओर जायेगा अर्थात तापमान मे कमी और दीप्ती मे वृद्धि। इस क्षेत्र को लाल दानव शाखा(Red Giant Branch) कहते है। समूह B के कुछ परिचित तारे अल्डेबरान(Aldebaran) और मिरा(Mira) है।

समूह (Group) C

समूह C के तारे दानव तारों से भी अधिक दीप्तीमान होते है। इन्हे महादानव(supergiants) कहते है , ऐसे तारे जिनकी दीप्ती अत्याधिक ज्यादा है। बीटलगुज(Betelgeuse) के जैसे महादानव तारे इतने विशाल है कि यदि उन्हे सूर्य की जगह रखे तो इनका आकार बृहस्पति(Jupiter) की कक्षा से भी बाहर चला जायेगा। ध्यान दिजिये कि दानव और महादानव का x अक्ष साझा है, लेकिन Y अक्ष अलग है क्योंकि उनकी दीप्ती अधिक है। लेकिन नीले महादानव तारे इसका अपवाद है जो कि चित्र के उपरी बायें कोने मे है, उनकी सतह का तापमान अधिक होता है।

समूह (Group) D

समूह D के तारे श्वेत वामन(white dwarfs) कहलाते है। यदि आप इन तारों को आरेखे मे देखे तो इनके गुणो को आसानी से जान जायेंगे। यह आरेख मे बायें नीचे है, आप देख सकते है कि इनकी सतह का तापमान अधिक है और रंग नीला सफ़ेद है। ये आरेख के निचले भाग मे है अर्थात इनकी दीप्ती या ऊर्जा उत्पादन कम है। ये गुण न्युट्रान तारों और श्वेत वामन तारों के है। ये वास्तविकता मे मृत तारे है।

हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख(THE HERTZSPRUNG RUSSELL DIAGRAM)

मूल लेख :THE HERTZSPRUNG RUSSELL DIAGRAM

लेखक परिचय

लेखक : ऋषभ

Rishabh Nakra

Rishabh Nakra

लेखक The Secrets of the Universe के संस्थापक तथा व्यवस्थापक है। वे भौतिकी मे परास्नातक के छात्र है। उनकी रूची खगोलभौतिकी, सापेक्षतावाद, क्वांटम यांत्रिकी तथा विद्युतगतिकी मे है।

Admin and Founder of The Secrets of the Universe, He is a science student pursuing Master’s in Physics from India. He loves to study and write about Stellar Astrophysics, Relativity, Quantum Mechanics and Electrodynamics.

खगोल भौतिकी 13 :सूरज की संरचना – I

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लेखिका याशिका घई(Yashika Ghai)

मंदाकिनी आकाशगंगा(The Milky way) मे लगभग 1 खरब तारे है। हमारे लिये सबसे महत्वपूर्ण तारा सूर्य है। यह वह तेजस्वी तारा है जिसकी परिक्रमा पृथ्वी अन्य ग्रहों के साथ करती है। आज इस लेख मे हम सूर्य को करीब से जानेंगे। ’मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला के तेरहंवे लेख मे हम सूर्य की संरचना और रूपरेखा मे बारे मे जानकारी प्राप्त करेंगे।

इस शृंखला के सारे लेखों को पढने के लिये इस लिंक पर क्लिक करें।

सूर्य हमारे सबसे समीप का तारा है, जिससे हम इस तारे के बारे विस्तार से जानने और अध्ययन करने के अधिक मौके मिले है। यह अकेला तारा है जिसे हम डिस्क के रूप मे देख पाते है, जबकि अन्य तारे हमे केवल बिंदु रूप मे ही दिखते है। आधुनिक परिष्कृत उपकरण और कार्यकुशल निरीक्षण तकनीक ने हमे सूर्य के वास्तविक भौतिक गुणधर्मो के अध्ययन के अवसर प्रदान किये है। लेकिन हम सूर्य के वातावरण और उसकी उग्र बाह्य परतो को ही देख पाते है। वैज्ञानिक भौतिकी के नियमों और सूर्य की बाह्य परतो के अध्ययन को जोड़ कर उसकी आंतरिक परतो के बारे मे अनुमान लगाते है। इस लेख मे हम सूर्य की संरचना, घटको और उसमे चलरही भिन्न गतिविधियों का संक्षिप्त परीचय देखेंगे।

सूर्य की संरचना

इसके पहले वाले लेख मे हमने हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख(THE HERTZSPRUNG RUSSELL DIAGRAM) की चर्चा की है। इसके अनुसार वर्णक्रम आधारित वर्गीकरण के अनुसार सूर्य G वर्ग का मुख्य अनुक्रम का तारा है। इसे अनौपचारिक रूप से पीला वामन(yellow dwarf) तारा भी कहते है। इसमे 73% हायड्रोजन और 25% हिलियम है। सूर्य के अंदर अन्य भारी तत्व जैसे आक्सीजन, कार्बन , निआन और लोहा अत्यल्प मात्रा मे मौजूद है।

सूर्य की विभिन्न परतें

सूर्य के दोनो मुख्य क्षेत्र है, आंतरिक तथा बाह्य क्षेत्र। आंतरिक क्षेत्र सौर केंद्रक(solar core) तथा उसके पश्चात क्रमश: विकिरण क्षेत्र (radiation) तथा संवहण(convective) क्षेत्र से बना हुआ है। सौरकेंद्रक मे तापनाभिकिय प्रक्रियायें चलते रहती है। यही प्रक्रियायें ही सूर्य की प्रचुर ऊर्जा का स्रोत है। इस आंतरिक क्षेत्र के बाहर का क्षेत्र सौर वातावरण है, जिसके भाग है , फोटोस्फ़ियर( photosphere), क्रोमोस्फ़ियर( chromosphere), संक्रमण क्षेत्र(transition) और प्रभामंडल या कोरोना(corona)।

सूर्य की संरचना

सूर्य की संरचना

फोटोस्फियर(Photosphere)

इस क्षेत्र के नाम से ही स्पष्ट है कि फोटोस्फियर सूर्य का दृश्य क्षेत्र है। इसी क्षेत्र से निकलने वाला प्रकाश सौर वातावरण के भागो को प्रकाशित करता है। सौर वातावरण मे फोटोस्फियर के बाद का अगला क्षेत्र फोटोस्फ़ियर की तीव्र चमक के कारण अदृश्य है। सूर्य पर चुंबकीय क्षेत्र के प्रभाव से उत्पन्न सौर कलंक(sunspots) इसी क्षेत्र मे उत्पन्न होते है। इस क्षेत्र का तापमान 5770 K-5780 K के मध्य होता है।

क्रोमोस्फीयर(The Chromosphere)

क्रोम का अर्थ है रंग, और क्रोमोस्फियर नाम के अनुसार यह क्षेत्र हल्की गुलाबी या हल्की लाल आभा लिये होता है। इस क्षेत्र का घनत्व अत्यंत कम अर्थात पृथ्वी के समुद्र सतह के वातावरण से 8-10 गुणा होता है और इसे केवल सूर्यग्रहण के समय ही देखा जा सकता है। इस क्षेत्र का तापमान लगभग 20,000 K होता है।

संक्रमण क्षेत्र(Transition Region)

क्रोमोस्फियर के बाद संक्रमण क्षेत्र आता है। इस क्षेत्र मे तापमान अचानक ही 20,000 K से बढ़कर 1,000,000 K तक हो जाता है। इस क्षेत्र को पृथ्वी से देखा नही जा सकता है। लेकिन इसे अंतरिक्ष के उपग्रहों द्वारा पराबैंगनी(ultraviolet) वर्णक्रम के लिये संवेदी उपकरणो द्वारा आसानी से देखा जा सकता है।

प्रभामंडल(The Corona)

सूर्य का सबसे बाह्य क्षेत्र प्रभामंडल या कोरोना है। यह क्रोमोस्फ़ियर का सहज विस्तार है लेकिन गुणधर्मो के अत्याधिक भिन्न है। कोरोना को सूर्यग्रहण के समय स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह सूर्य के आंतरिक भाग के को घेरे हुये एक आभामंडल के जैसे दिखाई देता है। इस क्षेत्र का बाह्य भाग सूर्य की डिस्क से बहुत दूर तक ग्रहों के मध्य के अंतरिक्ष तक देखा जा सकता है। इसका तापमान दस लाख डीग्री केल्विन तक होता है। यह एक विसंगति है। इस संरचना मे स्रोत का तापमान अत्यंत कम है लेकिन वह इस क्षेत्र को इतना अधिक उष्ण कैसे कर देता है ? अपेक्षाकृत 5900 K तापमान के शीतल फोटोस्फियर से उष्मा प्रवाहित होकर प्रभामंडल को दस लाख डीग्री केल्विन तक कैसे उष्ण कर देती है ? प्रभामंडल को उष्णता प्रदान करने का स्रोत कुछ और होना चाहीये। खगोलभौतिकी की अनसुलझी पहेलीयो मे से एक है : सौर प्रभामंडल का उष्ण होने की पहेली।

सूर्यग्रहण के दौरान लिया गया प्रभामंडल का चित्र

सूर्यग्रहण के दौरान लिया गया प्रभामंडल का चित्र

मानव प्रभामंडल के बारे मे शताब्दियों से जानकारी रखता है लेकिन उसे इसकी वास्तविकता और प्रकृति के बारे मे जानकारी नही थी। वैज्ञानिको को पहले यह केवल एक दृष्टिभ्रम ही लगता था। यहाँ तक कि केप्लर जैसे खगोलवैज्ञानिक इसकी वास्तविक प्रकृति से अनजान थे। 1869 मे अमेरीकन खगोलशास्त्री डब्ल्यु हार्कनेस(W. Harkness) तथा सी ए यंग(C. A. Young) ने पहली बार सौर प्रभामंडल के वर्णक्रम का अध्ययन किया। इसके बाद 1930 मे फ़्रेंच भौतिक वैज्ञानिक बी लायट(B. Lyot) ने क्रोनोग्राफ़ उपकरण के द्वारा प्रभामंडल का प्रथम चित्र लिया। इसी क्षेत्र मे सौर ज्वाला(solar prominence) जैसी संरचनाये दिखाई देती है।

स्कायलैब (Skylab) द्वारा 1973 मे लिया गया सौर ज्वाला का चित्र

स्कायलैब (Skylab) द्वारा 1973 मे लिया गया सौर ज्वाला का चित्र

लेखिका का संदेश

इस लेख के द्वारा खगोलभौतिकी लेख शृंखला मे हमने एक नई शाखा सौर भौतिकी (Solar Physics) का परिचय कराया है। लेखिका प्लाज्मा भौतिक वैज्ञानिक है और उन्होने अल्फ़वेन तरंगो(Alfven waves) का अध्ययन किया है जोकि सौर प्रभामंडल के असामान्य रूप से उष्ण होने के लिये संभावित रूप से उत्तरदायी हो सकती है। यदि आप सूर्य की संरचना को गहराई से जानना चाहते है तो आपको विद्युतगतिकी(Electrodynamics) तथा प्लाज्मा भौतिकी का ज्ञान होना आवश्यक है। इस शृंखला के अगले लेख मे हम सूर्य की सतह के कुछ गुणधर्मो जैसे सौर कलंक(Sunspots), सौर ज्वाला(Solar Flares) के बारे मे जानकारी प्राप्त करेंगे।

मूल लेख : THE STRUCTURE OF SUN – I

लेखक परिचय

याशिका घई(Yashika Ghai)

संपादक और लेखक : द सिक्रेट्स आफ़ युनिवर्स(‘The secrets of the universe’)

लेखिका ने गुरुनानक देव विश्वविद्यालय अमृतसर से सैद्धांतिक प्लाज्मा भौतिकी(theoretical plasma physics) मे पी एच डी किया है, जिसके अंतर्गत उहोने अंतरिक्ष तथा खगोलभौतिकीय प्लाज्मा मे तरंग तथा अरैखिक संरचनाओं का अध्ययन किया है। लेखिका विज्ञान तथा शोध मे अपना करीयर बनाना चाहती है।

Yashika is an editor and author at ‘The secrets of the universe’. She did her Ph.D. from Guru Nanak Dev University, Amritsar in the field of theoretical plasma physics where she studied waves and nonlinear structures in space and astrophysical plasmas. She wish to pursue a career in science and research.

खगोल भौतिकी 14 :सूर्य की संरचना 2 –सौरकलंक, सौरज्वाला और सौरवायु

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लेखिका याशिका घई(Yashika Ghai)

पिछले लेख मे हमने अपने सौर परिवार के सबसे बड़े सदस्य सूर्य की संरचना का परिचय प्राप्त किया था। । ’मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला के चौदहवें लेख मे हम सूर्य की संरचना की अधिक जानकारी प्राप्त करेंगे। इस लेख मे हम सूर्य की संरचना और उसकी सतह पर सतत चल रही कुछ अद्भूत गतिविधियों को जानेंगे।

इस शृंखला के सारे लेखों को पढने के लिये इस लिंक पर क्लिक करें।

सौर कलंक/सूर्यधब्बे(Sunspots)

सूर्य के फोटोस्फियर मे चलने वाली गतिविधियों मे सबसे हटकर दिखाई देने वाली गतिविधि सौरकलंक है। सौरकलंक सूर्य के वह क्षेत्र है जहाँ चुंबकीय क्षेत्र अत्याधिक शक्तिशाली होता है और तापमान कम। किसी सौरकलंक का तापमान 3800 K हो सकता है जो कि आसपास के फोटोस्फियर तापमान से 2000 K कम है। यही कारण है कि सौर कलंक दीप्तीमान फोटोस्फियर पृष्ठभूमी मे गहरे धब्बो की तरह दिखाई देते है।

सौरकलक, सूर्य धब्बे(Sunspots)

सौरकलक, सूर्य धब्बे(Sunspots)

सौरकलंक का प्रथम निरीक्षण

1610 मे गैलेली गलीलीयो ने अपनी नई खोज दूरबीन से सौरकलंको को प्रथम बार देखा था। अठारवी सदी के अंत तथा उन्नीसवीं सदी के आरंभ खगोलवौज्ञानिक इन्हे सूराख(hole) समझते थे। वे मानते थे कि सौरकलंक ऐसी खिड़कीया है जिनके द्वारा सूर्य की आंतरिक संरचना को देखा जा सकता है। अब हम जानते है कि यह सब विचित्र कल्पना मात्र थी। लेकिन उस समय ऐसी कल्पनाओं पर विश्वास करना आसान था।

सौरकलंक आरंभ के लगभग 1,000 km व्यास के क्षेत्र से आरंभ होता है। उसका आकार और आकृति धीमे धीमे उसके विस्तार के साथ बदलती है। एक पूर्णत: व्यस्क सौर कलंक के दो स्पष्ट भाग होते है। ये भाग है आंतरिक गहरा भाग प्रच्छाया(umbra ) और बाह्य हल्के रंग का उपच्छाया(penumbra )।

आंतरिक गहरा भाग प्रच्छाया(umbra ) और बाह्य हल्के रंग का उपच्छाया(penumbra )

आंतरिक गहरा भाग प्रच्छाया(umbra ) और बाह्य हल्के रंग का उपच्छाया(penumbra )

सौर कलंक वास्तविकता मे संकेन्द्रित चुम्बकीय अभिवाह(concentrated magnetic flux) के क्षेत्र है। यह सामान्यत: युग्म मे विपरीत चुंबकीय ध्रुवो के साथ उत्पन्न होते है। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि सौरकलंको की संख्या 11.2 वर्ष के सौर चक्र के अनुसार बदलते रहती है।

सौर चक्र सौर गतिविधियों का काल होता है। इस काल मे सूर्य का चुंबकिय ध्रुव परिवर्तित होता है। इस चक्र के चरम पर सूर्य पर चुंबकीय तुफ़ान आते है। इस समय वह सौरकलंक और सौर ज्वाला(solar flares) उत्पन्न करता है जोकि पृथ्वी की ओर प्लाज्मा की धारा प्रवाहीत करते रहता है। सौर तुफ़ानो से मौसम की भविष्यवाणी करने वाले तथा जीपीएस प्रणाली के उपग्रह को क्षति पहुंचती है। इसी के साथ रेडीयो, संचार प्रणाली तथा ध्रुवो के उपर से उड़ान भरने वाले विमानो के कंप्युटर भी प्रभावित होते है।

सौर ज्वाला (Solar Prominence)

सूर्यग्रहण के दौरान सूर्य की ली गई तस्वीरों मे क्रोमोस्फियर से प्रभामंडल(corona) तक उठती हुई लाल लपटे देखी जा सकती है। ये लाल चमक वाली लपटे वलय रूप मे प्लाज्मा ही होती है जिसे सौर ज्वाला कहते है। ये सूर्य पर चल रही गतिविधियों मे महत्वपूर्ण गतिविधियो मे से एक है। सौर ज्वाला विशाल वलयाकार सूर्य की सतह से निकलकर प्रभामंडल तक पहुंचने वाली चमकदार संरचना है। सौर ज्वाला सामान्यत: कुछ दिनो तक रहती है। स्थिर सौर ज्वालायें महिनो तक प्रभामंडल मे बनी रह सकती है। सौर ज्वालाये अंतरिक्ष मे हजारो किमी दूर तक जाकर वापिस सूर्य की सतह तक वलय बनाती है, इनकी उंचाई पृथ्वी के व्यास का भी कई गुणा होती है।

सूर्य का आंतरिक डायनेमो चुंबकीय क्षेत्र बनाता है। सौर ज्वालाओं का प्लाज्मा इन चुंबकीय रेखाओ मे मोड़ के कारण वलय बनाती है। यह प्लाज्मा मुख्यत: विद्युत रूप से आवेशित हायड्रोजन और हिलियम की होती है। इन सौर ज्वालाओं मे विस्फोट चुंबकीय क्षेत्र मे अस्थिरता आने से होता है। तब यह विस्फोट बाहर की ओर प्लाज्मा को अंतरिक्ष मे धकेल देता है।

सौर ज्वाला (Solar Prominence)

सौर ज्वाला (Solar Prominence)

सौर वायु(Solar Wind)

हम सब जानते है कि सूर्य सभी तरंगदैधर्य मे विद्युत चुंबकीय विकिरण उत्सर्जित करता है। हमने इससे पहले चर्चा की है कि सौरचक्र के चरम मे सूर्य अत्यंत तीव्र गति की प्लाज्मा कणो की धारा भी पृथ्वी की ओर प्रवाहित करता है जिसे सौर वायु कहते है। सौर वायु के प्रमुख घटक इलेक्ट्रान और प्रोटान होते है। इस वायुधारा के गुण लगातार परिवर्तित होते रहते है। सूर्य पर वायु के उद्गम स्थल के अनुसार भी इसमे परिवर्तन आते रहते है। प्रभामंडल के छीद्रो(coronal holes) पर इसकी गति अधिक होती है, इन स्थलो पर इसकी गति 800 किमी/सेकंड होती है।

हमारी पृथ्वी पर इन ऊर्जावान कणो की सतत बरसात होते रहती है। पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र सौर वायु को पृथ्वी की सतह तक पहुंचने से बचाता था। यह चुंबकीय क्षेत्र इन कणो को ध्रुविय क्षेत्रो की ओर मोड़ देता है। इन्ही आवेशित कणो के कारण ध्रुवो पर खूबसूरत ध्रुवीय ज्योति, या मेरुज्योति (Auroras)बनती है। जिस स्थान पर पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र इन आवेशित कणो से टकराता है उस स्थल पर एक धनुष के आकार का झुकाव(bow shock) बनता है।

लेखिका का संदेश

हम भौतिकी के मूलभूत नियमों को प्रकृति के निरीक्षण से समझ सकते है। यह एक रोचक तथ्य है कि प्रकृति के निरीक्षण से ही मानव के लाभ के लिये नई तकनिके विकसीत की जा सकती है। सौर ज्वालाओं का अध्ययन भी एक ऐसा उदाहरण है। सौर ज्वालाओं की वलयाकार आकृति ने सूर्य की मजबूत चुंबकीय रेखाओं की उपस्तिथि दिखाई थी। नाभिकिय भौतिकी वैज्ञानिक इसी आधार पर संलयन रियेक्टरो मे वलय बनाने वाली चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं से प्लाज्मा को परिरोधित रखने का प्रयास कर रहे है। यदि यह प्रयोग सफ़ल हो जाता है तो मानव के पास प्रदुषण रहित अनंत ऊर्जा का स्रोत होगा और नाभिकिय ऊर्जा के एक नये युग का आरंभ!

मूल लेख : STRUCTURE OF SUN – SUNSPOTS, PROMINENCES AND SOLAR WIND

लेखक परिचय

याशिका घई(Yashika Ghai)

संपादक और लेखक : द सिक्रेट्स आफ़ युनिवर्स(‘The secrets of the universe’)

लेखिका ने गुरुनानक देव विश्वविद्यालय अमृतसर से सैद्धांतिक प्लाज्मा भौतिकी(theoretical plasma physics) मे पी एच डी किया है, जिसके अंतर्गत उहोने अंतरिक्ष तथा खगोलभौतिकीय प्लाज्मा मे तरंग तथा अरैखिक संरचनाओं का अध्ययन किया है। लेखिका विज्ञान तथा शोध मे अपना करीयर बनाना चाहती है।

Yashika is an editor and author at ‘The secrets of the universe’. She did her Ph.D. from Guru Nanak Dev University, Amritsar in the field of theoretical plasma physics where she studied waves and nonlinear structures in space and astrophysical plasmas. She wish to pursue a career in science and research.


खगोल भौतिकी 16 :युग्म तारा प्रणाली(THE BINARY STAR SYSTEMS)

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लेखिका:  सिमरनप्रीत (Simranpreet Buttar) जैसे हमारे भाई/बहन होते है, वैसे ही हमारे ब्रह्मांड मे अधिकतर तारों के भाई/बहन होते है। हमारे सौर मंडल जिसमे हमारा सूर्य अकेला है वास्तविकता मे यह एक दूर्लभ संयोग है। अधिकतर तारों के साथ उनके जुड़वा होते है। ’मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला के सोलहंवे लेख मे हम युग्म…

खगोल भौतिकी 17 : तारों मे चल रही नाभिकिय प्रक्रियायें(NUCLEAR REACTIONS IN STARS)

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लेखक : ऋषभ तारों के जीवन और विकास के अध्ययन पर आगे बढ़ने से पहले से पहले उनपर चलरही नाभिकिय अभिक्रियाओं को जानना महत्वपूर्ण है। तारकीय खगोलभौतिकी के अध्ययन मे भौतिकी के अन्य विषय जैसे नाभिकिय भौतिकी(nuclear physics), उष्मागतिकी(thermodynamics), कण भौतिकी(particle physics), विद्युतगतिकी(electrodynamics), सांख्यकिय यांत्रिकी(statistical mechanics) तथा गुरुत्विय भौतिकी(gravitational physics) की भी भूमिका होती है।…

खगोल भौतिकी 18 :श्वेत वामन(WHITE DWARFS) क्या होते है और वे कैसे बनते है ?

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लेखक : ऋषभ इस शृंखला के पिछले सत्रह लेखों मे हमने जो जानकारी प्राप्त की है, अब उस जानकारी के अनुप्रयोग का समय है। हमने एक के बाद खगोलभौतिकी के विभिन्न सिद्धांतो को समझा है। अब हम उन सिद्धांतो के प्रयोग से खगोल भौतिकी की सबसे रोचक शाखा ‘तारकीय विकास(Stellar Evolution)’ को समझेंगे। ब्रह्माण्ड मे…

देश की स्वास्थ्य रक्षा के लिए जरूरी है जीनोम मैपिंग

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हाल ही में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) द्वारा एक परियोजना के तहत भारत के एक हजार ग्रामीण युवाओं के जीनोम की सिक्वेंसिंग (अनुक्रमण) किए जाने की योजना तैयार की गई है। दरअसल यह सरकारी नेतृत्व में जीनोम सिक्वेंसिंग के लिए चलाई जा रही एक बड़ी परियोजना का एक हिस्सा होगी, जिसके अंतर्गत लगभग…

खगोल भौतिकी 21 : सुपरनोवा और उनका वर्गीकरण

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लेखिका:  सिमरनप्रीत (Simranpreet Buttar) जब भी हम रात्रि आकाश मे देखते है, सारे तारे एक जैसे दिखाई देते है, उन तारों से सब कुछ शांत दिखाई देता है। लेकिन यह सच नही है। यह तारों मे होने वाली गतिविधियों और हलचलो की सही तस्वीर नही है। तारों की वास्तविक तस्वीर भिन्न होती है। हर तारा…
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